Monday, May 16, 2016

कोणार्क


  •  विश्व प्रसिद्ध कोणार्क के सूर्य मन्दिर को भारत के प्रमुख धर्मस्थलों में से प्रमुख धर्मस्थल एवं तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है। कोणार्क   का अर्थ सूर्य का कोना होता है।  इस मन्दिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है। इस मन्दिर में प्रदर्शित रथ में बारह जोड़े विशाल पहिये लगे हुए हैं और इसे सात शक्तिशाली घोड़े खींचते हुए दिखाए गए हैं। कल्पना के अनुरूप ही इस मन्दिर की भव्यता भी दृष्टिगत होती है। यह मन्दिर भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में अपनी निर्माण कला ,भव्यता एवं मूर्तिकला की उत्कृष्टता के कारण अद्वितीय रचना मानी जाती है। कहा जाता है कि इसका निर्माण १२०० कारीगरों द्वारा  लगातार १२ वर्षों तक काम करने के पश्चात पूर्ण किया गया था। इससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस मन्दिर के निर्माण में कितना धन व श्रम लगा होगा। इसके वास्तुशिल्प से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों भगवान सूर्यदेव का यह रथ आसमान में उड़ रहा है।  इस मन्दिर के चारों ओर पत्थरों पर जीवन्त रूप में विभिन्न धार्मिक मूर्तियां हथौड़ी एवं छेनी से बनायी गई हैं।  देश एवं विदेश से हजारों श्रद्धालु व पर्यटक इस अद्वितीय रचना को देखने हेतु प्रतिवर्ष यहां आते हैं। 
  • भौगोलिक स्थिति :-
  • भारत के उड़ीसा राज्य में पुरी जनपद के अन्तर्गत उत्तरी -पूर्वी समुद्र तट पर चन्द्रभागा  नदी के किनारे कोणार्क    का यह सूर्य मन्दिर बना हुआ है। यह जगन्नाथ मन्दिर से उत्तरपूर्व  ३१  किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अतः जो श्रद्धालु अथवा पर्यटक जगन्नाथजी की दर्शन करते हैं वे इस मन्दिर को भी अवश्य देखते हैं। यह स्थल भारत के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग ,सड़कमार्ग एवं हवाईमार्ग से जुड़ा हुआ है। समुद्रतट के निकट होने के कारण यहां की जलवायु समशीतोष्ण है तथा यहां का प्राकृतिक दृश्य बहुत ही मनमोहक है। समुद्रतट से ४ किलोमीटर की दूरी पर रेत के टीले पर बने हुए इस मन्दिर का निर्माण काले पत्थरों से किया गया है और इस मन्दिर के आस पास का क्षेत्र रिक्त पड़ा हुआ है।  अतः यहां का वातावरण बहुत ही शांत एवं एकांत लगता है। भुवनेश्वर तक यह स्थल  स्थल -मार्ग से जुड़ा हुआ है और पूरी से कोर्णाक ८१ किलोमीटर दूर है जहां बसों तथा निजी वाहन द्वारा पहुंचा जा सकता है। यहां ठहरने के लिए अतिथिशाला ,होटल आदि उपलब्ध हैं।   
  • पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-
  •  कोणार्क  के सूर्य मन्दिर को एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप  में वर्णन कपिल संहिता ,ब्रह्मपुराण ,भविष्य पुराण एवं वाराहपुराण में मिलता है। उक्त समस्त पुराणों में यह वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जामवंती से उत्पन्न पुत्र साम्ब अत्यन्त सुंदर व आकर्षक थे। एक बार साम्ब की माता व अन्य सखियाँ किसी सरोवर में स्नान कर रहीं थीं तभी वहां से नारद मुनि गुजर रहे थे। नारदजी ने वहां देखा कि कतिपय स्त्रियां साम्ब के साथ प्रेमालाप कर रहीं थीं, तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जी को उस स्थल पर लेकर आये और उन्हें भी वह दृश्य दिखलाया। श्रीकृष्ण यह दृश्य देखकर क्रोधित होकर साम्ब को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया। जब साम्ब ने अपनी निर्दोषता सिद्ध करते हुए श्राप वापस लेने का अनुरोध किया तब श्रीकृष्ण ने साम्ब से कहा कि इस श्राप से मुक्ति हेतु तुम मैत्रेय वन जहां पर सूर्य का मंदिर स्थित है ,में जाकर भगवान सूर्य की आराधना करो। साम्ब ने वैसा ही किया और साम्ब की आराधना से सूर्य भगवान प्रसन्न होकर उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया। दूसरे दिन चन्द्रभागा नदी में स्नान करते समय नदी के कमलपत्र पर उन्होंने सूर्य की मूर्ति देखी तब साम्ब ने उस मूर्ति को लाकर विधिवत उसकी स्थापना वहीं पर कर दी और उनकी पूजा हेतु अठारह शाकद्वीपी ब्राह्मण बुलाकर वहां उन्हें बसा दिया। पुराणों में इस मूर्ति का उल्लेख कोर्णाक अथवा कोणादित्य के नाम से किया गया है।   चन्द्रभागा नदी में तभी से सप्तमी की तिथि को स्नान करने की प्रथा प्रारम्भ हुई और कोर्णाक मन्दिर में सूर्य की पूजा भी तभी से  प्रारम्भ हो गई। 
  • इस मंदिर के निर्माण के संबन्ध में एक दंतकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार कोणार्क मंदिर का निर्माण पूर्ण होने पर इसके शिखर के निर्माण की बारी आई तब वास्तुकार यह समझ नहीं पा रहे थे कि इस शिखर का निर्माण कैसे किया जाये। इस समस्या का समाधान मुख्य वास्तुकार के १२ वर्षीय पुत्र धर्मपाद ने किया और उसने साहस करते हुए  शिखर का निर्माण कर दिया।  यह देखकर अन्य वास्तुकार अपकीर्ति के भय से डर गए और एक वास्तुकार ने तो उसी शिखर से  कूदकर आत्महत्या तक कर ली। कहा जाता है कि इस मंदिर के शिखर पर कुंभर पाथर नामक चुंबकीय शक्ति से युक्त एक पत्थर लगा है जिसके प्रभाव से निकटवर्ती समुद्र से गुजरने वाले जहाज एवं नौकाएँ मंदिर की ओर खिंची चली आती हैं और कभी कभी तो आपस में टकराकर नष्ट भी हो जाती हैं। इसके संबन्ध में एक दूसरी मान्यता यह है कि काला पहाड़ नामक एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने इस मन्दिर को ध्वस्त कर दिया था तो कुछ लोग भूकम्प के  कारण इसके ध्वस्त होने की पुष्टि करते हैं। 
  • इस मन्दिर का निर्माण गंगवंश के प्रतापी राजा नरसिंह देव प्रथम ने १२३८ -६४ में अपने विजय स्तम्भ के रूप में की थी। अबुलफजल ने अपने आईने  अकबरी में लिखा है कि इस मंदिर के निर्माण में उड़ीसा राज्य के बारह वर्ष की सम्पूर्ण आय लग गई थी। उनके अनुसार मंदिर का निर्माण नवीं शताब्दी में केशरी वंश के किसी राजा ने करवाया था। बाद में नरसिंह देव ने उसके नवनिर्माण करवाया था। इस मंदिर के आस पास दूर दूर तक किसी पर्वत के होने के प्रमाण नहीं मिलते फिर भी इतने भव्य मन्दिर का  निर्माण पत्थरों से कैसे और कहाँ से पत्थर लाकर किया गया, इसका समुचित उत्तर नहीं मिल पाता है। 
  • अन्य दर्शनीय स्थल :
  • यहाँ स्थित सूर्य मन्दिर का मुख उदीयमान सूर्य की ओर पूर्व में दिखाया गया है और इसके तीन प्रधान अंग देउल अर्थात गर्भगृह ,जगमोहन एवं नाटमण्डप एक ही अक्ष पर बने हुए हैं। सर्वप्रथम दर्शक नाटमंडप में प्रवेश करता है। पूर्व दिशा में सोपानमार्ग के दोनों ओर गजशार्दूलों की विशालकाय भयंकर एवं शक्तिशाली मूर्तियां बनी हुई हैं। कोर्णाक का नाटमंडप समानाक्ष होकर भी उससे पृथक लगता है और यहीं पर भोगमन्दिर अक्ष के दक्षिण पूर्व में स्थित है।  नाटमंडप से उतरकर जगमोहन तक पहुंचा जा सकता है। जगमोहन एवं देउल एक ही जगती पर स्थित हैं और परस्पर सम्बद्ध भी हैं। इनमें देवी ,देवता ,किन्नर ,गन्धर्व ,नाग ,विद्याधर व्याल ,और अप्सराओं के अतिरिक्त विभिन्न भावभंगिमाओं में नरनारी तथा कामासक्त नायिकाएं भी दीवारों पर अंकित हैं। इस मंदिर में कुछ मैथुनरत मूर्तियां भी बनी हुईं है जैसाकि खजुराहो में दृष्टिगत होता है। भगवान सूर्य के साथ ऐसी अश्लील मूर्तियों की आलोचना भी की जाती है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि काम प्रत्येक कालखण्ड में आनंद ,ऊर्जा एवं समरसता का प्रतीक रहा है, अतः इसी के दृष्टिगत सम्भवतः मूर्तिकारों का झुकाव ऐसी मूर्तियों को बनाने की ओर हुआ होगा।  इसके जगती के अग्रभाग में एक सोपान पंक्ति है जिसके एक ओर तीन तथा दूसरी ओर चार घोड़े दौड़ते हुए मुद्रा में दिखाए गए हैं। ये सप्त अश्व सूर्य की गति एवं वेग के प्रतीक माने जाते हैं।  देऊल का शिखर सम्प्रति नष्ट हो गया है किन्तु जगमोहन अभी  भी सुरक्षित है। मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार पर पत्थरों से निर्मित हाथियों को मारते हुए दो बड़े सिंह बने हुए हैं जिसको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस हिसक घटना का चित्रण उस काल की मानसिकता को प्रतिबिम्बित करता है। मंदिर के भीतर नृत्यशाला एवं दर्शकों के बैठने हेतु एक सभागार बना हुआ है। इस मंदिर के आस पास कोई विशेष निर्माण कार्य नहीं हुआ है बल्कि खाली क्षेत्र सुनसान पड़ा हुआ है। मंदिर परिसर के दक्षिणी पूर्वी कोने में सूर्यदेव की पत्नी माया देवी को समर्पित एक मंदिर अवश्य बना हुआ है। यहीं पर नवग्रहों जैसे सूर्य ,चन्द्रमा, मंगल ,बुध,जुपिटर ,शुक्र ,शनि ,राहु एवं केतु को समर्पित एक मंदिर स्थित है। मंदिर के निकटवर्ती क्षेत्र  में स्थित समुद्र के किनारे शांतिपूर्ण वातावरण का आनन्द यहां बैठकर लिया जा सकता है। 

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