Wednesday, May 25, 2016

मीनाक्षी

मीनाक्षी मन्दिर को मीनाक्षी सुंदरेश्वर अथवा मीनाक्षी अम्मां मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। यह हिन्दुओं के पूज्य देवाधिपति भगवान शिव एवं उनकी पत्नी माता पार्वती दोनों को समान रूप से समर्पित है।  यहां पर भगवान शिव को सुंदरेश्वर एवं माता पार्वती जी को मीनाक्षी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। सुंदरेश्वर का तात्पर्य सुंदर ईश्वर एवं मीनाक्षी का तात्पर्य मछली के आकार की आँखों वाली देवी होता है। कांचीपुरम के  कामाक्षी मंदिर की भांति काशी का विशालाक्षी मंदिर एवं तिरुवनैकवल का अकिलेदेश्वरी मंदिर सभी माता पार्वती को ही समर्पित  है। भारत का यह पावन तीर्थस्थल मदुरै अपने मीनाक्षी मंदिर के लिए ही विशेष रूप से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस नगर के नामकरण के लिए स्वयं भगवान शिव यहां अवतरित हुए थे और समस्त नगरवासियों को दर्शन देते हुए प्रसाद के रूप में दैविक द्रव्य का छिड़काव यहां पर किया था।  तभी से इसे मदिरापुरी और बाद में मदुरै कहा जाने लगा। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के तमिलनाडु प्रान्त में स्थित मदुरै शहर में मीनाक्षी देवी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यह मदुरै नगर में बाइबई {वेगा } नदी के दक्षिणी तट पर लगभग ६५ हजार वर्गमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इस मंदिर के  परिसर में बारह भव्य गोपुरम स्थापित किये गए हैं। इसका गर्भगृह लगभग ३५०० वर्ष पुराना बताया जाता है और इसकी बाहरी दीवार एवं अन्य निर्माण १५००-२००० वर्ष पुराने हैं। इस मंदिर का निर्माण ४५ एकड़ भूमि पर हुआ है जिसमें मुख्य मंदिर की लम्बाई २५४ मीटर एवं चौड़ाई २३७ मीटर है। मदुरै नगर मद्रास से ४९२ किलोमीटर,रामेश्वरम से १६४ किलोमीटर एवं त्रिवेंद्रम से ३३३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां तक हवाईमार्ग,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। मदुरई हवाईमार्ग द्वारा चेन्नई व त्रिची से जुड़ा हुआ है। दक्षिण रेलवे का यह एक प्रमुख जंकशन है और चैन्नई व तिरुनेलवेली का साथ जुड़ा  भी है।केरल प्रदेश के  अन्य सभी नगरों से यह सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

हिन्दू -धर्म पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में मदुरै का वर्णन मिलता है। इसके सम्बन्ध में पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव सुंदरेश्वर के रूप में अपने गणों के साथ पाण्ड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरै आये थे क्योंकि मीनाक्षी पार्वती की अवतार थीं एवं राजा मलयध्वज की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर पार्वती जी ने उनकी पुत्री के रूप में उनके यहां जन्म लेने का वरदान दिया था। भगवान शिव यहां आकर राजा की पुत्री मीनाक्षी से विवाह का प्रस्ताव भी स्वयं ही किया था जिसे मीनाक्षी ने भी स्वीकार कर लिया था। कहा जाता है कि इस विवाहोत्सव में सम्पूर्ण आर्यावर्त के नागरिक एवं देवताओं ने भाग लिया था। भगवान विष्णु ने स्वयं बैकुण्ठ से इस विवाह का संचालन किया था किन्तु इन्द्र के कारण उन्हें इस विवाह में आने में थोड़ा विलम्ब हो गया था तभी विवाह कार्य स्थानीय देवता द्वारा सम्पन्न करा दिया गया था। बाद में जब भगवान विष्णु यहां पहुंचे तब उन्हें पश्चाताप हुआ और वे दोबारा मदुरै न आने की प्रतिज्ञा कर ली थी और नगर की सीमा के बाहर स्थित पर्वत अलगार कोइल में बस गए थे। बाद में देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने मीनाक्षी एवं सुंदरेश्वर का पाणिग्रहण करवाया था। इन दोनों घटनाओं की यहां उत्सव के दौरान आज भी प्रस्तुति की जाती है। 
कहा जाता है कि ईशा से छठी शताब्दी पूर्व कुलशेखर नामक पाण्ड्य राजा ने इस नगर की स्थापना की थी।शताब्दियों से तमिल साहित्य और संस्कृति के केन्द्र रह चुके मदुरई का दक्षिण में वही स्थान है जो उत्तर भारत में विद्या के क्षेत्र में काशी का है।  

 अन्य दर्शनीय स्थल :-

मीनाक्षी मंदिर की स्थापत्य कला एवं वास्तुकला दोनों अदभुत है। इसीलिए इसे आधुनिक विश्व के सात आश्चर्यो की सूची में प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस मंदिर के १२ गोपुरम की भव्यता देखते ही बनती है और इसमें कुशलतापूर्वक की गई चित्रकारी मन को सहज ही आकर्षित कर लेती  है। इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप सत्रहवीं शताब्दी में प्रकाश में आया था। इस मंदिर में भगवान विष्णु को मीनाक्षी का पाणिग्रहण संस्कार कराते हुए उनका हाथ भगवान शिव के हाथ में देते हुए दिखाया गया है। 
सुंदरेश्वर मंदिर :-  यहां स्थित मीनाक्षी मंदिर के अंदर दो मंदिर बने हुए हैं जिसमें एक मीनाक्षी मंदिर और दूसरा सुंदरेश्वर शिव जी का मंदिर है। सुंदरेश्वर मंदिर में भगवान शिव नटराज की मुद्रा में दिखाए गए हैं। मंदिर परिसर में ही एक तालाब स्थित है जिसमें स्नान करके दर्शनार्थी मंदिर में प्रविष्ट होते हैं। मीनाक्षी मंदिर के दर्शन के बाद ही सुंदरेश्वर मंदिर में शिवजी का दर्शन करना आवश्यक होता है अन्यथा तीर्थयात्रा अधूरी मानी जाती है।  भगवान शिव की यहां नटराज मुद्रा में स्थित मूर्ति एक बड़ी चाँदी की वेदी में बंद है इसीलिए इन्हें वेल्लीअम्बलम {रजत आवासी }कहते हैं। यहीं पर एक गणेश जी का मंदिर भी है जिसे मुकुरवय विनायगर कहते हैं। कहा जाता है कि इस मूर्ति को तालाब की खुदाई से प्राप्त किया गया था। यहीं पर पोत्रमारै सरोवर स्थित है जिससे इंद्र ने स्वर्ण कमल तोड़े थे। यह पवित्र सरोवर १६५ फिट  लम्बा व १२० फिट चौड़ा है। भक्तगण मंदिर में प्रवेश के पूर्व इसकी परिक्रमा किया करते हैं। 
 सहस्र स्तम्भ मण्डप:- मीनाक्षी मंदिर के परिसर में ही सहस्र स्तम्भ मण्डप स्थित है जिसकी शिल्पकला बहुत ही आकर्षक है।मंदिर के पूर्व में शतस्तम्भ मण्डप स्थित है जिसके प्रत्येक स्तम्भ पर तत्कालीन शासकों एवं उनकी रानियों के चित्र अंकित किये गए हैं। इसमें  एक हजार खम्भे बने हैं तथा यह भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुरक्षण में है। इस मण्डप में मंदिर का एक कला संग्रहालय भी स्थित है जिसमें मूर्तियों,चित्रों एवं छायाचित्रों की १२०० वर्ष पूर्व की कलाकृतियां उपलब्ध हैं। इस मंडप के बाहर पश्चिम की ओर संगीतमय स्तम्भ है जिसके स्तम्भ पर हाथ रखने से संगीतमय स्वर स्वतः  निकलते हैं। स्तम्भ मण्डप के दक्षिण में कल्याण मण्डप स्थित है जहां प्रतिवर्ष चैत्रमास में चितिरड उत्सव मनाया जाता है। 
स्वर्णकमल सरोवर :-  मीनाक्षी मंदिर के अन्दर एक सरोवर है जिसे स्वर्णकमल सरोवर कहा जाता है। इसमें गोपुरम का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। श्रद्धालुगण इसी में स्नान करते हैं। सरोवर के चारों ओर बरामदे बने हुए हैं जिनकी दीवारें देवी देवताओं के कथा चित्र से अलंकृत हैं। यहां अदभुत सिंह की मूर्ति बनी हुई है। 
मीनाक्षी मंदिर का सर्वाधिक आकर्षक उत्सव मीनाक्षी तिरुकल्याणम है जिसमें रथयात्रा निकाली जाती है। इसके अतिरिक्त अन्य पर्व जैसे नवरात्रि एवं शिवरात्रि पर भी यहां बड़े धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष चैत्रमास में यहां मीनाक्षी एवं सुंदरेश्वर का विवाहोत्सव मनाया जाता है जो पूरे दस दिन तक चलता है। बाद में इसी स्थल पर सार्वजनिक विवाह का कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है जिसमें अनेकों नव वर वधुएं परिणय सूत्र में बंधती हैं।  

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