श्री जगन्नाथ धाम हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित चार धामों में से एक प्रमुख धाम है। अन्य तीन धामों में बद्रीनाथ सतयुग का धाम ,श्रीरामेश्वरम त्रेतायुग का धाम और द्वारिका द्वापरयुग का धाम माना जाता है किन्तु श्रीजगन्नाथ धाम को कलयुग का पवित्रतम धाम कहा जाता है। प्राचीन समय में यहां नीलांचल पर्वत था जहां देवतागण नीलमाधव भगवान की पूजा किया करते थे। नीलांचल पर्वत के धरती में समा जाने के बाद उनकी मूर्ति को देवतागण यहां इस स्थान पर ले आये थे किन्तु यह स्थान नीलांचल के नाम से ही जाना गया। जगन्नाथ मंदिर के शीर्ष पर चक्र को आज भी नीलछत्र के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण क्षेत्र जहां से यह नीलछत्र देखा जा सकता है ,को जगन्नाथपुरी की संज्ञा दी जाती है। इस मंदिर में केवल हिन्दुओं को ही प्रवेश की अनुमति दी जाती है। इस मंदिर के चारों ओर एक विशाल हाता बना हुआ है और इसकी ऊँचाई ३८ मीटर है। इसका निर्माण सन् ११९८ ई में किया गया था। मंदिर के ठीक सामने एक विशाल स्तूप स्थित है जिसके ऊपर भगवान गरुण देवता की प्रतिमा विराजमान है। मंदिर के मुख्य द्वार को सिंह द्वार कहा जाता है क्योंकि इस पर दो सिंहों की विशाल मूर्ति पहरा देते हुए स्थापित की गई है। जगन्नाथ मंदिर भगवान श्रीकृष्ण जी को समर्पित हिन्दू धर्म वैष्णव सम्प्रदाय का पावन स्थल माना जाता है।शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों में से एक मठ पुरी में भी है।कलिंग के राजा चौडगंग द्वारा १२ वीं सदी में बनवाया गया ६५ मीटर ऊंचा श्रीजगन्नाथ मन्दिर यहां का सर्वाधिक विशाल मंदिर है। इस मंदिर के मुख्य भाग को श्रीमंदिर कहा जाता है जिसमें रत्न वेदी पर भगवान जगन्नाथ ,सुभद्रा जी और बलराम जी की महदारु की लकड़ी से निर्मित दिव्य मूर्तियां विराजमान हैं। यहां त्रिभूति प्रभु के दर्शन से असीम आनंद प्राप्त होता है।
भौगोलिक स्थित :-
जगन्नाथ पुरी भारतवर्ष के उड़ीसा राज्य के समुद्रतट पर बसे हुए पुरी शहर में स्थित है। पुरी का विश्व प्रसिद्ध समुद्र तट जगन्नाथ मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। इस मंदिर के चारों ओर एक चौड़ी दीवार बनायी गई है और मुख्य मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है जैसे श्रीमंदिर ,जगमोहन एवं भोगमण्डपम्। मंदिर के पूर्व में सिंहद्वार और दक्षिण में अश्वद्वार ,पश्चिम में व्याघ्रद्वार तथा उत्तर में हस्तिद्वार स्थित हैं। कटक स ४७ किलोमीटर की दूरी पर खुर्दारोड रेलवे स्टेशन स्थित है जो पूर्वी रेलवे के हावड़ा -वालटर ब्रांच लाइन पर स्थित है। यहां से पुरी के लिए एक रेलवे लाइन जाती है। खुर्दा रॉड से पुरी ४५ किलोमीटर की दूरी पर है। सीधी ट्रेन हावड़ा ,मद्रास ,आसनसोल ,तलचर से मिलती है। कटक ,भुवनेश्वर एवं खुर्दारोड से यहां तक बस सेवा उपलब्ध है। पुरी से भगवान जगन्नाथ का मंदिर लगभग २ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
यहां पर अनेकों मठ एवं धर्मशालाएं बनवायी गई हैं जहाँ दर्शनार्थी के विश्राम एवं भोजन आदि की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है। दुधवइ वालंकी धर्मशाला मंदिर के मुख्य मार्ग पर है और यहां के अन्य धर्मशालाओं में गोयनका धर्मशाला ,सेठ धनजी मूलजी धर्मशाला ,सेठ कन्हैया लाल बागला धर्मशाला ,बीकानेर वालंकी धर्मशाला ,श्री आशाराम जी व मोतीराम जी की धर्मशाला प्रमुख हैं। यहां पर स्नान महोदधि ,रोहिणी कुण्ड ,इन्द्र्द्युम्न ,लोकनाथ तालाब एवं चक्रतीर्थ में किया जा सकता है।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-
पौराणिक आख्यानों के अनुसार लगभग अट्ठासी हजार साधु- सन्तों ने पवित्र धर्मस्थल नैमिषारण्य जो उस समय तप ,साधना एवं पुण्यदायक स्नान करने का सर्वोच्च केंद्र था ,में सूत जी ने कहा था कि मानव को समस्त बन्धनों से मुक्त रखने व उनके पापों के विनाश के लिए सर्वोत्तम स्थान यदि पृथ्वी पर है तो वह नीलांचल पर्वत ही हो सकता है। यहां पर भगवान जगन्नाथ के रूप में विराजमान हैं और जो भी दर्शनार्थी यहां पर बलभद्र एवं सुभद्रा के साथ भगवान जगन्नाथ के दर्शन करते हैं वे समस्त सांसारिक बन्धनों मुक्ति मिल जाती है तथा वह सीधे स्वर्ग लोक गमन करता है। कहा जाता है कि यहां पर स्थित रोहिणी कुण्ड में जो व्यक्ति स्नान कर लेता है वह सदैव के लिए पापमुक्त होकर मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता है। कहतें हैं कि एक बार एक कौआ इस रोहिणी कुण्ड में पानी पीकर मृत्यु को प्राप्त करने के पूर्व भगवान के चतुर्भुज अलौकिक स्वरूप धारण करते हुए सीधे स्वर्ग चला गया था। यहां स्थित चन्दन तालाब में जो व्यक्ति स्नान करके अपने पूर्वजों का तर्पण करता है उसके पूर्वजों की आत्मा बन्धनमुक्त हो जाती है और वे सीधे स्वर्लोक में स्थान प्राप्त कर लेते हैं। पूर्व में भगवान नीलमाधव स्वयं नीलांचल पर्वत पर निवास करते थे। एक बार राजा इंद्रद्युम्न जब यहां पर भगवान के दर्शन हेतु आये तब भगवान नीलमाधव अचानक अदृश्य हो गए। राजा के विशेष प्रार्थ्रना करने पर भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुए बताया कि अब वे आज से काष्ठ की मूर्ति में ही प्रकट होकर दर्शन दिया करेंगे। राजा इंद्रद्युम्न ने वहां पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया और उसमें भगवान नीलमाधव की मूर्ति बनाने के लिए शिल्पकार विश्वकर्मा जी से अनुरोध किया। विश्वकर्मा ने राजा के अनुरोध को इस शर्त पर स्वीकार किया कि जब मूर्ति का निर्माण कार्य पूर्ण न हो जाये तब तक कोई भी उन्हें मूर्ति बनाते हुए नहीं देखेगा। राजा ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली। कहा जाता है कि कार्य प्रारम्भ के पश्चात राजा ने एक दिन उत्सुकतावश छिपकर उन्हें मूर्ति बनाते हुए देख लिया। विश्वकर्मा जी को जब यह आभास हुआ तब उन्होंने मूर्ति निर्माण को बीच में ही अधूरा छोड़ दिया। राजा के अनुरोध पर ब्रह्माजी ने उस बिना हाथ पैर की मूर्ति में प्राण फूँककर उसे जीवंत किया। तभी से उस परिक्षेत्र को पुरुषोत्तम परिक्षेत्र कहा जाने लगा और भगवान को श्रीजगन्नाथ जी की संज्ञा दी गई। जो दर्शनार्थी यहां पर स्थित इंद्रद्युम्न कुण्ड में स्नान करके महाप्रसाद ग्रहण कर लेता है उसे एक करोड़ गऊदान करने का पुण्य प्राप्त होता है।धर्मशास्त्रों में इसे जगन्नाथपुरी के अतिरिक्त शंखक्षेत्र ,श्रीक्षेत्र और पुरुषोत्तम क्षेत्र भी कहा जाता है।
जगन्नाथ जी के दर्शन करने हेतु सर्वप्रथम श्रद्धालुओं को मंदिर के मुख्य द्वार से प्रवेश करने के पूर्व उन्हें यहां स्थित भोगमण्डल ,गणेशजी वटवृक्ष ,नृसिंहजी ,रोहिनीकुंड एवं लक्ष्मीजी की परिक्रमा करनी पड़ती है, तब मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति मिलती है। श्रीजगन्नाथजी ,सुभद्राजी एवं बलभद्रजी को श्रद्धापूर्वक भेंट चढ़ाकर उन्हें प्रणाम करते हुए श्रीलोकनाथ जी का ध्यान किया जाता है। जो इस प्रक्रिया का सम्यक अनुपालन करता है उसे भगवान श्री जगन्नाथ स्वयं दर्शन दे देते हैं।
गंगवंश के प्राप्त ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण कार्य कलिंग के राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने प्रारम्भ किया था तथा मंदिर के जगमोहन और विमान भाग का निर्माण उनके शासनकाल सन् १०७८-११४८ में पूर्ण हो गया था। पुनः सन् ११९७ ई ० में ओडिशा के शासक अनङ्गभीम देव ने इसे वर्तमान रूप प्रदान किया। मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी की पूजा सन् १५५८ ई ० तक निरन्तर होती रही किन्तु इसी समय अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर आक्रमण कर दिया जिसके फलस्वरूप मूर्तियां व मंदिर का कुछ भाग नष्ट हो गया था और पूजा भी बंद हो गई थी। बाद में रामचंद्र देवके खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर मंदिर का नवनिर्माण कराया गया और उसमें मूर्तियों की पुनर्स्थापना की गई। वैष्णव पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में काफी दिनों तक प्रवास किया था। इस मंदिर का वार्षिक रथ उत्सव मध्यकाल से ही आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। इस रथ उत्सव में मंदिर के तीनों मुख्य देवता बगहवां जगन्नाथ ,उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा अलग अलग तीन भव्य एवं सुसज्जित रथों पर विराजमान होकर यात्रा पर निकाला जाता है।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप स्थित था और उस स्तूप में भगवान बुद्ध का एक दांत रखा गया था। बाद में बौद्ध धर्म को वैष्णव समुदाय द्वारा आत्मसात कर लिया गया और भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर की वहां पर स्थापना करके उनकी पूजा अर्चना प्रारम्भ कर दी गई। कहा जाता है कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने इस मंदिर को काफी मात्र में स्वर्णदान दिया था। उन्होंने तो विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे को भी इसे दान देने का संकल्प लिया था किन्तु यह सम्भव नहीं हो पाया। यहां के मुख्य मंदिर का ढांचा ४००००० वर्गफुट में फैला हुआ है। इसकी स्थापत्य एवं शिल्पकला कलिंग शैली की है। वक्ररेखीय आकार के इस मंदिर के शिखर पर भगवान विष्णु का अष्टधातु से निर्मित सुदर्शन चक्र जिसे नीलचक्र भी कहते हैं ,स्थापित किया गया है। मंदिर का मुख्य ढांचा २१४ फुट ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना हुआ है।
अन्य दर्शनीय स्थल :-
यहां से १५ किलोमीटर की दूरी पर साक्षी गोपाल स्थल स्थित है जहां राधा एवं कृष्ण का एक साथ दर्शन कर सकते हैं। जगन्नाथ धाम के अन्य मंदिरों में गुंडीचा मंदिर प्रमुख है जो मुख्य मंदिर से ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रथयात्रा के समय भगवान जगन्नाथ जी यहां एक सप्ताह विश्राम करते हैं। जगन्नाथ मंदिर के दक्षिण पश्चिम में कपालमोचन स्थल है। मंदिर के सिंह द्वारके सम्मुख अमरनाथ स्थित हैं। श्री राधाकान्त मठ जिसे गंभीरनाथ भी कहते हैं ,स्वर्गद्वार से समुद्रतट की ओर जाते समय दिखलायी। इसी मार्ग पर सिद्धबकुल नामक स्थान भी है। यहीं पर गोवर्धन मठ स्थित है जिसे शंकराचार्य जी ने बनवाया था। यहां पर बैकुंठ द्वार के निकट कबीरमठ स्थित है। बैकुंठ द्वार के दाहिनी तरफ हरिदास का चबूतरा है और उससे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर टोटा गोपीनाथ जी का मंदिर स्थित है। लोकनाथ महादेव को समर्पित लोकनाथ मंदिर यहां से एक किलोमीटर की दूरी पर है। पुरी रेलवे स्टेशन मार्ग पर हनुमान जी का मंदिर मुख्य मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर बना हुआ है। हनुमान मंदिर के सम्मुख चक्रतीर्थ समुद्रतट पर स्थित है। हनुमान मंदिर के निकट ही सोनार गौरंगा नामक स्थल है और यहीं पर सिंह द्वार के निकट नानक मठ है जहां पर गुरु साहिब नानक देव जी ने कुछ दिन प्रवास किये थे।
जगन्नाथ धाम का मुख्य आकर्षण भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा है जिसमें लगभग ४००० भक्तगण शंखनाद करते हुए रथ को खींचते हैं। गुंडिचा मंदिर में सप्ताह भर विश्राम के बाद भगवान जगन्नाथ जी बलभद्र एवं सुभद्रा को पुनः रथ पर बैठाकर वापस जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। प्रत्येक वर्ष रथयात्रा के पश्चात इन रथों को नष्ट कर दिया जाता है और अगले वर्ष नए रथ तैयार किये जाते हैं। प्रत्येक आठवें ,ग्यारहवें एवं उन्नीसवें वर्ष पुराणी मूर्तियों के स्थान पर नई मूर्तियों की स्थापना की जाती है। जगन्नाथ धाम को रसोई विश्व प्रसिद्ध है क्योंकि इस विशाल रसोईं में भगवान को चढ़ाये जाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने हेतु ५०० रसोइये तथा ३०० सहयोगी नियुक्त किये गए हैं। इस मंदिर में गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। सामान्य पर्यटक का भी प्रवेश वर्जित है किन्तु वे मंदिर के अहाते और अन्य आयोजनों का दृश्य निकटवर्ती रघुनंदन पुस्तकालय की ऊंची छत से अवलोकित कर सकते हैं।
जगन्नाथपुरी का सर्वाधिक आकर्षण रथयात्रा मानी जाती है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते हैं। तीन विशाल रथों में तीनों मूर्तियां अलग अलग रखी जाती हैं और लगभग दो किलोमीटर दूर इंद्रद्युम्न की रानी गुंडीचा के महल तक एक जुलूस के रूप में ले जाए जाती हैं और जगन्नाथजी की मौसी के मंदिर में तीनों मूर्तियां रख दी जाती हैं। दस दिन के बाद वहां से वापसी की यात्रा भी उसी धूमधाम से की जाती है। इसे उल्टा रथ कहा जाता है इस दौरान भक्तगण उपवास रखकर रथ के रस्सों को खींचते हैं। वैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को रथ निर्माण प्राचीन परम्परा के अनुसार प्रारम्भ किया जाता है जिसमें ८३२ लकड़ी के टुकड़े का प्रयोग किया जाता है। जगन्नाथजी का रथ सोलह पहियों का होता है। रथ निर्माण के पश्चात ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को बाहर लायी गई मूर्तियों के १०८ घड़ों के जल से स्नान कराकर महोत्सव का शुभारम्भ किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस स्नान से भगवान जगन्नाथजी को सर्दी जुकाम हो जाता है जिसका विधिवत १५ दिन तक इलाज होता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं। आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष द्वितीया को रथयात्रा प्रारम्भ होती है जिसमें पूरी के मुखिया सोने की झाड़ू लेकर उसके मार्ग को साफ करते हैं। जयकारों और भजनों की अनुगूँज के साथ तीनों रथों पर मूर्तियां विराजमान होती हैं और लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तयकर जुलूस बाग बगीचों वाले गुंडीचा पहुँच जाता है और उन मूर्तियों को मौसी के मंदिर में रख दिया जाता है। नौ दिनों को ' आडप दर्शन' कहते हैं। इस प्रकार तीन सप्ताह में यह धार्मिक महोत्सव सम्पन्न हो जाता है।
No comments:
Post a Comment