Tuesday, May 31, 2016

पदमनाभ मन्दिर



भारतवर्ष के दक्षिणी प्रान्त केरल के तिरुअनन्तपुरम शहर में स्थित भगवान विष्णु पदमनाभ स्वामी मन्दिर विष्णु  भक्तों की एक महत्वपूर्ण आराधना स्थली है। यह तीर्थस्थल भारतवर्ष के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में शामिल किया जाता है। तिरुअनन्तपुरम नगर में स्थित पद्मनाभ नामक यह ऐतिहासिक मंदिर देश एवं विदेश के पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण का केंद्र भी माना जाता है। यह तीर्थस्थल केरल की संस्कृति एवं साहित्य का अनूठा संगम है। इसके एक तरफ खूबसूरत समुद्रतट स्थित है तो दूसरी तरफ पश्चिमी घाट में पहाड़ियों का अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य दृष्टिगत होता है और इन्हीं प्राकृतिक अमूल्य निधियों को संजोए हुए इन्हीं के मध्य पद्मनाभ स्वामी का प्राचीन मन्दिर स्थित है। इसकी स्थापत्य कला अवर्णनीय है और इस मंदिर के निर्माण में सूक्ष्मतम कारीगरी का अनुपम दृष्टान्त दृष्टिगत होता है। मान्यता है कि सर्वप्रथम भगवान विष्णु की मूर्ति इसी स्थान से प्राप्त हुई थी और उसी स्थान पर पद्मनाभ मंदिर बनवाकर इस मूर्ति की स्थापना कर दी गई थी। यह मंदिर जिस नगर में स्थित है उसे त्रिवेन्द्रम अथवा तिरुअनन्तपुरम के नाम से जाना जाता है। 

भौगोलिक स्थित -:     

भारत के दक्षिणी भाग में स्थित केरल राज्य के त्रिवेन्द्रम नगर में यह तीर्थस्थल स्थित है। भगवान विष्णु को समर्पित यह एक प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिर माना जाता है। समुद्रतट एवं पहाड़ियों के मध्य बसा हुआ यह प्राचीन नगर अपने शान्तिपूर्ण वातावरण के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। केरल का प्रसिद्ध कोवलम बीच यहां से केवल १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। त्रिवेन्द्रम एक साफ सुथरा शहर है जो कोचीन से मात्र २१८ किलोमीटर तथा कन्याकुमारी से ८६ किलोमीटर की दूरी पर है। यह तीर्थस्थल हवाईमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से केरल राज्य के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ है।

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य -:

पुराणों एवं अन्य  हिन्दू धर्मशास्त्रों में इसका "अनन्तवनम" के नाम से उल्लेख मिलता है। भगवान विष्णु की प्राचीन मूर्ति इसी स्थल से मिलने एवं उसी स्थान पर पद्मनाभ मन्दिर की स्थापना के बाद इसे तिरुअनन्तपुरम कहा गया।  तिरु शब्द भगवान विष्णु का पर्याय माना जाता है और अनन्त शब्द अनन्त नामक नाग के नाम पर रखा गया बताया जाता है। यहां पर भगवान विष्णु की विश्राम की मुद्रा के दृष्टिगत ही  इन्हें पद्मनाभ की संज्ञा दी गई। यहां स्थित इस प्राचीन मन्दिर का समय समय पर स्थानीय राजाओं द्वारा नवनिर्माण कराया जाता रहा है। सन् १७३३ ई में इस मन्दिर का पुनर्निर्माण त्रावनकोर के महाराजा मार्तण्ड वर्मा द्वारा करवाया गया था। यहां पर भगवान विष्णु शेषनाग पर लेटी हुई विशालकाय मूर्ति की लम्बाई २२ फिट है। इसके गर्भगृह के तीनों दरवाजों से देखने पर यह मूर्ति अलग अलग रूप में दृष्टिगत होती है। पहले द्वार से देखने पर भगवान विष्णु  शयन की मुद्रा में हाथ नीचे किये हुए तथा हाथ के नीचे शिवलिंग रखा हुआ दिखाई पड़ता है। दूसरे द्वार से केवल भगवान विष्णु के नाभि का दर्शन मिलता है तथा उनकी नाभि से कमल की उत्पत्ति प्रदर्शित की गई है जिस पर भगवान ब्रह्मा जी विराजमान हैं। तीसरे द्वार से भगवान विष्णु के केवल दोनों चरण ही दिखाई पड़ते हैं। यह मंदिर तिरुअनन्तपुरम नगर के मध्य में स्थित है और मंदिर के प्रवेश द्वार के गोपुरम की ऊँचाई एवं कारीगरी बहुत ही आकर्षक व भव्य है। इसका गर्भगृह काले पत्थरों से निर्मित है।
इस मंदिर का महत्व यहां के पवित्र परिवेश को प्रतिबिम्बित करता है। मंदिर में हमेशा धूपदीप का प्रज्ज्वलन तथा शंखनाद की ध्वनि देखने व सुनने को मिलती है। इस मंदिर में एक स्वर्ण स्तम्भ भी बना हुआ है जो मंदिर के सौन्दर्य की श्रीवृद्धि करता हुआ दिखाई पड़ता है। मंदिर के गलियारे में अनेकों स्तम्भ बने हुए हैं जिसपर सुन्दर नक्काशी की गई है। इस मन्दिर में प्रवेश हेतु पुरुषों के लिए धोती एवं महिलाओं के लिए साड़ी पहनना अनिवार्य है। इस मंदिर में केवल हिन्दुओं को ही प्रवेश की अनुमति दी जाती है। यहां वर्ष में दो बार उत्सव भी मनाया जाता है। पहला उत्सव मार्च -अप्रैल में कोटिपट्टू के नाम से और दूसरा उत्सव अक्टूबर -नवंबर में आरापट्टू के नाम से मनाया जाता है। मंदिर के वार्षिकोत्सव में लाखों की संख्या में देश एवं विदेश से श्रद्धालु यहां उपस्थित होते हैं और प्रभु पद्मनाभ स्वामी से अपनी सुख एवं शांति की कामना करते है। पद्मनाभ मंदिर सात मंजिला बना हुआ है जिसके प्रत्येक मंजिल पर हिन्दू देवी देवताओं के चित्र अंकित किये गए हैं। इसका गोपुरम द्रविण शैली में बनवाया गया है जो  दक्षिण भारतीय वास्तुकला का जीवन्त एवं अदभुत उदाहरण है।

अन्य दर्शनीय स्थल -:

पद्मनाभ मन्दिर का परिसर बहुत ही भव्य एवं विशाल है। इसके परिसर में पद्मतीर्थकुलम नामक एक सरोवर स्थित है जिसमें स्नान करके दर्शनार्थी मंदिर में भगवान विष्णु के पद्मनाभ स्वरूप का दर्शन करते हैं। तिरुअनन्तपुरम में पद्मनाभ मंदिर के अतिरिक्त अन्य धार्मिक स्थल भी दर्शनीय हैं जिनमें भगवती क्षेत्रम ,भद्रकाली क्षेत्रम,जामा मस्जिद,कृष्णनकोविल मंदिर,गणेश मंदिर,महादेव क्षेत्रम,कंटकेश्वर क्षेत्रम प्रमुख हैं। यहां पर ईसाई धर्म के स्थल जैसे क्राइस्ट चर्च आव इंडिया,जोसफ कैथीड्रल एवं संत मेरीज चर्च भी स्थित हैं।
पद्मनाभ मन्दिर प्रतिदिन दोपहर १२ बजे बंद हो जाता है और सांयकाल ५ बजे पुनः दर्शनार्थ खोला जाता है। यहां का कोटिपट्टू एवं आरापट्टू उत्सव विश्वप्रसिद्ध हैं। यह मंदिर  समृद्धशाली मंदिरों में से एक माना जाता है क्योंकि उच्चतम न्यायालय के आदेश पर पद्मनाभ मन्दिर के तहखानों को खोलकर उसमें रखी हुई सम्पत्ति की गणना कराए जाने की कार्यवाही चल रही है। इन तहखानों में लगभग दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति होने का अनुमान लगाया गया है। तहखाना "बी" को खोले जाने पर अभी रोक लगी हुई है। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह भी आदेश दिए गए हैं कि इस मंदिर की सुरक्षा एवं पवित्रता बनाए रखने का उत्तरदायित्व राज्य सरकार का है।  

Monday, May 30, 2016

तारापीठ

 पश्चिमी बंगाल क्षेत्र की प्रसिद्ध देवी तारा की पूजा का प्रमुख केंद्र होने के कारण इस स्थल को तारापीठ के नाम से जाना जाता है। यह एक प्रसिद्ध सिद्धपीठ भी है तथा पुराणों में इसे  इक्यावन शक्तिपीठों में से एक पवित्र शक्तिपीठ माना गया है। पंडित रामकृष्ण परमहंस के समकालीन वामाक्षेपा तारापीठ के सिद्ध अघोरी संत उनके परमभक्त थे। इसके निकट ही बकरेश्वर ,बालहाटेश्वर ,बन्दीकेश्वरी एवं फुलोरादेवी अन्य तीन शक्तिपीठ भी वीरभूमि जिले में ही स्थित है। हिन्दुओं के लिए यह तीर्थस्थल बंगाल प्रान्त में सर्वाधिक महत्व रखता है। दुर्गापूजा एवं नवरात्रि के पर्व पर यहां हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ यहां एकत्रित होती है। प्राचीनकाल में इसे कामकोटि भी कहा जाता था एवं तंत्र -मंत्र साधना हेतु यह स्थल प्रसिद्ध है।ऐसी मान्यता है कि यहां पर देवी के जागृत रूप का दर्शन किया जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त के वीरभूमि जिले के अंतर्गत सिद्धपीठ तारापीठ स्थित है। यह वीरभूमि का एक छोटा सा शहर है। यह पूर्वी रेलवे के रामपुर हाल्ट स्टेशन से ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां तक पहुँचने के लिए हवाईमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है। वीरभूमि सड़कमार्ग द्वारा पश्चिम बंगाल के सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। वीरभूमि जिले में द्वारिका नदी के किनारे यह तीर्थस्थल स्थित है। यहां स्थित मंदिर के ऊपरी भाग में सुंदर और चौकोर शिखर बना हुआ है और इसी के नीचे मां की चमत्कारी मूर्ति स्थापित की गई है। मंदिर के चारों ओर कोई भी निर्माण कार्य नहीं किया गया बल्कि आसपास  केवल पेड़ पौधे व मैदान स्थित हैं। यहां मंदिर में मां का केवल मुख ही दिखायी पड़ता है। इनकी आरती में शव की ताजी भस्म का प्रयोग किया जाता है तथा दर्शन का समय रात्रि में ९ बजे से ९. ३० बजे तक ही होता है। मंदिर का गर्भगृह अत्यन्त संकरा है इसलिए इसमें एकसाथ ९ - १० व्यक्ति ही जा सकते हैं। इस मंदिर में मां को केवल पुष्प ही चढ़ाया जाता है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

एक पौराणिक कथा के अनुसार सती के पिता महाराजा दक्ष ने जब यज्ञ में भगवान शिव एवं माता सती को आमन्त्रित नहीं किया तथा सती वहां बिना बुलाए ही पहुँच गईं तब उनका अपमान किया गया जिससे दुःखी होकर क्रोधवश सती ने यञकुण्ड में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। भगवान शिव को जब यह ज्ञात हुआ तब वे दुःख और क्रोधवश यञ को भंग कर दिया था और सती के शव को अपने कन्धे पर रखकर इधर उधर सम्पूर्ण  ब्रह्माण्ड में घूमने लगे थे तभी भगवान विष्णु ने सती के शव को अपने सुदर्शन चक्र से कई टुकड़े कर दिए। उन्हीं टुकड़ों में से एक टुकड़ा अर्थात नेत्रभाग इस स्थान पर आकर गिरा था। इसीलिए इसे तारापीठ की संज्ञा दी गयी। इस कथा के अनुसार सती के नेत्रों के तारक बत्तीस योजन के त्रिकोण का निर्माण करते हुए तीन स्थानों पर गिरे थे। वैद्यनाथ धाम के उत्तरी दिशा में उत्तर वाहिनी द्वारिका नदी के पूर्वी तट पर महाश्मशान में श्वेत  शिमूल वृक्ष के मूलस्थान में सती का तीसरा ऊर्ध्व नेत्र गिरा था जिसे उग्रतारा पीठ कहा गया। मिथिला के पूर्व दक्षिणी कोने में भागीरथी के उत्तर दिशा में और त्रियुगी नदी के पूर्व दिशा में सती के बांयें नेत्र की मणि गिरी थी जिसे नील सरस्वती तारापीठ कहा गया तथा बंगुडा जिले के अन्तर्गत करतोया नदी के पश्चिम में दाहिने नेत्र की मणि गिरी थी तो इसे एक जटातारा और भवानी तारापीठ के नाम से जाना गया। तारापीठ का सम्बन्ध गौतमबुद्ध के बुद्धावतार से भी माना जाता है। यहां तारा की उपासना तिब्बती बौद्ध सम्प्रदाय में अत्यधिक प्रचलित है। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

पश्चिम बंगाल में इस स्थल का बहुत बड़ा महत्व माना जाता है। तारापीठ में एक लम्बा एवं सँकरा बाजार है और उसी के मध्य में तारा मां का मुख्य मन्दिर स्थित है। इसी बाजार में निगमानंद सिद्ध पीठ,वामाक्षेपा समाधि मंदिर,साधु वामा मिशन,श्री वामाक्षेपा बाबा आश्रम एवं वामदेव मंदिर स्थित है। यहीं पर तारापीठ के ठीक सामने महाश्मशान स्थित है। वामाक्षेपा उन्नीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध संत थे जो तारापीठ के उपासक और साधक के रूप में जाने जाते थे। इसके निकट ही द्वारिका नदी प्रवाहित होतीं हैं। महाश्मशान में तारा देवी का पादपद मंदिर बना हुआ है और मंदिर के निकट ही वामाक्षेपा की समाधि बनी हुई है। कहा जाता है कि महाश्मशान में मां तारा ने वामाक्षेपा को स्वयं दर्शन दिए थे इसीलिए वे सिद्ध संत माने जाते हैं। तारापीठ में ही मुण्डमलिनीतला स्थित है जहां मां तारा की मूर्ति स्थापित की गई है। इस स्थल के सम्बन्ध में मान्यता है कि मां तारा अपने गले की मुंडमाला यहां रखकर द्वारिका नदी में स्नान किया करतीं थीं और स्नान करने के पश्चात पुनः वह मुण्डमाला धारण कर लेती थीं। इसीलिए इसका नाम मुण्डमलिनीतला पड़ा । यह स्थल मुख्य तारापीठ मंदिर से २५० मीटर की दूरी पर स्थित है। 
तारापीठ बाजार में अनेकों दुकानें बनी हुई हैं जहां मां तारा के पूजन सामग्री हमेशा उपलब्ध रहती है। यहां पर ठहरने के लिए अनेकों धर्मशालाएं व होटल बने हुए हैं जिनमें मामूली चंदा देकर ठहरा जा सकता है।  यहां स्थित होटलों एवं धर्मशालाओं में भोजन की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है। यहां स्थित बाजार में स्थित दुकानों में पूजन सामग्री के अतिरिक्त अन्य वस्तुएं भी मिल जाती हैं। यहां स्थित दुकानों का संचालन प्रायः महिलाएं ही करतीं हैं। नवरात्रि व दुर्गापूजा के अवसर पर यहां विशेष धूमधाम देखने को मिलती है।    

Thursday, May 26, 2016

महालक्ष्मी मन्दिर

 आदिमाया महालक्ष्मी का प्रसिद्ध मन्दिर जो  कोल्हापुर में स्थित है तथा जिसे दक्षिण की काशी के नाम से भी जाना जाता है, को  एक शक्तिपीठ के रूप  में जाना जाता है।  कहा जाता है कि श्रद्धालुओं की समस्त मनोकामनाएं यहां महालक्ष्मी के दर्शन मात्र से ही पूर्ण हो जाती हैं। जगतजननी जगदम्बा को समर्पित यह मंदिर बहुत ही प्राचीन एवं भव्य मंदिर है। यहां के निवासीगण इस स्थल को भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी जी का निवास मानते हुए स्वयं को अत्यधिक गौरवशाली महशूस करते हैं। इसे दक्षिण की काशी की संज्ञा इसलिए दी जाती है क्योंकि काशी की भाँति कोल्हापुर में भी सैकड़ों मंदिर विभिन्न देवी देवताओं की स्मृति में बने हुए हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारत के महाराष्ट्र प्रान्त में कोल्हापुर शहर में महालक्ष्मी जी का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है।यह कोल्हापुर नगर के मध्य में ब्रह्मगिरि स्थल पर अन्य मंदिरों तथा बौद्ध स्तूपों के बीच अवस्थित है।  इस मंदिर की भव्यता ,प्राचीनता एवं माहात्म्य के कारण ही यह भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता है। इस मंदिर के चारों ओर चारों दिशाओं में चार विशाल दरवाजे बने हुए हैं। पश्चिमी दिशा में स्थित दरवाजा महाद्वार कहलाता है। कोल्हापुर मुम्बई से बंगलौर सड़कमार्ग द्वारा पूना से बस द्वारा १४६ मील चलकर पहुंचा जा सकता है। यहां का नजदीकी हवाई अड्डा बेलगाँव है जो कोल्हापुर से १५० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रेलमार्ग द्वारा यह भारत के सभी प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। पुणे से कोल्हापुर रेलमार्ग पर कोल्हापुर रेलवे स्टेशन पड़ता है।कोल्हापुर  के लिए मुंबई से रेल द्वारा मिराज होकर अथवा महाराष्ट्र एक्सप्रेस से पंहुचा जा सकता है।  कोल्हापुर नगर पुणे-बंगलौर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- ४ पर स्थित है और कोल्हापुर से मुम्बई ,पणजी ,मिराज ,सांगली ,पुणे ,सतारा ,सावंतवाडी ,सोलापुर और अन्य शहरों से राज्य परिवहन की नियमित बसों के द्वारा यहां तक पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

स्कन्दपुराण में इसे करवीर क्षेत्र कहा गया है क्योंकि मां लक्ष्मी नित्य निवास करतीं हैं :-
क्षेत्रं वै करवीराख्यं क्षेत्रं लक्ष्मी विनिर्मितम्। 
तत्क्षेत्रे हि महत्पुष्पं दर्शनात पापनाशनम्।  
कोल्हापुर में स्थित महालक्ष्मी मन्दिर को आदि महामाया मंदिर के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहां स्थित महालक्ष्मी का मंदिर बहुत अधिक प्राचीन एवं सिद्धपीठ के रूप में विश्व प्रसिद्ध है। पुराणों के अनुसार इस शक्तिपीठ में शक्तिमात्ता लक्ष्मी विराजमान होकर जनकल्याण के लिए अपने भक्तजनों का परिपालन करती आयीं हैं। कन्नड़ के चालुक्य साम्राज्य के शासनकाल में लगभग ७०० ई० पू० इस मंदिर का निर्माण होना बताया जाता है। यहाँ  एक काले पत्थर के विशाल चबूतरे पर देवी महालक्ष्मी की प्रतिमा स्थित है जिन्हें चार हाथ और सिर पर भव्य एवं भारी मुकुट धारण किये हुए प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि इस मुकुट का वजन ४० किलोग्राम है।  महालक्ष्मी की मूर्ति की ऊँचाई ४ फिट है तथा मंदिर की दीवार पर श्रीयंत्र का चित्र खुद हुआ है। मूर्ति के चारों हाथों में अपने निचले दाहिने हाथ में मातलुंगफल ,ऊपरी दाहिने हाथ में गदा ,ऊपरी बाएं हाथ में ढाल और निचले बांयें हाथ में जलपात्र कटोरा लिए हुए हैं। देवी के मुकुट में भगवान विष्णु के शेषनाग का चित्र बना हुआ है और मूर्ति के पीछे देवी के वाहन शेर की प्रतिमा बनी हुई है। 
यह मन्दिर द्रविण शैली में काले  मजबूत पत्थरों से बना हुआ है और इस मंदिर के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग बिल्कुल नहीं हुआ है।  शायद इसीलिए यह विगत १५०० वर्षों से  यथावत दिखाई पड़ता है। इस मंदिर की लम्बाई २०० फिट और चौड़ाई १५० फिट है। मूल मंदिर की ऊँचाई ६५ फिट है और इसके अन्दर स्थित नवग्रहों ,सूर्य ,महिषासुरमर्धिनि,विट्ठल रखमाई,शिवजी ,विष्णुजी ,तुलजाभवानी आदि देवी देवताओं की प्रतिमाएं बनी हुई हैं।  इनमें से कुछ प्रतिमाएं ११ वीं शदी की भी हैं। कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी को कुछ विद्वान विष्णुजी की पत्नी लक्ष्मी अथवा शिव जी की पत्नी पार्वती  न मानकर इन्हें आदिमाया जगदम्बा एवं जगतजननी की मूर्ति मानते हैं जो सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण हैं। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

महालक्ष्मी मन्दिर परिसर के आँगन में स्थित मणिकर्णिका कुण्ड के तट पर विशेश्वर महादेव जी का प्राचीन मन्दिर बना हुआ है। महालक्ष्मी मन्दिर के परिसर में ही विठ्ठल,सत्यनारायण,गौरी शंकर,काशी विश्वेश्वर, सिद्धेश्वर,दत्तात्रेय,नवग्रह,मुक्तेश्वरी,शाकम्बरी,कुंडलेश्वर,केदारलिंग,आदि कई छोटे छोटे मंदिर व धार्मिक स्थल बने हुए हैं। महालक्ष्मी मंदिर की दीवारों पर चौसठ योगिनियों की नृत्य मुद्रा में अनेक मूर्तियां बनायी गईं हैं।
त्रयंवुली मंदिर:-कोल्हापुर से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी पर त्रयंवुली मंदिर स्थित है जो महालक्ष्मी मंदिर के बाद दूसरा महत्वपूर्ण मंदिर माना जाता है। कहा जाता है कि त्रयंवुली महालक्ष्मी की छोटी बहन थीं। इसी पहाड़ी पर अन्य कई छोटे छोटे मंदिर बने हुए हैं। दक्षिणी कोल्हापुर के वारलिंगे गाँव में देवी कात्यायनी का मंदिर बना हुआ है जो यहां से १२ किलोमीटर की दूरी पर है। कोल्हापुर के घाट व तालाब बहुत ही  भव्य एवं सुन्दर बने हुए हैं। रंकाला नामक तालाब इतना भव्य है कि उसकी परिधि ५ किलोमीटर की है। कपिल तीर्थ व पद्मालय प्राचीनकाल के तालाब अब पाट दिए गए हैं। 
काशी विश्वेशवर मन्दिर :- यह यहां का प्रसिद्ध मंदिर है जो महालक्ष्मी मंदिर के उत्तर में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण छठी शताब्दी में करवाया गया था और इसका विस्तार राजा गोंडाडिक्स ने किया था । कहा जाता है कि  ऋषि अगस्ति ,लोपमुद्रा ,राजा प्रहलाद,और राजा इंद्रसेन भगवान शिव के दर्शन करने हेतु यहां पधारे थे। मंदिर के निर्माण के पूर्व यहां काशी और मणिकनिका नामक दो तालाब थे जिसमें से मणिकनिका तालाब के स्थान पर अब महालक्ष्मी उद्यान बनवा दिया गया है।
जोतिबा मंदिर:- कोल्हापुर से उत्तर में स्थित पहाड़ी पर जोतिबा मंदिर स्थित है जिसका निर्माण १७३० ई में नवाजीसवा ने करवाया था। इस मंदिर की वास्तुकला प्राचीन शैली की है और यहां स्थित प्रतिमा चार भुजाधारी है। जोतिबा को भैरव का पुनर्जन्म माना जाता है। भैरव ने महालक्ष्मी एवं रत्नासुर के मध्य हुए युद्ध में महालक्ष्मी का साथ दिया था। पहले इसका नाम रत्नगिरि था किन्तु स्थानीय लोगों ने बाद में इसे जोतिबा की संज्ञा दे दी।
महालक्ष्मी मंदिर के पश्चिम में स्थित रनकला झील पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र मानी जाती है। इस झील का निर्माण महाराजा छत्रपति शाहू जी ने करवाया था। कोल्हापुर मंदिरों का नगर तथा दक्षिण की काशी इसीलिए कही जाती है क्योंकि यहां पर सैकड़ों देवी देवताओं के मंदिर बने हुए हैं। यहां स्थित महालक्ष्मी मंदिर के सम्बन्ध में बताया जाता है कि सूर्य भगवान प्रत्येक वर्ष दो बार महालक्ष्मी के चरण स्पर्श करके उनकी पूजा करने हेतु यहां उपस्थित होते  हैं। रथसप्तमी के अवसर पर यह विशेष योग बनता है। प्रत्येक वर्ष जनवरी माह में भी यह योग देखा जाता है। यह आयोजन तीन दिन तक चलता है। प्रथम दिन सूर्य की किरणें देवी के चरणों पर पड़तीं हैं ,दूसरे दिन प्रतिमा के मध्य भाग को स्पर्श करतीं हैं और तीसरे दिन देवी के मुखमण्डल को प्रकाशमय करतीं हैं। जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा अपनी इष्ट देवी के निमित्त यहां पर पद्मावती मंदिर का निर्माण करवाया गया है। यहीं पर समाधि मंदिर रानीबाग के निकट स्थित है। यहां पर शम्भाजी ,शिवाजी एवं ताराबाई  की समाधियां बनी हुईं हैं। यहां स्थित गुफाओं में पावला एवं चैत्य प्रमुख हैं।    

Wednesday, May 25, 2016

मीनाक्षी

मीनाक्षी मन्दिर को मीनाक्षी सुंदरेश्वर अथवा मीनाक्षी अम्मां मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। यह हिन्दुओं के पूज्य देवाधिपति भगवान शिव एवं उनकी पत्नी माता पार्वती दोनों को समान रूप से समर्पित है।  यहां पर भगवान शिव को सुंदरेश्वर एवं माता पार्वती जी को मीनाक्षी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। सुंदरेश्वर का तात्पर्य सुंदर ईश्वर एवं मीनाक्षी का तात्पर्य मछली के आकार की आँखों वाली देवी होता है। कांचीपुरम के  कामाक्षी मंदिर की भांति काशी का विशालाक्षी मंदिर एवं तिरुवनैकवल का अकिलेदेश्वरी मंदिर सभी माता पार्वती को ही समर्पित  है। भारत का यह पावन तीर्थस्थल मदुरै अपने मीनाक्षी मंदिर के लिए ही विशेष रूप से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस नगर के नामकरण के लिए स्वयं भगवान शिव यहां अवतरित हुए थे और समस्त नगरवासियों को दर्शन देते हुए प्रसाद के रूप में दैविक द्रव्य का छिड़काव यहां पर किया था।  तभी से इसे मदिरापुरी और बाद में मदुरै कहा जाने लगा। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के तमिलनाडु प्रान्त में स्थित मदुरै शहर में मीनाक्षी देवी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यह मदुरै नगर में बाइबई {वेगा } नदी के दक्षिणी तट पर लगभग ६५ हजार वर्गमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इस मंदिर के  परिसर में बारह भव्य गोपुरम स्थापित किये गए हैं। इसका गर्भगृह लगभग ३५०० वर्ष पुराना बताया जाता है और इसकी बाहरी दीवार एवं अन्य निर्माण १५००-२००० वर्ष पुराने हैं। इस मंदिर का निर्माण ४५ एकड़ भूमि पर हुआ है जिसमें मुख्य मंदिर की लम्बाई २५४ मीटर एवं चौड़ाई २३७ मीटर है। मदुरै नगर मद्रास से ४९२ किलोमीटर,रामेश्वरम से १६४ किलोमीटर एवं त्रिवेंद्रम से ३३३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां तक हवाईमार्ग,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। मदुरई हवाईमार्ग द्वारा चेन्नई व त्रिची से जुड़ा हुआ है। दक्षिण रेलवे का यह एक प्रमुख जंकशन है और चैन्नई व तिरुनेलवेली का साथ जुड़ा  भी है।केरल प्रदेश के  अन्य सभी नगरों से यह सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

हिन्दू -धर्म पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में मदुरै का वर्णन मिलता है। इसके सम्बन्ध में पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव सुंदरेश्वर के रूप में अपने गणों के साथ पाण्ड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरै आये थे क्योंकि मीनाक्षी पार्वती की अवतार थीं एवं राजा मलयध्वज की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर पार्वती जी ने उनकी पुत्री के रूप में उनके यहां जन्म लेने का वरदान दिया था। भगवान शिव यहां आकर राजा की पुत्री मीनाक्षी से विवाह का प्रस्ताव भी स्वयं ही किया था जिसे मीनाक्षी ने भी स्वीकार कर लिया था। कहा जाता है कि इस विवाहोत्सव में सम्पूर्ण आर्यावर्त के नागरिक एवं देवताओं ने भाग लिया था। भगवान विष्णु ने स्वयं बैकुण्ठ से इस विवाह का संचालन किया था किन्तु इन्द्र के कारण उन्हें इस विवाह में आने में थोड़ा विलम्ब हो गया था तभी विवाह कार्य स्थानीय देवता द्वारा सम्पन्न करा दिया गया था। बाद में जब भगवान विष्णु यहां पहुंचे तब उन्हें पश्चाताप हुआ और वे दोबारा मदुरै न आने की प्रतिज्ञा कर ली थी और नगर की सीमा के बाहर स्थित पर्वत अलगार कोइल में बस गए थे। बाद में देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने मीनाक्षी एवं सुंदरेश्वर का पाणिग्रहण करवाया था। इन दोनों घटनाओं की यहां उत्सव के दौरान आज भी प्रस्तुति की जाती है। 
कहा जाता है कि ईशा से छठी शताब्दी पूर्व कुलशेखर नामक पाण्ड्य राजा ने इस नगर की स्थापना की थी।शताब्दियों से तमिल साहित्य और संस्कृति के केन्द्र रह चुके मदुरई का दक्षिण में वही स्थान है जो उत्तर भारत में विद्या के क्षेत्र में काशी का है।  

 अन्य दर्शनीय स्थल :-

मीनाक्षी मंदिर की स्थापत्य कला एवं वास्तुकला दोनों अदभुत है। इसीलिए इसे आधुनिक विश्व के सात आश्चर्यो की सूची में प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस मंदिर के १२ गोपुरम की भव्यता देखते ही बनती है और इसमें कुशलतापूर्वक की गई चित्रकारी मन को सहज ही आकर्षित कर लेती  है। इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप सत्रहवीं शताब्दी में प्रकाश में आया था। इस मंदिर में भगवान विष्णु को मीनाक्षी का पाणिग्रहण संस्कार कराते हुए उनका हाथ भगवान शिव के हाथ में देते हुए दिखाया गया है। 
सुंदरेश्वर मंदिर :-  यहां स्थित मीनाक्षी मंदिर के अंदर दो मंदिर बने हुए हैं जिसमें एक मीनाक्षी मंदिर और दूसरा सुंदरेश्वर शिव जी का मंदिर है। सुंदरेश्वर मंदिर में भगवान शिव नटराज की मुद्रा में दिखाए गए हैं। मंदिर परिसर में ही एक तालाब स्थित है जिसमें स्नान करके दर्शनार्थी मंदिर में प्रविष्ट होते हैं। मीनाक्षी मंदिर के दर्शन के बाद ही सुंदरेश्वर मंदिर में शिवजी का दर्शन करना आवश्यक होता है अन्यथा तीर्थयात्रा अधूरी मानी जाती है।  भगवान शिव की यहां नटराज मुद्रा में स्थित मूर्ति एक बड़ी चाँदी की वेदी में बंद है इसीलिए इन्हें वेल्लीअम्बलम {रजत आवासी }कहते हैं। यहीं पर एक गणेश जी का मंदिर भी है जिसे मुकुरवय विनायगर कहते हैं। कहा जाता है कि इस मूर्ति को तालाब की खुदाई से प्राप्त किया गया था। यहीं पर पोत्रमारै सरोवर स्थित है जिससे इंद्र ने स्वर्ण कमल तोड़े थे। यह पवित्र सरोवर १६५ फिट  लम्बा व १२० फिट चौड़ा है। भक्तगण मंदिर में प्रवेश के पूर्व इसकी परिक्रमा किया करते हैं। 
 सहस्र स्तम्भ मण्डप:- मीनाक्षी मंदिर के परिसर में ही सहस्र स्तम्भ मण्डप स्थित है जिसकी शिल्पकला बहुत ही आकर्षक है।मंदिर के पूर्व में शतस्तम्भ मण्डप स्थित है जिसके प्रत्येक स्तम्भ पर तत्कालीन शासकों एवं उनकी रानियों के चित्र अंकित किये गए हैं। इसमें  एक हजार खम्भे बने हैं तथा यह भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुरक्षण में है। इस मण्डप में मंदिर का एक कला संग्रहालय भी स्थित है जिसमें मूर्तियों,चित्रों एवं छायाचित्रों की १२०० वर्ष पूर्व की कलाकृतियां उपलब्ध हैं। इस मंडप के बाहर पश्चिम की ओर संगीतमय स्तम्भ है जिसके स्तम्भ पर हाथ रखने से संगीतमय स्वर स्वतः  निकलते हैं। स्तम्भ मण्डप के दक्षिण में कल्याण मण्डप स्थित है जहां प्रतिवर्ष चैत्रमास में चितिरड उत्सव मनाया जाता है। 
स्वर्णकमल सरोवर :-  मीनाक्षी मंदिर के अन्दर एक सरोवर है जिसे स्वर्णकमल सरोवर कहा जाता है। इसमें गोपुरम का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। श्रद्धालुगण इसी में स्नान करते हैं। सरोवर के चारों ओर बरामदे बने हुए हैं जिनकी दीवारें देवी देवताओं के कथा चित्र से अलंकृत हैं। यहां अदभुत सिंह की मूर्ति बनी हुई है। 
मीनाक्षी मंदिर का सर्वाधिक आकर्षक उत्सव मीनाक्षी तिरुकल्याणम है जिसमें रथयात्रा निकाली जाती है। इसके अतिरिक्त अन्य पर्व जैसे नवरात्रि एवं शिवरात्रि पर भी यहां बड़े धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष चैत्रमास में यहां मीनाक्षी एवं सुंदरेश्वर का विवाहोत्सव मनाया जाता है जो पूरे दस दिन तक चलता है। बाद में इसी स्थल पर सार्वजनिक विवाह का कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है जिसमें अनेकों नव वर वधुएं परिणय सूत्र में बंधती हैं।  

Monday, May 23, 2016

कन्याकुमारी

 भारत के दक्षिण भाग में समुद्रतट के किनारे स्थित कन्याकुमारी को हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल माना जाता है। यहां पर मां पार्वती जी ने अपने आराध्यदेव शिव जी को प्रसन्न करने हेतु घोर तपस्या की थी और उन्हीं की पुण्य स्मृति में यहां पर एक शक्तिपीठ की भी स्थापना की गई  थी जिसे सम्प्रति कन्याकुमारी मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यहां पर शक्तिस्वरूपा भद्रकाली के साक्षात् दर्शन होते हैं।चूँकि पार्वती जी का उपनाम कन्याकुमारी भी है इसीलिए यहां स्थित मंदिर में कन्याकुमारी की भव्य एवं विशाल मूर्ति स्थापित की गई है। कन्याकुमारी स्थल प्राचीनकाल से ही भारतीय कला,संस्कृति एवं सभ्यता का परिचायक रहा है। भारत के सुन्दरतम पर्यटक केंद्र के रूप में इसकी गणना की जाती है क्योंकि दूर दूर तक फैली समुद्र की विशाल लहरों के मध्य यहां का सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों का  अप्रतिम दृश्य देखने हेतु श्रद्धालु भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी यहां आते रहते हैं। यहां पर सूर्य बंगाल की खाड़ी से उदित होकर अरबसागर की ओर अस्त हो जाते हैं।  समुद्र की बीच पर फैली  हुई रंग विरंगी रेत इसकी सुंदरता में अतिशय श्रीवृद्धि कर देती हैं। यहीं पर समुद्र के किनारे विवेकानन्द रॉक स्थित है जिसपर स्वामी विवेकानन्द के जीवन से संबन्धित वस्तुएं व उनकी स्मृतियों  को संजोया गया है एवं उनसे सम्बंधित घटनाओं का सजीव चित्रण किया गया है। यहां पर तीन महासागरों यथा हिन्द महासागर,अरब महासागर एवं बंगाल की खाड़ी के संगमस्थल पर श्रद्धालुगण पवित्र स्नान करते हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारत के तमिलनाडु प्रान्त के सुदूर दक्षिणी तट पर बसा हुआ एवं भारत -भूमि के अंतिम किनारे पर समुद्रतट से लगा हुआ कन्याकुमारी शहर स्थित है।  इसके पूर्व में बंगाल की खाड़ी ,पश्चिम में अरब महासागर और दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित है।  कन्याकुमारी को इन्हीं तीन महासागरों का संगमस्थल कहा जाता है।  इस तीर्थस्थल तक पहुँचने के लिए हवाईमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग तीनों साधन उपलब्ध हैं। यहां का निकटतम हवाईअड्डा त्रिवेंद्रम है। भारत के किसी भी स्थान से रेलमार्ग द्वारा त्रिवेंद्रम उतरकर त्रिवेंद्रम से दूसरी रेलवे लाइन से कन्याकुमारी पहुंचा जा सकता है।यह तमिलनाडु के अन्य नगरों से सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।पहले कन्याकुमारी केरल प्रान्त में था किन्तु सन १९५७ ई० में यह तमिलनाडु में सम्मिलित हो गया था वर्तमान में यह तमिलनाडु के एक जिले के रूप में जाना जाता है। प्राचीनकाल में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक के विशाल भूभाग पर भरत नामक राजा राज्य करते थे।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

कन्याकुमारी के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति द्वारा कराये जा रहे यज्ञ के हवनकुंड में अपनी आहुति दे देने के पश्चात राजा विंध्याचल में यहां उनकी पुत्री के रूप  में जन्म लिया था। यहां इनका नाम पार्वती रखा गया था। पार्वतीजी ने भगवान शिव को पुनः अपने पति के रूप में प्राप्त करने के लिए यहीं पर उनकी घोर तपस्या की थी। पार्वती के तपस्यारत होने की सूचना नारद द्वारा जब भगवान शिव को प्राप्त हुई तब भगवान शिव ने राजा विध्याचल के घर जा करके उनकी पुत्री पार्वती का हाथ माँगा। राजा विंध्याचल ने शिवजी के प्रस्ताव को स्वीकार कर पार्वती का विवाह शिव जी के साथ करने की तैयारी करने लगे। भगवान शिव जब अपनी बारात लेकर राजा विंध्याचल के घर पहुंचे तब नाच गाने एवं अधिक भीड़ के कारण  विवाह की शुभमुहूर्त बीत गयी थी और ऐसी स्थित में उनका विवाह शुभमुहूर्त में सम्पन्न होने में कठिनाई उत्पन्न हो गई। नारदजी ने राजा को समझाया कि भगवान शिव अखिल ब्रह्माण्ड के अधिपति हैं।  अतः उनके विवाह के लिए किसी लग्न की आवशयकता नहीं है, तब राजा ने पार्वती जी का विवाह शिवजी के साथ करने को उद्यत हुए। इसीलिए इस स्थान को कन्याकुमारी के नाम से जाना गया। एक दूसरी घटना का वर्णन भी पुराणों में मिलता है जिसके अनुसार शिव ने वाणासुरन  नामक असुर को यह वरदान दे दिया था कि उसका वध किसी कुंवारी कन्या के हाथ होगा।  उसी समय राजा भरत ने अपने आठ पुत्रों एवं एकमात्र  कुमारी नामक कन्या को अपने साम्राज्य के बराबर- बराबर भाग को उन्हें शासन करने हेतु दे दिया था जिसमें भारत का दक्षिणी भाग पुत्री को मिला था। पुत्री ने इस भूभाग पर सफलतापूर्वक शासन किया किन्तु उसकी सुंदरता से मोहित होकर वाणासुरन ने उसके साथ विवाह करने का प्रस्ताव रख दिया जबकि पुत्री भगवान शिव से विवाह करना चाहती थी। राजा की पुत्री कुमारी ने उसका प्रस्ताव इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया कि यदि बाणासुरन उसे युद्ध में हरा देगा तब यह विवाह संभव हो सकता है।  वाणासुरन ने शर्त स्वीकार करके कुमारी के साथ युद्ध किया और कुमारी कन्या के हाथ मारा गया।  कहा जाता है कि कुमारी  के नाम पर ही  बाद में इस स्थान का नाम कन्याकुमारी रखा गया। कन्याकुमारी में फैली हुई  रंग विरंगी रेत के सम्बन्ध में बताया जाता है कि कुमारी एवं शिवजी के विवाह की तैयारी के सभी सामान यहां पर रंग बिरंगी रेत में परिवर्तित हो गए थे। 
यहां पर समुद्रतट से थोड़ी दूरी पर समुद्र के मध्य एक छोटी सी पहाड़ी स्थित है और उसी पहाड़ी की एक शिला पर पार्वती जी के चरण चिह्न आज भी मौजूद हैं। पार्वती जी ने जहां पर तपस्या की थी, उस स्थान को अब विवेकानंद रॉक के नाम से जाना जाता है और इसी रॉक पर विवेकानंद का स्मारक बना हुआ है। स्मारक के निकट ही स्वामी राम कृष्ण परमहंस व उनकी पत्नी सरोदा देवी का मंदिर बना हुआ है। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यहां का मुख्य आकर्षण का केंद्र कन्याकुमारी मंदिर एवं विवेकानंद रॉक स्थित उनका स्मारक माना जाता है। 
 गांधी स्मारक :- कन्याकुमारी मंदिर के निकट स्थित स्थल जहां से गांधीजी की अस्थियां सागर में प्रवाहित की गईं थीं, पर गांधी स्मारक बना हुआ है।इस स्मारक का निर्माण सन् १९५२ में किया गया था। इस स्मारक का निर्माण इस प्रकार से किया गया था कि गांधीजी के जन्म दिवस पर सूर्य की किरणे उस स्थल पर पड़ें जहां उनकी राख रखी गई थी।
 विवेकानंद स्मारक :-  यहां पर समुद्र के किनारे स्थित घाट से आगे बांयी ओर एक बड़ी चट्टान स्थित है जिसे श्रीपाद शीला के नाम से जाना जाता है। स्वामी विवेकानंद जब कन्याकुमारी आये थे तब वे समुद्र में तैरकर उस शिला तक पहुंचे थे और उसी शिला पर तीन दिन एवं तीन रात उपवास करते हुए आत्मचिन्तन किया था। इसी शिला पर विवेकानंद की भव्य प्रतिमा स्थापित करते हुए एक स्मारक बनवाया गया है। इसे विवेकानंद स्मारक के नाम से जाना जाता है।  इसी के निकट विवेकानंद रॉक मेमोरियल बना हुआ है जिसे  विवेकानंद मंडपम एवं श्रीपद मंडपम दो भाग में विभक्त किये गए हैं।           
 कन्याकुमारी अम्मन मंदिर :- मां पार्वती जी को समर्पित सागर के मुहाने के दांयीं ओर कन्याकुमारी अम्मन नामक एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है जो तीनों सागरों के संगम पर स्थित है। यहां से ५०० मीटर की दूरी पर स्थित त्रिवेणी संगम में स्नान करके दर्शनार्थी इस मंदिर में दर्शनार्थ प्रविष्ट होते हैं। यहीं पर अमर तमिल कवि तिरुवल्लूर की ९५ फिट ऊंची प्रतिमा ३८ फिट ऊंचे चबूतरे के आधार पर स्थापित है।  कन्याकुमारी अम्मन


थानुमलायन मंदिर :-  कन्याकुमारी से १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित सुचिन्द्रम नामक छोटे से गाँव में थानुमलायन मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर में स्थापित हनुमान जी की ६ मीटर ऊंची मूर्ति बहुत ही भव्य व आकर्षक दिखाई पड़ती है। मंदिर के गर्भगृह में ब्रह्माजी, विष्णुजी एवं महेशजी की मूर्तियां स्थापित हैं। कन्याकुमारी से २० किलोमीटर की दूरी पर नागराज मंदिर स्थित है जो नागदेव समर्पित है। 
यहीं पर भगवान शिव व विष्णु जी के दो अन्य मंदिर बने हुए हैं। कन्याकुमारी से ४५ किलोमीटर दूर स्थित पदनामवुरम  महल त्रावणकोर के राजा द्वारा बनवाया गया था। कन्याकुमारी से १३७ किलोमीटर की दूरी पर कोईटालम नामक झरना स्थित है जिसका जल औषधीय गुणों से परिपूर्ण माना जाता है।     
सुब्रमण्यम मंदिर :-          कन्याकुमारी से ८५ किलोमीटर दूर तिरुचेंदूर में भगवान सुब्रमण्यम को समर्पित एक मंदिर बना हुआ है    जो बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित है। कन्याकुमारी से ही ३४ किलोमीटर की दूरी पर उदयगिरि किला स्थित है जिसका निर्माण राजा मरतंड वर्मा द्वारा १७२९ -१७५८ ई०  के दौरान किया  था। 
कन्याकुमारी की यात्रा बहुत ही आनंददायक एवं अविस्मरणीय होती है क्योंकि यहां आने पर तीर्थस्थल के दर्शन के साथ साथ पर्यटन का भी भरपूर आनंद लिया जा सकता है। यहां पर ठहरने के लिए होटल एवं धर्मशालाओं की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है।  

Sunday, May 22, 2016

नान्देड़ साहिब

सिक्ख मतावलम्बी भारत ही नहीं बल्कि विश्व के लगभग सभी देशों में फैले हुए हैं और जहां जहां भी वे सम्प्रति प्रवास कर रहे हैं वहां वहां अपने धार्मिक स्थल भी स्थापित किये हैं।  सिक्खों के पांच महान तख्तों में श्री नान्देड़ साहिब एक प्रमुख तख्त माना जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोविन्द सिंह जी ने जीवनभर अत्याचार एवं अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किये थे तथा उन्होंने सिक्ख धर्म को मानवता के संदेश के रूप में प्रतिष्ठित किया था और उन्होंने जीवनपर्यंत संघर्ष करते हुए सिक्खगुरु के गुरुतर भार का निर्वहन किया तथा अंत में नांदेड़ में ही अपने शरीर का परित्याग कर दिया था। उन्हीं की पुण्यस्मृति में नान्देड़ साहिब को सिक्खधर्म के तीर्थस्थल के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। इसी कारण सम्प्रति राज्य सरकार ने भी इसे पवित्र शहर की मान्यता प्रदान कर दी है।  सम्प्रति नान्देड़ स्थित सचखण्ड गुरुद्वारा देश एवं विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बन गया है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के महाराष्ट्र प्रान्त में दककन के पठारी क्षेत्र में गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ नांदेड़ शहर सम्प्रति महाराष्ट्र राज्य के प्रमुख शहरों में से एक माना जाता है। महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पश्चात इसी शहर को महत्ता प्रदान की गई है। नंदातट के कारण इसे नांदेड़ शहर की संज्ञा दी गई थी। प्रारम्भ में यह नन्दीग्राम के नाम से जाना जाता था। यहां तक पहुंचने के लिए वायुमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। औरंगाबाद हवाई अड्डा यहां का निकटतम हवाई अड्डा है जो देश के अनेक घरेलू  हवाई अड्डों से जुड़ा हुआ है।  मुंबई से यहां तक पहुँचने के लिए प्रतिदिन हवाई सेवाएं उपलब्ध रहतीं हैं। नांदेड़ रेलवे स्टेशन मुंबई,पुणे,बंगलौर,दिल्ली, अमृतसर,भोपाल,इंदौर,आगरा,हैदराबाद,जयपुर,अजमेर, औरंगाबाद एवं नासिक शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। यह शहर सड़कमार्ग से भी राज्य के समस्त नगरों से जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन की बसें एवं निजी बसें मुंबई,पुणे एवं हैदराबाद शहरों से नियमित रूप से चलायी जाती हैं। नान्देड़ मुंबई शहर से ६५० किलोमीटर और हैदराबाद से २७० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

सातवीं शताब्दी ई पू० नंदातट मगध साम्राज्य की सीमा थी और यहां सातवाहनों ,चालुक्यों ,राष्ट्रकूटों एवं देवगिरी के यादवों का शासन काफी समय तक रहा और मध्यकाल में वहमनी,निजामशाही,मुगल एवं मराठा शासकों ने यहां पर शासन किया था। आजादी के पूर्व आधुनिक काल में यह हैदराबाद के निजामों एवं अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में रहा। प्राचीनकाल में यह शहर वेदान्त,शास्त्रीय संगीत,नाटक,कला एवं साहित्य का प्रमुख केंद्र रहा था। सिक्ख तीर्थस्थल के रूप में इसकी चर्चा विशेषरूप से होती है। यहां पर स्थित गुरुद्वारा पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा १८३० से १८३९ के मध्य बनवाया गया था। यह गुरुद्वारा सिक्खों के पांच महान तख्तों में से एक है। सचखण्ड श्री हुजूर अवचलनगर साहिब गुरुद्वारा पंजाब के स्वर्णमंदिर के समान बना हुआ है। इसी स्थल पर सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने प्राण त्याग किये थे। सचखण्ड गुरुद्वारा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि भाई जैताजी जब अपने पूज्य पिता का शीश लेकर आनंदपुर पहुंचे थे तब उन्होंने इसे ईश्वर का विधान मानते हुए एवं तत्कालीन परिस्थितियों के दृष्टिगत नाहन {पऔंटा साहिब } चले जाना उचित समझा था किन्तु बाईधार के राजपूतों ने वहां जाकर लड़ाई प्रारम्भ कर दी और भंगानी के किनारे भयंकर युद्ध हुआ जिसमें बाईधारी को हार खानी पड़ी। इसके बाद नान्देड़,हुसैनी,आनंदपुर साहिब,चमकोट और मुक्तसर की लड़ाइयों का सामना करना पड़ा। गुरूजी ने आनंदपुर के २८ साल प्रवास के दौरान कुल १४ युद्ध लड़े ततपश्चात १७०८ ई में दक्षिण भारत चले गए और वहां पर औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों के मध्य छिड़े युद्ध में बहादुरशाह की सहायता उन्हें करनी पड़ी। उन्होंने आगरा के निकट खालसा कौम ने भाई दयासिंह के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी। इसी मध्य बहादुरशाह के भाई कमबक्श ने बगावत कर दी।    बहादुरशाह गुरु जी को साथ लेकर दक्षिण की तरफ नांदेड़ आ गए और यहीं पर गोदावरी नदी के किनारे गुरूजी ने अपना डेरा दाल दिया तथा वहीं से बहादुरशाह  गुरूजी से आज्ञा लेकर हैदराबाद वापस चला गया।इसके बाद यहीं पर गुरूजी ने सर्वप्रथम अपनी तपस्थली के रूप में सचखण्ड साहिब को प्रगट करके एक तख़्त की स्थापना कर दी। यहीं गुरुग्रन्थ साहिब को श्रद्धासुमन अर्पित किये तथा कार्तिक सुदी पंचमी १७६५ विक्रम संवत को नांदेड़ में ही अपने शरीर त्यागकर समाधिस्थ हो गए। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

नांदेड़ नगर में स्थित सचखण्ड गुरुद्वारा तथा उसी के निकट बने हुए अन्य आठ गुरुद्वारे यहां के प्रमुख आकर्षण के केंद्र हैं। इसके अतिरिक्त माहुर में स्थापित हिन्दू धर्म की प्रधान शक्तिपीठ को भी एक तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है।
रेणुका देवी का मन्दिर :- माहुर गाँव  से २ किलोमीटर की दूरी पर रेणुका देवी का प्रसिद्ध मन्दिर बना हुआ है जो एक पहाड़ी पर स्थित है। इसकी नींव देवगिरी के यादव वंश के राजा ने आठ नौ सौ वर्ष पूर्व डाली थी। दशहरा के पर्व पर यहां एक विशाल मेले का आयोजन करके माता रेणुका देवी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है। देवी रेणुका भगवान परशुराम जी की माता थीं। 
नांदेड़ में ही बिलोली की मस्जिद जिसका निर्माण १७ वीं शताब्दी के अंत में हजरत नवाब सरफराज खां ने करवाया था ,स्थित है। नांदेड़ शहर के मध्य में बना हुआ कंधार का किला भी यहां का प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। इस किले की स्थापना राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने करवाया था। 
मालेगाँव :- यहीं पर स्थित मालेगाँव जिसे तालुका लोहा के नाम से भी जाना जाता है ,नांदेड़ से ५७ किलोमीटर की दूरी पर है। भगवान खानदोवा की पुण्य स्मृति में एक मेला  यहां पर प्रतिवर्ष आयोजित होता है और इसे  ही मालेगांव यात्रा भी कहा जाता है।
सिद्धेश्वर मन्दिर :यहां के देगलूर तालुक में स्थित होटटल में सिद्धेश्वर का प्रसिद्ध मन्दिर बना हुआ है जो चालुक्य काल में पत्थरों को काटकर विधिवत उसे तराशकर बनवाया गया है।
नांदेड़ का किला:- यहीं पर नांदेड़ का किला नांदेड़ रेलवे स्टेशन से ४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जो तीन ओर से गोदावरी नदी से घिरा  हुआ है। किले के भीतर एक विशाल बगीचा एवं एक भव्य फौव्वारा बना हुआ है। यहीं पर उनकेश्वर नामक एक गर्म पानी का झरना पेंगांग नदी के तट पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि यह प्राकृतिक झरना अनेक रसायनों से युक्त है, इसीलिए इसमें स्नान करने से त्वचारोग तत्काल ठीक हो जाता है। 

Friday, May 20, 2016

नासिक

नासिक को भारत का एक प्रमुख पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। भगवान श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान माता सीता एवं लक्ष्मण के साथ यहां काफी दिनों तक प्रवास किया था। यह स्थल पावन गोदावरी नदी जो भारत की सात पवित्र नदियों में से एक मानी जाती हैं ,का उदगम स्थल भी माना जाता है। यहां पर सांकेतिक रूप से अनेकों तीर्थ विद्यमान बताये जाते हैं और यहां पर प्रत्येक बारह वर्ष के पश्चात कुम्भ मेले का आयोजन होता है। नासिक के अतिरिक्त प्रयाग {इलाहबाद },उज्जैन एवं हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। यहां के कुम्भ मेले में लाखों श्रद्धालु गोदावरी के पवित्र जल में स्नान करते हैं तथा आत्मशुद्धि प्राप्त करके समस्त पापों से मुक्त हो जाते है। यहां पर शिवरात्रि का पर्व भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहां गोदावरी के तट पर निर्मित घाट बहुत ही सुन्दर,स्वच्छ एवं आकर्षक हैं। नासिक शहर का अधिकांश भाग नासिक पंचवटी कहलाता है। यहां पर हिन्दू धर्म के कई मंदिर बने हुए हैं और त्यौहारों के समय इन मंदिरों में बहुत अधिक भीड़ देखने को मिलती है। इसीलिए नासिक को हिन्दू तीर्थयात्रियों का प्रमुख केंद्र माना जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के महाराष्ट्र राज्य में नासिक शहर के अन्तर्गत यह तीर्थस्थल गोदावरी के पावन तट पर स्थित है। यह महाराष्ट्र के उत्तर पश्चिम में स्थित मुम्बई से लगभग १५० किलोमीटर और पुणे से लगभग २०५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नासिक शहर का मुख्य भाग पंचवटी में स्थित है। यह समुद्रतल  से ५६५ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसका निकटवर्ती अन्तर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा मुंबई है जो नासिक शहर से २०० किलोमीटर की दूरी पर है। हवाई अड्डे से यहां तक प्रीपेड टैक्सी अथवा बस द्वारा पहुंचा जा सकता है। इसका निकटतम रेलवे स्टेशन नासिक रोड है और यह महाराष्ट्र के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है। रेलमार्ग से यहां तक पहुँचने के लिए मुंबई से नागपुर,कलकत्ता,बिहार और उत्तरप्रदेश की ओर जाने वाली किसी भी ट्रेन से नासिक रोड रेलवे स्टेशन पर उतरकर पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से मुंबई रेलमार्ग पर भी नासिक रोड रेलवे स्टेशन पड़ता है और यहां से नासिक तीर्थस्थल मात्र ६ किलोमीटर व पंचवटी ८ किलोमीटर दूर पड़ता है जहां से तांगा, टैक्सी अथवा बस द्वारा आसानी से यहां पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

नासिक को आस्था का तीर्थस्थल एवं शहर माना जाता है।  पुराणों में बताया गया है कि सतयुग में यहां पर भगवान ब्रह्माजी ने पद्मासन में स्थित होकर भगवान विष्णु की तपस्या की थी इसीलिए इसे पदमनगर भी कहते हैं। त्रेतायुग में लक्ष्मण ने सूपर्णखा की नाक यहीं पर काटी थी अतः इसे नासिक की संज्ञा प्रदान की गई और खरदूषण एवं त्रिशिर नामक राक्षसों के निवास के कारण इसे त्रिकण्टक कहा गया। द्वापर में राजा जनक द्वारा यहां यज्ञ किये जाने के कारण इसे जनकस्थली कहा जाता था। नासिक को हरिहर क्षेत्र भी कहा जाता है क्योंकि जालंधर राक्षस की पत्नी वृन्दा के श्राप से भगवान विष्णु जब सालिग्राम हो गए थे तब उन्होंने यहीं पर आकर गोदावरी में स्नान करके अपने पूर्व रूप को प्राप्त किया था। यह भी कहा जाता है कि ब्रह्माजी अपने पांच मुखों में से चार मुखों से वेदपाठ करते थे और पांचवे मुख्य से भगवान विष्णु की निंदा किया करते थे। यह देखकर भगवान शिव ने ब्रह्मा के पांचवे मुख्य को अपने त्रिशूल से काट दिया था और वे ब्रह्महत्या के भागी बन गए थे। इससे निवारण के लिए वे घूमते हुए ऐसे स्थान पर जा पहुंचे जहां एक बछड़ा अपनी मां से यह कह रहा था कि आज मालिक जब मेरे गले में रस्सी बांधने आएगा तब मैं उसे अपनी सींगों से मार डालूंगा। गाय ने उसे समझाते हुए कहा कि ऐसा करोगे तब तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। बछड़े ने तुरंत उत्तर दिया कि ब्रह्महत्या के  मुक्त करने वाला तीर्थ मुझे मालूम है। ऐसा सुनकर भगवन शिव कुछ देर वहीं ठहर गए और जब वह बछड़ा अपने मालिक को मारकर भागने लगा तब तब उन्होंने उसका पीछा किया और पीछा करते हुए वे नासिक के पंचवटी तीर्थ आ गए और वहां रामतीर्थ करुणा संगम में बछड़े के साथ साथ स्नान करके पापमुक्त हो गए। तभी से शिवजी वहां कपालेश्वर के रूप में निवास करने लगे किन्तु बछड़े को अपना गुरु मानते हुए उसे अपने पास में स्थान नहीं दिया। कपालेश्वर ही ऐसा स्थान है जहां शिवजी  के साथ नंदी की प्रतिमा स्थापित नहीं है। 
नासिक के सम्बन्ध में एक अन्य कथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार समुद्रमंथन से निकले चौदह रत्नों में एक अमृतकलश भी था जिसे प्राप्त करने हेतु देवताओं एवं राक्षसों में भयंकर युद्ध हुआ तभी इन्द्रपुत्र जयन्त  वह अमृतकलश लेकर कहीं दूर भाग गया था और जिन जिन स्थानों पर उसने विश्राम किया था वहां वहां अमृत की कुछ बुँदे जमीन पर टपक गईं थीं। यह चारों स्थान प्रयाग,नासिक,उज्जैन एवं हरिद्वार था। कहते हैं कि यहां पर देवताओं एवं राक्षसों के मध्य बारह दिन तक युद्ध चला था। अतः इन बारह दिनों को बारह वर्ष के समतुल्य मानते हुए इन चारों स्थानों पर बारह वर्ष के अंतराल में कुम्भ मेले का आयोजन होने लगा। 
नासिक में पितृतर्पण एवं श्राद्ध करने का बड़ा महत्व बताया गया है। इसीलिए यहां पर श्रीराम ने अपने पिता का श्राद्ध जिस स्थान पर किया था उस स्थल को रामकुण्ड अथवा रामतीर्थ के नाम से जाना गया। यह भी कहा जाता है कि गंगावतरण के समय गंगा के प्रचण्ड वेग को रोकने हेतु गौतम ऋषि ने कुश का एक तिनका मार्ग में डालकर उसके वेग को पाताललोक की ओर मोड़ दिया था। वास्तविकता का ज्ञान होने पर गौतम ऋषि भगवान विष्णु से अनुरोध किया तब विष्णुजी ने अपने सुदर्शन चक्र चलाकर पाताल लोक से गंगाजी को वापस ले आया। जिस स्थान पर उन्होंने सुदर्शन चक्र से प्रहार किया था वह स्थल चक्रतीर्थ के नाम से जाना गया। 
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार नासिक कभी शक्तिशाली सातवाहन राजाओं की राजधानी भी थी। मुगलकाल में नासिक को गुलशनबाद के नाम से जाना जाता था।  नासिक ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया था तथा आंबेडकर ने १९३२ ई में नासिक के कालेराम मंदिर में अस्पृश्यों के प्रवेश हेतु एक आंदोलन यहीं से चलाया था। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

गोदावरी के दक्षिणी किनारे पर स्थित शहर को नासिक तथा उत्तरी किनारे पर स्थित भूभाग को नासिक पंचवटी के नाम से जाना जाता है।
 नासिक पंचवटी:- नासिक पंचवटी में रामकुण्ड ,सीताकुण्ड,लक्ष्मणकुण्ड एवं धनुषकुण्ड स्थित हैं जिनमें रामकुण्ड को सर्वाधिक महत्व देते हुए उसे रामतीर्थ की संज्ञा दी गई। यहां स्थित पावन गोदावरी के दोनों तटों पर अनेक मंदिर बने हुए हैं। पंचवटी शहर के उत्तरी भाग में स्थित है जहां पर भगवान राम ने सीता व लक्ष्मण के साथ कुछ समय तक निवास किया था और यहीं से सीता जी को रावण ने अपहृत किया था। सूपर्णखा की नाक लक्ष्मण ने यहीं पर काटी थी।  इसीलिए यहां पर सीतागुम्फा स्थित है। 
सुदरनारायन मंदिर:-  मंदिर यहां पर अहिल्याबाई होलकर सेतु के निकट स्थित है। इसकी स्थापना गंगाधर यशवंतचूड ने १७५६ ई में करवाया था। इस मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित है और उन्हें सुंदर नारायण के नाम से जाना जाता है।
 मोदकेश्वर गणेश मंदिर:-यहीं पर स्थित मोदकेश्वर गणेश मंदिर में स्थापित गणेश की मूर्ति के समबन्ध में बताया जाता है कि यह मूर्ति स्वयं धरती से निकली थी।  
 कालेराम मंदिर :-यहां पंचवटी में स्थित कालेराम मंदिर का निर्माण गोपिकाबाई पेशवा ने १७९४ ई में करवाया था। इस मंदिर की वास्तुकला त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के समान है तथा इसका निर्माण काले पत्थरों से किया गया है।
सोमेश्वर मंदिर:- यहां पर स्थित सोमेश्वर मंदिर नासिक के प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसमें महादेव सोमेश्वर की प्रतिमा स्थापित है और यह मंदिर गंगापुर रोड पर नासिक शहर से ६ किलोमीटर की दूरी पर है। गंगाजी एवं गोदावरी के मंदिर :-नासिक में रामकुण्ड के निकट गंगाजी एवं गोदावरी के मंदिर स्थित हैं। गोदावरी के मंदिर का कपाट बारह वर्ष में एक बार खुलता है। 
अन्य मन्दिर :- यहां स्थित अन्य मंदिरों में कपालेश्वर मंदिर, राम मंदिर,शारदा चन्द्र मंदिर ,मणिलीश्वर मंदिर रामेश्वर सुंदर मंदिर ,उमा माहेश्वर मंदिर ,नीलकंठेश्वर मंदिर ,गोराराम मंदिर,मुरलीधर मंदिर ,तिलमाहेश्वर मंदिर एवं भद्रकाली मंदिर प्रमुख हैं। 
नासिक में लगने वाले कुम्भ को सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि सूर्य जब सिंह राशि में होता है तब नासिक में सिंहस्थ होता है।  इसे ही कुम्भ मेला  भी कहा जाता है जो बारह वर्ष में एक बार आयोजित होता है। इस मेले का आयोजन महाराष्ट्र पर्यटन निगम द्वारा किया जाता है। इस मेले में लाखों श्रद्धालु आकर यहां गोदावरी के पावन जल में स्नान करते हैं। मेले में राज्य सरकार की ओर से विशेष प्रबंध किया जाता है। यहां पर स्थित घाट बहुत ही सुन्दर व साफ दिखायी पड़ते हैं। महाशिव रात्रि का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। अगस्त मास में श्रावण पूर्णिमा ,सितम्बर मास में भद्रापद अमवस्या को  यहां विशेष आयोजन होता है। यहां के कीर्तिकला मंदिर में कृष्ण जयन्ती महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहां पर ठहरने के लिए होटल नटराज व ताज रेजीडेंसी उपयुक्त माने जाते हैं।            

Thursday, May 19, 2016

तिरुपति बालाजी

तिरुपति बालाजी को दक्षिण भारत का हिदुओं का एक प्रमुख धार्मिक स्थल माना जाता है। उत्तर भारत में इसे बालाजी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। दक्षिण भारत में सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में इसकी गणना की जाती है। यह भारत का सबसे अधिक वैभवशाली एवं समृद्ध मंदिर माना जाता है क्योंकि यहां आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या सर्वाधिक है और प्रतिवर्ष यहां करोड़ों की धनराशि चढ़ावे के रूप में चढ़ाई जाती है। यह तीर्थस्थल तिरुमलै या वेंकटाचल पर्वत जो सात पर्वतों का समूह है ,के  सातवें पर्वत पर स्थित है। इस सम्पूर्ण पर्वत समूह को भगवान विष्णु का वैकुण्ठधाम कहा जाता है। यहां तक पहुँचने के लिए छ पर्वत समूह को पार करके सातवें पर्वत पर तिरुपति बालाजी का मंदिर मिलता है। प्रभु वेंकटेश्वर अथवा बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां पर अपने मनोरथ की पूर्ति हेतु बालाजी के  दर्शन के लिए आते हैं। इसीलिए इसे तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। तिरुपति का अर्थ लक्ष्मीपति अर्थात भगवान विष्णु होता है. अतः यहां स्थित भगवान विष्णु की मूर्ति को तिरुपति बालाजी कहा जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

तिरुपति बालाजी भारतवर्ष के आन्ध्रप्रदेश राज्य में त्रिचूर अथवा चित्तूर जनपद में स्थित है। यह  समुद्रतल से ३२०० फिट पर स्थित तिरुमला की पहाड़ियों पर बना हुआ है।  वेंकटेश्वर मंदिर बहुत ही भव्य एवं आकर्षक बना हुआ है। यहां तक पहुँचने के लिए ११ किलोमीटर की यात्रा नंगे पांव पैदल चलकर तिरुमलै के पर्वत पर चढ़ना पड़ता है। मद्रास से रेल द्वारा आरकोनम होते हुए सीधे तिरुपति नगर तक पहुंचा जा सकता है। यहां तक पहुँचने के  लिए रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग दोनों उपलब्ध है।  आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद से इसकी दूरी ५८७ किलोमीटर है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

तिरुपति बालाजी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि प्रभु बालाजी अथवा वेंकटेश्वर जी भगवान विष्णु के अवतार हैं। भगवान विष्णु ने कुछ समय तक यहां स्थित पुष्कर सरोवर के किनारे निवास किया था। यह सरोवर तिरुमलै पहाड़ी पर स्थित है और तिरुपति के चारों ओर फैली सात पहाड़ियां शेषनाग के सात फनों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अतः शेषनाग शैय्या पर लेटे  हुए भगवान विष्णु को इस पावन स्थल पर तिरुपति अर्थात लक्ष्मीपति विष्णु के नाम से जाना जाता है। एक अन्य कथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार ११ वीं शताब्दी में संत रामानुज  तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर जब पहुंचे थे तब प्रभु तिरुपति उनके समक्ष प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया था। आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद वे १२० वर्षों तक जीवित रहते हुए पूरे भारत में भ्रमण करके भगवान वेंकटेश्वर की महिमा का गुणगान किया था। बैकुंठ एकादशी के दिन श्रद्धालु यहां एकत्र होकर भगवान वेंकटेश के दर्शन करते हैं। मान्यता है कि यहां आने पर श्रद्धालु जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाते  है। तमिल के संगम साहित्य में तिरुपति को त्रिवेंगदम के नाम से भी सम्बोधित किया गया है। तिरुपति के इतिहास के संदर्भ में काफी मतभेद है किन्तु इतना प्रमाण अवश्य मिलता है कि यह ५ वीं शताब्दी तक एक प्रमुख धार्मिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। चोल, होयसल एवं विजयनगर के राजाओं द्वारा  इस मंदिर के निर्माण में आर्थिक योगदान करने का उल्लेख मिलता है। इसका स्पष्ट प्रमाण ९ वीं शताब्दी से प्राप्त होने लगता है जब कांचीपुरम के शासक पल्लवों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया था। १५ वीं शताब्दी में विजयनगर के शासनकाल में इसकी ख्याति मंद अवश्य हो गई थी किन्तु १५ वीं शताब्दी के बाद इसकी ख्याति तेजी से दूर दूर तक फैलने लगी थी। सन् १८४३ से १९३३ तक अंग्रेजों के शासनकाल में इस मंदिर का प्रबन्धकार्य हातिराम जी मठ ने सम्भाल रखा था। सन् १९३३ ई ० में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार के हाथ में चला गया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति "तिरुमाला तिरुपति :"को सौंप दी गई। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के बाद इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक  सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त कर दिया गया। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यहां का मुख्य मंदिर तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर है जो तीन परकोटों के अंदर स्थित है तथा उसके गर्भगृह में काले  रंग के पत्थर की भगवान विष्णु की भव्य मूर्ति स्थापित है। सवा दो मीटर ऊंची इस मूर्ति का पूर्ण दर्शन शुक्रवार को प्रातः अभिषेक के समय किया जा सकता है। यहां स्थित बालाजी की मूर्ति की आँखों को हमेशा चन्दन के लेप से ढका रखते हैं ताकि उनके तेज से लोगों को बचाया जा सके। यहां पर केशदान करने का बड़ा महत्व है। महिलाएं भी यहां आकर अपने केश भगवान तिरुपति को चढातीं हैं।  यहां स्थित अन्य मंदिरों में वराह स्वामी मंदिर प्रमुख है जो तिरुमला के उत्तर में पुष्करिणी सरोवर के किनारे पर बना हुआ है। कहा जाता है कि तिरुमलै अपने आदि रूप में वराह क्षेत्र ही था और वराह स्वामी की अनुमति से भगवान वेंकटेश्वर ने अपना यहां निवास स्थान बनाया था। ब्रह्मपुराण के अनुसार नैवेद्यम सर्वप्रथम वराह स्वामी को चढ़ाना चाहिए और वेंकटेश्वर मंदिर जाने के पूर्व वराह स्वामी का दर्शन आवश्यक बताया गया है। यहां इनके आदि वराह रूप का दर्शन किया जाता है। पुष्करिणी के उत्तर पूर्व में श्रीवेदी अंजनेय स्वामी का मंदिर वराह स्वामी के मंदिर के सम्मुख स्थित है। यहां पर हनुमान जयन्ती बड़े धूमधाम से मनायी जाती है। यहां स्थित ध्यानम मंदिर वास्तव में वेंकटेश्वर संग्रहालय है। सन् १९८० ई ० में इसका निर्माण हुआ था और इसमें पत्थर और लकड़ी की बनी वस्तुएं,पूजा सामग्री व अन्य वस्तुएं प्रदर्शित की गईं हैं। गोविंदराज स्वामी जो भगवान बालाजी के बड़े भ्राता थे ,का मंदिर यहां का प्रमुख आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य बनाया गया है। इसका निर्माण संत रामानुज ने ११३० ई में किया था। श्री कोदण्डरास्वामी का मंदिर तिरुपति के मध्य में बना हुआ है। यहां पर सीता ,राम एवं लक्ष्मण की पूजा की जाती है। इसका निर्माण चोल राजा ने १० वीं शताब्दी में करवाया था। यह अंजनेय स्वामी मंदिर के ठीक सामने और उसी के उपभाग के रूप में स्थित है। श्री कपिलेश्वर स्वामी मंदिर तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है जो तिरुपति से ३ किलोमीटर की दूरी पर है। यहां पर कपिलातीर्थं   नामक एक झरना है जहां महाशिवरात्रि ,महाब्रह्मोत्त्सव ,खण्ड षष्ठी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। तिरुपति से १२ किलोमीटर पश्चिम में श्री निवासमंगापुरम में श्री कल्याण वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर बना हुआ है। कहा जाता है कि पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने के पूर्व भगवान वेंकटेश्वर यहां पर ठहरे थे। श्रीवेद नारायण स्वामी मंदिर तिरुपति से ७० किलोमीटर दूर नगलपुरम में स्थित है। भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर सोमकुड्डु नामक राक्षस का वध यहीं पर किया था। यहां के गर्भगृह में विष्णु की मत्स्यावतार की प्रतिमा विराजमान है जिसके दोनों ओर श्रीदेवी एवं भूदेवी स्थित हैं। इसका निर्माण विजयदेव के राजा कृष्ण्देव राय ने करवाया था। श्री वेनुगोपाल स्वामी मंदिर तिरुपति से ५८ किलोमीटर की दूरी पर कर्वेटि नगरम में स्थित है जहां भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा के साथ साथ रुक्मिणी ,अम्मवरु व सत्यभामा की मूर्तियां स्थापित हैं। श्री प्रसन्ना वेंकटेश्वर स्वामी  भी यहीं पर स्थित है। यहां पर स्थित स्वामी पुष्करिणी सरोवर के जल का प्रयोग मंदिर के कार्यों हेतु किया जाता है और दर्शनार्थियों द्वारा स्नान भी इसी में किया जाता है। तिरुपति मंदिर से ३ किलोमीटर  की दूरी पर आकाशगंगा जलप्रपात है जिसके जल से भगवान को स्नान करवाया जाता है। बालाजी मंदिर के निकट टी टी डी गार्डन स्थित है जिसका क्षेत्रफल ४६० एकड़ है और इसी के बगीचे से मंदिर की आवश्यक्ताओं  की पूर्ति की जाती है तथा इसी बगीचे के फूलों से भगवान के मंडप सजाए जाते हैं।    

Wednesday, May 18, 2016

चिदम्बरम

भगवान शिव के पंचतत्वलिंगों में आकाशतत्वलिंग की मान्यता यहां स्थित नटराज मंदिर को प्राप्त है।   चिदम्बरम शब्द चित एवं अम्बरम् दो शब्दों से बना है। चित का अर्थ चेतना एवं अम्बरम् का अर्थ आकाश होता है। चिदम्बरम प्राचीन तीर्थस्थल को भगवान शिव का क्रीड़ा -स्थल माना जाता है। यहां पर विष्वविख्यात एवं अत्यन्त दुर्लभ भगवान शिव की तांडव मुद्रा में नटराज की भव्यमूर्ति विद्यमान है। यह वही  नटराज की मूर्ति है जो पाणिनि को  व्याकरण के चौदह सूत्रों के सूत्रपात हेतु प्रेरित किया था तथा सनकादि मुनि को द्वैत एवं अद्वैत का ब्रह्मज्ञान प्रदान किया था। प्रातः ११ बजे भगवान शिव के अभिषेक के समय एवं रात्रि में दर्शनार्थी यहां स्थित स्फटिक मणि मूर्ति के दर्शन करते हैं। नटराज को नटेश्वर की भी संज्ञा दी गई है। यहां स्थित नटराज की मूर्ति पूर्णतयः स्वर्ण धातु की बनी हुई है और नटराज के रूप में भगवान शिव को नृत्य करते हुए प्रदर्शित किया गया है।     
भगवान शिव यहां नटराज के रूप में अपने दाएँ हाथ को अभयमुद्रा में ऊपर उठाये हुए तथा एक पैर को ज्वालाओं के चक्र में रखकर दुसरे पैर से एक राक्षस को दबाये हुए दीखते हैं। मूर्ति के समक्ष लगे पर्दे को उठाने पर ॐ  के आकार में कई दर्पण एक साथ जगमगाने  जिसे चिदम्बरम रहस्य के नाम से सम्बोधित किया जाता है और इसे ही आकाशलिंगम का दर्शन माना जाता है। यह तीर्थस्थल शैव सम्प्रदाय का प्रमुख धार्मिक केंद्र है।  इस मन्दिर के शिखर पर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित भरतनाट्यम शैली की १०८ मुद्राओं में नर्तक एवं नर्तकियों की मूर्तियां चित्रित की गई हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के दक्षिणी पूर्वी प्रान्त तमिलनाडु के कुड्डालोर जनपद में यह दक्षिण भारत का प्रसिद्ध तीर्थस्थल स्थित है। कुड्डालोर पांडिचेरी से दक्षिण की ओर लगभग ७८ किलोमीटर की दूरी पर है और कुड्डालोर से ६० किलोमीटर की दूरी पर चिदम्बरम धर्मस्थल स्थित है।यह समुद्रतट से ५ किलोमीटर की दूरी पर कावेरी नदी के तट पर स्थित है। यहां स्थित प्रमुख मंदिर में कोई भी मूर्ति स्थापित नहीं है बल्कि दूसरे मंदिर में नटराज की भव्य एवं आकर्षक मूर्ति स्थापित है ।  शहर के मध्य में ४० एकड़ क्षेत्र में चिदम्बरम के मंदिर का पूरा परिक्षेत्र फैला हुआ है। यह भगवान शिव नटराज एवं भगवान गोविंदराज पेरुमल को समर्पित एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर है। इस परिक्षेत्र में शैव एवं वैष्णव दोनों के देवता एक ही स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। यहां आवागमन के साधनों में सड़कमार्ग एवं रेलमार्ग प्रमुख हैं। तमिलनाडु के प्रमुख शहरों से नियमित बस सेवा उपलब्ध है।  यह मंदिर मद्रास से लगभग २४२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

हिन्दू धर्मशास्त्रों में चिदम्बरम को यहां के पांच पवित्र शिव मंदिरों में प्रमुख बताया गया है। इन पांच मंदिरों में प्रत्येक मंदिर पांच प्राकृतिक तत्वों में से किसी एक तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। चिदंबरम आकाश का प्रतिनिधित्व करता है और इस श्रेणी के चार अन्य मंदिर थिरुवनाई कवल जम्बुकेश्वरा जल का ,कांची एकाम्बेश्वरा पृथ्वी का ,थिरुवन्नामलाई अरुनाचलेस्वरा अग्नि को और कालहस्ती नाथर वायु का प्रतिनिधित्व करता है। चिदम्बरम के सम्बन्ध में पुराणों में बताया गया है कि भगवान शिव यहां के थिलाई वनम में प्रवास किये थे और थिलाई के जंगलों को ऋषियों एवं साधुओं की तपस्थली भी बताई जाती है। कहते हैं कि यहां भगवान पितचातंदर भिक्षुक के रूप में भ्रमण किया करते थे और उनके पीछे मोहिनी रूप में भगवान विष्णु भी सहचरी के रूप में चलतीं थीं। ऋषिगण एवं उनकी पत्नियां मोहक भिक्षुक और उनकी सहचरी की आभा पर मोहित हो जतिन थीं। अपनी पत्नियों को मोहित देखकर ऋषिगण क्रोधवश जादुई शक्तियों जैसे सर्पों ,नागों का आह्वान करते तब भगवान उन सर्पों को उठाकर अपने गले आभूषण के रूप में धारण कर लेते थे। पुनः ऋषिगण अपनी शक्तियों से जब बाघ उत्पन्न करते तो भगवान उसकी खाल निकालकर अपने कमर में धारण कर लेते। यह देखकर अन्ततः ऋषिगण एक शक्तिशाली राक्षस मुयालकन को उत्पन्न किया तब भगवान शिव उसकी पीठ पर सवार होकर आनंद तांडव करते हुए अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो जाते तब ऋषिगण वास्तविकता को जानकर भगवान के समक्ष समर्पण कर देते। आनंद तांडव के सम्बन्ध में बताया जाता है कि अधिशेष सर्प जो  विष्णु अवतार में भगवान विष्णु की शैय्या के रूप में विराजते हैं और वे आनंद तांडव देखने को अतिआतुर होते तब भगवान उन्हें थिलाई के वन में पतंजिलि के साध्विक रूप में भेज देते थे और वे वहां भगवान शिव की पूजा करते थे और वहीं पर भगवान शिव इन दोनों ऋषियों के लिए अपने शाश्वत आनंद का प्रदर्शन नटराज के रूप में करते थे। चिदम्बरम मंदिर में भगवान शिव अपने तीन स्वरूप यथा रूप ,अर्द्धरूप और आकर रहित स्वरूप में विराजमान बताए जाते हैं। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

मुख्य रूप से यह स्थल चिदम्बरम मंदिर के लिए ही विश्व विख्यात है। इस मंदिर के भीतर एक भव्य सभागृह बना हुआ है जिनमें चोल एवं पाडिया राजाओं की कतिपय विजयगाथाएं चित्रित हैं। इस मंदिर में हजारों खम्भे बने हुए हैं तथा सभागृह की लम्बाई १०४ मीटर एवं चौड़ाई ४३ मीटर बताई जाती है। चित्र सभागृह में ही आकाशलिंगम एवं कनक सभागृह में नटराज की स्वर्ण निर्मित मूर्ति स्थापित है। नटराज मंदिर के बाहर परिक्षेत्र में ही शिव गंगा सरोवर स्थित है और उसी के निकट पार्वती जी का मंदिर बना हुआ है। इसे शिवकाम सुन्दरी भी कहा जाता है। पार्वती मंदिर के निकट सुब्रह्मण्यम का विश्व प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। मंदिर के परिसर में अन्य कतिपय छोटे धार्मिक स्थल बने हुए हैं। चिदम्बरम मंदिर के अन्दर और बाहर परिसर में अनेकों जलनिकय अर्थात थीर्थम उपलब्ध हैं। चिदम्बरम को पञ्चकूपस्थलों में से एक माना जाता है जहां भगवान की पूजा उनके अवतार के रूप में होती है। चिदम्बरम के गर्भगृह में नटराज के रूप में विराजित मानवरूपी देवता को सकल थिरूपेंनी, चन्द्रमौलेश्वर के स्फटिक लिंग के रूप में अर्धमानव रुपी देवता को निष्कला थिरुमेंनी और रिक्त पड़े स्थान के रूप में आकार रहित देवता बताया जाता है। यहां के अन्य धार्मिक स्थलों में प्रसिद्ध स्थान थिरुआदिमूलनाथर है जहां ऋषि पतंजिलि शिवलिंगम की पूजा करते थे।  अरुबाथथूभूवर को शिव के ६३ प्रमुख भक्तों का निवास स्थान माना जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई छोटे धार्मिक स्थल यहां पर स्थित हैं। 
यहां का दूसरा मुख्य मंदिर गोविंदराज मंदिर है जिसमें भगवान विष्णु की आकर्षक एवं भव्य       शेषशायी मूर्ति अवस्थित है। इस मंदिर प्रांगण में कई सभास्थल हैं जिनमें अनेक देवी देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। प्रांगण में ही शिवगंगा नामक एक पवित्र कुंड है जिसके जल में औषधीय गन पाया जाता है। 
चिदम्बरम मंदिर के निकटवर्ती अन्य मंदिरों में वरेमादेवि मंदिर नगर से १५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नगर से ३० किलोमीटर की दूरी पर स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर एक प्राचीन शिव मंदिर स्थित है जहां विभिषित ऋषि ने शिव जी की आराधना की थी। श्रीमुण्यम मंदिर नगर से २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जिसमें वाराह की भव्य मूर्ति स्थापित है। इसके अतिरिक्त श्रीदेवी ,भूदेवी ,बालकृष्ण भगवान की प्रतिमाएं स्थापित की गईं हैं। शिवली व काटमनार गुड़ी मंदिर नगर से १५ किलोमीटर की दूरी पर है जिसमें श्री विष्णुवा वीरनारायण की मूर्ति स्थापित की गई है। नगर से ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित केतु मंदिर में नवग्रह केतु की मूर्ति स्थापित है।  

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

पुराणों में भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से श्री मल्लिकार्जुन स्वामी को दूसरा महत्वपूर्ण  ज्योतिर्लिंग बताया गया है। इस क्षेत्र को दक्षिण भारत में दिव्य क्षेत्रम अथवा श्रीशैलम के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। यह दक्षिण भारत के कैलाश के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्मगर्न्थों के अनुसार श्रीशैलम  शिखर के दर्शन मात्र से श्रद्धालुओं के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं और उन्हें समस्त सुखों की प्राप्ति हो जाती है। यहां तक कि समस्त सांसारिक बन्धनों एवं पुनर्जन्म से भी मुक्ति मिल जाती है। इस आशय का विस्तृत वर्णन शिव महापुराण के कोटिरुद्र संहिता के पन्द्रहवें अध्याय में किया गया है। मल्लिका माता पार्वती का उपनाम है तथा अर्जुन भगवान शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार मल्लिकार्जुन भगवान शिव एवं माता पार्वती के संयुक्त नाम से इस ज्योतिर्लिंग को सम्बोधित किया जाता है। यहीं पर भ्रमराम्बा देवी शक्तिपीठ भी है। 

भौगोलिक स्थिति :-

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मन्दिर भारतवर्ष के आंध्रप्रदेश प्रान्त के पश्चिमी भाग में कुर्नूल{कृष्णा } जनपद की श्रीशैलम पर्वत श्रृंखला के नल्लमल्ला पहाडी के घने जंगलों के मध्य स्थित है। इसके निकट ही कृष्णा नदी प्रवाहित होती हैंजिसके तट पर यह बसा है। यहां पर शिव की आराधना मल्लिकार्जुन के नाम से की जाती है। आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद से श्रीशैलम लगभग २२० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह देश के प्रमुख शहरों से हवाई मार्ग, रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है।यहां का निकटतम हवाई अड्डा कुर्नुल है जिसकी दूरी ११६ किलोमीटर है।मनमाड ,काचीकुड़ा लाइन के सिकन्द्राबाद स्टेशन से एक लाइन द्रोणाचलम तक जाती है ,इसी पैन पर कुरनूल टाउन स्टेशन है। रेलयात्रा यहीं  सकती है  बस द्वारा सम्पन्न की जाती है। हैदराबाद से श्रीशैलम के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है। यह स्थल कुर्नूल रेलमार्ग से भी जुड़ा हुआ है और वहां से भी बस द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। कुर्नूल से श्रीशैलम लगभग ११६  किलोमीटर दूर है। कुर्नूल से आत्मकूट और यहां से पंचरतु तक सड़कमार्ग उपलब्ध हैऔर बसें आतमपुर तक जाती हैं आत्मपुर से नागाघाटी १८ किलोमीटर है और इससे ४५ किलोमीटर आगे श्रीशैल पर्वत है । पंचरतु के बाद श्रीशैलम पर्वत की चढ़ाई आरम्भ हो जाती है और साढ़े पांच मील पैदल चढ़ाई के पश्चात तोलाकुंड मिलता है तथा तोलाकुण्ड से ४ मील आगे मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग पड़ता है। श्रीशैलम की ओर जाने वाला प्रत्येक रास्ता घने जंगलों से होकर गुजरता है। यहां के मंदिर में ज्योतिर्लिंग के दर्शन का समय ४. ३० बजे प्रातःकाल से रात्रि १० बजे तक निर्धारित है।  इस मंदिर में भी तिरुपति की भांति अन्नदानम नामक भोजनालय का संचालन किया जाता है और दर्शन के बाद श्रद्धालुओं को निःशुल्क भोजन का कूपन अन्नदानम से दिया जाता है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पौराणिक कथानकों के अनुसार भगवान शिव एवं माता पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय एवं श्री गणेश दोनों भाइयों के विवाह के संबन्ध में यह समस्या उत्पन्न हुई कि इनमें से किसका विवाह पहले किया जाये। स्वामी कार्तिकेय बड़े थे, अतः उनका विवाह पहले होना चाहिए था किन्तु श्रीगणेश अपना विवाह पहले करने का प्रस्ताव कर रहे थे। इस समस्या का निदान कराने के लिए दोनों भाई भगवान शिव एवं माता  पार्वती के पास गए और अपनी अपनी बात उनके सम्मुख रखी। शिव एवं पार्वती ने दोनों के समक्ष यह शर्त रख दी कि दोनों में से जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा पहले करके उनके पास आएगा उसी का विवाह पहले होगा। शर्त के अनुसार कार्तिकेय जी तुरन्त पृथ्वी की परिक्रमा हेतु वहां से चल दिए किन्तु स्थूलकाय श्रीगणेश अपने वाहन चूहे के साथ मन्दगति से चलते हुए सोचने लगे कि यह परिक्रमा कैसे पूर्ण होगी ? चूँकि श्रीगणेश कुशाग्र बुद्धि के थे, अतः उन्होंने शिव एवं पार्वती से एक ही आसन पर बैठने का निवेदन किया और उनके आसन पर बैठने के बाद गणेश ने उनकी सात बार परिक्रमा कर उनका विधिवत पूजन करते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त फल हेतु अपने को अधिकृत बताया। उनके चातुर्यपूर्ण इस कृत्य से प्रसन्न होकर भगवान शंकर एवं पार्वती ने श्रीगणेश का विवाह पहले करने की सहमति प्रदान कर दी। श्रीगणेश के विवाह के बाद जब कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा पूर्ण करके वापस लौटे, तब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया  कि श्रीगणेश का विवाह प्रजापति की पुत्री सिद्धि एवं बुद्धि से हो चुका है  एवं सिद्धि से क्षेम एवं बुद्धि से लाभ नामक दो पुत्रों की प्राप्ति भी हो चुकी है। कार्तिकेय जी यह समाचार सुनकर अत्यन्त क्रोधित हुए और अपने माता - पिता के चरण स्पर्श करते हुए वहां से नाराज होकर चल दिए और क्रौंच पर्वत पर आकर रहने लगे। यह देखकर शिव एवं पार्वती जी ने कार्तिकेय को समझाने- बुझाने हेतु नारद को उनके पास भेजा किन्तु नारद के बहुत समझाने पर भी कार्तिकेय वापस नहीं लौटे, तब माता  पार्वती वात्सल्य एवं पुत्र- स्नेह से व्याकुल होकर स्वयं भगवान शिव के साथ क्रौंच पर्वत पर गईं। कार्तिकेयजी को उनके आगमन की सूचना पहले ही मिल चुकी थी, अतः वे वहां से थोड़ी दूर स्थित दूसरी पहाड़ी पर चले गए। कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत पर न पाकर शिव एवं पार्वती को आत्मग्लानि हुई और  शिवजी ने वहीं पर अपनी ज्योतिर्लिंग स्थापित की एवं पार्वतीजी के साथ वापस कैलाश  लौट आये। तभी से यह ज्योतिर्लिंग यहां मल्लिकार्जुन के नाम से प्रसिद्ध हो गयी और श्रद्धालुगण उनकी पूजा अर्चना करने लगे। 
श्रीशैलम का वर्णन पुराणों एवं महाभारत दोनों में किया गया है। स्कन्दपुराण में श्रीशैलम काण्ड नामक अध्याय में इस मंदिर का विस्तृत वर्णन किया गया है। तमिल संतों ने भी प्राचीनकाल से ही मल्लिकार्जुन स्वामी की स्तुति प्रारम्भ कर दी थी। कहा जाता है कि आदि शकराचार्य ने जब इस मंदिर की यात्रा की थी तब उन्होंने यहीं पर शिवनंद लहरी की रचना की थी। श्रीशैलम मंदिर का इतिहास सातवाहन काल से मिलना प्रारम्भ हो जाता है। पहली शताब्दी के पुल्लुमावी के नासिक अभिलेख में श्रीशैलम पहाड़ी के संदर्भ में प्रथम बार चर्चा मिलती है। पल्लव ,चालुक्य ,काकातीय और रेड्डी राजाओं द्वारा भी श्रीशैलम की पूजा अर्चना का संदर्भ मिलता है। काकातीय राजा प्रताप रूद्र ने श्रीशैलम क्षेत्र के विकास हेतु प्रयास किया था किन्तु रेड्डी राजाओं के कार्यकाल में श्रीशैलम मंदिर के उत्थान एवं विकास हेतु सर्वाधिक प्रयास किये गए। चौदहवीं सदी में प्रलयवम रेड्डी ने पातालगंगा से श्रीशैलम के लिए सीढ़ीदार मार्ग का निर्माण करवाया था। आजकल इस मार्ग पर पक्की सड़क बन गई है। विजयनगर के हरिहर राय ने मंदिर के मुख्य मण्डपम् का निर्माण करवाया था औेर  पंद्रहवीं सदी में उन्होंने राजगोपुरम  का निर्माण करवाया था। इस मंदिर के उत्तरी गोपुरम को छत्रपति शिवाजी ने बनवाया था। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यहां का मुख्य धर्मस्थल श्रीशैलम स्थित मल्लिकार्जुन का मंदिर ही है। ऐसी मान्यता है कि मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन के साथ साथ यहां पर स्थित साक्षी गणपति मन्दिर में श्री गणेशजी का दर्शन करना आवश्यक होता है अन्यथा भगवान शिव एवं पार्वती का आशीर्वाद नहीं मिल पाता। साक्षी गणपति का मन्दिर श्रीशैलम स्थित मुख्य मंदिर से दो किलोमीटर पहले शहर के प्रवेशद्वार पर स्थित है। श्रीशैलम पर्वत पर साढ़े पांच मील चढ़ाई के बाद भीमतोला कुण्ड पड़ता है। यहां मल्लिकार्जुन मंदिर परिसर में भी एक कुण्ड बना हुआ है और उसी के निकट मां पार्वती जी का मंदिर स्थित है। पार्वती जी को यहां पर भमरावा के नाम से जाना जाता है। मल्लिकार्जुन की यात्रा ट्रेकिंग की दृष्टि से श्रद्धालुओं को अधिक आकर्षित करती है क्योंकि इस यात्रा में ज्योतिर्लिंग के दर्शन के साथ प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य एवं शान्तिप्रिय वातावरण का भी आनंद लिया जा सकता है। चूँकि श्रीशैलम घने जंगलों के बीच स्थित है, अतः प्राकृतिक वन सम्पदा से भरपूर यह क्षेत्र बहुत ही समृद्ध माना जाता है। महाभारत में बताया गया कि श्रीशैलम पर भगवान शिव एवं पार्वती जी का पूजन व दर्शन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का पुण्य प्राप्त होता है। इस मंदिर का गर्भगृह बहुत बड़ा नहीं है इसीलिए इसमें एक बार में अधिक लोग प्रवेश नहीं कर पाते हैं। 
-पाताल गंगा मुख्य  मंदिर के पूर्व द्वार से एक मार्ग कृष्णा नदी तक गया है उसे ही पाताल गंगा  के नाम से जाना जाता है।  पाताल गंगा के निकट ही दो छोटे छोटे नाले कृष्णा नदी में मिलते हैं जिसे संगम स्थल अथवा त्रिवेणी कहते हैं। कृष्णा नदी के पूर्व की ओर कुछ ही दूरी पर स्थिर पहाड़ की कन्दरा में देवी एवं भैरव मंदिर अवस्थित है। मल्लिकार्जुन मंदिर से पश्चिम में ३ किलोमीटर की दूरी पर भ्रमरांबा देवी अथवा महालक्ष्मी देवी का मंदिर स्थित है। यह ५१ शक्तिपीठों में से एक हैं। यहां अम्बाजी की भव्य मूर्ति स्थापित है।       

Monday, May 16, 2016

कोणार्क


  •  विश्व प्रसिद्ध कोणार्क के सूर्य मन्दिर को भारत के प्रमुख धर्मस्थलों में से प्रमुख धर्मस्थल एवं तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है। कोणार्क   का अर्थ सूर्य का कोना होता है।  इस मन्दिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है। इस मन्दिर में प्रदर्शित रथ में बारह जोड़े विशाल पहिये लगे हुए हैं और इसे सात शक्तिशाली घोड़े खींचते हुए दिखाए गए हैं। कल्पना के अनुरूप ही इस मन्दिर की भव्यता भी दृष्टिगत होती है। यह मन्दिर भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में अपनी निर्माण कला ,भव्यता एवं मूर्तिकला की उत्कृष्टता के कारण अद्वितीय रचना मानी जाती है। कहा जाता है कि इसका निर्माण १२०० कारीगरों द्वारा  लगातार १२ वर्षों तक काम करने के पश्चात पूर्ण किया गया था। इससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस मन्दिर के निर्माण में कितना धन व श्रम लगा होगा। इसके वास्तुशिल्प से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों भगवान सूर्यदेव का यह रथ आसमान में उड़ रहा है।  इस मन्दिर के चारों ओर पत्थरों पर जीवन्त रूप में विभिन्न धार्मिक मूर्तियां हथौड़ी एवं छेनी से बनायी गई हैं।  देश एवं विदेश से हजारों श्रद्धालु व पर्यटक इस अद्वितीय रचना को देखने हेतु प्रतिवर्ष यहां आते हैं। 
  • भौगोलिक स्थिति :-
  • भारत के उड़ीसा राज्य में पुरी जनपद के अन्तर्गत उत्तरी -पूर्वी समुद्र तट पर चन्द्रभागा  नदी के किनारे कोणार्क    का यह सूर्य मन्दिर बना हुआ है। यह जगन्नाथ मन्दिर से उत्तरपूर्व  ३१  किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अतः जो श्रद्धालु अथवा पर्यटक जगन्नाथजी की दर्शन करते हैं वे इस मन्दिर को भी अवश्य देखते हैं। यह स्थल भारत के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग ,सड़कमार्ग एवं हवाईमार्ग से जुड़ा हुआ है। समुद्रतट के निकट होने के कारण यहां की जलवायु समशीतोष्ण है तथा यहां का प्राकृतिक दृश्य बहुत ही मनमोहक है। समुद्रतट से ४ किलोमीटर की दूरी पर रेत के टीले पर बने हुए इस मन्दिर का निर्माण काले पत्थरों से किया गया है और इस मन्दिर के आस पास का क्षेत्र रिक्त पड़ा हुआ है।  अतः यहां का वातावरण बहुत ही शांत एवं एकांत लगता है। भुवनेश्वर तक यह स्थल  स्थल -मार्ग से जुड़ा हुआ है और पूरी से कोर्णाक ८१ किलोमीटर दूर है जहां बसों तथा निजी वाहन द्वारा पहुंचा जा सकता है। यहां ठहरने के लिए अतिथिशाला ,होटल आदि उपलब्ध हैं।   
  • पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-
  •  कोणार्क  के सूर्य मन्दिर को एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप  में वर्णन कपिल संहिता ,ब्रह्मपुराण ,भविष्य पुराण एवं वाराहपुराण में मिलता है। उक्त समस्त पुराणों में यह वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जामवंती से उत्पन्न पुत्र साम्ब अत्यन्त सुंदर व आकर्षक थे। एक बार साम्ब की माता व अन्य सखियाँ किसी सरोवर में स्नान कर रहीं थीं तभी वहां से नारद मुनि गुजर रहे थे। नारदजी ने वहां देखा कि कतिपय स्त्रियां साम्ब के साथ प्रेमालाप कर रहीं थीं, तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जी को उस स्थल पर लेकर आये और उन्हें भी वह दृश्य दिखलाया। श्रीकृष्ण यह दृश्य देखकर क्रोधित होकर साम्ब को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया। जब साम्ब ने अपनी निर्दोषता सिद्ध करते हुए श्राप वापस लेने का अनुरोध किया तब श्रीकृष्ण ने साम्ब से कहा कि इस श्राप से मुक्ति हेतु तुम मैत्रेय वन जहां पर सूर्य का मंदिर स्थित है ,में जाकर भगवान सूर्य की आराधना करो। साम्ब ने वैसा ही किया और साम्ब की आराधना से सूर्य भगवान प्रसन्न होकर उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया। दूसरे दिन चन्द्रभागा नदी में स्नान करते समय नदी के कमलपत्र पर उन्होंने सूर्य की मूर्ति देखी तब साम्ब ने उस मूर्ति को लाकर विधिवत उसकी स्थापना वहीं पर कर दी और उनकी पूजा हेतु अठारह शाकद्वीपी ब्राह्मण बुलाकर वहां उन्हें बसा दिया। पुराणों में इस मूर्ति का उल्लेख कोर्णाक अथवा कोणादित्य के नाम से किया गया है।   चन्द्रभागा नदी में तभी से सप्तमी की तिथि को स्नान करने की प्रथा प्रारम्भ हुई और कोर्णाक मन्दिर में सूर्य की पूजा भी तभी से  प्रारम्भ हो गई। 
  • इस मंदिर के निर्माण के संबन्ध में एक दंतकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार कोणार्क मंदिर का निर्माण पूर्ण होने पर इसके शिखर के निर्माण की बारी आई तब वास्तुकार यह समझ नहीं पा रहे थे कि इस शिखर का निर्माण कैसे किया जाये। इस समस्या का समाधान मुख्य वास्तुकार के १२ वर्षीय पुत्र धर्मपाद ने किया और उसने साहस करते हुए  शिखर का निर्माण कर दिया।  यह देखकर अन्य वास्तुकार अपकीर्ति के भय से डर गए और एक वास्तुकार ने तो उसी शिखर से  कूदकर आत्महत्या तक कर ली। कहा जाता है कि इस मंदिर के शिखर पर कुंभर पाथर नामक चुंबकीय शक्ति से युक्त एक पत्थर लगा है जिसके प्रभाव से निकटवर्ती समुद्र से गुजरने वाले जहाज एवं नौकाएँ मंदिर की ओर खिंची चली आती हैं और कभी कभी तो आपस में टकराकर नष्ट भी हो जाती हैं। इसके संबन्ध में एक दूसरी मान्यता यह है कि काला पहाड़ नामक एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने इस मन्दिर को ध्वस्त कर दिया था तो कुछ लोग भूकम्प के  कारण इसके ध्वस्त होने की पुष्टि करते हैं। 
  • इस मन्दिर का निर्माण गंगवंश के प्रतापी राजा नरसिंह देव प्रथम ने १२३८ -६४ में अपने विजय स्तम्भ के रूप में की थी। अबुलफजल ने अपने आईने  अकबरी में लिखा है कि इस मंदिर के निर्माण में उड़ीसा राज्य के बारह वर्ष की सम्पूर्ण आय लग गई थी। उनके अनुसार मंदिर का निर्माण नवीं शताब्दी में केशरी वंश के किसी राजा ने करवाया था। बाद में नरसिंह देव ने उसके नवनिर्माण करवाया था। इस मंदिर के आस पास दूर दूर तक किसी पर्वत के होने के प्रमाण नहीं मिलते फिर भी इतने भव्य मन्दिर का  निर्माण पत्थरों से कैसे और कहाँ से पत्थर लाकर किया गया, इसका समुचित उत्तर नहीं मिल पाता है। 
  • अन्य दर्शनीय स्थल :
  • यहाँ स्थित सूर्य मन्दिर का मुख उदीयमान सूर्य की ओर पूर्व में दिखाया गया है और इसके तीन प्रधान अंग देउल अर्थात गर्भगृह ,जगमोहन एवं नाटमण्डप एक ही अक्ष पर बने हुए हैं। सर्वप्रथम दर्शक नाटमंडप में प्रवेश करता है। पूर्व दिशा में सोपानमार्ग के दोनों ओर गजशार्दूलों की विशालकाय भयंकर एवं शक्तिशाली मूर्तियां बनी हुई हैं। कोर्णाक का नाटमंडप समानाक्ष होकर भी उससे पृथक लगता है और यहीं पर भोगमन्दिर अक्ष के दक्षिण पूर्व में स्थित है।  नाटमंडप से उतरकर जगमोहन तक पहुंचा जा सकता है। जगमोहन एवं देउल एक ही जगती पर स्थित हैं और परस्पर सम्बद्ध भी हैं। इनमें देवी ,देवता ,किन्नर ,गन्धर्व ,नाग ,विद्याधर व्याल ,और अप्सराओं के अतिरिक्त विभिन्न भावभंगिमाओं में नरनारी तथा कामासक्त नायिकाएं भी दीवारों पर अंकित हैं। इस मंदिर में कुछ मैथुनरत मूर्तियां भी बनी हुईं है जैसाकि खजुराहो में दृष्टिगत होता है। भगवान सूर्य के साथ ऐसी अश्लील मूर्तियों की आलोचना भी की जाती है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि काम प्रत्येक कालखण्ड में आनंद ,ऊर्जा एवं समरसता का प्रतीक रहा है, अतः इसी के दृष्टिगत सम्भवतः मूर्तिकारों का झुकाव ऐसी मूर्तियों को बनाने की ओर हुआ होगा।  इसके जगती के अग्रभाग में एक सोपान पंक्ति है जिसके एक ओर तीन तथा दूसरी ओर चार घोड़े दौड़ते हुए मुद्रा में दिखाए गए हैं। ये सप्त अश्व सूर्य की गति एवं वेग के प्रतीक माने जाते हैं।  देऊल का शिखर सम्प्रति नष्ट हो गया है किन्तु जगमोहन अभी  भी सुरक्षित है। मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार पर पत्थरों से निर्मित हाथियों को मारते हुए दो बड़े सिंह बने हुए हैं जिसको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस हिसक घटना का चित्रण उस काल की मानसिकता को प्रतिबिम्बित करता है। मंदिर के भीतर नृत्यशाला एवं दर्शकों के बैठने हेतु एक सभागार बना हुआ है। इस मंदिर के आस पास कोई विशेष निर्माण कार्य नहीं हुआ है बल्कि खाली क्षेत्र सुनसान पड़ा हुआ है। मंदिर परिसर के दक्षिणी पूर्वी कोने में सूर्यदेव की पत्नी माया देवी को समर्पित एक मंदिर अवश्य बना हुआ है। यहीं पर नवग्रहों जैसे सूर्य ,चन्द्रमा, मंगल ,बुध,जुपिटर ,शुक्र ,शनि ,राहु एवं केतु को समर्पित एक मंदिर स्थित है। मंदिर के निकटवर्ती क्षेत्र  में स्थित समुद्र के किनारे शांतिपूर्ण वातावरण का आनन्द यहां बैठकर लिया जा सकता है। 

श्री कांचीपुरी

 भारत के सात पवित्र धर्मस्थल जहां पर मनुष्य को परमानन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है, उस स्थल को  अयोध्या ,मथुरा ,द्वारिका ,हरिद्वार ,काशी ,श्री कांचीपुरी एवं उज्जैन के रूप में जाना जाता है। इनमें से कांचीपुरी भगवान शिव एवं विष्णु को समर्पित धर्मनगरी मानी जाती है। इसके दो भाग शिव काँची व विष्णु काँची हैं। काँची इक्यावन शक्तिपीठों में से एक प्रमुख शक्तिपीठ है क्योंकि सती का कंकाल यहां पर गिरा  था। कांचीपुरी को काशी के बराबर पवित्र स्थान माना गया है और इसीलिए इसे दक्षिण की काशी कहा जाता है। समुद्रगुप्त के शिलालेख में भी इसका उल्लेख मिलता है। पूर्व में यह पल्लव राजाओं की राजधानी भी रही है।इसे हरिहरात्मक पुरीभी कहते हैं।  

भौगोलिक स्थिति :-

भारत के तमिलनाडु राज्य में मद्रास से ५६ किलोमीटर की दूरी पर मद्रास धनुषकोटि रेलवे लाइन पर चिंगुली पुट रेलवे स्टेशन से ३५ किलोमीटर  दूरी पर  कांचीपुरम जिले के अन्तर्गत वेगवती  नदी के किनारे बसे हुए शहर में यह तीर्थस्थल स्थित है।  यहां से एक लाइन अर्कोनम की ओर जाती है। मद्रास से कांचीपुरी ९७ किलोमीटर दूर है और चेन्नई से  दक्षिण पश्चिम में है। इस शहर का मुख्य भाग शिवकांची में ही आता है और विष्णुकांची में शहर का थोड़ा सा भाग आता है। यह कांचीपुरम रेलवे स्टेशन से मात्र ५ किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ स्थित सर्व तीर्थसरोवर  रेलवे स्टेशन से आधा किलोमीटर है जो शिवकांची क्षेत्र में पड़ता है। सर्वतीर्थ सरोवर के किनारे कतिपय छोटे छोटे मंदिर बने हुए हैं किन्तु एक मंदिर इसके मध्य में भी बना हुआ है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा चेन्नई है जो ७५ किलोमीटर की दूरी पर है। कांचीपुरम का रेलवे स्टेशन चेन्नई ,चेंगलपट्टू तिरुपति और बेंगलौर से जुड़ा है। यह तमिलनाडु के सभी शहरों से सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

कांचीपुरम अपने मंदिरों एवं रेशमी साड़ियों के उद्द्योग के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यहां स्थित वरदराज पेरुमल मंदिर भगवान विष्णु के लिए एवं भगवान शिव के पांच रूपों में से एक को समर्पित एकाम्बर नाथ मंदिर ,कामाक्षी ,अम्मा मंदिर, कुमरकोट्टम ,कचछपेश्वर मंदिर एवं कैलाश नाथ मंदिर स्थित हैं। यहां पर हजारों छोटे बड़े मंदिर बने हुए हैं। इन मंदिरों में से अधिकांश मंदिरों को आठवीं शताब्दी में पल्लव राजाओं ने बनवाया था।  ६४० ई में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां पर आया था और इसका विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए उसने बताया था कि उस समय यह ८ -१० किलोमीटर के परिक्षेत्र में फैला हुआ था। यहां पर कई जैन एवं बौद्ध मंदिर भी बने हुए हैं। बौद्ध आचार्य धर्मपाल की यह जन्म भूमि भी थी। आचार्य रामानन्द की शिक्षा -दीक्षा यहीं से हुई थी। जगदगुरु शंकराचार्य ने अपने जीवन का अधिकांश समय यहां पर व्यतीत किया था। इसे पूर्व में कांचीपुरम या कांजीवरम के नाम से भी जाना जाता था। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

शिवकांची :-कांची पुरी का सर्वाधिक भाग इसके अंतर्गत आता है। यह रेलवे स्टेशन से २ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ स्थित सर्व सरोवर के चारों ओरकई मन्दिर बने हुए हैं जिनमें काशी विश्वनाथ मन्दिर प्रमुख है।यहां के प्रमुख मंदिरों में कामाक्षी मन्दिर,एकमरेश्वर मंदिर एवं काशी विश्व्नाथ मंदिर प्रमुख हैं। शिव कांची में इनके अतिरिक्त अन्य कई मंदिर है जिनमें निम्न प्रमुख हैं :- 

एकमरेश्वर मंदिर अथवा ऐकाम्बेश्वर:- इस  मंदिर में तीन प्रवेश द्वार बने हुए हैं और यहां स्थापित शिवलिंग काले पत्थर से निर्मित है। इसे बालू से निर्मित बताया जाता है। यहां स्थापित शिवलिंग पर जलाभिषेक करना वर्जित है।  केवल सुगन्धित चमेली का तेल ही चढ़ाया जाता है। इसका निर्माण सातवीं शताब्दी में पल्लव राजाओं द्वारा किया  गया था एवं चोल राजाओं ने इसकी मरम्मत करवायी थी। 
कामाक्षी देवी मन्दिर :-   एक्मेश्वर मंदिर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर कामाक्षी देवी का मंदिर स्थित है।  इसे भी पललव राजाओं ने छठी शताब्दी में बनवाया था। यह इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है तथा  मंदिर के गर्भगृह में कामाक्षी देवी की आकर्षक प्रतिमा स्थापित है।मन्दिर में यह दक्षिण पूर्व की ओरपद्मासन लगाकर श्रीचक्र रूप में चतुर्भुज सहित दर्शन दे रही हैं। कहा जाता है कि कांची में कामाक्षी मदुरै में मीनाक्षी और काशी में विशालाक्षी विराजमान हैं। मीनाक्षी और विशालाक्षी विवाहिता हैं। यहां कामाक्षी खड़ी मुद्रा में होने के बजाय बैठी हुई मुद्रा में हैं और दक्षिण पूर्व की ओर देख रहीं हैं। मंदिर परिसर में गायत्री मंडपम भी है। कभी यहां चम्पक का वृक्ष हुआ करता था। मां कामाक्षी के भव्य मंदिर में भगवती पार्वती का श्रीविग्रह है जिसे कामकोटि भी कहते हैं। कहा जाता है कि कामाक्षी देवी के नेत्र की सुंदरता के कारण ही इन्हें कामाक्षी की संज्ञा दी गई है। कामाक्षी में मात्र कमनीयता ही नहीं है बल्कि कुछ बीजाक्षरों का यांत्रिक महत्व भी है। इसीलिए कामाक्षी के तीन नेत्र त्रिदेवों के प्रतिरूप माने जाते हैं। सूर्य -चन्द्र उनके प्रधान नेत्र माने जाते हैं।  अग्नि उनके भाल पर चिन्मय ज्योति से प्रज्ज्वलित तृतीय नेत्र हैं। इसीलिए कामाक्षी को आदिशक्ति त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप माना जाता है।  परिसर में ही अन्नपूर्णा और शारदा देवी मंदिर बने हुए हैं। यहीं से थोड़ी दूरी पर वामन एवं सुब्रह्मण्य मंदिर भी बने हुए हैं।यहीं पर आदि शन्कराचार्य की भव्य मूर्ति भी स्थापित की गयी है। 
बैकुंठ पेरुमल मंदिर:- यह भगवान विष्णु को समर्पित है जो सातवीं शताब्दी में पल्लव राजा नंदिवर्मन् पललवमल्ला द्वारा बनवाया गया था। इसमें भगवान विष्णु बैठे एवं आराम मुद्रा में स्थित हैं। इस मंदिर में एक विशाल हाल बना हुआ है।
  विष्णु कांची :- शिव कांची से विष्णु कांची की दूरी ३ किलोमीटर है ।  यहां पर अठारह विष्णु मंदिर बने हुए हैं किन्तु मुख्य मंदिर वरदराज स्वामी का मंदिर है। इस मंदिर से पूर्व में एक प्रार्थना कक्ष बना हुआ है तथा यह मंदिर ग्यारह मंजिली है। ब्रह्म उत्सव समारोह यहां पर वैशाखी पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्री वल्ल्भचार्य महाप्रभु की पीठ यहीं विष्णु कांची परिक्षेत्र में स्थित है। भगवान विष्णु की शेषनाग शैय्या पर विराजित देवाधिराज मूर्ति यहां जलाच्छादित रहती है किन्तु बिस वर्षों में एक बार इसे बाहर निकालकर उत्सव मनाया जाता है।  

रामेश्वरम

रामेश्वरम को हिन्दू धर्म में वर्णित चार धामों में से एक प्रमुख धाम की मान्यता प्रदान की गई है। यहां पर स्थापित शिवलिंग को द्वादश ज्योतिर्लिं में प्रमुख ज्योतिर्लिंग माना जाता है। भारतवर्ष के उत्तरी भाग में स्थित धर्मस्थल काशी का जो माहात्म्य माना गया है वही  माहात्म्य दक्षिण भारत में स्थित रामेश्वरम का भी है। यहां पर स्थित ज्योतिर्लिंग भगवान श्रीराम द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।  कहा जाता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम रामेश्वरम में श्रद्धापुष्प चढाकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के दर्शन के पश्चात वाराणसी जाकर काशी विश्व्नाथ जी का दर्शन करके वहां से गंगाजल लाकर पुनः लिंगम अर्थात रामेश्वरम  को जलाभिषेक किया जाता है। यहीं पर भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई के पूर्व श्रीराम सेतु का निर्माण करवाया था। अतः श्रीराम सेतु के दस किलोमीटर परिक्षेत्र को  श्री रामेश्वरम की संज्ञा दी जाती है।इसे भगवान शंकर का ग्यारहवां अवतार माना जाता है।  

भौगोलिक स्थिति :-

दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में रामनाथपुरम जनपद के अन्तर्गत हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी से चतुर्दिक घिरा हुआ शंखाकार इस द्वीप में रामेश्वरम का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है। यह चेन्नई से लगभग सवा चार सौ किलोमीटर की दूरी पर है। प्राचीन समय में यह द्वीप भारत से जुड़ा हुआ था किन्तु कालान्तर में सागर की लहरों के निरन्तर प्रहार से इसका कुछ भूभाग कटता गया  जिसके कारण अब यह द्वीप चारों ओर से समुद्री जल से आप्लावित है। सीता हरण के पश्चात भगवान श्रीराम जब लंका जाने हेतु इस द्वीप पर आये थे तब सागर को पार करने हेतु पत्थरों से निर्मित श्रीराम सेतु का निर्माण करवाया था जिससे सम्पूर्ण वानर सेना सहित भगवान श्रीराम लंका में प्रविष्ट हुए थे। विभीषण के अनुरोध पर बाद में श्रीराम ने धनुष्कोटि नामक स्थान पर इस सेतु को तोड़वा दिया था। इस ४८ किलोमीटर लम्बे सेतु के अवशेष आज भी यहां दृष्टिगत होते हैं। जिस स्थल पर यह टापू मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था वहां इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी बन गई है। प्रारम्भ में इस खाड़ी को नावों के द्वारा पार किया जाता था। धनुषकोटि से मन्नार तक लोग पैदल भी चले जाते थे किन्तु सन् १४८० ई ० में एक चक्रवाती भयंकर तूफ़ान ने इसे पूर्णतयः नष्ट कर दिया था। बाद में कृष्ण्पनापकम नाम के राजा ने इस पर पत्थर के एक पुल का निर्माण करवा दिया था।  अंग्रेजों  द्वारा जर्मन इंजीनियर की सहायता से इसी पुल को  रेल पुल में परिवर्तित करवा दिया गया और सम्प्रति यही पुल रामेश्वरम को  रेलसेवा से भारत को जोड़ता है।  कहा जाता है कि पहले यह पुल जहाजों के निकलने हेतु खोल दिया जाता था। रामेश्वरम शहर तथा प्रसिद्ध रामनाथ का मंदिर इस द्वीप के उत्तरी किनारे पर स्थित हैं। यह मदुरै से १६७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मदुरै से नियमित हवाई सेवाएं रामेश्वरम के लिए उपलब्ध हैं। यह राष्ट्रिय राजमार्ग ४९ पर स्थित है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

श्रीराम सेतु के निर्माण के संबन्ध में पौराणिक साक्ष्य से विदित होता है कि सनकादि ऋषि ने सूतजी को इस पुल के निर्माण के उद्देश्य से अवगत करते हुए कहा कि त्रेतायुग में जब अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्र राम को चौदह वर्ष का वनवास दे दिया था और वनवास जाते समय श्रीराम की भार्या सीताजी को लंकाधिपति रावण द्वारा अपहृत कर लिया गया तब सीताजी की खोज एवं उनकी वापसी हेतु लंका पर चढ़ायी करने हेतु इस पुल का निर्माण किया  जाना आवश्यक समझा गया और  इसीलिए इस स्थान का नाम सेतुबंध पड़ा। 
रामेश्वरम एवं यहां पर निर्मित श्रीराम सेतु दोनों ही अत्यधिक प्राचीन हैं किन्तु यहां पर निर्मित रामनाथ का मंदिर बहुत अधिक पुराना नहीं है। इसके दक्षिणी भाग में निर्मित कुछ मंदिर डेढ़ दो हजार वर्ष पहले अवश्य बने थे किन्तु रामनाथ का मंदिर लगभग आठ सौ वर्ष पुराना  माना जाता है। रामेश्वरम का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा माना जाता है। यह गलियारा उत्तर -दक्षिण १९७ मीटर लम्बा एवं पूर्व -पश्चिम १३३ मीटर चौड़ा है। इसके परकोटि की चौड़ाई ६ मीटर तथा ऊँचाई ९ मीटर है। मन्दिर का प्रवेशद्वार ३८४ मीटर ऊंचा है। यह मंदिर लगभग ६ हेक्टेयर भूमि में निर्मित है। रामेश्वरम  शहर से उत्तर -पूर्व में करीब डेढ़ मील की दूरी पर गन्धमादन नामक छोटी सी पहाड़ी है। बताया जाता है कि श्री हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र लाँघने के लिए छलांग लगाई थी और यहीं पर श्रीराम द्वारा अपनी वानर सेना का पड़ाव डाला गया था। यहां से लंका पर चढ़ायी की गई थी तथा रावण वध के बाद भगवान श्रीराम यहीं पर रावण -वध के कारण उत्पन्न ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक शिवलिंग की स्थापना की थी जिसे रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है। हनुमान द्वारा काशी से मंगाए गए शिवलिंग के आने में देरी होते देखकर सीता जी ने समुद्र के किनारे से रेत को अपनी मुट्ठी में भरकर ले आयीं थी और उसी से एक शिवलिंग का निर्माण कर दिया था। श्रीराम ने इसी रेत से निर्मित शिवलिंग को यहां पर प्रतिष्ठापित किया था जो श्रीलिंगम के नाम से जाना गया। बाद में श्रीहनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी उसी के निकट श्रीराम जी ने स्थापित कर दिया था । यहां पर स्थित मंदिर में विशालाक्षी जी गर्भगृह के निकट ही नौ अन्य ज्योतिर्लिंग हैं जो लंकापति विभीषण द्वारा बाद में बनवाया गया माना जाता है। रामनाथ मंदिर स्थित ताम्रपट से ज्ञात होता है कि सन् ११७३ ई ० में श्रीलंका के तत्कालीन राजा पराक्रमबाहु  ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। इस मंदिर में केवल शिवलिंग की ही स्थापना की गई थी किसी अन्य देवता या देवी की मूर्ति स्थापित नहीं की गई थी। यही मूल मंदिर आज वर्तमान स्थिति में यहां मौजूद है। कालान्तर में 15वीं शदी के  राजा उड्डमान सेतुपति और निकटवर्ती निवासी वैश्य ने १४५० ई ० में इसके ७८ फुट ऊंचे गोपुरम का निर्माण करवाया और बाद में मदुरई के एक देवी भक्त ने इसका नवनिर्माण करवाया। सोलहवीं शताब्दी में दक्षिण भाग के द्वितीय परकोटे की दीवार का निर्माण तिसमलय सेतुपति ने करवाया क्योंकि इसमें उनके पुत्र की मूर्ति द्वार पर आज भी मौजूद है। 
रामेश्वरम मंदिर की निर्माणकला  एवं शिल्पकला दोनों अद्वितीय है। इसका प्रवेश द्वार चालीस फुट ऊंचा है और मंदिर में सैकड़ों खम्भे बने हुए हैं। रामनाथ की मूर्ति के चारों ओरपरिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए हैं और इस प्राकार की कुल लम्बाई ४०० फुट से अधिक है। दोनों ओर ५ फुट ऊंचा और ८ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के किनारे खम्भों की कतारें दिखाई पड़तीं हैं।  रामेश्वरम के विशाल मंदिर के निर्माण में रामनाथपुरम नामक छोटी सी रियासत का बहुत बड़ा योगदान रहा है। रामेश्वरम से रामनाथपुरम की दूरी लगभग ३८ किलोमीटर है। रामेश्वरम मंदिर की स्थापना के संदर्भ में कहा जाता है कि सीताजी को बिना युद्ध के लंका से लाने का काफी प्रयत्न श्रीराम ने किया था किन्तु सफलता न मिलने पर युद्ध करना पड़ा था  जिससे रावण और उसकी सेना के सभी राक्षस मारे गए थे। ब्रह्म हत्या पाप के निवारणार्थ श्रीराम ने यहां शिवलिंग की स्थापना की थी। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

रामेश्वरम में शिव एवं पार्वती जी की दो मूर्तियां स्थापित हैं। प्रथम मूर्ति को पर्वत वर्धिनी एव दूसरी को विशालाक्षी कहा जाता है। रामेश्वरम मुखयतः शिवमंदिर के लिए जाना जाता है किन्तु उसके  परिसर में अन्य देवी देवताओं के मंदिर भी स्थापित हैं। भगवान विष्णु का मंदिर इनमें से प्रमुख है। यहां से २ किलोमीटर की दूरी पर लक्ष्मण तीर्थ है जहां स्नान करके श्रद्धालु रामेश्वरम के मुख्य मंदिर का दर्शन करते हैं। कहा जाता है कि श्रीलंका से लौटकर श्रीराम ने यहां स्नान किया था। लक्ष्मण तीर्थ मार्ग पर ही सीता तीर्थ है जो पंचमुखी हनुमान मंदिर के सन्निकट स्थित है। सीता तीर्थ के निकट राम तीर्थ भी बना हुआ है। 
रामेश्वरम बाजार के पूर्व में समुद्र तट पर रामेश्वरम का मुख्य मंदिर स्थित है। यहीं पर सेतुमाधव मंदिर के निकट माधव तीर्थ तालाब स्थित है। उत्तरी भाग में गन्धमदन तीर्थ में गवय ,नल नील तीर्थ श्रृंखलाएं दृष्टिगत होती हैं। यहां पर अलग अलग स्थानों पर मीठे जल के २२ कुएं स्थित हैं जिनमें स्नान करके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। चक्राकार मार्ग में दोनों ओर लम्बे बरामदे बने हैं। मार्ग के सम्मुख श्रीराम लिंगम का पवित्र स्थल है। मार्ग के उत्तर में प्रसिद्ध तीर्थ ब्रह्म हत्या विमोचन तीर्थ ,सूर्य तीर्थ ,चंदन तीरामेश्वरम र्थ ,गंगतीर्थ ,यमुना तीर्थ एवं गया तीर्थ स्थित हैं। निकट ही पूर्व की ओर चक्रतीर्थ व शंख तीर्थ स्थित हैं। इन दोनों के मध्य से रामेश्वरम  के मुख्य मंदिर की ओरएक मार्ग जाता है।  मुख्य मंदिर के बाएं तरफ मंदिर का कार्यालय है जहां गंगाजल के विक्रय की व्यवस्था रहती है तथा यहीं से मंदिर के दर्शन हेतु निधारित शुल्क की पर्ची निर्गत की जाती है। यहां पर गंगाजल व पुष्प आदि के पात्र श्रद्धालुओं को वापस नहीं किये जाते बल्कि यहां से गंगाजल खरीदकर रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक हेतु श्रद्धालु आगे बढ़ते हैं। रामेश्वरम मंदिर के सम्मुख एक स्वर्णिम खम्भा स्थित है और उसी के निकट १३ फिट लम्बी एवं ८ फिट चौड़ी सफेद रंग की नंदी की मूर्ति बनी हुई है। नन्दी  के बायीं  ओर बालरूप हनुमान की मूर्ति बनी हुई  है और नन्दी  के दक्षिण में शिवतीर्थ नामक छोटा सा तालाब स्थित है। यहीं पर गंगा ,यमुना ,सूर्य एवं चन्द्र तीर्थ एवं ब्रह्म हत्या विमोचन तीर्थ स्थित है। मुख्य मंदिर के सन्निकट ही कोटितीर्थ है जहां से दर्शनार्थी वापसी के समय पवित्र जल घर लाने हेतु एकत्रित करते हैं। इस पवित्र जल के लिए उन्हें निर्धारित शुल्क देना पड़ता है। ,ज्योतिर्लिंगम श्री रामेश्वरम के तीन प्रवेश द्वार बने हुए हैं और मंदिर के शीर्ष पर शेषनाग ताज की भांति स्थित हैं। यहां पर कोई भी दर्शनार्थी श्री रामेश्वरम को स्वयं जलाभिषेक नहीं कर सकता है बल्कि गंगोत्री एवं हरिद्वार से लाये गए गंगाजल को मंदिर के पुजारी ही उनके सामने ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक करते हैं। इस जलाभिषेक के लिए भी निर्धारित शुल्क उन्हें देना पड़ता है। यहां पर प्रत्येक पूजा के लिए अलग अलग शुल्क निर्धारित हैं जिसे दर्शनार्थी को अदा करना पड़ता है। 
कहा जाता है कि प्राचीन समय में रामेश्वरम एक जंगल था और बाद में कुछ सन्तों ने यहां आश्रम का निर्माण करवाया था। श्रीराम सेतु के प्रशासकों ने बाद में यहां मंदिर का निर्माण करवाया था। वर्तमान रामेश्वरम मंदिर का नवनिर्माण समय समय पर विभिन्न राजाओं द्वारा ही सम्भव हो पाया था। रामेश्वरम मंदिर से लगभग ३ किलोमीटर की दूरी पर गन्धमदन तक पहले पैदल ही पहुंचा जा सकता था। यहां पर सुग्रीव तीर्थ ,आनन्दतीर्थ ,जामवन्त तीर्थ एवं अमृत तीर्थ भी दर्शनीय हैं। सुग्रीव तीर्थ तालाबनुमा है जबकि अन्य  तीन तीर्थ कुंवानुमा हैं। दर्शनार्थी इन तीर्थों से आचमन स्वरूप जल ग्रहण करते हैं और यहीं पर बने हुए श्रीहनुमान जी को समर्पित मंदिर का दर्शन करते हैं। इसी के निकट राम झरोखा की पहाड़ियां दिखाई पड़तीं है जिसके तल तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। भगवन श्रीराम के चरण चिह्न यहाँ स्थित मंदिर में मौजूद हैं। कहा जाता है कि हनुमान जी ने यहीं से समुद्र को लांघा था और श्रीराम ने सुग्रीव के साथ यहीं पर युद्ध की रणनीति बनाई थी। 
रामेश्वरम की दर्शन यात्रा समाप्ति पर वापसी के समय राम झरोखा पहाड़ी के ठीक नीचे धर्मतीर्थ के दर्शन किये  जाते हैं। इस तीर्थ का निर्माण युधिष्ठिर द्वारा करवाया गया था और इसी के निकट भीमतीर्थ ,अर्जुन तीर्थ ,नकुलतीर्थ एवं सहदेव तीर्थ भी दर्शनीय हैं। रामेश्वरम के दक्षिण में  जहां विभीषण ने शरण ली थी ,रामस्वामी का मंदिर बना हुआ है । लंकाधिपति रावण के वध के पश्चात यहीं पर  श्रीराम द्वारा विभीषण का राजतिलक किया गया था और इसी के निकट सीताकुंड जहां सीता जी ने अपने सतीत्व को सिद्ध किया था ,स्थित है। 


Friday, May 13, 2016

जगन्नाथ धाम

 श्री जगन्नाथ धाम हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित चार धामों में से एक प्रमुख धाम है। अन्य तीन धामों में बद्रीनाथ सतयुग का धाम ,श्रीरामेश्वरम त्रेतायुग का धाम और द्वारिका द्वापरयुग का धाम माना जाता है किन्तु श्रीजगन्नाथ धाम को कलयुग का पवित्रतम धाम कहा जाता है। प्राचीन समय में यहां नीलांचल पर्वत था जहां देवतागण नीलमाधव भगवान की पूजा किया करते थे। नीलांचल पर्वत के धरती में समा जाने के बाद उनकी मूर्ति को देवतागण यहां इस स्थान पर ले आये थे किन्तु यह स्थान नीलांचल के नाम से ही जाना गया।  जगन्नाथ मंदिर के शीर्ष पर चक्र को  आज भी नीलछत्र के नाम से जाना जाता है।  सम्पूर्ण क्षेत्र जहां से यह नीलछत्र देखा जा सकता है ,को जगन्नाथपुरी की संज्ञा दी जाती है। इस मंदिर में केवल हिन्दुओं को ही प्रवेश की अनुमति दी जाती है। इस मंदिर के चारों ओर एक विशाल हाता बना हुआ है और इसकी ऊँचाई ३८ मीटर है। इसका निर्माण सन् ११९८ ई में किया गया था। मंदिर के ठीक सामने एक विशाल स्तूप स्थित है जिसके ऊपर भगवान गरुण देवता की प्रतिमा विराजमान है। मंदिर के मुख्य द्वार को सिंह द्वार कहा जाता है क्योंकि इस पर दो सिंहों की विशाल मूर्ति पहरा देते हुए स्थापित की गई है। जगन्नाथ मंदिर भगवान श्रीकृष्ण जी को समर्पित हिन्दू धर्म वैष्णव सम्प्रदाय का पावन स्थल माना जाता है।शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों में से एक मठ पुरी में भी है।कलिंग के राजा चौडगंग द्वारा १२ वीं सदी में बनवाया गया ६५ मीटर ऊंचा श्रीजगन्नाथ मन्दिर यहां का सर्वाधिक विशाल मंदिर है। इस मंदिर के मुख्य भाग को श्रीमंदिर कहा जाता है जिसमें रत्न वेदी पर भगवान जगन्नाथ ,सुभद्रा जी और बलराम जी की महदारु की लकड़ी से निर्मित दिव्य मूर्तियां विराजमान हैं। यहां त्रिभूति प्रभु के दर्शन से असीम आनंद प्राप्त होता है।   

भौगोलिक स्थित :-

जगन्नाथ पुरी भारतवर्ष के उड़ीसा राज्य के समुद्रतट पर बसे हुए पुरी शहर में स्थित है। पुरी का विश्व प्रसिद्ध समुद्र तट जगन्नाथ मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। इस मंदिर के चारों ओर एक चौड़ी दीवार बनायी गई है और मुख्य मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है जैसे श्रीमंदिर ,जगमोहन एवं भोगमण्डपम्।   मंदिर के पूर्व में सिंहद्वार और दक्षिण में अश्वद्वार ,पश्चिम में व्याघ्रद्वार तथा उत्तर में हस्तिद्वार स्थित हैं। कटक स ४७ किलोमीटर की दूरी पर खुर्दारोड रेलवे स्टेशन स्थित है जो पूर्वी रेलवे के हावड़ा -वालटर ब्रांच लाइन पर स्थित है। यहां से पुरी के लिए एक रेलवे लाइन जाती है। खुर्दा रॉड से पुरी ४५ किलोमीटर की दूरी पर है। सीधी ट्रेन हावड़ा ,मद्रास ,आसनसोल ,तलचर से मिलती है। कटक ,भुवनेश्वर एवं खुर्दारोड से यहां तक बस सेवा उपलब्ध है। पुरी से भगवान जगन्नाथ का मंदिर लगभग २ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 
यहां पर अनेकों मठ एवं धर्मशालाएं बनवायी गई हैं जहाँ दर्शनार्थी के विश्राम एवं भोजन आदि की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है। दुधवइ वालंकी धर्मशाला मंदिर के मुख्य मार्ग पर है और यहां के अन्य धर्मशालाओं में गोयनका धर्मशाला ,सेठ धनजी मूलजी धर्मशाला ,सेठ कन्हैया लाल बागला धर्मशाला ,बीकानेर वालंकी धर्मशाला ,श्री आशाराम जी व मोतीराम जी की धर्मशाला प्रमुख हैं। यहां पर स्नान महोदधि ,रोहिणी कुण्ड ,इन्द्र्द्युम्न ,लोकनाथ तालाब एवं चक्रतीर्थ में किया जा सकता है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पौराणिक आख्यानों के अनुसार लगभग अट्ठासी हजार साधु- सन्तों ने पवित्र धर्मस्थल नैमिषारण्य जो उस समय तप ,साधना एवं पुण्यदायक स्नान करने का सर्वोच्च केंद्र था ,में सूत जी ने कहा था कि मानव को समस्त बन्धनों से मुक्त रखने व उनके पापों के विनाश के लिए सर्वोत्तम स्थान यदि पृथ्वी पर है तो वह नीलांचल पर्वत ही हो सकता है। यहां पर भगवान जगन्नाथ के रूप में विराजमान हैं और जो भी दर्शनार्थी यहां पर बलभद्र एवं सुभद्रा के साथ भगवान जगन्नाथ के दर्शन करते हैं वे समस्त सांसारिक बन्धनों मुक्ति मिल जाती है तथा वह सीधे स्वर्ग लोक गमन करता है। कहा जाता है कि यहां पर स्थित रोहिणी कुण्ड में जो व्यक्ति स्नान कर लेता है वह सदैव के लिए पापमुक्त होकर मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता है। कहतें हैं कि एक बार एक कौआ इस रोहिणी कुण्ड में पानी पीकर मृत्यु को प्राप्त करने के पूर्व भगवान के चतुर्भुज अलौकिक स्वरूप धारण करते हुए सीधे स्वर्ग चला गया था। यहां स्थित चन्दन तालाब में जो व्यक्ति स्नान करके अपने पूर्वजों का तर्पण करता है उसके पूर्वजों की आत्मा बन्धनमुक्त हो जाती है और वे सीधे स्वर्लोक में स्थान प्राप्त कर लेते हैं। पूर्व में भगवान नीलमाधव स्वयं नीलांचल पर्वत पर निवास करते थे। एक बार राजा इंद्रद्युम्न जब यहां पर भगवान के दर्शन हेतु आये तब भगवान नीलमाधव अचानक अदृश्य हो गए। राजा के विशेष प्रार्थ्रना करने पर भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुए बताया कि अब वे आज से काष्ठ की मूर्ति में ही प्रकट होकर दर्शन दिया करेंगे। राजा इंद्रद्युम्न ने वहां पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया और उसमें  भगवान नीलमाधव की मूर्ति बनाने के लिए शिल्पकार विश्वकर्मा  जी से अनुरोध किया। विश्वकर्मा ने राजा के अनुरोध को इस शर्त पर स्वीकार किया कि जब मूर्ति का निर्माण कार्य पूर्ण न हो जाये तब तक कोई भी उन्हें मूर्ति बनाते हुए नहीं देखेगा। राजा ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली। कहा जाता है कि कार्य प्रारम्भ के पश्चात राजा ने एक दिन उत्सुकतावश छिपकर उन्हें मूर्ति बनाते हुए देख लिया। विश्वकर्मा जी  को जब यह आभास हुआ तब उन्होंने मूर्ति निर्माण को बीच में ही अधूरा छोड़ दिया। राजा के अनुरोध पर ब्रह्माजी ने उस बिना हाथ पैर की मूर्ति में प्राण फूँककर उसे जीवंत किया। तभी से उस परिक्षेत्र को पुरुषोत्तम परिक्षेत्र कहा जाने लगा और भगवान को श्रीजगन्नाथ जी की संज्ञा दी गई।  जो दर्शनार्थी यहां पर स्थित इंद्रद्युम्न कुण्ड में स्नान करके महाप्रसाद ग्रहण कर लेता है उसे एक करोड़ गऊदान करने का पुण्य प्राप्त होता है।धर्मशास्त्रों में इसे जगन्नाथपुरी के अतिरिक्त शंखक्षेत्र ,श्रीक्षेत्र और पुरुषोत्तम क्षेत्र भी कहा जाता है।  
 जगन्नाथ जी के दर्शन करने हेतु सर्वप्रथम श्रद्धालुओं को मंदिर के मुख्य द्वार से प्रवेश करने के पूर्व उन्हें यहां स्थित भोगमण्डल ,गणेशजी वटवृक्ष ,नृसिंहजी ,रोहिनीकुंड एवं लक्ष्मीजी की परिक्रमा करनी पड़ती है, तब मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति मिलती है। श्रीजगन्नाथजी ,सुभद्राजी एवं बलभद्रजी को श्रद्धापूर्वक भेंट चढ़ाकर उन्हें प्रणाम करते हुए श्रीलोकनाथ जी का ध्यान किया जाता है। जो इस प्रक्रिया का सम्यक अनुपालन करता है उसे भगवान श्री जगन्नाथ स्वयं दर्शन दे देते हैं। 
गंगवंश के प्राप्त ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण कार्य कलिंग के राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने प्रारम्भ किया था तथा मंदिर के जगमोहन और विमान भाग का निर्माण उनके शासनकाल सन् १०७८-११४८ में पूर्ण हो गया था। पुनः सन् ११९७ ई ० में ओडिशा के शासक अनङ्गभीम देव ने इसे वर्तमान रूप प्रदान किया। मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी की पूजा सन् १५५८ ई ० तक निरन्तर होती रही किन्तु इसी समय अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर आक्रमण कर दिया जिसके फलस्वरूप मूर्तियां व मंदिर का कुछ भाग नष्ट हो गया था और पूजा भी बंद हो गई थी। बाद में रामचंद्र देवके खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर मंदिर का नवनिर्माण कराया गया और उसमें मूर्तियों की पुनर्स्थापना की गई। वैष्णव पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में काफी दिनों तक प्रवास किया था। इस मंदिर का वार्षिक रथ उत्सव मध्यकाल से ही आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। इस रथ उत्सव में मंदिर के तीनों मुख्य देवता बगहवां जगन्नाथ ,उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा अलग अलग तीन भव्य एवं सुसज्जित रथों पर विराजमान होकर  यात्रा पर निकाला जाता है। 
कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप स्थित था और उस स्तूप में भगवान बुद्ध का एक दांत रखा गया था। बाद में बौद्ध धर्म को वैष्णव समुदाय द्वारा आत्मसात कर लिया गया और भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर की वहां पर स्थापना करके उनकी पूजा अर्चना प्रारम्भ कर दी गई। कहा जाता है कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने इस मंदिर को काफी मात्र में स्वर्णदान दिया था। उन्होंने तो विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे को भी इसे दान देने का संकल्प लिया था किन्तु यह सम्भव नहीं हो पाया। यहां के मुख्य मंदिर का ढांचा ४००००० वर्गफुट में फैला हुआ है। इसकी स्थापत्य एवं शिल्पकला कलिंग शैली की है। वक्ररेखीय आकार के इस मंदिर के शिखर पर भगवान विष्णु का अष्टधातु से निर्मित सुदर्शन चक्र जिसे नीलचक्र भी कहते हैं ,स्थापित किया गया है। मंदिर का मुख्य ढांचा २१४ फुट ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना हुआ है। 

अन्य दर्शनीय स्थल :- 

यहां  से १५ किलोमीटर की दूरी पर साक्षी गोपाल स्थल स्थित है जहां राधा एवं कृष्ण का एक साथ दर्शन कर सकते हैं। जगन्नाथ धाम के अन्य मंदिरों में गुंडीचा मंदिर प्रमुख है जो मुख्य मंदिर से ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रथयात्रा के समय भगवान जगन्नाथ जी यहां एक सप्ताह विश्राम करते हैं। जगन्नाथ मंदिर के दक्षिण पश्चिम में कपालमोचन स्थल है। मंदिर के सिंह द्वारके सम्मुख अमरनाथ  स्थित हैं। श्री राधाकान्त मठ जिसे गंभीरनाथ भी कहते हैं ,स्वर्गद्वार से समुद्रतट की ओर जाते समय दिखलायी।  इसी मार्ग पर सिद्धबकुल नामक स्थान  भी है। यहीं पर गोवर्धन मठ स्थित है जिसे शंकराचार्य जी ने बनवाया था। यहां पर बैकुंठ द्वार के निकट कबीरमठ स्थित है। बैकुंठ द्वार के दाहिनी तरफ हरिदास का चबूतरा है और उससे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर टोटा गोपीनाथ जी का मंदिर स्थित है। लोकनाथ महादेव को समर्पित लोकनाथ मंदिर यहां से एक किलोमीटर की दूरी पर है। पुरी रेलवे स्टेशन मार्ग पर हनुमान जी का मंदिर मुख्य मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर बना हुआ है। हनुमान मंदिर के सम्मुख चक्रतीर्थ समुद्रतट पर स्थित है। हनुमान मंदिर के निकट ही सोनार गौरंगा नामक स्थल है और यहीं पर सिंह द्वार के निकट नानक मठ है जहां पर गुरु साहिब नानक देव जी ने कुछ दिन प्रवास किये थे। 
जगन्नाथ धाम का मुख्य आकर्षण भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा है जिसमें लगभग ४००० भक्तगण शंखनाद करते हुए रथ को खींचते हैं। गुंडिचा मंदिर में सप्ताह भर विश्राम के बाद भगवान जगन्नाथ जी बलभद्र एवं सुभद्रा को पुनः रथ पर बैठाकर वापस जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। प्रत्येक वर्ष रथयात्रा के पश्चात इन रथों को नष्ट कर दिया जाता है और अगले वर्ष नए रथ तैयार किये जाते हैं। प्रत्येक आठवें ,ग्यारहवें एवं उन्नीसवें वर्ष पुराणी मूर्तियों के स्थान पर नई मूर्तियों की स्थापना की जाती है। जगन्नाथ धाम को रसोई विश्व प्रसिद्ध है क्योंकि इस विशाल रसोईं में भगवान को चढ़ाये जाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने हेतु ५०० रसोइये तथा ३०० सहयोगी नियुक्त किये गए हैं। इस मंदिर में गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। सामान्य पर्यटक का भी प्रवेश वर्जित है किन्तु वे मंदिर के अहाते और अन्य आयोजनों का दृश्य निकटवर्ती रघुनंदन पुस्तकालय की ऊंची छत से अवलोकित कर सकते हैं।
जगन्नाथपुरी का सर्वाधिक आकर्षण रथयात्रा मानी जाती है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते हैं। तीन विशाल रथों में तीनों मूर्तियां अलग अलग रखी जाती हैं और लगभग दो किलोमीटर दूर इंद्रद्युम्न की रानी गुंडीचा के महल तक एक जुलूस के रूप में ले जाए जाती हैं और जगन्नाथजी की मौसी के मंदिर में तीनों मूर्तियां रख दी जाती हैं। दस दिन के बाद वहां से वापसी की यात्रा भी उसी धूमधाम से की जाती है। इसे उल्टा रथ कहा जाता है इस दौरान भक्तगण उपवास रखकर रथ के रस्सों को खींचते हैं। वैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को रथ  निर्माण प्राचीन परम्परा के अनुसार प्रारम्भ किया जाता है जिसमें ८३२ लकड़ी के टुकड़े का प्रयोग किया जाता है। जगन्नाथजी का रथ सोलह पहियों का होता है। रथ निर्माण के पश्चात ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को बाहर लायी गई मूर्तियों के १०८ घड़ों के जल से स्नान कराकर महोत्सव का शुभारम्भ किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस स्नान से भगवान जगन्नाथजी को सर्दी जुकाम हो जाता है जिसका विधिवत १५ दिन तक इलाज होता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं। आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष द्वितीया को रथयात्रा प्रारम्भ होती है जिसमें पूरी के मुखिया सोने की झाड़ू लेकर उसके मार्ग को साफ करते हैं। जयकारों और भजनों की अनुगूँज के साथ तीनों रथों पर मूर्तियां विराजमान होती हैं और लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तयकर जुलूस बाग बगीचों वाले गुंडीचा पहुँच जाता है और उन मूर्तियों को मौसी के मंदिर में रख दिया जाता है। नौ दिनों को ' आडप दर्शन' कहते हैं। इस प्रकार तीन सप्ताह में यह धार्मिक महोत्सव सम्पन्न हो जाता है।