Wednesday, April 6, 2016

कामाख्या देवी

हिन्दू धर्मशास्त्र में वर्णित इक्यावन शक्तिपीठों में से प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में कामाख्या देवी प्राचीन काल से तन्त्र -साधना के मुख्य केन्द्र एवं साधकों की तपस्थली के रूप में जानी जाती है। अदभुत रहस्य एवं अकल्पनीय चमत्कारों से परिपूर्ण यह परिक्षेत्र साधकों  को आध्यात्मिक चेतना व शक्ति प्रदान करने के लिए विश्व प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में साधक व पर्यटक कामाख्या देवी के दर्शन हेतु यहां उपस्थित होकर अपनी आस्था व विश्वास को  विशेष ऊर्जा प्रदान करते हैं। कामाख्या देवी को मां काली का प्रतिरूप माना जाता है इसीलिए यहां पर तंत्र -मंत्र ,जादू -टोना आदि की सिद्धि हेतु भारत के सभी प्रांतों से साधकों  का मेला  लगा रहता है। हिन्दू और बौद्ध तांत्रिक समान रूप से इस स्थल पर आकर अपनी सिद्धियों को मूर्तरूप प्रदान करते हैं। कामाख्या देवी को कामरूप की भी संज्ञा प्रदान की जाती है। यहां से संबन्धित अनेकों दंत -कथाएँ सुनने को मिलती हैं जिससे जादू -टोने  व सम्मोहन द्वारा अपने वश में करने की घटनाओं का विशेष चित्रण दृष्टिगत होता है !यहां स्थित मन्दिर को शक्ति की देवी सती के मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यह सिद्ध शक्तिपीठ सती  के इक्यावन शक्तिपीठ में से सर्वप्रमुख शक्तिपीठ है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के आसाम प्रान्त में आसाम की राजधानी गुवाहाटी शहर से लगभग ८ किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत श्रेणियों के मध्य कामरूप कामाख्या देवी का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है। पहाड़ियों पर बने हुए इस मन्दिर के तान्त्रिक महत्व के कारण इसे सम्पूर्ण विश्व में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त है।  पूर्वोत्तर के प्रवेशद्वार आसाम राज्य के गौरव के रूप में भगवती सती की महामुद्रा अर्थात योनिकुण्ड कामाख्या में स्थित है। यह स्थान हवाई मार्ग,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से भारत के समस्त प्रांतों से जुड़ा हुआ है। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन गुवाहाटी है। यह दिल्ली से १९३६ किलोमीटर तथा कलकत्ता से ९९२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर नीलांचल पर्वत पर स्थित होने के कारण पर्यटन की दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व माना जाता है। यहां से थोड़ी दूर पर ही ब्रह्मपुत्र नदी गुवाहाटी शहर से होकर प्रवाहित होती हैं। 

ऐतिहासिक एवं पौराणिक साक्ष्य :-

कामाख्या शक्तिपीठ के उदभव एवं महत्ता के संबंध में पुराणों में विस्तृत वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि जब माता सती अपने पिता दक्ष के द्वारा  आयोजित यज्ञ के अवसर पर बिना आमंत्रण के वहां पहुँच गई थीं और वहां पर अपने पिता द्वारा अपने पति भगवान शिव की निंदा सुनीं तब वे अपना  आत्मनियंत्रण खोकर उसी यज्ञ के अग्निकुण्ड में कूद पडीं। भगवान शिव इस घटना पर अत्यधिक क्रोधित हुए और अग्निकुण्ड से माता सती के शरीर को बाहर निकालकर अपनी पीठ पर उसे रखकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विचरण करने लगे। इसी समय समस्त देवतागण तारकासुर के आतंक एवं अत्याचार से दुःखी होकर भगवान विष्णु के पास इसके वध की प्रार्थना करने हेतु पहुँच गए तब भगवान विष्णु ने उन्हें यह परामर्श दिया कि तारकासुर का वध केवल भगवान शिव ही कर सकते हैं किन्तु वे सती के मोहवश अभी क्रोधित होकर अखिल भूमण्डल में यत्र तत्र विचरण कर रहे हैं। देवताओं की प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान विष्णु ने शिव के सती -मोह को कम करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के कई टुकड़े कर दिए और यही टुकड़े भारत के विभिन्न इक्यावन स्थानों पर गिर गए थे। कहा जाता है कि कामरूप कामाख्या में सती की योनि गिरी थी।  इसी कारण आसाम के इस क्षेत्र को कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ की संज्ञा दी गई और इसी स्थल पर शक्तिपीठ की स्थापना हुई। कालान्तर में सन् १५६५ ई० में कूचबिहार के राजा नरनारायण द्वारा एक भव्य मन्दिर का निर्माण इसी स्थल पर करवाया गया।             
  कामाख्या शक्ति पीठ पर शोध कर रहे डॉ० दिवाकर शर्मा के अनुसार असुरराज नरकासुर ने जब भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी बनाने का दुराग्रह कर लिया था तब भगवती कामाख्या ने नरकासुर से कहा कि यदि तुम इसी रात में नीलपर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान मार्गों का निर्माण करके कामाख्या मन्दिर व एक धर्मशाला बनवा दो  तो उसकी इच्छा पूर्ण हो सकती है किन्तु ऐसा न कर पाने पर वे उसका वध कर देंगी। अहंकारवश अपने दुराग्रह पर अडिग होकर नरकासुर ने नीलपर्वत के चारों ओर सोपान मार्गों का निर्माण तो करवा दिया किन्तु इसी मध्य एक मायावी मुर्गे द्वारा रात्रि समाप्ति के पूर्व ही बांग दे देने के कारण नरकासुर क्रोधित होकर उस मुर्गे का पीछा करने लगा और ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर उसे पकड़कर उसका वध कर दिया। यह स्थान सम्प्रति कुकुटाचकि के नाम से प्रसिद्ध है। शर्त पूर्ण न कर पाने के कारण मां भगवती के आग्रह पर भगवान विष्णु ने नरकासुर का भी वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना किन्तु भगदत्त के निःसंतान होने के कारण उसका राज्य छोटे छोटे टुकड़ों में बंट गया। कहा जाता है कि नरकासुर के उक्त कृत्य से अप्रसन्न होकर मां भगवती वहां से अदृश्य हो गई थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मन्दिर भी नष्ट हो गया था। मान्यता है कि इसी स्थल पर समाधिस्थ भगवान शंकर की तपस्या को कामदेव ने कामबाण चलाकर भंग कर दी थी और तभी समाधिभंग से क्रोधित भगवान शंकर ने कामदेव को अपने तीसरा नेत्र खोलकर भस्म कर दिया था। भगवती के नीलांचल पर्वत पर योनि मुद्रा में स्थापित होने पर कामदेव को जीवनदान मिला था। इसीलिए इस क्षेत्र को कामरूप भी कहा जाता है। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

कामाख्या शक्तिस्वरूपा माता सती के योनि विग्रह के गिरने के कारण निर्मित योनिकुण्ड पर बने हुए एक विशाल मन्दिर के कारण ही प्रसिद्ध हुआ। भारत ही नहीं बल्कि विश्व के भी सभी तान्त्रिक अम्बुयाची योग पर्व पर यहां आकर अपनी सिद्धियों द्वारा अर्जित शक्तियों को जाग्रत करते हैं। अम्बुयाची पर्व मां सती का रजस्वला पर्व होता है। पुराणों में बताया गया है कि सतयुग में यह पर्व १६ वर्ष में एक बार ,द्वापरयुग में १२ वर्ष पर एक बार ,त्रेतायुग ७ वर्ष में एक बार तथा कलयुग में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। बताया जाता है कि अम्बुयाची योग पर्व के दौरान माता के मंदिर का कपाट स्वतः बंद हो जाता है और कपाट बंद होने पर मां कामाख्या का दर्शन और पूजा अर्चना निषिद्ध हो जाती है। तीन दिनों के बाद रजस्वला योग की समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा अर्चना की जाती है। इस प्रकार आदिशक्ति महाभैरवी कामाख्या को सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है और इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी पूजा अनुष्ठान का विशेष महत्व माना जाता है। कहा जाता कि अम्बुयाची पर्व पर माता यहां कौमारी रूप में विराजमान रहती हैं। इस दौरान यहां के सभी वर्ण एवं जातियों की कौमारियां वन्दनीय व पूज्यनीय मानी  जाती हैं और ऐसा न मानने पर साधक की सिद्धियां स्वतः समाप्त हो जाती हैं। उत्तर भारत में जिस प्रकार महाकुंभ का पर्व मनाया जाता है ठीक उसी प्रकार आदिशक्ति के इस अम्बुयाची योग पर्व को मनाया जाता है। इस पर्व पर साधक अलौकिक शक्तियों का अर्जन करते हैं तथा तंत्र -मंत्र की परम्परागत शक्तियों को जागृत  करने का अनुष्ठान भी किया करते हैं। इस पर्व पर मां भगवती के रजस्वला होने के पूर्व सफेद वस्त्र उन्हें चढ़ाया जाता है जो बाद में स्वतः लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। मंदिर के पुजारी इसी वस्त्र को प्रसाद के रूप में भक्तों में बाँट देते हैं।  वाममार्गी साधकों का यह सर्वोच्च तीर्थस्थल माना जाता है। 
यहां पर कामाख्या देवी मन्दिर के अतिरिक्त भवनेष्वरी देवी का मन्दिर ,उमानन्द मन्दिर ,जनार्दन मन्दिर ,नवग्रह मन्दिर एवं वशिष्ठाश्रम आदि प्रमुख धार्मिक स्थल स्थित हैं।                  

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