Friday, April 1, 2016

देवप्रयाग

हिन्दू धर्मगर्न्थों  में तीर्थराज प्रयाग की भाँति देवप्रयाग की भी धार्मिक महत्ता का वर्णन करते हुए इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल की मान्यता प्रदान की गई है। अलकनन्दा एवं भागीरथी नदी के संगम पर बसे होने के कारण ही इसे प्रयाग की मान्यता प्रदान करते हुए देवप्रयाग की संज्ञा दी गई। जिस स्थल पर दो पवित्र नदियों का संगम होता है, उस स्थल को प्रयाग की संज्ञा दी जाती है। अतः देवभूमि हिमालय परिक्षेत्र में स्थित इस संगम स्थल को देवप्रयाग के नाम से सम्बोधित किया गया। अपने प्राकृतिक सौन्दर्य एवं प्राचीनता के लिए यह स्थान सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। यही कारण है कि यहां पर प्रतिवर्ष भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक यहाँ पर आते रहते हैं।  कहा जाता कि जब वामन भगवान ने सम्पूर्ण धरती को अपने तीन कदमों में नाप लिया था तब उनके चरण के नख से जल की एक धारा बह निकली थी जो ध्रुवमण्डल और सप्तऋषि मंडल होती हुई मेरु पर्वत पर चार भागों में विभक्त होकर आ गिरी थी  और इसी में से एक धारा को भगवान शिव की जटाओं में राजा भगीरथ ले आये थे तथा दूसरी धारा  अलकापुरी की ओर बहने के कारण अलकनन्दा कहलायी। दोनों धारायें देवप्रयाग में आकर आपस में मिल गईं और मोक्षदायिनी गंगा के नाम से आगे की ओर प्रवाहित हुई। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तराखण्ड राज्य में अलकनन्दा नदी एवं भागीरथी नदी के संगम स्थल पर बसा हुआ देवप्रयाग हिन्दुओं के पवित्र तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है। इसी स्थल से आगे की ओर अलकनन्दा एवं भागीरथी की संयुक्त धारा को गंगा नदी के नाम से जाना गया। देवप्रयाग समुद्रतल से १५०० फिट की ऊँचाई पर स्थित है और यहां से ऋषिकेश तीर्थस्थल की दूरी मात्र ७० किलोमीटर है। यह स्थल उत्तराखण्ड के पंचप्रयाग में से एक प्रमुख प्रयाग माना जाता है क्योंकि यह तीर्थस्थल भागीरथी एवं अलकनन्दा नदी के संगम पर स्थित है। यह तीर्थस्थल टेहरी से २० किलोमीटर दक्षिण -पूर्व में स्थित है। अलकनंदा नदी उत्तराखण्ड के सतोपंथ और भगीरथ कारक हिमनदों से निकलकर देवप्रयाग तक पहुंचती हैं और भागीरथी नदी में मिलकर आगे की ओर गंगा नदी के नाम से प्रवाहित होती हैं। ऋषिकेश से ७० किलोमीटर सड़कमार्ग से चलकर यहां तक पहुंचा जा सकता है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा देहरादून स्थित जौलीग्रांट है। यह स्थान बद्रीनाथ धाम के पंडों का निवास स्थान भी है। यहां की जनसंख्या अधिक नहीं है। सन् २००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार यहां की जनसंख्या २१४४ थी जिसमें ५२ %पुरुष एवं ४८ %महिलाएं सम्मिलित थीं। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

देवप्रयाग तीर्थ का नामकरण देवशर्मा मुनि के नाम पर किया जाना बताया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि सतयुग में देवशर्मा नामक मुनि ने दस हजार वर्षों तक केवल पत्ते खाकर एवं एक हजार वर्ष तक एक पैर पर खड़े होकर भगवान विष्णु की घोर तपस्या इसी स्थान पर की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु ने देवमुनि से वरदान माँगने को कहा तब देवशर्मा ने यह वरदान माँगा कि भगवन आप कलियुग में इस स्थान को समस्त पापों को नष्ट करने वाला बना दें तथा इस पवित्र क्षेत्र में आप स्वयं निवास करें और हमारी श्रद्धा को अपने चरणों में बनाए रखें। जो भक्त यहां पर आकर आपकी पूजा अर्चना करें उसे परमगति अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो। भगवान विष्णु ने तथास्तु कहते हुए आगे यह  वरदान दिया कि त्रेतायुग में मैं दशरथ पुत्र राम के रूप में अवतार लूंगा तथा रावण एवं अन्य राक्षसों का वध करने के पश्चात किंचित समय तक अयोध्या में रहकर यहीं चला आऊंगा और तबतक तुम इसी स्थान पर निवास करो। त्रेतायुग में जब भगवान राम ने रावण का वध करने के पश्चात अयोध्या में कुछ समय तक राजपाट संभालने के बाद यहां आकर देवशर्मा को दर्शन दिए और कहा कि मुनिवर तुम्हें जीवनमुक्ति प्राप्त हो और यह पुण्य स्थान तीनों लोको में तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध हो। उपरोक्त कथा के अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि जब राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लेने  हेतु भगवान शिव  को सहमत कर लिया तब ३३ करोड़ देवी देवता भी गंगा के साथ पृथ्वी पर आ गए थे और उन्होंने देवप्रयाग को ही अपना निवास स्थान बना लिया था। भागीरथी एवं अलकनन्दा के संगम स्थल देवप्रयाग से पावन गंगा का उदभव हुआ और यहीं से आगे की ओर इनकी संयुक्त धारा गंगा के नाम से प्रवाहित हुई। कहा जाता है कि लंका विजय के पश्चात भगवान राम के अयोध्या लौटने पर जब एक धोबी ने मां सीता के चरित्र एवं उनकी पवित्रता पर सन्देह व्यक्त किया था तब भगवान श्रीराम ने सीता का परित्याग करने का संकल्प लेते हुए भ्राता लक्ष्मण को यह आदेश दिया था कि वे सीता को वन में तुरन्त छोड़ आएं। लक्ष्मण ने सीता जी को  तपोवन के निकट देवप्रयाग से ४ किलोमीटर दूर  जिस  गांव में छोड़ा था उसे बाद में सीताविदा के नाम से जाना गया। यहीं पर सीता जी ने अपने आवास हेतु एक कुटिया बनायी थी जो अब सीतासैण के नाम से जाना जाता है। यहां स्थित मन्दिर में सीता जी की मूर्ति स्थापित की गई है जिसकी स्थानीय लोग आज भी पूजा किया करते हैं। यहीं से सीता जी वाल्मीकि आश्रम आधुनिक कोट महादेव चली गईं थीं। त्रेतायुग युग में भगवान राम द्वारा रावण के वध करने के बाद ब्रह्म हत्या दोष के निवारणार्थ सीता एवं लक्ष्मण के साथ देवप्रयाग में अलकनन्दा एवं भागीरथी के संगम स्थल पर कुछ समय तक निवास किये थे और यहीं पर श्रीराम ने विश्वेशवर लिङ्ग की स्थापना भी की थी। बाद में यहां पर श्रीरघुनाथ जी का मन्दिर बनवाया गया। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

देवप्रयाग मुख्यतः रघुनाथ मंदिर  के कारण ही प्रसिद्ध है। इस मन्दिर के शिखर पर स्वर्ण कलश स्थापित किया गया है  तथा शिखर के नीचे मंदिर के गर्भगृह में भगवान राम की विशाल मूर्ति स्थापित है जिनके दोनों  हाथों एवं चरणों पर आभूषण तथा सिर पर स्वर्ण-मुकुट  रखा गया है। हाथों में धनुषबाण एवं कमर में ढाल से सुसज्जित इस मूर्ति के एक तरफ भ्राता लक्ष्मण एवं दूसरी तरफ मां सीता की भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। मंदिर के बाहर प्रांगण में गरुण की पीतल से निर्मित एक मूर्ति रखी हुई है तथा मंदिर के दाहिनी तरफ बदरीनाथ  महादेव व कालभैरव का मंदिर बना हुआ है। 
यहां पर एक विशाल शिव मंदिर भी बना हुआ है।  देवप्रयाग अपनी प्राकृतिक सम्पदा के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है इसीलिए इसे सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है।  देवप्रयाग में डंडानाग राजमन्दिर और चंद्रवदनी मन्दिर भी दर्शनीय हैं। भागीरथी एवं अलकनन्दा नदी के संगम स्थल के उत्तर में गंगा के तट पर वाराह शिला ,वेताल  शिला ,वशिष्ठ तीर्थ ,पुष्पमाल तीर्थ ,विल्व एवं सूर्य तीर्थ तथा भरत जी का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं एवं संगम के पूर्व में तुण्डीशवर  महादेव स्थित हैं जहां तुंडा नामक भीलनी ने शिव जी की तपस्या की थी।  अलकनंदा के तट पर एक कुंड बना है जिसमें भक्तगण स्नानादि करके मंदिरों में पूजा अर्चना  करते हैं।         

1 comment:

  1. आपने इस विषय को विस्तार से समझाया है और इसके लिए मैं आपका धन्यवाद करना चाहता हूँ। मेरा यह लेख भी पढ़ें विष्णु प्रयाग की पौराणिक मान्यताएं

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