बौद्धधर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान बुद्ध को जिस स्थल पर आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी वह स्थल बोधगया के नाम से जाना जाता है। लगभग ५३१ ई ० पू ० कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ को इसी स्थल पर बोधिवृक्ष के नीचे आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था और यहीं से वे सम्पूर्ण विश्व में भगवान बुद्ध के नाम से जाने गए थे। इसी स्थल से ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त उन्होंने तथागत भिक्षुओं को बौद्धधर्म की दीक्षा देना प्रारम्भ किया था। अतः बौद्धधर्म के अनुयायियों के लिए यह स्थल तभी से तीर्थस्थल के रूप में जाना जाने लगा। यूनेस्को ने वर्ष २००२ में इस स्थल को विश्व विरासत स्थल घोषित किया था।
भौगोलिक स्थिति :-
भारतवर्ष के बिहार प्रान्त की राजधानी पटना के दक्षिण -पूर्व में लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर यह स्थल गया जनपद में स्थित है। सम्प्रति यह छोटे नगर के रूप में विकसित हो चुका है। बोधगया बिहार के गया शहर से लगभग १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भारत की राजधानी दिल्ली से यह स्थल १०५९ किलोमीटर दूर है। बोधगया भारत के सभी प्रमुख नगरों से हवाईमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से सम्बद्ध है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा पटना है तथा यह प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-
कहा जाता है कि लगभग ५२८ ई ० पू ० कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ /गौतम सत्य की खोज में राजपाट त्यागकर निरंजना नदी के तट पर स्थित एक छोटे से गाँव उरुवेला आ गए थे और इसी गाँव में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्होंने कठोर तपस्या प्रारम्भ कर दी थी। उरुवेला गाँव की सुजाता नामक एक कन्या उनके खाने के लिए खीर और शहद का कटोरा हाथ में लेकर आयी तब राजकुमार सिद्धार्थ ध्यानमग्न थे और सुजाता के आने का आभास होने पर उन्होंने उसके हाथ से कटोरा लेकर खीर और शहद खाने के पश्चात पुनः ध्यानमग्न हो गए। इसी स्थल पर बोधिवृक्ष के नीचे तपस्यारत रहते हुए उन्होंने तीन दिन और रात व्यतीत करने के उपरान्त आत्मज्ञान प्राप्त किया था। ज्ञानप्राप्ति के पश्चात यहीं से बुद्ध के नाम से जाने गए। ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने सात सप्ताह अलग अलग स्थानों पर ध्यान करने के उपरान्त अन्ततः सारनाथ जा करके बौद्धधर्म का प्रचार -प्रसार प्रारम्भ किया था। चूँकि यहां पर बुद्ध को वैशाख मास की पूर्णिमा को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतः इस स्थल को बोधगया की संज्ञा दी गई तथा वैशाख पूर्णिमा को बुद्धपूर्णिमा के रूप में मनाया जाना प्रारम्भ हुआ। कहा जाता है कि सारनाथ से पुनः उरुवेला लौटकर बुद्ध ने अपने पांच सहयोगियों को बौद्धधर्म में दीक्षित किया था और यहीं से राजगीर के लिए प्रस्थान किये थे। दूसरी शताब्दी के बाद उक्त गाँव उरुवेला को सम्बोधि ,वैजरसना अथवा महाबोधि के नाम से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख अथवा प्रयोग अठारहवीं शताब्दी से मिलना प्रारम्भ होता है।
बोधगया स्थित महाबोधि मन्दिर में भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित की गई है। प्रतिमा स्थापन क्र संबन्ध में कहा जाता है कि काफी प्रयत्न के पश्चात बुद्ध की प्रतिमा के निर्माण हेतु एक शिल्पकार मिला तब उसने यह शर्त रखी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ और एक लालटेन अथवा लैम्प दिया जाये और मूर्ति निर्माण की अवधि में कोई व्यक्ति उनसे संपर्क नहीं करेगा। शर्तें मान लेने के पश्चात निर्माण कार्य पूर्ण ही होने वाला था कि एक ग्रामवासी ने मूर्तिदर्शन की उत्सुकतावश चार दिन पहले ही मंदिर का दरवाजा खोलकर अंदर प्रविष्ट हो गया। उस समय मूर्ति निर्माण का थोड़ा सा कार्य केवल मूर्ति में वक्षस्थल को तराशा जाना अवशेष था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर आकर रहने लगा और अवशेष निर्माण को पूर्ण कर दिया। बुद्ध की यह भव्य एवं विशाल मूर्ति अत्यधिक लोकप्रिय हुई और बाद में नालन्दा एवं विक्रमशिला के मंदिरों में स्थापित मूर्तियों के निर्माण हेतु इसी शिल्प व कला का अनुकरण किया गया।
बोधगया स्थित बोधिवृक्ष पर पवित्र धागे बांधकर उस स्थल पर मिटटी के दिये जलकर भगवान बुद्ध को श्रद्धांजिली देने की परम्परा तभी से आरम्भ हो गई जब से महाबोधि मंदिर में पूजा अर्चना की जाने लगी थी। बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने हेतु सम्राट अशोक यहां आकर एक बौद्ध विहार का निर्माण करवाया था। बाद में इसी स्थल पर एक मंदिर भी बनवाया गया। समय समय पर मन्दिर का जीर्णोद्धार होता रहा। सन् १८६० ई ० में एलेक्जेंडर कनिंघम जो एक पुरातत्वशास्त्री भी था ,ने इस मंदिर की मरम्मत करवायी थी। सन् १८८३ ई ० में उन्होंने इस स्थल की खुदाई करवायी और पुनः यहां के मंदिर की मरम्मत करवाकर बोधगया के वर्तमान स्वरूप को अंतिम रूप प्रदान किया।
अन्य दर्शनीय स्थल :-
यहां का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर महाबोधि मंदिर ही है किन्तु विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग आध्यात्मिक शान्ति व सत्य की खोज में यहां आते रहते हैं। बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के २५० वर्ष बाद सम्राट अशोक द्वारा महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराये जाने की बात कही जाती है किन्तु कुछ लोग सम्राट अशोक द्वारा इसकी केवल मरम्मत करवाए जाने से ही सहमत हैं। बोधगया भ्रमण हेतु दो तीन दिन का समय पर्याप्त होता है क्योंकि बोधगया के निकट ही हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल गया भी स्थित है। एक एक दिन नालन्दा और राजगीर के स्थलों के भ्रमण में लग जाना स्वाभाविक है। यहां आने का सर्वाधिक उपयुक्त समय अप्रैल -मई का महीना होता है क्योंकि इसी अवधि में बुद्ध जयन्ती मनायी जाती है। बुद्ध जयन्ती और बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर महाबोधि मन्दिर को हजारों मोमबत्तियों से सजाया जाता है जिसकी छवि बहुत ही मनमोहक होती है।
महात्मा बुद्ध को बोधगया स्थित एक पीपल के वृक्ष के नीचे सम्बोधि प्राप्त हुई थी। सम्बोधि प्राप्त होने के बाद इस वृक्ष को बोधिवृक्ष के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने बोधगया पर अनेक बार आक्रमण करके इसकी धरोहर को नष्ट करने का प्रयास किया था। सन् १८११ -१८७४ के मध्य वर्मा के राजा ने यहां पर धर्मशाला व बौद्धमन्दिर का निर्माण करवाया था। यहां पर शक्य तिब्बत मठ तथा नेपाली मठ दर्शनार्थियों के ठहरने उपयुक्त माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त वर्गीज विहार ,भूतनी टेम्पल ,महाबोधि सोसाइटी ,श्रीलंका पिलग्रिम्स गेस्ट हाउस ,अमर होटल ,शशि होटल आदि भी ठहरने के प्रमुख केंद्र हैं।
बोधगया में ही मगध विश्व विद्द्यालय स्थित है तथा यहां से सात किलोमीटर की दूरी पर अन्तर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट स्थित है जहां से थाईलैंड, वर्मा,श्रीलंका आदि देशों के लिए साप्ताहिक उड़ाने उपलब्ध हैं।
इस मन्दिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिह्नित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात सात सप्ताह बिताए थे। मुख्य मंदिर के पीछे एक विशाल पीपल का वृक्ष स्थित है। कहा जाता है कि वर्तमान में जो बोधिवृक्ष है वह मूल बोधवृक्ष की पाँचवी पीढ़ी का वृक्ष है। मुख्य मन्दिर के पीछे सात फिट ऊंची एवं लाल बलुवे के पत्थर से निर्मित बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ई ० पू ० सम्राट अशोक ने इसी स्थान पर हीरे से जटित राजसिंहासन लगवाया था।
महाबोधि मन्दिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल यात्रा की दूरी पर यहां का सबसे बड़ा और पुराना मठ स्थित है जिसका निर्माण सन् १९३४ में करवाया गया था। वर्मी विहार जो गया एवं बोधगया रोड पर स्थित है ,का निर्माण १९३६ ई ० में बताया जाता है। इसमें दो प्रार्थना कक्ष के अतिरिक्त भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है। इसके निकट ही थाई मठ है जिसके छत की सोने से कलई की गई है और इसीलिए इसे गोल्डन मठ भी कहते हैं। बौद्धधर्म स्थापना के २५०० वर्ष पूर्ण होने पर थाईलैंड के राजपरिवार ने इसका निर्माण करवाया था। इंडोसन -निप्पन जापानी मन्दिर जो महाबोधि मन्दिर से १२ किलोमीटर की दूरी पर है ,का निर्माण सन् १९७२ -७३ में हुआ था। इसके निर्माण में लकड़ी से निर्मित प्राचीन जापानी मंदिर के आधार पर किया गया है। इसमें बुद्ध के जीवन संबन्धी घटनाक्रमों को प्रदर्शित किया गया है। महाबोधि मन्दिर परिसर में ही चीनी मन्दिर का निर्माण सन् १९४५ ई ० में करवाया गया था जिसमें स्वर्ण निर्मित बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है। इसका पुनर्निर्माण १९९७ ई ० में करवाया गया। यहां का सर्वाधिक नवीन मन्दिर वियतनामी मंदिर है जिसका निर्माण सन् २००२ ई ० में किया गया था। इस मंदिर में बुद्ध शान्तिदूत के रूप में प्रदर्शित हुए हैं। महाबोधि विहार के अंदर लगभग १०० बौद्ध स्तूप बनवाए गए हैं। यहां स्थित मठों एवं मन्दिरों के अतिरिक्त यहां कुछ स्मारक भी दर्शनीय हैं। भगवान बुद्ध की ६ फिट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित प्रतिमा प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। यह प्रतिमा १० फिट ऊंचे आधार पर निर्मित है। यहीं से थोड़ी दूर पर बौद्ध धर्म का ही अन्य प्रसिद्ध स्थल राजगीर स्थित है। प्रत्येक वर्ष सर्दियों में यहां दस दिनों तक विश्व शांति प्रार्थना पर्व मनाया जाता है जिसमें देश एवं विदेश के हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं। कालचक्र पर्व भी यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। महाबोधि मन्दिर के परिसर में स्थापित जापानी ,चीनी ,तिब्बती ,वर्मी व थाई बौद्ध मठों में पूजा पाठ के अतिरिक्त पर्यटकों के ठहरने की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है।
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