Saturday, April 30, 2016

गया

हिन्दू धर्म में गया एक ऐसा पवित्र तीर्थस्थल है जहां पर श्रद्धालुओं द्वारा अपने पितरों की दिवंगत आत्मा की शांति एवं मुक्ति के लिए पिंडदान अथवा तर्पण क्रिया की जाती है। वैसे तो भारतवर्ष में अनेकों ऐसे तीर्थस्थल एवं पवित्र नदियां हैं जिनके किनारे पितरों को पिण्डदान दिया जाता है ,किन्तु गया में आकर पितरों को पिण्डदान दिया जाना सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। इसीलिए प्रत्येक वर्ष क्वार माह के पितृ पक्ष में भारत के समस्त प्रांतों से लोग यहां आकर गया स्थित प्रेत शिला पर पिण्डदान देकर अपने पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति अथवा उद्धार की कामना किया करते हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान राम ,भीष्म पितामह ,युधिष्ठिर तथा भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पितरों की आत्मा की मुक्ति हेतु यहां आकर पिण्डदान क्रिया सम्पन्न किये थे। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के बिहार प्रान्त में झारखंड एवं बिहार की सीमा पर गंगा की सहायक नदी फल्गु नदी के  पश्चिमी तट पर बसा हुआ गया  एक अत्यन्त प्राचीन नगर है। यह बोधगया से १२ किलोमीटर तथा पटना शहर से १०० किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। गर्मी के दिनों में यहां पर अत्यधिक गर्मी पड़ती है और ठंड के दिनों  औसत ठंड पड़ती है। यहां पर सामान्य वर्षा होती है।  बिहार एवं झारखण्ड राज्य का एकमात्र  अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा गया में ही स्थित है। यहां स्थित गया रेलवे जंक्सन बिहार का दूसरा बड़ा स्टेशन है। गया से पटना कोलकत्ता ,पुरी ,बनारस ,चेन्नई ,मुंबई नईदिल्ली ,नागपुर एवं गुवाहाटी आदि स्टेशनों के लिए सीधी ट्रेन उपलब्ध हैं। गया राजधानी पटना और राजगीर ,रांची ,बनारस आदि शहरों के लिए बसें जाती हैं। यहां गांधी मैदान बस  स्टैण्ड फल्गु नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है और यहां से बोधगया के लिए प्रतिदिन बसें जाती हैं। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

प्रसिद्ध तीर्थस्थल गया के नामकरण के सन्दर्भ में वायुपुराण में स्पष्ट  बताया गया है कि गयासुर नामक शक्तिशाली एवं धार्मिक व्यक्ति जब ऋषि शुक्राचार्य से समस्त विद्याएँ सीखने के पश्चात भगवान विष्णु की घोर तपस्या की थी, तब तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे यह वरदान दिया था कि जो व्यक्ति तुम्हारा दर्शन करेगा वह सीधे स्वर्गलोक चला जायेगा। इस प्रकार के वरदान से भयाक्रान्त यमराज अन्य देवताओं एवं ब्रह्मा  जी के साथ भगवान विष्णु के पास आये और गयासुर को दिए गए वरदान को निष्क्रिय करने की प्रार्थना की। विष्णु जी ने उनका आदर करते हुए कहा कि यदि ब्रह्मा जी स्वयं गयासुर के शरीर पर यज्ञ करें तो गयासुर को दिए गए वरदान को निष्क्रिय किया जा सकता है। ब्रह्मा जी द्वारा यज्ञ करने के पश्चात भी जब गयासुर जीवित बचा रहा तब भगवान विष्णु ने गयासुर के शिर पर एक धर्मशिला स्थापित कर उसपर अपने पांव रखते हुए अपनी गदा से उसपर प्रहार किया और गयासुर को जीवनमुक्ति प्रदान की। अपनी मृत्यु से पूर्व गयासुर ने भगवान विष्णु से यह प्रार्थना की कि उसे यह वरदान दें कि  वह यहां पर  उस शिला के रूप में सदैव वास करें तथा समस्त देवता भी इसी शिला पर विदयमान रहें और इस स्थल को उसके नाम से जाना जाये। जो व्यक्ति यहां आकर इस शिला पर पितरों का पिंडदान करें उसके पितर नरकलोक और प्रेतयोनि से मुक्त होकर सीधे स्वर्ग लोक चले जाएँ। गयासुर की अंतिम इच्छा का समादर करते हुए भगवान विष्णु ने तथास्तु कहकर उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया।  तभी से इस स्थल का नाम गयासुर पड़ गया। 
उपरोक्त सन्दर्भ में ही एक अन्य कथा के अनुसार विशालपुरी के विशाल नामक राजा के कोई सन्तान न होने से दुःखी होकर गया आये और यहां पर अपने पितरों की आत्मा की शांति हेतु पिण्डदान किया था। पिण्डदान प्राप्त कर उनके पितर अत्यधिक प्रसन्न हुए और राजा विशाल को यह आशीर्वाद दिया कि शीघ्र ही तुम सन्तान की प्राप्ति करोगे। कुछ दिनों बाद विशाल के घर सचमुच एक पुत्र ने जन्म लिया। 
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम ने भी गया आकर अपने पिता राजा दशरथ को  जब पिण्डदान दे रहे थे तब दशरथ ने अपने हाथ फैलाकर उस पिण्डदान को ग्रहण करने की चेष्टा की थी किन्तु पिण्डदान उनके हाथ पर न गिरकर रूद्रशिला पर गिर गया था। रूद्रशिला पर पिण्डदान पड़ने से दशरथ की आत्मा सीधे स्वर्ग की ओर यह कहते हुए प्रस्थान की कि पुत्र तुमने अच्छा ही किया जो पिण्डदान मेरे हाथ पर नहीं दिया अन्यथा मैं मुक्त न हो पाता। भगवान श्रीकृष्ण ,भीष्म पितामह ,युधिष्ठिर आदि महापुरुषों ने भी गया आकर अपने पितरों को पिण्डदान दिया था। 
गया का उल्लेख महाकाव्य रामायण में भी मिलता है। गया मौर्यकाल में एक महत्वपूर्ण नगर माना जाता था। खुदाई के दौरान सम्राट अशोक से संबंधित आदेशपत्र यहां प्राप्त हुआ था। मध्यकाल में यह मुगल सम्राटों के अधीन था। मुगल शासन के उपरांत गया पर अनेक क्षेत्रीय राजाओं ने शासन किया था। सन् १७८७ ई ० में होल्कर वंश की महारानी अहिल्याबाई ने यहां पर विष्णुपद मंदिर का निर्माण करवाया था। दंत कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु के पाँव के निशान पर इस मन्दिर का निर्माण करवाया गया था। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

गया में मुख्य रूप से फल्गु नदी के किनारे विष्णुवद मन्दिर में भगवान विष्णु के चरण चिह्न एक शिला  पर स्थापित किया गया  है और इसके मुख्य द्वार पर श्रीहनुमान जी की विशाल मूर्ति स्थित है। यह मन्दिर ३० मीटर ऊँचा है तथा इसमें आठ खम्भे निर्मित हैं और इन खम्भों पर चांदी की परत चढ़ायी गई है। मंदिर के गर्भ गृह में भगवान विष्णु के ४० सेंटीमीटर लम्बे पांव के निशान दिखलायी पड़ते हैं। इस मंदिर का नवनिर्माण महारानी अहिल्याबाई ने सन् १७८७ ई ० में करवाया था। पितृपक्ष में यहां बहुत अधिक भीड़ देखने को मिलती है। इस मन्दिर के निकट ही सूर्यमन्दिर व सूर्यकुण्ड स्थित हैं। गया शहर के चरों ओर मनमोहक पर्वत चोटियों के दर्शन होते हैं और इन्हीं पहाड़ियों मध्य ब्रह्मयोनि ,रामशिला तथा प्रेतशिला स्थित हैं। गया में जामा मस्जिद जो बिहार की सबसे बड़ी मस्जिद है ,भी स्थित है। यह मस्जिद लगभग २०० वर्ष पुरानी  है तथा इसमें हजारों लोग एक साथ नमाज अदा कर सकते हैं। गया से १० किलोमीटर की दूरी पर विथोशरीफ इस्लाम धर्म का एक अन्य धार्मिक स्थल स्थित है।  
गया से २० किलोमीटर उत्तर और बेलागंज  से १० किलोमीटर पूर्व में बानावर की पहाड़ियाँ हैं तथा इसके ऊपर भगवान शिव का एक प्राचीन मन्दिर बना हुआ है। सावन के महीने में हजारों श्रद्धालु यहां पर भगवान शिव को जलाभिषेक करते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर को बाणासुर ने बनवाया था और सम्राट अशोक ने इसकी मरम्मत करवायी थी। इसी के नीचे सतघरवा गुफा स्थित है। गया से २५ किलोमीटर पूरब में  स्थित चोबार गाँव में भी भगवान शिव का एक विशाल मन्दिर निर्मित है। इस मंदिर की यह विशेषता है कि इसमें भगवान शिव का कितना ही जलाभिषेक क्यों न किया जाये किन्तु उसके जल का कहीं पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिकों द्वारा परीक्षण करने पर भी यह आज तक रहस्य ही बना हुआ है। गया में ही कोटेश्वर नाथ जी का   एक प्राचीन  शिव मंदिर मोरहर नदी के किनारे पर स्थित है।  यहां प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के पर्व पर मेले का आयोजन किया जाता है। यहां तक पहुँचने हेतु गया से ३० किलोमीटर उत्तर पटना -गया मार्ग पर स्थित मखदुमपुर से पाइपगहा समसारा होते हुए यात्रा करनी पड़ती है। गया से पाईपगहा के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है। 
गया स्थित ब्रह्मयोनि पहाड़ी पर चढ़ने हेतु ४४० सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं और तब शिखर पर भगवान शिव के दर्शन करने पड़ते हैं।   एक विशाल बरगद के नीचे बने इस मन्दिर में पिण्डदान किया जाता है। इस मंदिर का उल्लेख रामायण में भी किया गया है। कहा जाता है कि फल्गु नदी पहले इसी पहाड़ी के ऊपर से बहतीं थी किन्तु देवी सीता के शाप के कारण अब यह नदी पहाड़ी के नीचे की ओर से बहती हैं। यह पहाड़ी हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। यहां से थोड़ी दूरी पर मंगला गौरी का मां शक्ति को समर्पित प्रसिद्ध मंदिर  स्थित है जो १८ महाशक्तिपीठों में से एक है। यहां पूजा अर्चना करने पर श्रद्धालुओं की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इसके परिवेश में ही मां काली ,गणेश ,हनुमान तथा भगवान शिव के मंदिर भी स्थित हैं। गया स्थित पुनपुन नदी में पहला पिण्डदान दिया जाता है। यहां के अन्य धार्मिक स्थलों में पितृहार्या महादेव मंदिर ,राम लक्ष्मण मंदिर ,दुःख हरनी देवी ,कामवाली देवी एवं उत्तर मानस आदि प्रमुख हैं। 
गया में विष्णु पदयोनि एवं ब्रह्मशिला के मध्य एक प्राचीन अक्षयवट स्थित है जिसके बारे में कहा जाता है कि इस वृक्ष की सत्यभाषिता से प्रसन्न होकर सीता जी ने इसे अक्षयवट होने का वरदान दिया था। बताया जाता है कि यह वृक्ष त्रेतायुग से अबतक उसी रूप में यहां स्थित है। इस अक्षयवट के नीचे अंतिम पिण्डदान दिया जाता है। यहीं पर स्थित प्रेतशिला पर पिण्डदान देने से पितरों की प्रेतयोनि से उद्धार हो जाता है ,ऐसी मान्यता बतायी जाती है।  

Thursday, April 28, 2016

बोधगया

बौद्धधर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान बुद्ध को जिस स्थल पर आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी वह स्थल बोधगया के नाम से जाना जाता है। लगभग ५३१ ई ० पू ० कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ को इसी स्थल पर बोधिवृक्ष के नीचे आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था और यहीं से वे सम्पूर्ण विश्व में भगवान बुद्ध के नाम से जाने गए थे। इसी स्थल से ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त उन्होंने तथागत भिक्षुओं को बौद्धधर्म की दीक्षा देना प्रारम्भ किया था। अतः बौद्धधर्म के अनुयायियों के लिए यह स्थल तभी से तीर्थस्थल के रूप में जाना जाने लगा। यूनेस्को ने वर्ष २००२ में इस स्थल को विश्व विरासत स्थल  घोषित किया था। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के बिहार प्रान्त की राजधानी पटना के दक्षिण -पूर्व में लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर यह स्थल गया जनपद में स्थित है।  सम्प्रति यह छोटे नगर के रूप में विकसित हो चुका है।  बोधगया बिहार के गया शहर से लगभग १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  भारत की राजधानी दिल्ली से यह स्थल १०५९           किलोमीटर दूर है।  बोधगया भारत के सभी प्रमुख नगरों से हवाईमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से सम्बद्ध है।  यहां का निकटतम हवाई अड्डा पटना है तथा  यह प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

कहा जाता है कि लगभग ५२८ ई ० पू ० कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ /गौतम सत्य की खोज में राजपाट त्यागकर निरंजना नदी के  तट पर स्थित एक छोटे से गाँव उरुवेला आ गए थे और इसी गाँव में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्होंने कठोर तपस्या प्रारम्भ कर दी थी। उरुवेला गाँव की सुजाता नामक एक कन्या उनके खाने के लिए खीर और शहद का कटोरा हाथ में लेकर आयी तब राजकुमार  सिद्धार्थ ध्यानमग्न थे और सुजाता के आने का आभास होने पर उन्होंने उसके हाथ से कटोरा लेकर खीर और शहद खाने के पश्चात पुनः ध्यानमग्न हो गए। इसी स्थल पर बोधिवृक्ष के नीचे तपस्यारत रहते हुए उन्होंने तीन दिन और रात व्यतीत करने के उपरान्त आत्मज्ञान प्राप्त किया था।  ज्ञानप्राप्ति के पश्चात यहीं से बुद्ध के नाम से जाने गए।  ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने सात  सप्ताह अलग अलग स्थानों पर ध्यान करने के उपरान्त अन्ततः सारनाथ जा करके बौद्धधर्म  का प्रचार -प्रसार प्रारम्भ किया था। चूँकि यहां पर बुद्ध को वैशाख मास की पूर्णिमा को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतः इस स्थल को बोधगया की संज्ञा दी गई तथा वैशाख पूर्णिमा को बुद्धपूर्णिमा के रूप में मनाया जाना प्रारम्भ हुआ। कहा जाता है कि सारनाथ से पुनः उरुवेला लौटकर बुद्ध ने अपने पांच सहयोगियों को बौद्धधर्म में दीक्षित किया था और यहीं से राजगीर के लिए प्रस्थान किये थे।  दूसरी शताब्दी के बाद उक्त गाँव उरुवेला को सम्बोधि ,वैजरसना अथवा महाबोधि के नाम से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख अथवा प्रयोग अठारहवीं शताब्दी से मिलना प्रारम्भ होता है। 
बोधगया स्थित महाबोधि मन्दिर में भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित की गई है। प्रतिमा स्थापन क्र संबन्ध में कहा जाता है कि काफी प्रयत्न के पश्चात बुद्ध की प्रतिमा के निर्माण हेतु एक शिल्पकार मिला तब उसने यह शर्त रखी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ और एक लालटेन अथवा लैम्प दिया जाये और मूर्ति निर्माण की अवधि में कोई व्यक्ति उनसे संपर्क नहीं करेगा। शर्तें मान लेने के पश्चात निर्माण कार्य पूर्ण ही होने वाला था कि एक ग्रामवासी ने मूर्तिदर्शन की उत्सुकतावश चार दिन पहले ही मंदिर का दरवाजा खोलकर अंदर प्रविष्ट हो गया। उस समय मूर्ति निर्माण का थोड़ा सा कार्य केवल मूर्ति में वक्षस्थल को तराशा जाना अवशेष था।  कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर आकर रहने लगा और अवशेष निर्माण को पूर्ण कर दिया। बुद्ध की यह भव्य एवं विशाल मूर्ति अत्यधिक लोकप्रिय हुई और बाद में नालन्दा एवं विक्रमशिला के मंदिरों में स्थापित मूर्तियों के निर्माण हेतु इसी शिल्प व कला का अनुकरण किया गया। 
बोधगया स्थित बोधिवृक्ष पर पवित्र धागे बांधकर उस स्थल पर मिटटी के दिये जलकर भगवान बुद्ध को श्रद्धांजिली देने की परम्परा तभी से आरम्भ हो गई जब से महाबोधि मंदिर में पूजा अर्चना की जाने लगी थी। बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने हेतु सम्राट अशोक यहां आकर एक बौद्ध विहार का निर्माण करवाया था। बाद में इसी स्थल पर एक मंदिर भी बनवाया गया। समय समय पर मन्दिर का जीर्णोद्धार होता रहा। सन् १८६० ई ० में एलेक्जेंडर कनिंघम जो एक पुरातत्वशास्त्री भी था ,ने इस मंदिर की मरम्मत करवायी थी। सन् १८८३ ई ० में उन्होंने इस स्थल की खुदाई करवायी और पुनः यहां के मंदिर की मरम्मत करवाकर बोधगया के वर्तमान स्वरूप को अंतिम रूप प्रदान किया। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यहां का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर महाबोधि मंदिर ही है किन्तु विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग आध्यात्मिक शान्ति व सत्य की खोज में यहां आते रहते हैं। बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के २५० वर्ष बाद सम्राट अशोक द्वारा महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराये जाने की बात कही जाती है किन्तु कुछ लोग सम्राट अशोक द्वारा इसकी केवल मरम्मत करवाए जाने से ही सहमत हैं। बोधगया भ्रमण हेतु दो तीन दिन का समय पर्याप्त होता है क्योंकि बोधगया के निकट ही हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल गया भी स्थित है। एक एक दिन नालन्दा और राजगीर के स्थलों के भ्रमण में लग जाना स्वाभाविक है। यहां आने का सर्वाधिक उपयुक्त समय अप्रैल -मई का महीना होता है क्योंकि इसी अवधि में बुद्ध जयन्ती मनायी जाती है। बुद्ध जयन्ती और बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर महाबोधि मन्दिर को हजारों मोमबत्तियों से सजाया जाता है जिसकी छवि बहुत ही मनमोहक होती है। 
महात्मा बुद्ध को बोधगया स्थित एक पीपल के वृक्ष के नीचे सम्बोधि प्राप्त  हुई थी। सम्बोधि प्राप्त होने के बाद इस वृक्ष को बोधिवृक्ष के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने बोधगया पर अनेक बार आक्रमण करके इसकी धरोहर को नष्ट करने का प्रयास किया था। सन् १८११ -१८७४ के मध्य वर्मा के राजा ने यहां पर धर्मशाला व बौद्धमन्दिर का निर्माण करवाया था। यहां पर शक्य तिब्बत मठ तथा नेपाली मठ दर्शनार्थियों के ठहरने उपयुक्त माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त वर्गीज विहार ,भूतनी टेम्पल ,महाबोधि सोसाइटी ,श्रीलंका पिलग्रिम्स गेस्ट हाउस ,अमर होटल ,शशि होटल आदि भी ठहरने के प्रमुख केंद्र हैं। 
बोधगया में ही मगध विश्व विद्द्यालय स्थित है तथा यहां से सात किलोमीटर की दूरी पर अन्तर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट स्थित है जहां से थाईलैंड, वर्मा,श्रीलंका आदि देशों के लिए साप्ताहिक उड़ाने उपलब्ध हैं।   
इस मन्दिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिह्नित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात सात सप्ताह बिताए थे। मुख्य मंदिर के पीछे एक विशाल पीपल का वृक्ष स्थित है। कहा जाता है कि वर्तमान में जो बोधिवृक्ष है वह मूल बोधवृक्ष की पाँचवी पीढ़ी का वृक्ष है। मुख्य मन्दिर के पीछे सात फिट ऊंची एवं लाल बलुवे के पत्थर से निर्मित बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ई ० पू ० सम्राट अशोक ने इसी स्थान पर हीरे से जटित राजसिंहासन लगवाया था। 
महाबोधि  मन्दिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल यात्रा की दूरी पर यहां का सबसे बड़ा और पुराना मठ स्थित है जिसका निर्माण सन् १९३४ में करवाया गया था। वर्मी विहार जो गया एवं बोधगया रोड पर स्थित है ,का निर्माण १९३६ ई ० में बताया जाता है। इसमें दो प्रार्थना कक्ष के अतिरिक्त भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है। इसके निकट ही थाई मठ है जिसके छत की सोने से कलई की गई है और इसीलिए इसे गोल्डन मठ भी कहते हैं। बौद्धधर्म स्थापना के २५०० वर्ष पूर्ण होने पर थाईलैंड के राजपरिवार ने इसका निर्माण करवाया था। इंडोसन -निप्पन जापानी मन्दिर जो महाबोधि मन्दिर से १२ किलोमीटर की दूरी पर है ,का निर्माण सन् १९७२ -७३ में हुआ था। इसके निर्माण में लकड़ी से निर्मित प्राचीन जापानी मंदिर के आधार पर किया गया है। इसमें बुद्ध के जीवन संबन्धी घटनाक्रमों को प्रदर्शित किया गया है। महाबोधि मन्दिर परिसर में ही चीनी मन्दिर का निर्माण सन् १९४५ ई ० में करवाया गया था जिसमें स्वर्ण निर्मित बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है। इसका पुनर्निर्माण १९९७ ई ० में करवाया गया। यहां का सर्वाधिक नवीन मन्दिर वियतनामी मंदिर है जिसका निर्माण सन् २००२ ई ० में किया गया था। इस मंदिर में बुद्ध शान्तिदूत के रूप में प्रदर्शित हुए हैं। महाबोधि विहार के अंदर लगभग १०० बौद्ध स्तूप बनवाए गए हैं। यहां स्थित मठों एवं मन्दिरों के अतिरिक्त यहां कुछ स्मारक भी दर्शनीय हैं। भगवान बुद्ध की ६ फिट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित प्रतिमा प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। यह प्रतिमा १० फिट ऊंचे आधार पर निर्मित है। यहीं से थोड़ी दूर पर बौद्ध धर्म का ही अन्य प्रसिद्ध स्थल राजगीर स्थित है। प्रत्येक वर्ष सर्दियों में यहां दस दिनों तक विश्व शांति प्रार्थना पर्व मनाया जाता है जिसमें देश एवं विदेश के हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं। कालचक्र पर्व भी यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। महाबोधि मन्दिर के परिसर में स्थापित जापानी ,चीनी ,तिब्बती ,वर्मी व थाई बौद्ध मठों में पूजा पाठ के अतिरिक्त पर्यटकों के ठहरने की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है।  

Friday, April 22, 2016

ओमकारेश्वर

भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग को ओमकारेश्वर के नाम से जाना जाता है। इस ज्योतिर्लिंग का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः हुआ माना जाता है। शिवपुरी अथवा मन्धाता नामक द्वीप पर स्थित होने तथा इस द्वीप की आकृति ॐ के आकार में होने के कारण यहां पर स्थित ज्योतिर्लिंग को ओमकारेश्वर की संज्ञा दी गई।  ओमकारेश्वर मन्दिर में एक तरफ भगवान शिव का ओमकारेश्वर लिंग स्थापित है तो दूसरी तरफ मां पार्वती व गणेश जी की मूर्तियां स्थापित हैं। इसके प्रांगण में मुनि शुकदेव की प्रतिमा तथा नन्दी की भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। यह मंदिर दो मंजिला है।  इसकी दूसरी मंजिल पर महाकालेश्वर की प्रतिमा स्थापित है। इसका भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र कहलाता है जिसमें ६८ तीर्थ सम्मिलित माने जाते हैं। कहा जाता है कि यहां पर ३१ करोड़ देवता नित्य निवास करते हैं तथा दो ज्योतिस्वरूप लिंग सहित १०८ अन्य शिवलिंग  स्थापित हैं। यहां से थोड़ी दूर पर स्थापित दुसरे शिवलिंग को अमलेश्वर अथवा अमरेश्वर की संज्ञा दी जाती है। ऐसी मान्यता है कि यहां सर्वप्रथम भगवान शंकर ॐ के रूप में होकर ओमकारेश्वर कहलाये तथा दूसरा उसी पार्थिव लिंग से उत्पन्न होने के कारण अमलेश्वर कहलाए।

भौगोलिक स्थिति :-

ओमकारेश्वर भारतवर्ष के मध्यप्रदेश प्रान्त के खंडवा जनपद में स्थित हैं। यह तीर्थस्थल नर्मदा नदी के मध्य में मन्धाता अथवा शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। चूँकि यह द्वीप हिन्दुओं के पवित्र शब्द ॐ के आकार का है सम्भवतः इसी कारण इन्हें ओमकारेश्वर की संज्ञा दी जाती है। ओमकारेश्वर के निकटवर्ती गांव मोरटक्का यहां से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां स्थित नर्मदा नदी पर विश्व की सर्वाधिक बड़ी बांध परियोजना का निर्माण किया जा रहा है। मध्यप्रदेश के खंडवा शहर से यह ७२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। खंडवा से ६० किलोमीटर की दूरी पर ओमकारेश्वर रोड रेलवे स्टेशन है तथा १२ किलोमीटर  चलकर ओमकारेश्वर तक पहुंचा जा सकता है। यह भारत के प्रमुख शहरों से रेल तथा सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है।पूर्णा,जयपुर,इंदौर,अकोला,खण्डवा से सीधी रेल सेवा उपलब्ध है। अन्य स्थलों से यहां पहुँचने के लिए रेल द्वारा इंदौर या खण्डवा होकर पहुंच जा सकता है। रेल ओंकारेश्वर रोड स्टेशन पर उतारती है और यहां से १२ किलोमीटर की दूरी पर ओंकारेश्वर मन्दिर स्थित है। इदौर तक यह स्थल वायु मार्ग से जुड़ा हुआ है। उज्जैन से खंडवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन पर उतरकर १० किलोमीटर पैदल चलकर यहां तक पहुँचा जा सकता है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

कोटिरुद्रसंहिता के अनुसार ओंकार तीर्थ में ज्योतिर्लिंग परमेश्वर है। ओंकार तीर्थ में होने के कारण ही इसे ओमकारेश्वर कहा गया। यहां स्थित शिवलिंग गढ़ा हुआ लिंग नहीं है।महान पुण्यतम अमरेश्वर तीर्थ सदा सैकड़ों देवताओं तथा ऋषि संघों द्वारा पोषित है। अतएव यह महान एवं पवित्र तीर्थ है। यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले में मोरटक्का  {ओमकारेश्वर रेलवे स्टेशन }से मात्र १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  
ओंकारेश्वर नगरी का प्राचीन नाम मन्धाता माना जाता है क्योंकि राजा मान्धाता ने नर्मदा नदी के किनारे स्थित पर्वत पर घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था। तभी भगवान शिव वहां प्रगट होकर उन्हें यह वरदान दिए थे कि वे सदैव यहां निवास करेंगे तथा यह स्थल तीर्थस्थल के रूप में जाना जायेगा। इसी कारण इसे ओंकार मान्धाता के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि देवी अहिल्याबाई होलकर यहां पर नित्य मृत्तिका के अट्ठारह सहस्त्र शिवलिंग बनवाकर शिवलिंग की पूजा किया करती थीं और पूजन के पश्चात उस मृत्तिका शिवलिंग का विसर्जन नर्मदा नदी में कर देती थीं।
 मन्धाता के दक्षिण में  ज्योतिर्लिंग अमरेश्वर स्थित हैं। यहां स्थित मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई द्वारा करवाया गया था। कहा जाता है कि विन्ध्याचल पर्वत द्वारा भगवान शिव के पार्थिव पूजन निरन्तर ६ माह तक किये जाने से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दर्शन दिए थे तथा उसी समय वहां उपस्थित अन्य देवताओं एवं ऋषियों के अनुरोध पर ओंकार शिवलिंग के दो टुकड़े कर पहले टुकड़े में भगवान शिव के ॐ स्वरूप तथा दुसरे टुकड़े में उनके पार्थिव लिंग से उत्पन्न  अमरेश्वर शिवलिंग की मान्यता दे दी गई।नर्मदा तट पर स्थित इस क्षेत्र का उल्लेख हरिवंश पुराण में माहिष्मती के नाम से हुआ है। विंध्य एवं ऋक्षवत पर्वतों के मध्य इस क्षेत्र को मन्धाता के पुत्र मुचुकुन्द ने बसाया था। ओमकार पर्वत के दोनों ओर रेवा एवं कावेरी नदी इसे रमणीक बनाती हैं।    
ओमकारेश्वर मंदिर में कुबेर ने भी शिव की घोर तपस्या की थी तथा शिवलिंग  स्थापना भी करवायी थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें देवताओं के धनपति की पदवी प्रदान की थी।  कहा जाता है कि भगवान शिव ने कुबेर को अलग से स्नान करने के लिए अपनी जटा से कावेरी नदी प्रवाहित कर दी थी जो ओंकार पर्वत से आगे चलकर नर्मदा नदी में ही मिल जाती हैं। इन दोनों नदियों के संगम स्थल पर धनतेरस के अवसर पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है और धनतेरस की सुबह कुबेर एवं महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदा के तट पर करायी जाती है। ओमकारेश्वर स्थल पर यज्ञ करने से अत्यधिक पुण्य की प्राप्ति होती है। श्रद्धालुगण यहां से वितरित लक्ष्मी वृद्धि पैकेट को अपने घर लाकर दीपावली के दिन उसे अपनी तिजोरी में रख देते हैं ताकि घर में सुख समृद्धि बनी रहे।  ओमकारेश्वर मंदिर के जलमग्न हो जाने के कारण भक्त श्री चैतराम द्वारा यहां बाँध और अमलेश्वर मंदिर के मध्य एक नवीन मन्दिर का निर्माण सन् २००६ -०७ में करवाया गया। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यहां विष्णुपुरी में एक ज्योतिर्लिंग अवस्थित है जिसे अमलेश्वर अथवा परमेश्वर ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। इसी के निकट विष्णु भगवान का एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यहां स्थित अन्य मंदिरों में गणपति जी ,कार्तिक जी ,मारुती जी ,अघोरेश्वर लिंग ,ब्रह्मकेश्वर लिंग ,गंगेश्वर लिंग नीलकंठेश्वर प्रमुख हैं। नर्मदा की दोनों धाराएं कावेरी एवं नर्मदा जहां मन्धाता द्वीप को घेरती हुई एक जगह पर मिलती हैं उसे संगम स्थल कहा जाता है। यहीं पर राजा मुचुकुन्द का किला भी स्थित है। यहां स्थित विभक्त स्थल में नर्मदा की दोनों धाराएं विभक्त हो जाती हैं। इसी के निकट चउबीस अवतार और पशुपति नाथ जी का मंदिर स्थित है। इसके आगे कुबेरेश्वर मंदिर,च्यवन ऋषि का आश्रम स्थित है।  
ओंकारेश्वर एवं अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त ओमकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार ,माता घाट ,सीता वाटिका ,धावड़ी कुंड ,मार्कण्डेय सन्यास आश्रम ,अन्नपूर्णा आश्रम ,बड़े हनुमान ,मार्कण्डेय शीला ,खेड़ापति हनुमान ,ओंकार मठ ,माता आनन्दमयी आश्रम ,ऋणमुक्तेश्वर महादेव ,गायत्री माता मन्दिर ,विज्ञानशला ,सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ ,वैष्णो देवी मंदिर ,काशी विश्व्नाथ,नरसिंह टेकरी ,कुबेरेश्वर महादेव ,चंद्रमौलेश्वर महादेव आदि के मन्दिर दर्शनीय हैं। नर्मदा क्षेत्र में ओमकारेश्वर को सर्वश्रेष्ठ तीर्थ माना जाता है। शास्त्रों में यह वर्णित है कि सभी तीर्थ यात्रा सम्पन्न करने के पश्चात श्रद्धालु जब तक ओमकारेश्वर तीर्थस्थल आकर समस्त तीर्थों से लाए गए जल से इनका अभिषेक नहीं करते, तब तक अन्य सभी तीर्थों की यात्रा सफल व पुण्यदायी नहीं मानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि गंगा नदी में सात दिन एवं यमुना नदी में पन्द्रह दिन किये गए स्नान का पुण्य नर्मदा नदी के  बराबर होता है। इस प्रकार नर्मदा नदी का विशेष महात्म्य बताया गया है। 
ओमकारेश्वर शिवलिंग स्वयम्भू है क्योंकि यह किसी मनुष्य के द्वारा निर्मित नहीं है। प्रायः यह चारों ओर से जलमग्न रहते हैं। अन्य  मंदिरों में लिंग की स्थापना गर्भगृह के मध्य गुम्बद के नीचे होती है किन्तु ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग गर्भगृह में स्थापित नहीं है और न ही इनके ऊपर शिखर अथवा गुम्बद बनाया गया है। ओमकारेश्वर मंदिर के दूसरे मंजिल पर भगवान महाकालेश्वर की मूर्ति स्थापित है। ओमकारेश्वर मंदिर में बने हुए स्थानीय ॐ और इसमें बने हुए चन्द्रबिन्दु का जो स्थान है वही स्थान ओंकार पर्वत पर बने ओमकारेश्वर मंदिर का है। इस मंदिर में भगवान शिव को चने की दाल चढाने की परम्परा पूर्व से यथावत चली आ रही है और यही प्रसाद के रूप में भक्तों में वितरित किया जाता है। 
ओम्कारेश्वर की यात्रा बस द्वारा विष्णुपुरी तक की जा सकती है और यहां से नाव द्वारा मान्धाता द्वीप पहुंचा जा सकता है। नर्मदा नदी के किनारे स्नान हेतु पक्के घाट निर्मित हैं जहां स्नान करके श्रद्धालु ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करते हैं।  मार्ग में मुक्तेश्वर ,ज्वालेश्वर ,केदारेश्वर ,गणेश व कालिका माता के मंदिरों में स्थापित उनकी मूर्तियों के दर्शन होते हैं। ओमकारेश्वर के दर्शन मात्र से परमधाम की प्राप्ति होती है एवं सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। 

Wednesday, April 20, 2016

उज्जैन { महाकालेश्वर }

हिन्दू धर्म शास्त्रों एवं पुराणों में उज्जैन को उज्जयिनी एवं अवन्तिका के नाम से सम्बोधित किया गया है। उज्जैन स्थित महाकालेश्वर को बारह ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख ज्योतिर्लिंग माना जाता है। इसका विस्तृत माहात्म्य पुराणों में मिलता है। संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि कालिदास एवं हिंदी साहित्य के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है।यह उज्जैन राजा विक्रमादित्य  की राजधानी भी रही है। भारतवर्ष की काल गणना के केंद्र बिन्दु माने जाने के संदर्भ में भी उज्जैन का उल्लेख मिलता है। महाकाल भगवान शंकर जो आदिदेव माने जाते हैं ,को महाकालेश्वर के रूप में उज्जैन का स्वामी व संरक्षक माना गया है। उज्जैन नगरी हिन्दू धर्म की सात पुरियों में से एक पुरी होने के साथ साथ द्वादश ज्योतिर्लिंगों ,इक्यावन शक्तिपीठों में प्रमुख मानी जाती है। भारतवर्ष में जिन चार स्थानों पर प्रत्येक १२ वर्ष के अंतराल में महाकुंभ ,६ वर्ष के अंतराल में अर्धकुम्भ आयोजित होता है ,उनमें उज्जैन भी सम्मिलित है। यहाँ पर १२ वर्ष के अंतराल पर लगने वाले महाकुंभ को सिंहस्थ कुम्भ की संज्ञा दी जाती है। वर्ष २०१६ में मार्च से  अप्रैल माह तक यहाँ सिंहस्थ कुम्भ का आयोजन हुआ जिसमें देश एवं विदेश से लाखों श्रद्धालुओं ने क्षिप्रा नदी में स्नान एवं महाकालेश्वर मंदिर में महाकाल के दर्शन किये। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारत के मध्यप्रदेश राज्य उज्जैन नगर स्थित है और यहां पर क्षिप्रा नदी के पावन तट पर महाकालेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर बना हुआ है। भारतीय ज्योतिष में देशान्तर की शून्य रेखा का प्रारम्भ उज्जैन नगर से ही माना गया है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से उज्जैन की दूरी १८४ किलोमीटर है।  भारत की राजधानी दिल्ली से उज्जैन ९२९ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उज्जैन देश के प्रमुख शहरों से हवाई मार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है। भोपाल से यहां तक रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से पहुंचा जा सकता है।उज्जैन जंक्शन के लिए दिल्ली ,चेन्नई ,मुम्बई, जयपुर,जम्मू,हरिद्वार,भोपाल,खण्डवा आदि स्थानों से सीधी रेल सेवाएं प्रतिदिन उपलब्ध हैं। सड़क मार्ग द्वारा मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इन्दौर से उज्जैन की दूरी ५० किलोमीटर है। उज्जैन के लिए निकटम हवाई अड्डा इंदौर है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पुराणों में उज्जयिनी एवं अवन्तिका नगर का उल्लेख मिलता है। यह दोनों नाम उज्जैन नगर का प्राचीन नाम के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है। शिवपुराण में वर्णित कथा के अनुसार उज्जैन नगर में स्थित हरसिद्ध देवी का मन्दिर को इक्यावन शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ है क्योंकि यहां पर मां सती की कुहनी गिरी थी। उज्जैन को पृथ्वी का नाभिस्थल भी कहा जाता है और यहां स्थित महाकालेश्वर को उज्जैन नगरी का स्वामी माना जाता है। महाकालेश्वर मन्दिर में स्थापित की गई महाकाल की दक्षिण मुखी प्रतिमा की विशेष पूजा अर्चना की जाती है और प्रतिदिन प्रातःकाल जले हुए मुर्दे की राख से महाकाल की प्रतिमा पर लेपन  कर उनकी  आरती की जाती है जिसे भस्म आरती के नाम से जाना जाता है। महाकालेश्वर मन्दिर में स्थित महाकाल लिंग को द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग माने जाने के कारण ही महाकाल की पूजा की जाती है। ऐतिहासिक विभिन्न काल जैसे शुंग ,कुषाण ,,सातवाहन ,गुप्त एवं परिहार काल में समय समय पर इस मंदिर का जीर्णोद्धार होता रहा है। वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार राणो  जी सिंधिया काल में मालवा के सूबेदार रामचन्द्र बाबा शेणवी द्वारा करवाया गया था। महाकाल की दक्षिण मुखी प्रतिमा की पूजा विशेष रूप से तांत्रिक परम्परा के अनुयायियों द्वारा की जाती है।  इसीलिए  प्रतिदिन भस्म आरती की जाती है।  नौवीं एवं दसवीं शताब्दी में परमार राजाओं के समय में उज्जैन नगर की सर्वाधिक उन्नति हुई थी। दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के आक्रमण के पश्चात उज्जैन मुगल शासकों के अधीन हो गया था और कहा जाता है कि इस आक्रमण से महाकालेश्वर का मंदिर पूरी तरह नष्ट हो गया था। सन् १७५० ई ० में मराठा शासकों ने इस मंदिर का पुनरोद्धार करवाया था। उज्जैन को राजा विक्रमादित्य के शासन काल में राजधानी बनने का गौरव प्राप्त है। महाकालेश्वर मन्दिर के पीछे स्थित विक्रम टेकरी टीले के संबन्ध में बताया जाता है कि इस टीले के अन्दर महाराजा विक्रमादित्य का सिंहासन व अन्य बहुमूल्य बस्तुएं दब गईं थीं। इसकी जानकारी तब हुआ जब राजा भोज के कार्यकाल में इसी टीले पर एक अनपढ़ व्यक्ति द्वारा बुद्धिमत्तापूर्ण न्याय देते हुए देखा गया तब इस टीले की रहस्यात्मक शक्ति की जानकारी प्राप्त करने हेतु राजा भोज द्वारा उसकी खुदायी करवाई गई और खुदायी करने पर उसके अन्दर से राजा विक्रमादित्य का सिंहासन निकला। सिंहासन की ही चमत्कारी शक्ति के कारण इस टीले पर बैठने वाले अनपढ़ व्यक्ति द्वारा न्याय दिए जाने की सम्भावना मानते हुए राजा भोज स्वयं उस पर बैठने हेतु ज्योंहि उद्द्यत हुए तभी सिंहासन से आवाज आयी कि यदि तुम राजा विक्रमादित्य की समस्त योग्यताएं रखते हो तभी सिंहासन पर बैठ सकते हो अन्यथा नहीं। राजा भोज  विक्रमादित्य की समस्त योग्यताओं को पूर्ण करने का संकल्प लेते हुए सिंहासन पर बैठ गए। कहा जाता है कि राजा भोज की मृत्यु के पश्चात पुनः वह सिंहासन उसी टीले में समाहित हो गया। बाद में कई बार उसकी खुदाई करने का प्रयास किया गया किन्तु खुदाई में केवल बड़े बड़े सांप निकलते देखकर खुदाई बंद कर देनी पड़ी। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

उज्जैन नगरी का प्रमुख आकर्षण केंद्र महाकालेश्वर का मंदिर माना जाता है किन्तु इसके निकट हरसिद्ध मार्ग पर स्थित गणेश मंदिर में गणेश जी की कलात्मक भव्य मूर्ति स्थापित की गई है।  इसके परिसर में ही सप्तधातु की पंचमुखी हनुमान प्रतिमा ,नवग्रह मंदिर तथा कृष्ण -यशोदा की प्रतिमा स्थापित की गई है। उज्जैन में ही प्रसिद्ध मंगलनाथ जी का मंदिर भी स्थित है। पौराणिक मान्यता के अनुसार उज्जैन नगरी को मंगल कारक माने जाने के कारण जिनकी कुण्डली में मंगल भारी होता है वे इसकी शांति हेतु यहां आकर विशेष पूजा पाठ  करवाते हैं। यह मंदिर बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। कहा जाता है कि सिंधिया राजघराने ने इसका पुनरोद्धार करवाया था। यहां के प्राचीन एवं महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में हरसिद्ध देवी के मंदिर को विशेष मान्यता दी जाती है। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य प्रतिदिन इस मंदिर में पूजा किया करते थे।  हरसिद्ध देवी की गणना इक्यावन शक्तिपीठों में की जाती है क्योंकि यहां पर सती की कोहनी आकर गिरी थी। यहां गोपाल मंदिर उज्जैन नगर के मध्य में स्थित है।  इसका निर्माण सन् १८३३ ई ० में महारानी बायजाबाई ने करवाया था। इसमें भगवान कृष्ण की प्रतिमा स्थापित है तथा मंदिर का दरवाजा चांदी की धातु से बनवाया गया है।  गढ़ कलिका देवी का प्रसिद्ध मंदिर अवंतिका नगरी क्षेत्र में स्थित है। कहा जाता है कि महाकवि कालिदास इनके बहुत बड़े उपासक थे। इस मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा करवाया गया था। इस मंदिर में मां काली की भव्य मूर्ति के दर्शन हेतु प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु यहां आते रहते हैं। यह तांत्रिकों की सिद्ध देवी मानी जाती हैं। उज्जैन में ही चिन्तामन गणेश जी का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है जो उज्जैन का सर्वाधिक प्राचीन मंदिर माना जाता है। यहां गणेश जी की पूजा करके श्रद्धालु अपने व्यावसायिक कार्यों  शुभारम्भ करते हैं क्योंकि गणेश को विघ्नहर्ता एवं मंगलकारक माना गया है।  समस्त चिंताओं एवं कष्टों को हरने वाले भगवान गणेश को अखिल ब्रह्माण्ड का रक्षक भी माना जाता है।  यह मंदिर फतेहाबाद रेलवे लाइन पर क्षिप्रा नदी के उस पार बना हुआ है। 
उज्जैन में ही ग्यारहवीं शताब्दी के मंदिर के अवशेष को सम्प्रति भर्तिहरी गुफा के नाम से जाना जाता है। अवंतिका  नगरीय क्षेत्र में ही स्थित काल भैरव के मंदिर का निर्माण राजा भद्रसेन द्वारा करवाए जाने का वर्णन मिलता है। काल भैरव की पूजा में शराब चढ़ायी जाती है। चूँकि यह स्थल  शिव के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से जुड़ा माना जाता है अतः यहां विक्रांत भैरव मंदिर में तंत्र साधना एवं मंत्र साधना की जाती है। यह मंदिर सम्राट विक्रमादित्य के कार्यकाल में बनवाया गया बताया जाता है। इस मंदिर काल भैरव की भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। उज्जैन नगर के कार्तिक चौक में जगदीश मंदिर स्थित है जो अत्यधिक प्राचीन एवं विशाल होने के साथ ही साथ आकर्षक एवं मनमोहक भी है !इसमें भगवान जगन्नाथ के साथ बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं !प्रतिवर्ष यहां रथयात्रा निकालकर श्रद्धालुगण इन्हें अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।  कहा जाता है कि सिंहस्थ कुम्भ के दौरान यहां स्नान करने से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। 
उज्जैन में प्रत्येक बारह वर्ष के अन्तराल में आयोजित होने वाले महाकुंभ को सिंहस्थ कुम्भ की संज्ञा दी जाती है। यह योग तब बनता है जब वृहस्पति सिंह राशि में होते हैं। सिंहस्थ कुम्भ मेले का शुभारम्भ चैत्रमास की पूर्णिमा से होता है और वैशाख मॉस की पूर्णिमा तक चलता है।  देश एवं विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां स्नान हेतु आते हैं। प्रयाग ,नासिक एवं हरिद्वार में लगने वाले कुम्भ की भांति यहां भी कुम्भ मेल आयोजित होता है किन्तु यहां आयोजित महाकुंभ को आस्था का पर्व मानते हुए सिंहस्थ कुम्भ की संज्ञा दी जाती है। उज्जैन में मेषराशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु के आने पर सिंहस्थ कुम्भ का योग बनता है। यहां पर इस आयोजन की परम्परा बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है। कहा जाता है कि समुद्र मन्थन के समय जिन राशियों में सूर्य ,चन्द्र एवं गुरु की स्थिति थी वैसा ही संयोग उत्पन्न होने पर सिंहस्थ कुम्भ का योग बनता है। चूँकि अमृत कलश की रक्षा  उस समय सूर्य ,गुरु एवं चन्द्रमा द्वारा की गई थी। अतः इन्हीं ग्रहों की उक्त विशिष्ट स्थितियों में ही सिंहस्थ कुम्भ के मेले का आयोजन एवं क्षिप्रा नदी में स्नान करने की परम्परा शदियों से पचलित रही है।  

Monday, April 18, 2016

श्रीनाथ द्वारा

श्रीनाथ द्वारा हिन्दू धर्म की पुष्टि मार्गीय वैष्णवी शाखा की प्रमुख पीठ है। यहां पर प्रत्येक वर्ष देश एवं विदेश से लाखों वैष्णव श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं।  जी का दर्शन कर अपने जीवन को धन्य मानते हुए वापस लौट जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का उपनाम श्रीनाथ जी भी है और वे वल्लभ सम्प्रदाय द्वारा पूज्य रहे हैं। इस प्रकार हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थलों में इसकी मान्यता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

श्रीनाथ द्वारा भारत के राजस्थान प्रान्त के राजसमन्द जनपद के अन्तर्गत बनास नदी के किनारे पर स्थित है तथा वल्लभ सम्प्रदाय का मुख्य तीर्थस्थल है। यह राजस्थान के प्रसिद्ध नगर उदयपुर से मात्र ४८ किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रिय राजमार्ग संख्या ८ पर स्थित है। वल्लभ सम्प्रदाय की प्रधान पीठ होने के कारण यहां पर श्रीनाथ जी का भव्य मन्दिर बना हुआ है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर है। श्रीनाथ द्वारा के उत्तर में १७ किलोमीटर की दूरी पर राजसमन्द ,२२५ किलोमीटर की दूरी पर अजमेर ,२४० किलोमीटर की दूरी पर पुष्कर ,३८५ किलोमीटर की दूरी पर जयपुर एवं ६२५ किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली स्थित है। इसके दक्षिण में ४८ किलोमीटर की दूरी पर उदयपुर ,३०० किलोमीटर की दूरी पर अहमदाबाद व ८०० किलोमीटर की दूरी पर बम्बई शहर स्थित है। श्रीनाथ द्वारा से पश्चिम की ओर १८० किलोमीटर दूरी पर फालना व २२५ किलोमीटर की दूरी पर जोधपुर नगर स्थित है। इसके पूर्व में मण्डियाना रेलवे स्टेशन १२ किलोमीटर की दूरी पर ,मावली रेलवे स्टेशन २८ किलोमीटर की दूरी पर तथा चित्तौड़गढ़ एवं कोटा नगर कमशः ११० किलोमीटर व १८० किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। श्रीनाथ द्वारा के निकटवर्ती रेलवे स्टेशन मावली एवं उदयपुर से देश के सभी प्रमुख नगरों के लिए रेल सेवा उपलब्ध है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

श्रीनाथ द्वारा मन्दिर की प्रधान मूर्ति को मुस्लिम राजाओं के आक्रमण के डर से सन् १६६९ ई० में गोवर्धन पर्वत से नाथद्वारा ले आई गई थी। श्रीकृष्ण की बाल लीला का चित्रण विशेष रूप से इस मंदिर की दीवारों में किया गया है और  इस मंदिर का बाह्य स्वरूप मंदिर जैसा नहीं है बल्कि इसे भगवान श्रीकृष्ण के आवास स्थल के रूप में ही ३३७ वर्ष पूर्व बनवाया गया था। इसके शिखर पर एक कलश एवं सुदर्शन चक्र रखा है तथा नित्य सप्त ध्वज इस पर लहराता रहता है। 
कहा जाता है कि महाप्रभु वल्ल्भचार्य जब इस क्षेत्र में प्रथम बार पधारे थे तो रात्रि विश्राम के दौरान उन्होंने स्वप्न में श्रीकृष्ण भगवान के दर्शन किये थे तथा स्वप्न में ही उन्हें ब्रज आने का आमंत्रण भी मिला था। इस आदेश के अनुपालन में जब वे ब्रज पहुंचे तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोवर्धन पर्वत से नीचे आकर उन्हें अपने विराट रूप के दर्शन दिए थे और तभी उन्हें पुष्टि मार्ग पर चलने के निर्देश भी दिए थे। स्थानीय सहयोग से स्वामी वल्ल्भाचार्य ने वहां गोवर्धन पर्वत पर श्रीकृष्ण के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया एवं उसमें स्थापित की गई मूर्ति को श्रीनाथजी की संज्ञा दी गई। मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा मथुरा पर आक्रमण करने के दौरान स्वामी गोविन्द जी ने श्रीनाथजी की मूर्ति को रथ पर रखकर मेवाड़ ले आये थे तथा वैदिक रीति से फाल्गुन कृष्ण सप्तमी दिन शनिवार को  श्रीनाथ जी की पुनर्स्थापना करा दी गई और  बाद में इसी स्थान को श्रीनाथ द्वारा के नाम से जाना जाने लगा। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

श्री नाथद्वारा अरावली पर्वत की सुरम्य उपत्यकाओं  के मध्य झीलों की नगरी उदयपुर से मात्र ४८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित होने के कारण यह अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। वैसे तो यहां का प्रमुख मन्दिर श्री नाथद्वारा ही है किन्तु इसके निकट पुष्टिमार्ग की प्रथम पीठ के रूप में श्रीविट्ठल नाथ जी एवं श्री हरीराय महाप्रभु की बैठक तथा श्रीवनमाली लाल जी का मंदिर एवं मीरा मन्दिर स्थित है। यहां से २ किलोमीटर की दूरी पर श्री नाथजी की गौशाला ,लालबाग एवं संग्रहालय राष्ट्रीय राजमार्ग पर ही स्थित है। प्रकृति के आंचल में निर्मित श्री गणेश जी का मन्दिर यहां से थोड़ी दूर पर स्थित गणेश टेकरी में बनवाया गया है। यहां का सूर्यास्त देखने के लिए पर्यटक दूर दूर से आकर सायंकाल में यहां उपस्थित होते हैं। प्राकृतिक अन्य दर्शनीय स्थलों में रामभोला ,गणगौर बाग ,कछुवायी बाग़ ,बनास नदी ,गिरिराज पर्वत ,महेश टेकरी ,श्रीवल्ल्भ आश्रम ,नंदसमंद बांध व हल्दी घाटी प्रमुख हैं।  अन्य धार्मिक स्थलों में श्री हरिराम जी की बैठक ,गायत्री शक्तिपीठ ,रामेष्वर महादेव मंदिर ,द्वारिकाधीश मंदिर, कुन्तेश्वर महादेव मंदिर ,श्रीचारभुजा मंदिर श्रीरोकडिया हनुमान जी का मंदिर ,श्री रूपनारायण मंदिर प्रमुख हैं। यहां से २८ किलोमीटर दूरी पर श्री एकलिंग जी का मंदिर है जिसमें भगवान शिव की ८ वीं शताब्दी में निर्मित मूर्ति स्थापित की गई है। यहां से थोड़ी दूर पर ही रकमगढ का छप्पर नामक स्थान है जहां अंग्रेजों एवं तात्याटोपे के मध्य युद्ध हुआ था। यहीं पर वृहदपेय जल परियोजना बघेरी का नाका में बनास नदी पर  बांध बनाकर बनाई गई है। कुम्भलगढ वन्यजीव अभ्यारण्य यहां से ५५ किलोमीटर की दूरी पर है जहां पर्यटकों का आवागमन बना रहता है। विश्व प्रसिद्ध दिलवाड़ा जैन मंदिर यहां से २२ किलोमीटर की दूरी पर है तथा ६० किलोमीटर की दूरी पर परशुराम महादेव जी का मंदिर स्थित है। अणुव्रत विश्व भारती भवन ,दयाल शाह का किला ,राजसमन्द झील ,नौचंदी पाल यहां के अन्य दर्शनीय स्थल हैं जो थोड़ी ही दूरी पर स्थित हैं। 

Wednesday, April 13, 2016

माउन्ट आबू

   भारत की उत्तरी पश्चिमी  पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित माउन्ट आबू सम्प्रति एक हिल स्टेशन के रूप में विशेष रूप से प्रसिद्ध है किन्तु प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईशवरीय विश्व विद्यालय का मुख्यालय होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भी प्राप्त हो चुकी है।  इस स्थल को हिन्दू धर्म का एक पवित्र केंद्र होने के साथ ही साथ जैन धर्म के पूजा स्थल के रूप में भी जाना जाता है।  पूर्व में इसे अबुर्दगिरि अथवा अबुर्दाचल के नाम से जाना जाता था किन्तु कालान्तर में इसे मात्र आबू की संज्ञा देते हुए पर्वतीय प्राकृतिक सौन्दर्य की प्रधानता के कारण माउन्ट शब्द जोड़ते हुए माउंट आबू के नाम से जाना जाने लगा। पूर्व में कभी यहाँ ३३ करोड़ देवता निवास करते थे और यहीं पर धरती की रक्षा के लिए अग्निकुंड से चार अग्निकुलों की उत्पत्ति हुई थी। 

भौगोलिक स्थिति :- 

माउन्ट आबू अरावली की पहाड़ियों के सर्वोच्च शिखर आबू पर्वत पर समुद्र तल से १२२० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। माउन्ट आबू राजस्थान प्रान्त के सिरोही जनपद में स्थित एकमात्र पहाड़ी नगर है। अपने अविस्मरणीय सूर्यास्त के दृश्य एवं दिलवाड़ा जैन मंदिर के लिए विश्व प्रसिद्ध आबू हरे भरे जंगलों के मध्य अरावली पर्वत माला की सबसे ऊंची चोटी पर दिल्ली से ७६० किलोमीटर तथा ,अहमदाबाद से २१४ किलोमीटर ,उदयपुर से १८५ किलोमीटर एवं आबू रोड से २८ किलोमीटर दूर स्थित है।   यह अरावली पर्वत श्रेणियों के दक्षिण पश्चिम किनारे पर ग्रेनाइट शिलाओं के एक पिंड के रूप में स्थित आबू पर्वत पश्चिमी बनास नदी की लगभग १० किलोमीटर संकरी घाटियों द्वारा अन्य पर्वत श्रेणियों से अलग हो जाता है। पर्वत के ऊपरी भाग में ऐतिहासिक स्मारकों ,धार्मिक तीर्थ मंदिरों एवं कला भवनों में शिल्प चित्र ,स्थापत्य कलाओं की स्थायी निधियां विदयमान हैं। यहां की एक गुफा में भृगु के पदचिह्न अंकित हैं। यह नगर राजस्थान के अन्य नगरों से बिलकुल भिन्न है क्योंकि यहां पर न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न ही कम वर्षा होती है। यहां की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक मानी जाती है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर है जो मात्र १८५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उदयपुर से माउन्ट आबू पहुंचने के लिए बस अथवा टैक्सी की सेवाएं ली जाती हैं। यह देश के अन्य प्रमुख शहरों से सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। दिल्ली के कश्मीरी गेट से सीधी बस सेवा उपलब्ध है तथा राजस्थान के प्रमुख शहरों से राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों से भी यहां पहुंचा जा सकता है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण जी अपने द्वारिका प्रस्थान के दौरान माउन्ट आबू में कुछ समय विश्राम किये थे। माउन्ट आबू में ही वशिष्ठ मुनि के तप करने के कारण यहीं पर उनके नाम से ही एक आश्रम बना हुआ है। कहा जाता है कि पहले यहां एक गढ्ढा था जिसमें वशिष्ठ मुनि की कामधेनु गाय फिसलकर गिर गई थी और वशिष्ठ मुनि के अनुरोध पर मां सरस्वती जी ने इस गड्ढे को जल से भर दिया था  तभी कामधेनु जल में तैरकर गड्ढे से बाहर निकल पाई थी। पुनः वशिष्ठ मुनि द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने पर शिव ने अपने वाहन नन्दी को भेजकर कैलाश पर्वत की एक लघु श्रृंखला की स्थापना करवायी थी। अर्बुदा नामक सर्प द्वारा नन्दी को अपनी पीठ पर बैठाकर वशिष्ठ मुनि के आश्रम तक ले आया गया था सम्भवतः इसीलिए इस स्थान को अर्बुदांचल अथवा अर्बुदगिरि भी कहा जाता है। तभी वशिष्ठ मुनि ने अर्बुदा  को यह वरदान दिया था कि तुम पैंतीस करोड़ देवताओं के साथ सदैव यहीं पर निवास करोगे। पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां मां दुर्गा अर्बुदा देवी के रूप में प्रगट हुईं थीं।  इसी कारण इसे अर्बुदागिरि अथवा अर्बुदांचल कहा जाता है। यहां स्थित एक गुफा में अर्बुदा देवी का मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर के निकट ही संत सरोवर तथा नीलकंठ एवं हनुमान जी का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है। 
माउन्ट आबू प्राचीनकाल से ही साधु -सन्तों का निवास स्थान व तपस्थली रही है। ऋषि वशिष्ठ ने असुरों के संहार के लिए यहां एक यज्ञ करवाया था। माउन्ट आबू कुछ समय तक चौहान साम्राज्य का भी अंग रहा है और बाद में सिरोही के महाराजा ने माउन्ट आबू को राजपूताना हेडक्वार्टर के लिए अंग्रेजों को सौंप दिया था। ब्रिटिशकाल में माउन्ट आबू का उपयोग मैदानों की गर्मी से राहत पाने के लिए हिलस्टेशन के रूप में किंचित समय के लिए विश्राम करने के लिए  किया जाने लगा था। इसी लिए यहां का हिलस्टेशन बहुत ही खूबसूरत व आकर्षक बनाया गया था। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

माउन्ट आबू हिन्दू तथा जैन धर्म का प्रारम्भ से ही प्रमुख तीर्थस्थल माना  जाता रहा है। यहां स्थित ऐतिहासिक दिलवाड़ा मन्दिर अपने बनावट व प्राकृतिक खूबसूरती के कारण श्रद्धालुओं एवं विदेशी पर्यटकों के विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गया है। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का यह आवास स्थल रहा है और इसी लिए कालान्तर में इसे जैन धर्म के प्रमुख तीर्थस्थल की मान्यता प्रदान की गई। यहां पर उच्चकोटि के संगमरमर से बनवाये गए पांचों मंदिरों की दीवारों ,छतों एवं स्तम्भों की वास्तुकला उच्चकोटि की है। यहां स्थित विमलशाह एवं तेजपाल मन्दिर अपनी वास्तुकला एवं मूर्तिकला के लिए विश्व प्रसिद्ध है !अन्य जैन मंदिरों में लुनावासी जैन मंदिर है जिसे वास्तुपाल एवं तेजपाल नामक दो मंत्रियों ने सन् १३१३ ई० में बनवाया था इसमें जैन के २३ वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। चौथा मंदिर पीतलहार मंदिर है जिसमें भगवान ऋषभदेव की मूर्ति स्थापित की गई है और पांचवा  खतरवासी  मंदिर है जिसमें जैन तीर्थंकर भगवान चिन्तामणि पार्शवनाथ की भव्य मूर्ति स्थापित की गई है।   
यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में नक्खी झील ,गांधी वाटिका ,श्रीरघुनाथ मंदिर ,मेढक चट्टान ,नन रॉक ,वैलेजवाक प्रमुख हैं। नक्खी झील के दक्षिण पश्चिम में स्थित सूर्यास्त दर्शन स्थल से अविस्मरणीय एवं अद्वितीय सूर्यास्त का दृश्य दिखायी पड़ता है। यहां क्षितिजीय सूर्यास्त का आनन्द लेने हेतु सीढियाँ बनी हुई हैं !पहाड़ी के इस अंतिम सिरे के बाद नीचे हजारों मीटर नीचा मैदान है जहां लाल पीले रंग का गोलाकार सूर्य अदृश्य होता हुआ सुदूर जंगलों खोता हुआ दिखाई पड़ता है। यहां स्थित देव आंगन में भगवान विष्णु का एक छोटा सा मंदिर है। इससे आगे चलने पर करोड़ी ध्वज नामक प्राचीन सूर्यमन्दिर मिलता है !नक्खी झील के दायीं ओर विवेकानंद उद्यान ,भारतमाता नयन स्थल मिलता है। यहीं पर नीलकंठ महादेव का ऐतिहासिक वृहदाकार शिवलिंग से प्रतिष्ठित मंदिर स्थित है !नक्खी झील से उत्तर पश्चिम में आबू पर्वत के अंतिम किनारे अनादर गांव में हनीमून प्वाइंट है। इसी के पास गणेश मंदिर बना हुआ है। मुख्य बाजार के पास कुमा खेड़ा मार्ग पर शिवलिंग  के आकर का शंकर मठ स्थित है। आबू कोर्ट रोड पर डेढ़ किलोमीटर आगे हनुमान मंदिर एवं यहां से ५ किलोमीटर दूरी पर गोमुख एवं वशिष्ठ आश्रम स्थित है। व्यास तीर्थ ,नागतीर्थ ,जमदाग्नि आश्रम लख चौरासी ,ओम शांति भवन ,संत सरोवर ,अबुर्दा देवी मंदिर एवं बिहारी जी का मंदिर स्थित है। 
माउन्ट आबू में प्राकृतिक सौन्दर्य से मन को सहज ही मोह लेने वाली वनस्थली है जो समतल माउन्ट आबू पर पर्यटन के लिए सर्वथा उपयुक्त होने के कारण विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रही है !यहां पर प्रतिदिन सैलानियों का आवागमन एवं मेले आदि के आयोजन से वातावरण में चहल पहल बनी रहती है !जाड़े एवं गर्मी की ऋतुओं में समान रूप से श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों का आवागमन होता रहता है। 
यहां स्थित दिलवाड़ा मंदिर माउन्ट आबू से १५ किलोमीटर दूर  गुरुशिखर पर्वत पर स्थित है।  यहां स्थित सभी मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं एवं तेरहवीं शताब्दी के मध्य का माना जाता है। दिलवाड़ा मंदिर की स्थापत्य कला एवं वास्तुकला दोनों अतुलनीय है !दिलवाड़ा मंदिर से ८ किलोमीटर दूर अचलगढ़ किला व मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त माउन्ट आबू में नक्की झील ,गोमुख मन्दिर व माउन्ट आबू वन्य जीव अभ्यारण्य अन्य दर्शनीय स्थल हैं। यहां की एक गुफा में भगवान दत्तात्रेय का प्रसिद्ध मंदिर बना हुआ है। यहीं पर माता अनुसुईया एवं अत्रि ऋषि की तपस्थली भी दृष्टिगत होती है। निकट ही भगवान शंकर का एक भव्य मंदिर गुफा में बना हुआ है। कहा जाता है कि भगवान शंकर ने यहां पर वशिष्ठ ऋषि को अंचलेष्वर महादेव के रूप में दर्शन दिया था इसी कारण यहां पर भगवान अंचलेष्वर की पूजा की जाती है। माउन्ट आबू के अन्य दर्शनीय स्थलों में मंदाकिनी कुंड ,भृगु आश्रम ,भर्तृहरि की गुफा ,मान सिंह की समाधि व श्वेति कुंड प्रमुख हैं जो अचलेश्वर महादेव मंदिर के आस पास ही स्थित हैं। यहां से थोड़ी दूर पर राम गुफा कुंड ,दुलेश्वर महादेव मंदिर ,महावीर स्तम्भ ,चम्पा गुफा ,व्यास तीर्थ ,गणेश मंदिर ,अम्बिका मंदिर  स्थित हैं। यमदग्नि आश्रम ,गौतम आश्रम व वशिष्ठ आश्रम इन्हीं ऋषियों की तपस्थली के प्रतीक के रूप में यहां पर आज भी मौजूद हैं।      

Monday, April 11, 2016

अजमेर शरीफ

इस्लाम में सूफी संतों के योगदान एवं सभी धर्मों के प्रति आदर भाव बनाये रखने की परम्परा प्राचीन समय से ही प्रचलित रही है। इसी कड़ी को अजमेर के सूफी संतों ने आगे बढ़ाते हुए प्रेम एवं मोहब्बत के सन्देश को भारत ही नहीं बल्कि विश्व के तमाम देशों तक इसका प्रचार एवं प्रसार किया !अजमेर शरीफ में सूफी सन्त ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती साहब की दरगाह स्थित है जहां प्रतिदिन सभी धर्मों के अनुयाइयों द्वारा श्रद्धापूर्वक मन्नतें मांगकर उसकी पूर्ति के अवसर पर वहां चादर चढ़ाकर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। हिन्दू एवं मुस्लिम श्रद्धालुओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि का कारण यह है कि ख्वाजा चिश्ती के आदर्शों के अनुकरण की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। कहा जाता है कि सम्राट अकबर स्वयं आगरा से यहां तक की पदयात्रा करके ख्वाजा चिश्ती के  दरगाह का दर्शन किया करते थे। 

भौगोलिक स्थिति :-

अजमेर शरीफ भारत के राजस्थान प्रान्त के अजमेर जनपद में स्थित है। यहीं पर दो पहाड़ियों के मध्य आना सागर झील दरगाह से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण अजमेर शरीफ का प्राकृतिक सौन्दर्य बहुत ही मनमोहक है !अजमेर शरीफ दिल्ली से लगभग ४३८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान भारत के  समस्त प्रांतों एवं प्रमुख शहरों से हवाई मार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है। 

ऐतिहासिक साक्ष्य :-

कहा जाता है कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती सं ११९५ के आसपास भारत आये थे। उस समय मोहम्मद गोरी की सेना पृथ्वीराज चौहान की सेना से पराजित होकर वापस गजनी की और कूच कर रही थी और फ़ौज ने ख्वाजा साहब को भी आगे जाने से मना किया किन्तु ख्वाजा साहब यह कहकर उनकी बात को अनसुना कर दिया कि वे तो मात्र प्रेम एवं मोहब्बत का संदेश लेकर आगे बढ़ रहे हैं अतः उन्हें वापस होने की आवश्यकता नहीं है। चिश्ती साहब कुछ दिन दिल्ली में ठहरने के पश्चात अजमेर आकर यहीं अपना स्थायी निवास बना लिया !लगभग ९७ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर  उन्होंने अपने निवास स्थान पर लोगों से मिलने के लिए मना कर दिया था और नमाज अदा करते हुए वहीं पर अपने प्राण त्याग दिए थे। ख्वाजा साहब के शुभचिंतकों एवं अनुयायियों ने उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें वहीं पर दफना दिया था और उनकी दरगाह को उनकी पूण्य स्मृति का प्रतीक मानते हुए वहीं पर सजदा देना आरम्भ कर दिया। यह दरगाह अजमेर शरीफ अपनी बनावट एवं विस्तार के कारण सभी अन्य दरगाहों से अलग प्रतीत होता है !दरगाह के मुख्य दरवाजे को निजामगेट के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण सन् १९११ में हैदराबाद रियासत के तत्कालीन निजाम मीर उस्मान अली खाँ ने करवाया था। मुगल सम्राट जहांगीर ने इसके शाहजहानी दरवाजे का निर्माण करवाया था और सन् १४६४ में गयासुद्दीन खिलजी दरगाह के गुंबद का निर्माण करवाया था !सुल्तान महमूद खिलजी ने बुलंद दरवाजे का निर्माण करवाकर दरगाह की शोभा में अत्यधिक वृद्धि की !इसी बुलंद दरवाजे पर प्रत्येक वर्ष ख्वाजा चिश्ती के उर्स के अवसर पर झंडा चढाकर मेले का शुभारम्भ किया जाता है। यह बुलंद दरवाजा फतेहपुर सीकरी स्थित बुलंद दरवाजे से अलग शैली में बनवाया गया है। सन् २०१५ में ख्वाजा चिश्ती का ८०० वां उर्स मनाया  गया था। ख्वाजा चिश्ती के दरगाह पर प्रतिदिन हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्रित होती है। प्रत्येक धर्म एवं सम्प्रदाय के पोषक श्रद्धालु यहां आकर अपनी मनौती मानते हैं और मनौती के पूर्ण होने पर श्रद्धापूर्वक पवित्र चादर चढ़ाकर बाबा ख्वाजा साहब के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं। धार्मिक कटटरता एवं नफरत फ़ैलाने वाले लोगों को ख्वाजा की दरगाह यह संदेश देती है कि मोहब्बत एवं भाईचारे के भाव लेकर आने वाले श्रद्धालु ही ख्वाजा की कृपा के पात्र हो सकते हैं। यहां का मुख्य पर्व उर्स कहलाता है जो इस्लाम कैलेन्डर के रजब माह की पहली से छठीं तारीख तक बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। कहा जाता है कि इस उर्स मेले का शुभारम्भ हिन्दू श्रद्धालुओं द्वारा चादर चढ़ाकर किया जाता है !दरगाह के अंदर बरामदे में रखी दो देंगे बादशाह अकबर और जहाँगीर द्वारा दान दी गई थीं। तभी से इन देगों में काजू ,बादाम ,पिस्ता ,इलाइची व केसर के साथ चावल पकाकर गरीबों में बांटे जाने की परम्परा शुरू हुई थी !यहां के उर्स मेले में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है !

अन्य दर्शनीय स्थल :-

अजमेर शरीफ का मुख्य आकर्षण केंद्र ख्वाजा मोइनुद्दीन  चिश्ती का दरगाह ही है किन्तु दरगाह के निकट ही स्थित झोपड़ा जिसे "ढाई दिन का झोपड़ा " कहा जाता है ,भी एक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है। ऐसी मान्यता है कि पूर्व में इस झोपड़े के स्थान पर राजा बीसलदेव द्वारा निर्मित एक भव्य इमारत बनी थी जिसमें एक संस्कृत विद्यालय चलता था !मोहम्मद गोरी ने इस झोपड़े को ढाई दिन के भीतर तुड़वाकर उसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण करवा दिया था। इसी लिए इसे ढाई दिन का झोपड़ा कहा जाता है। इसी स्थान पर ख्वाजा साहब ने लगभग ३७ वर्षों तक लगातार नमाज अदा की थी !इस इमारत में दस गुम्बद एवं १२४ खम्भे बने हुए हैं। 
अजमेर शरीफ से थोड़ी ही दूरी पर जामा मस्जिद ,अकबरी मस्जिद ,मियां बाई की मस्जिद एवं शाहजहानी मस्जिद स्थित है !अजमेर में ही एक जैन मन्दिर भी स्थित है जो जैनियों के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की पुण्य स्मृति में बनवाया गया था और इस मन्दिर में भगवान ऋषभदेव जी की विशाल मूर्ति स्थापित की गई है। 
अजमेर शरीफ स्थित दरगाह के उर्स मेले के अवसर पर विदेशों से आये हुए सूफी संतों ,फकीरों एवं कौव्वालों का जमघट लगा रहता है। मेले का प्रशासनिक नियन्त्रण राजस्थान सरकार का रहता है किन्तु इसका आयोजन दरगाह समिति द्वारा किया जाता है। प्रत्येक वर्ष विदेशी राजनयिकों का आगमन यहां होता रहता है। पाकिस्तान ,सऊदीअरब ,बगदाद, ईरान,ईराक व अफगानिस्तान के राजनेता जब भी भारत आते हैं वे यहां पर चादर चढ़ाना अपना पहला कर्तव्य समझते हैं।  

Thursday, April 7, 2016

पुष्कर

हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थस्थल पुष्कर भगवान ब्रह्माजी की पुण्य स्मृति में निर्मित ब्रह्मा मन्दिर एवं प्रतिवर्ष यहां आयोजित होने वाले विशाल धार्मिक मेले के कारण प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां आयोजित मेले का आनन्द लेने हेतु हजारों की संख्या में विदेशी पर्यटक आते हैं। पुष्कर को देवताओं का अत्यधिक प्रिय स्थल माना जाता है।  कहा जाता है कि यहां पर प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं पर दस करोड़ तीर्थ स्वयं उपस्थित हो जाते हैं एवं जगत के रचईता तथा सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा जी भी स्वयं यहां पर निवास किया करते हैं। अतः ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति एक बार पुष्कर सरोवर में स्नान एवं भगवान ब्रह्मा के दर्शन कर लेता है उसे सीधे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है तथा सांसारिक कष्टों से उसे सहज मुक्ति मिल जाती है।  पुष्कर के उदभव और महत्ता के संबन्ध में पद्मपुराण में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। भगवान ब्रह्मा द्वारा यहां पर विशाल यज्ञ -क्रिया सम्पन्न किया जाने के कारण यहां पर ब्रह्माजी का मन्दिर बनवाया गया है !सम्पूर्ण भारत में पुष्कर ही एक ऐसा स्थान है जहाँ पर ब्रह्माजी का मन्दिर स्थापित है। यह मन्दिर बहुत ही प्राचीन मंदिर है। यद्यपि मुगलकाल में यहां के मुख्य मन्दिरों को औरंगजेब द्वारा तोड़वा दिया गया था किन्तु बाद में स्थानीय राजपूत राजाओं द्वारा इसका पुनर्निर्माण करा दिया गया था। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के राजस्थान प्रान्त में यह प्रसिद्ध तीर्थस्थल स्थित है। यह तीर्थस्थल अजमेर से ११ किलोमीटर दूर है। इस तीर्थस्थल का प्रमुख आकर्षण पुष्कर सरोवर है जहां स्नान करने के पश्चात दर्शनार्थी भगवान ब्रह्माजी के प्रसिद्ध मन्दिर का दर्शन करते हैं। पुष्कर सरोवर से ही सरस्वती नदी निकलकर आगे जाकर साबरमती में लूनी नदी के नाम से जानी जाती हैं।  पुष्कर सरोवर को कैलाश मानसरोवर के समतुल्य तीर्थ की मान्यता प्राप्त है। इस स्थल पर कार्तिक पूर्णिम की तिथि को एक बहुत बड़ा मेल आयोजित होता है जिसमें विदेशों से सर्वाधिक दर्शनार्थी /पर्यटक सम्मिलित होते हैं। राज्य प्रशासन द्वारा आयोजित इस मेले में कला ,संस्कृति एवं पर्यटन विभाग द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। यह स्थान रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से राज्य के प्रमुख शहरों से सम्बद्ध है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

हिन्दू धर्म में जिस प्रकार प्रयाग को तीर्थराज की संज्ञा दी जाती है ठीक उसी प्रकार पुष्कर को समस्त तीर्थों का मुख मानते हुए इसे पुष्करराज के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसकी गिनती पंचतीर्थों एवं पञ्च सरोवरों में भी की जाती है। पुराणों में इसके तीन  भागों का वर्णन मिलता है ,प्रथम ज्येष्ठ पुष्कर जिसके संरक्षक  देवता भगवान ब्रह्माजी हैं ,द्वितीय मध्यम पुष्कर जिसके संरक्षक अधिष्ठाता भगवान विष्णुजी हैं एवं तृतीय लघु पुष्कर जिसके संरक्षक व अधिष्ठाता भगवान रूद्र हैं। ज्येष्ठ पुष्कर में ब्रह्मा जी ने अपने यज्ञ की वेदिका स्थापित की थी। अतः इन तीनों पुष्करों की परिक्रमा करके श्रद्धालुगण अपने को धन्य मानते हैं। इन तीनों पुष्करों की आपस की दूरी अधिक है और प्रत्येक पुष्कर की परिक्रमा के दौरान मार्ग में अनेकों मन्दिर एवं ऋषि -मुनियों की तपस्थली तथा आश्रम दृष्टिगत होते हैं। पुष्कर का प्रमुख मन्दिर ब्रह्माजी का मन्दिर है जो पुष्कर सरोवर से थोड़ी ही दूर पर स्थित है। 
ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि जब ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद द्वारा सृष्टिकर्म में सहयोग करने से असहमति व्यक्त कर दी गयी थी तब ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर उन्हें यह शाप दे दिया था कि "तुमने मेरी आज्ञा की अवहेलना की है अतः मेरे शाप से तुम्हारा समस्त ज्ञान नष्ट हो जायेगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्त करके कामिनियों के वशीभूत हो जाओगे। "  यह शाप सुनकर दुःखी मन से नारद ने भी ब्रह्मा जी को यह शाप दिया कि" तात ,आपने बिना किसी कारण एवं सोच विचार के मुझे शाप दिया है अतः मैं भी आपको शाप देता हूँ कि तीन कल्पों तक लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मंत्र ,श्लोक एवं कवच आदि का लॉप हो जायेगा।  "  कहा जाता है कि उक्त शाप के कारण ही ब्रह्माजी की पूजा अन्यत्र कहीं नहीं की जाती है केवल पुष्कर में ही वर्ष में एक बार उनकी पूजा अर्चना की जाती है। 
पुष्कर का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के सर्ग ६२ श्लोक संख्या २८ में विश्वामित्र के यहां तप करने के सन्दर्भ में मिलता है तथा सर्ग ६३ श्लोक संख्या १५ में अप्सरा मेनका द्वारा यहां स्थित पुष्कर सरोवर में स्नान करने का वर्णन किया गया है। बौद्धकाल में निर्मित साँची स्तूप के दान लेखों में ऐसे दान दाताओं के नाम उल्लिखित हैं जो पुष्कर के निवासी थे। पाण्डुलेन गुफा के लेख में ऊष्मदवत्त जो प्रसिद्ध राजा नहपाण का दामाद था ,के पुष्कर आने एवं  उसके द्वारा यहां ३००० गायों तथा एक गाँव दान में दिए जाने का उल्लेख मिलता है। पुष्कर में प्राप्त कई प्राचीन लेखों से यह भी पुष्टि होती है कि सन ९२५ ई ० से १०१० ई ० के मध्य पुष्कर तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया था। पुराणों में इस तीर्थ का कई स्थानों पर वर्णन किया गया है और पंचतीर्थों में कुरुक्षेत्र ,गंगा ,गया और प्रभास के साथ पांचवा पंचतीर्थ पुष्कर को बताया गया है। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

दर्शनार्थियों के स्नान हेतु पुष्कर सरोवर पर कई पक्के घाट जैसे कपालमोचन घाट ,यक्ष घाट ,गौघाट ,रामघाट ,बदरी घाट ,ब्रह्मघाट ,एवं कोटितीर्थ घाट बनाए गए हैं। यहां रत्नागिरि की तलहटी में स्थित ब्रह्माजी के मन्दिरमें  ब्रह्माजी की मूर्ति के बांयी ओर मां गायत्री तथा दांयी ओर मां सावित्री जी की मूर्तियां स्थापित की गईं हैं। इसके अतिरिक्त यहां रंगराज जी का मन्दिर ,वाराह मन्दिर ,आत्मेश्वर महादेव मन्दिर ,नृसिंहदेव मंदिर बने हुए हैं। श्रीरंगराज जी का मन्दिरदक्षिण भारतीय वास्तुकला में बनाया गया है तथा यह कहा जाता है कि इसे ऐसे व्यक्ति बनवाया था जिसे कोई गड़ा हुआ धन मिल गया था। नृसिंहदेव मन्दिर में भगवान विष्णु द्वारा नृसिंह रूप में हिरण्याकशयप का वध करते हुए भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। वाराह मन्दिर के संबन्ध में बताया जाता है कि सृष्टि के समय पृथ्वी को जब हिरण्याक्ष नामक राक्षस चुराकर पाताल में छिपा दिया था तब भगवान विष्णु ने वाराह का रूप धारण कर अपने दांतों पर पृथ्वी को पाताल लोक से वापस ले आया था। इसी घटना का चित्रण इस मंदिर में किया गया है। ब्रह्मा मन्दिर का निर्माण ग्वालियर के महाजन गोकुल प्राक ने करवाया था !इस मन्दिर की लाट लाल रंग की है तथा इसमें  ब्रह्मा जी के वाहन हंस की आकृति भी दृष्टिगत होती है। इसके निकट ही एक मंदिर में सनकादि की मूर्तियां तथा नारद की मूर्ति स्थापित की गई है। एक अन्य मन्दिर में हाथी पर आसीन कुबेर तथा नारद की मूर्तियां रखी गईं हैं। 
पुष्कर का मुख्य आकर्षण पुष्कर मेले को भी माना जाता है। इसी मेले में पशुमेला जिसमें श्रेष्ठ नस्लों के पशुओं का क्रय -विक्रय किया जाता है ,आयोजित किया जाता है। यह मेला  रेत के विशाल मैदान पर आयोजित होता है जिसमें पंक्तिबद्ध अनेकों विभिन्न दुकानें ,खाने- पीने के स्टाल ,सर्कस ,झूले व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मंच लगवाए जाते हैं। इस पशुमेले में श्रेष्ठ नस्ल के पशुओं को पुरस्कृत भी किया जाता है।   

Wednesday, April 6, 2016

कामाख्या देवी

हिन्दू धर्मशास्त्र में वर्णित इक्यावन शक्तिपीठों में से प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में कामाख्या देवी प्राचीन काल से तन्त्र -साधना के मुख्य केन्द्र एवं साधकों की तपस्थली के रूप में जानी जाती है। अदभुत रहस्य एवं अकल्पनीय चमत्कारों से परिपूर्ण यह परिक्षेत्र साधकों  को आध्यात्मिक चेतना व शक्ति प्रदान करने के लिए विश्व प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में साधक व पर्यटक कामाख्या देवी के दर्शन हेतु यहां उपस्थित होकर अपनी आस्था व विश्वास को  विशेष ऊर्जा प्रदान करते हैं। कामाख्या देवी को मां काली का प्रतिरूप माना जाता है इसीलिए यहां पर तंत्र -मंत्र ,जादू -टोना आदि की सिद्धि हेतु भारत के सभी प्रांतों से साधकों  का मेला  लगा रहता है। हिन्दू और बौद्ध तांत्रिक समान रूप से इस स्थल पर आकर अपनी सिद्धियों को मूर्तरूप प्रदान करते हैं। कामाख्या देवी को कामरूप की भी संज्ञा प्रदान की जाती है। यहां से संबन्धित अनेकों दंत -कथाएँ सुनने को मिलती हैं जिससे जादू -टोने  व सम्मोहन द्वारा अपने वश में करने की घटनाओं का विशेष चित्रण दृष्टिगत होता है !यहां स्थित मन्दिर को शक्ति की देवी सती के मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यह सिद्ध शक्तिपीठ सती  के इक्यावन शक्तिपीठ में से सर्वप्रमुख शक्तिपीठ है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के आसाम प्रान्त में आसाम की राजधानी गुवाहाटी शहर से लगभग ८ किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत श्रेणियों के मध्य कामरूप कामाख्या देवी का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है। पहाड़ियों पर बने हुए इस मन्दिर के तान्त्रिक महत्व के कारण इसे सम्पूर्ण विश्व में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त है।  पूर्वोत्तर के प्रवेशद्वार आसाम राज्य के गौरव के रूप में भगवती सती की महामुद्रा अर्थात योनिकुण्ड कामाख्या में स्थित है। यह स्थान हवाई मार्ग,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से भारत के समस्त प्रांतों से जुड़ा हुआ है। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन गुवाहाटी है। यह दिल्ली से १९३६ किलोमीटर तथा कलकत्ता से ९९२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर नीलांचल पर्वत पर स्थित होने के कारण पर्यटन की दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व माना जाता है। यहां से थोड़ी दूर पर ही ब्रह्मपुत्र नदी गुवाहाटी शहर से होकर प्रवाहित होती हैं। 

ऐतिहासिक एवं पौराणिक साक्ष्य :-

कामाख्या शक्तिपीठ के उदभव एवं महत्ता के संबंध में पुराणों में विस्तृत वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि जब माता सती अपने पिता दक्ष के द्वारा  आयोजित यज्ञ के अवसर पर बिना आमंत्रण के वहां पहुँच गई थीं और वहां पर अपने पिता द्वारा अपने पति भगवान शिव की निंदा सुनीं तब वे अपना  आत्मनियंत्रण खोकर उसी यज्ञ के अग्निकुण्ड में कूद पडीं। भगवान शिव इस घटना पर अत्यधिक क्रोधित हुए और अग्निकुण्ड से माता सती के शरीर को बाहर निकालकर अपनी पीठ पर उसे रखकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विचरण करने लगे। इसी समय समस्त देवतागण तारकासुर के आतंक एवं अत्याचार से दुःखी होकर भगवान विष्णु के पास इसके वध की प्रार्थना करने हेतु पहुँच गए तब भगवान विष्णु ने उन्हें यह परामर्श दिया कि तारकासुर का वध केवल भगवान शिव ही कर सकते हैं किन्तु वे सती के मोहवश अभी क्रोधित होकर अखिल भूमण्डल में यत्र तत्र विचरण कर रहे हैं। देवताओं की प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान विष्णु ने शिव के सती -मोह को कम करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के कई टुकड़े कर दिए और यही टुकड़े भारत के विभिन्न इक्यावन स्थानों पर गिर गए थे। कहा जाता है कि कामरूप कामाख्या में सती की योनि गिरी थी।  इसी कारण आसाम के इस क्षेत्र को कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ की संज्ञा दी गई और इसी स्थल पर शक्तिपीठ की स्थापना हुई। कालान्तर में सन् १५६५ ई० में कूचबिहार के राजा नरनारायण द्वारा एक भव्य मन्दिर का निर्माण इसी स्थल पर करवाया गया।             
  कामाख्या शक्ति पीठ पर शोध कर रहे डॉ० दिवाकर शर्मा के अनुसार असुरराज नरकासुर ने जब भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी बनाने का दुराग्रह कर लिया था तब भगवती कामाख्या ने नरकासुर से कहा कि यदि तुम इसी रात में नीलपर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान मार्गों का निर्माण करके कामाख्या मन्दिर व एक धर्मशाला बनवा दो  तो उसकी इच्छा पूर्ण हो सकती है किन्तु ऐसा न कर पाने पर वे उसका वध कर देंगी। अहंकारवश अपने दुराग्रह पर अडिग होकर नरकासुर ने नीलपर्वत के चारों ओर सोपान मार्गों का निर्माण तो करवा दिया किन्तु इसी मध्य एक मायावी मुर्गे द्वारा रात्रि समाप्ति के पूर्व ही बांग दे देने के कारण नरकासुर क्रोधित होकर उस मुर्गे का पीछा करने लगा और ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर उसे पकड़कर उसका वध कर दिया। यह स्थान सम्प्रति कुकुटाचकि के नाम से प्रसिद्ध है। शर्त पूर्ण न कर पाने के कारण मां भगवती के आग्रह पर भगवान विष्णु ने नरकासुर का भी वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना किन्तु भगदत्त के निःसंतान होने के कारण उसका राज्य छोटे छोटे टुकड़ों में बंट गया। कहा जाता है कि नरकासुर के उक्त कृत्य से अप्रसन्न होकर मां भगवती वहां से अदृश्य हो गई थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मन्दिर भी नष्ट हो गया था। मान्यता है कि इसी स्थल पर समाधिस्थ भगवान शंकर की तपस्या को कामदेव ने कामबाण चलाकर भंग कर दी थी और तभी समाधिभंग से क्रोधित भगवान शंकर ने कामदेव को अपने तीसरा नेत्र खोलकर भस्म कर दिया था। भगवती के नीलांचल पर्वत पर योनि मुद्रा में स्थापित होने पर कामदेव को जीवनदान मिला था। इसीलिए इस क्षेत्र को कामरूप भी कहा जाता है। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

कामाख्या शक्तिस्वरूपा माता सती के योनि विग्रह के गिरने के कारण निर्मित योनिकुण्ड पर बने हुए एक विशाल मन्दिर के कारण ही प्रसिद्ध हुआ। भारत ही नहीं बल्कि विश्व के भी सभी तान्त्रिक अम्बुयाची योग पर्व पर यहां आकर अपनी सिद्धियों द्वारा अर्जित शक्तियों को जाग्रत करते हैं। अम्बुयाची पर्व मां सती का रजस्वला पर्व होता है। पुराणों में बताया गया है कि सतयुग में यह पर्व १६ वर्ष में एक बार ,द्वापरयुग में १२ वर्ष पर एक बार ,त्रेतायुग ७ वर्ष में एक बार तथा कलयुग में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। बताया जाता है कि अम्बुयाची योग पर्व के दौरान माता के मंदिर का कपाट स्वतः बंद हो जाता है और कपाट बंद होने पर मां कामाख्या का दर्शन और पूजा अर्चना निषिद्ध हो जाती है। तीन दिनों के बाद रजस्वला योग की समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा अर्चना की जाती है। इस प्रकार आदिशक्ति महाभैरवी कामाख्या को सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है और इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी पूजा अनुष्ठान का विशेष महत्व माना जाता है। कहा जाता कि अम्बुयाची पर्व पर माता यहां कौमारी रूप में विराजमान रहती हैं। इस दौरान यहां के सभी वर्ण एवं जातियों की कौमारियां वन्दनीय व पूज्यनीय मानी  जाती हैं और ऐसा न मानने पर साधक की सिद्धियां स्वतः समाप्त हो जाती हैं। उत्तर भारत में जिस प्रकार महाकुंभ का पर्व मनाया जाता है ठीक उसी प्रकार आदिशक्ति के इस अम्बुयाची योग पर्व को मनाया जाता है। इस पर्व पर साधक अलौकिक शक्तियों का अर्जन करते हैं तथा तंत्र -मंत्र की परम्परागत शक्तियों को जागृत  करने का अनुष्ठान भी किया करते हैं। इस पर्व पर मां भगवती के रजस्वला होने के पूर्व सफेद वस्त्र उन्हें चढ़ाया जाता है जो बाद में स्वतः लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। मंदिर के पुजारी इसी वस्त्र को प्रसाद के रूप में भक्तों में बाँट देते हैं।  वाममार्गी साधकों का यह सर्वोच्च तीर्थस्थल माना जाता है। 
यहां पर कामाख्या देवी मन्दिर के अतिरिक्त भवनेष्वरी देवी का मन्दिर ,उमानन्द मन्दिर ,जनार्दन मन्दिर ,नवग्रह मन्दिर एवं वशिष्ठाश्रम आदि प्रमुख धार्मिक स्थल स्थित हैं।                  

Monday, April 4, 2016

कैलाश मानसरोवर

   हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं से चारों ओर से घिरा हुआ कैलाश पर्वत दूरस्थ एक विशाल शिवलिंग की मनमोहक आकृति को प्रतिबिम्बित करता है। हिन्दू धर्म -ग्रन्थों के अनुसार कैलाश पर्वत को भगवान शिव एवं मां पार्वती के आवास स्थल "दिव्यधाम "तथा भगवान शिव की तपस्थली के रूप में जाना जाता है। कैलाश पर्वत के निकट ही लगभग २५ किलोमीटर की दूरी पर एक बहुत बडी तालाबनुमा झील स्थित है जिसे मानसरोवर की संज्ञा दी जाती है। बताया जाता है कि माता सती की दाहिनी हथेली इसी मानसरोवर में आकर गिरी थी जिसके कारण इसे इक्यावन शक्तिपीठों में से एक प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार कैलाश पर्वत से मानसरोवर तक के पूरे परिक्षेत्र को कैलाश मानसरोवर की संज्ञा दी जाती है और इसी परिक्षेत्र की परिक्रमा /यात्रा कैलाश मानसरोवर यात्रा के नाम से जाना जाता है। कैलाश मानसरोवर हिन्दू धर्म का अत्यन्त प्राचीन एवं पवित्र धार्मिक स्थल होने के कारण इसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल की मान्यता प्रदान की गई। पुराणो ,उपनिषदों एवं अन्य धार्मिक गर्न्थों में इसके महात्म्य एवं पुण्यता के संबन्ध में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। स्कन्दपुराण में तो कैलाश पर्वत के स्मरण मात्र को ही अत्यधिक फलदायी बताया गया है। इस प्रकार कैलाश मानसरोवर को भारतीय संस्कृति एवं धर्म दोनों की प्राण -चेतना का प्रतीक माना जाता है। यहीं पर जैन धर्म के संस्थापक व उनके प्रथम गुरु द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त किया गया था। 

भौगोलिक स्थिति :-

कैलाश पर्वत समुद्रतल से लगभग ६७४० मीटर की ऊँचाई पर सम्प्रति तिब्ब्त में स्थित है किन्तु प्राचीन काल में यह आर्यावर्त भारत का ही अंग था। उत्तराखण्ड के कुमायूँ मंडल में इसका आंशिक भाग स्थित होने एवं इसी मंडल से होकर यात्रा मार्ग गुजरने के कारण इसे हिन्दू धर्म का प्रधान केंद्र माना जाता है। कैलाश पर्वत से एक जलधारा निकटवर्ती झील में गिरती है और आगे चलकर नदी का रूप धारण कर चार विभिन्न दिशाओं की ओर प्रवाहित होती हैं। उत्तर की ओर सिंह मुख नदी ,पूर्व की ओर अश्व्मुख नदी ,दक्षिण की ओर मयुरमुख  नदी और पश्चिम की ओर गजमुख नदी के नाम से जाना जाता है। हिन्दुओं द्वारा कैलाश पर्वत को सृष्टि एवं ब्रह्माण्ड का प्रधान केन्द्र माना जाता है। पुराणों में इसका चित्रण ८४००० मील ऊंचे विलक्षण विश्व स्तम्भ के रूप में किया गया है जिसके चारों ओर परिक्रमा सम्पन्न की जाती है। कैलाश पर्वत शिखर पर भगवान शिव एवं मां पार्वती निवास करती हैं जबकि मानसरोवर  तिब्ब्त के पठार पर स्थित तालाबनुमा एक झील है जिसमें मां सती के दाहिने हाथ की हथेली आकर गिरी थी। अतः कैलाश एवं मानसरोवर दोनों का अलग अलग धार्मिक महत्व है और दोनों पृथक स्थल हैं। दोनों स्थलों के मध्य केवल २५ किलोमीटर का अन्तर अवश्य है किन्तु दोनों हिमालय की श्रृंखलाओं में ही स्थित हैं। इन दोनों के संयुक्त स्थल की यात्रा को कैलाश मानसरोवर यात्रा की संज्ञा दी जाती है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पौराणिक आख्यानों के अनुसार लंकापति रावण यहां स्थित राक्षस ताल में खड़े होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की थी और यहीं पर कुछ दूर स्थित मानसरोवर ताल में माता सती की दाहिनी हथेली गिरने के कारण इसे शक्तिपीठ की मान्यता दी जाती है।  यहां स्थित कैलाश पर्वत जो दूर से देखने पर शिवलिंग जैसा दिखाई पड़ता है ,की परिक्रमा करके भक्तगण पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। मानसरोवर का जल बहुत अधिक ठंडा नहीं होता जिसके कारण इसमें आसानी से स्नान किया जा सकता है। इस मानसरोवर में पाए जाने वाले हँस पानी और दूध को अलग अलग करने की सामर्थ्य रखते थे किन्तु सम्प्रति अब हँस दिखलायी नहीं पड़ते हैं। सम्भवतः पूर्व में यहां पर हँस पाए जाते रहे होंगे। श्रीमदभागवत कथा के अनुसार मानसरोवर में अप्सराएँ नग्न होकर स्नान किया करती थीं कहा जाता है कि एक बार शुक्र मुनि निर्वस्त्र होकर सामने की ओर से तथा व्यास मुनि पीछे की ओर से गुजर रहे थे तभी अप्सराएँ शुक्र मुनि को देखकर लज्जित नहीं हुई किन्तु व्यास मुनि जो वस्त्र धारण किये हुए थे ,को देखकर अप्सराएँ लज्जा महशूस  करने लगीं और उन्होंने अपने वस्त्र शीघ्रता से अपने शरीर पर डालने लगीं। यह देखकर चकित व्यास मुनि के द्वारा कारण पूछने पर अप्सराओं ने कहा कि आपके मन में स्त्री पुरुष के भेद देखकर ही हम लज्जित हो गए। 

कैलाश मानसरोवर -यात्रा :-

कैलाश मानसरोवर की यात्रा हमें भारत के प्राचीन आध्यात्मिक गौरवपूर्ण इतिहास का अनुस्मरण कराती हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही आर्य सभ्यता के चरम  उत्कर्ष के रूप में कैलाश पर्वत को जाना जाता रहा है। कैलाश मानसरोवर की यात्रा प्रायः अल्मोड़ा से जून माह के दूसरेसप्ताह में आरम्भ होती है। सम्प्रति चीन से होकर एक नए रास्ते से भी यात्रा का शुभारम्भ हुआ है। अल्मोड़ा से कैलाश मानसरोवर की दूरी २३८ मील है और इस मार्ग से यात्रा के दौरान पड़ने वाले स्थानों को निम्न तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है :--
स्थान ---------दूरी {मील में }----ऊँचाई {फिट }--------------
अल्मोड़ा          ०                      ५०००                              यात्रा का शुभारम्भ स्थल 
बर्चीना             ८                      ६०००                                  डाकबंगला 
धौल्चिन         ६                       ६०००                                    पोस्ट आफिस 
कनारचिन      ४                      ६०००                                     डाकबंगला 
शेरा घाट          ६                      ६०००                                      --------
गनई                ६                      ६०००                                      डाकबंगला
झलटोला          ६                      ६०००                                     विश्रामस्थल 
बेरीनाग            ६                     ७०००                                      डाकबंगला,पोस्ट आफिस 
भाल                 १०                    ३०००                                           पोस्ट आफिस 
डीडीहाट            ८                     ५५००                                       डाकबंगला
अस्कट              ९                     ५०००                               डाकबंगला,पोस्ट आफिस 
बलवाकोट        १२                   ३०००                                   विश्रामस्थल 
धारचूला            ११                   ३०००                                   विश्रामस्थल 
खेला                  १०                   ५५००                                पोस्ट आफिस 
चौबास                 ८                 ९०००                                   ------------
गल्लागाद            ११                ८०००                                आधी यात्रा पूर्ण 
मेलपा                   ५                ७२००                                 ख़राब मार्ग 
बुडी                        ७              ९५००                                ----------------
गर्व्यांग                  ६             १०५००                                डाकबंगला ,  पोस्ट आफिस 
कालापानी            १०           १२०००                                 जोखिमपूर्ण मार्ग 
सोनचम                ६              १५०००                               हिमाच्छादित स्थल 
लियुलेह पास        ६             १६७५०                               कोई विश्राम स्थल नहीं 
टकलाकत मंडी      ६             १३०००                                  '"
रंगन                       ५            १४४००                                   "
गुरलापास              १०           १६२००                               कैलाश की झलक 
मानसरोवर            १०           १४९००                               झील की स्थिति
जगुम्बगुहा              ८           १५०००                                अच्छा मार्ग ,विश्राम स्थल 
बरखा                       ८           १५०००                                      "
दार्चिनमंदिर            ६             १५०००                              कैलाश पर्वत स्पष्ट दिखाई पड़ता है। 
खण्डिगुणवा            ६              १५०००                                 "
डरफु                       ८              १५०००                             कैलाश पर्वत स्पष्ट दिखाई पड़ता है। 
गौरीकुण्ड                २              १८६००                            स्नान स्थल ,विश्राम स्थल 
कैलाश पर्वत             ०               २२०२८                       हिमाच्छादित स्थल      
वैसे तो कैलाश मानसरोवर की यात्रा अत्यन्त  कठिन है और इस यात्रा हेतु काफी धन भी व्यय  करना पड़ता है किन्तु  उत्सुक श्रद्धालु आसानी से यह यात्रा सम्पन्न कर  लेते हैं। अस्वस्थ व्यक्ति अथवा अधिक बूढ़े लोग यहां तक पहुँचने में कठिनाई महशूस कर सकते हैं।  यह यात्रा भारत सरकार एवं चीन सरकार के संयुक्त प्रयास एवं सहमति से सम्भव हो पाती है क्योंकि इसका अधिकाँश क्षेत्र तिब्ब्त में होने के कारण चीन सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। अतः भारत की सीमा समाप्त होने के उपरान्त यात्रियों की आगे की यात्रा की व्यवस्था व यात्रियों की देखरेख चीन सरकार के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के संरक्षण में होता है। इस यात्रा के लिये  प्रत्येक वर्ष चीन के नई  दिल्ली स्थित दूतावास में आवेदन करना पड़ता है और यात्रा की निर्धारित शर्तों को पूर्ण करने के पश्चात वर्षा ऋतु में यह यात्रा प्रारम्भ होती है क्योंकि ऐसे समय में मौसम  साफ मिलते हैं। कुमायूं मण्डल के पिथौरागढ़ जनपद के अन्तिम किनारे पर स्थित तिब्ब्त सीमा तक इस यात्रा को कुमायूं विकास मण्डल विभाग के द्वारा सम्पन्न करवाई जाती है और आगे की यात्रा का उत्तरदायित्व चीन सरकार का होता है। 
कैलाश पर्वत श्रृंखलाओं पर कठिन चढ़ाई चढ़कर हिमाच्छादित चोटी पर स्थित डोलमापास के सन्निकट गौरीकुण्ड नामक प्रसिद्ध सरोवर मिलता है। कहा जाता है कि मां पार्वती जी यहां पर जल क्रीड़ा किया करती थीं। यह स्थान चारों ओर से सफेद बर्फ से आच्छादित दिखलाई पड़ता है। सरोवर की ऊपरी परत अत्यधिक सर्दी पड़ने के कारण कठोर व पारदर्शी दिखलायी पड़ती है !मानसरोवर का प्राकृतिक सौन्दर्य अवर्णनीय है क्योंकि जो भी यात्री यहां की यात्रा सम्पन्न कर  लेता है वह शब्दों में इसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ दिखलायी पड़ता है.स्वीडन के प्रसिद्ध विद्वान स्वेन हेडिन के शब्दों में "प्रतिक्षण नई नई स्फूर्ति प्रदान करने वाले इस स्वर्गीय सरोवर के अनुपम दृश्य को कभी तृप्त न हुए बिना देख देखकर मैं यहीं पर जीवन बिताना और मर जाना चाहता हूँ। "
प्राचीनकाल में यह देवताओं एवं ऋषियों ,मुनियों की तपस्थली के रूप में जाना जाता था। सामान्य लोग यहां तक नहीं पहुँच पाते थे किन्तु भारत सरकार व चीन सरकार के संयुक्त प्रयास से अब यहां तक पहुँचने के लिए सड़कों का निर्माण करा दिया गया है जिसके कारण सम्प्रति श्रद्धालु आसानी से यहां पहुँच सकते हैं। यहां की यात्रा हेतु पर्याप्त ऊनी वस्त्र ,विंडचीटर्स आदि की व्यवस्था करनी पड़ती है क्योंकि ऊपरी क्षेत्र में ठंडी हवाओं का सामना करना पड़ता है। पर्याप्त खाद्य सामग्री ,औषधियां आदि भी इस यात्रा के दौरान रखना पड़ता है क्योंकि दुर्गम क्षेत्र होने के कारण वहां पर इनकी उपलब्धि नहीं हो पाती है। यात्रा के पूर्व यात्री को चिकत्सीय परीक्षण कराना अनिवार्य होता है। चीन सरकार द्वारा केवल तकलाकोट में ठहरने के दौरान यात्रियों हेतु भोजन की व्यवस्था की जाती है। नौ दिन की इस यात्रा में यात्रियों को आंशिक रूप से पकी हुई खाद्य सामग्री अथवा सूखे फल साथ में ले जाना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों की तस्वीर खींचने हेतु कैमरा व मोबाईल साथ में ले जा सकते हैं। इस प्रकार कैलाश मानसरोवर की तीर्थयात्रा एक अविस्मरणीय धार्मिक यात्रा के रूप में सम्पूर्ण  विश्व प्रसिद्ध है।        

Friday, April 1, 2016

देवप्रयाग

हिन्दू धर्मगर्न्थों  में तीर्थराज प्रयाग की भाँति देवप्रयाग की भी धार्मिक महत्ता का वर्णन करते हुए इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल की मान्यता प्रदान की गई है। अलकनन्दा एवं भागीरथी नदी के संगम पर बसे होने के कारण ही इसे प्रयाग की मान्यता प्रदान करते हुए देवप्रयाग की संज्ञा दी गई। जिस स्थल पर दो पवित्र नदियों का संगम होता है, उस स्थल को प्रयाग की संज्ञा दी जाती है। अतः देवभूमि हिमालय परिक्षेत्र में स्थित इस संगम स्थल को देवप्रयाग के नाम से सम्बोधित किया गया। अपने प्राकृतिक सौन्दर्य एवं प्राचीनता के लिए यह स्थान सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। यही कारण है कि यहां पर प्रतिवर्ष भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक यहाँ पर आते रहते हैं।  कहा जाता कि जब वामन भगवान ने सम्पूर्ण धरती को अपने तीन कदमों में नाप लिया था तब उनके चरण के नख से जल की एक धारा बह निकली थी जो ध्रुवमण्डल और सप्तऋषि मंडल होती हुई मेरु पर्वत पर चार भागों में विभक्त होकर आ गिरी थी  और इसी में से एक धारा को भगवान शिव की जटाओं में राजा भगीरथ ले आये थे तथा दूसरी धारा  अलकापुरी की ओर बहने के कारण अलकनन्दा कहलायी। दोनों धारायें देवप्रयाग में आकर आपस में मिल गईं और मोक्षदायिनी गंगा के नाम से आगे की ओर प्रवाहित हुई। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तराखण्ड राज्य में अलकनन्दा नदी एवं भागीरथी नदी के संगम स्थल पर बसा हुआ देवप्रयाग हिन्दुओं के पवित्र तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है। इसी स्थल से आगे की ओर अलकनन्दा एवं भागीरथी की संयुक्त धारा को गंगा नदी के नाम से जाना गया। देवप्रयाग समुद्रतल से १५०० फिट की ऊँचाई पर स्थित है और यहां से ऋषिकेश तीर्थस्थल की दूरी मात्र ७० किलोमीटर है। यह स्थल उत्तराखण्ड के पंचप्रयाग में से एक प्रमुख प्रयाग माना जाता है क्योंकि यह तीर्थस्थल भागीरथी एवं अलकनन्दा नदी के संगम पर स्थित है। यह तीर्थस्थल टेहरी से २० किलोमीटर दक्षिण -पूर्व में स्थित है। अलकनंदा नदी उत्तराखण्ड के सतोपंथ और भगीरथ कारक हिमनदों से निकलकर देवप्रयाग तक पहुंचती हैं और भागीरथी नदी में मिलकर आगे की ओर गंगा नदी के नाम से प्रवाहित होती हैं। ऋषिकेश से ७० किलोमीटर सड़कमार्ग से चलकर यहां तक पहुंचा जा सकता है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा देहरादून स्थित जौलीग्रांट है। यह स्थान बद्रीनाथ धाम के पंडों का निवास स्थान भी है। यहां की जनसंख्या अधिक नहीं है। सन् २००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार यहां की जनसंख्या २१४४ थी जिसमें ५२ %पुरुष एवं ४८ %महिलाएं सम्मिलित थीं। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

देवप्रयाग तीर्थ का नामकरण देवशर्मा मुनि के नाम पर किया जाना बताया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि सतयुग में देवशर्मा नामक मुनि ने दस हजार वर्षों तक केवल पत्ते खाकर एवं एक हजार वर्ष तक एक पैर पर खड़े होकर भगवान विष्णु की घोर तपस्या इसी स्थान पर की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु ने देवमुनि से वरदान माँगने को कहा तब देवशर्मा ने यह वरदान माँगा कि भगवन आप कलियुग में इस स्थान को समस्त पापों को नष्ट करने वाला बना दें तथा इस पवित्र क्षेत्र में आप स्वयं निवास करें और हमारी श्रद्धा को अपने चरणों में बनाए रखें। जो भक्त यहां पर आकर आपकी पूजा अर्चना करें उसे परमगति अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो। भगवान विष्णु ने तथास्तु कहते हुए आगे यह  वरदान दिया कि त्रेतायुग में मैं दशरथ पुत्र राम के रूप में अवतार लूंगा तथा रावण एवं अन्य राक्षसों का वध करने के पश्चात किंचित समय तक अयोध्या में रहकर यहीं चला आऊंगा और तबतक तुम इसी स्थान पर निवास करो। त्रेतायुग में जब भगवान राम ने रावण का वध करने के पश्चात अयोध्या में कुछ समय तक राजपाट संभालने के बाद यहां आकर देवशर्मा को दर्शन दिए और कहा कि मुनिवर तुम्हें जीवनमुक्ति प्राप्त हो और यह पुण्य स्थान तीनों लोको में तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध हो। उपरोक्त कथा के अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि जब राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लेने  हेतु भगवान शिव  को सहमत कर लिया तब ३३ करोड़ देवी देवता भी गंगा के साथ पृथ्वी पर आ गए थे और उन्होंने देवप्रयाग को ही अपना निवास स्थान बना लिया था। भागीरथी एवं अलकनन्दा के संगम स्थल देवप्रयाग से पावन गंगा का उदभव हुआ और यहीं से आगे की ओर इनकी संयुक्त धारा गंगा के नाम से प्रवाहित हुई। कहा जाता है कि लंका विजय के पश्चात भगवान राम के अयोध्या लौटने पर जब एक धोबी ने मां सीता के चरित्र एवं उनकी पवित्रता पर सन्देह व्यक्त किया था तब भगवान श्रीराम ने सीता का परित्याग करने का संकल्प लेते हुए भ्राता लक्ष्मण को यह आदेश दिया था कि वे सीता को वन में तुरन्त छोड़ आएं। लक्ष्मण ने सीता जी को  तपोवन के निकट देवप्रयाग से ४ किलोमीटर दूर  जिस  गांव में छोड़ा था उसे बाद में सीताविदा के नाम से जाना गया। यहीं पर सीता जी ने अपने आवास हेतु एक कुटिया बनायी थी जो अब सीतासैण के नाम से जाना जाता है। यहां स्थित मन्दिर में सीता जी की मूर्ति स्थापित की गई है जिसकी स्थानीय लोग आज भी पूजा किया करते हैं। यहीं से सीता जी वाल्मीकि आश्रम आधुनिक कोट महादेव चली गईं थीं। त्रेतायुग युग में भगवान राम द्वारा रावण के वध करने के बाद ब्रह्म हत्या दोष के निवारणार्थ सीता एवं लक्ष्मण के साथ देवप्रयाग में अलकनन्दा एवं भागीरथी के संगम स्थल पर कुछ समय तक निवास किये थे और यहीं पर श्रीराम ने विश्वेशवर लिङ्ग की स्थापना भी की थी। बाद में यहां पर श्रीरघुनाथ जी का मन्दिर बनवाया गया। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

देवप्रयाग मुख्यतः रघुनाथ मंदिर  के कारण ही प्रसिद्ध है। इस मन्दिर के शिखर पर स्वर्ण कलश स्थापित किया गया है  तथा शिखर के नीचे मंदिर के गर्भगृह में भगवान राम की विशाल मूर्ति स्थापित है जिनके दोनों  हाथों एवं चरणों पर आभूषण तथा सिर पर स्वर्ण-मुकुट  रखा गया है। हाथों में धनुषबाण एवं कमर में ढाल से सुसज्जित इस मूर्ति के एक तरफ भ्राता लक्ष्मण एवं दूसरी तरफ मां सीता की भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। मंदिर के बाहर प्रांगण में गरुण की पीतल से निर्मित एक मूर्ति रखी हुई है तथा मंदिर के दाहिनी तरफ बदरीनाथ  महादेव व कालभैरव का मंदिर बना हुआ है। 
यहां पर एक विशाल शिव मंदिर भी बना हुआ है।  देवप्रयाग अपनी प्राकृतिक सम्पदा के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है इसीलिए इसे सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है।  देवप्रयाग में डंडानाग राजमन्दिर और चंद्रवदनी मन्दिर भी दर्शनीय हैं। भागीरथी एवं अलकनन्दा नदी के संगम स्थल के उत्तर में गंगा के तट पर वाराह शिला ,वेताल  शिला ,वशिष्ठ तीर्थ ,पुष्पमाल तीर्थ ,विल्व एवं सूर्य तीर्थ तथा भरत जी का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं एवं संगम के पूर्व में तुण्डीशवर  महादेव स्थित हैं जहां तुंडा नामक भीलनी ने शिव जी की तपस्या की थी।  अलकनंदा के तट पर एक कुंड बना है जिसमें भक्तगण स्नानादि करके मंदिरों में पूजा अर्चना  करते हैं।