Tuesday, March 29, 2016

नैमिषारण्य

नैमिषारण्य परिक्षेत्र को अध्यात्म एवं ज्ञान के केन्द्र के साथ ही साथ ऋषियों एवं मुनियों की पवित्र तपोभूमि  के रूप में जाना जाता है।  इसके नाम से ही ध्वनित होता है कि यह परिक्षेत्र वस्तुतः एक अरण्य क्षेत्र है जहां पूर्व में वृक्षों की प्रधानता थी। एकान्त एवं शांत स्थल होने के कारण ऋषियों एवं मुनियों ने इसे अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा के परिमार्जन हेतु तप करने के अनुकूल पाया था। यहां पर चक्रतीर्थ नाम का एक कुण्ड है जिसे नैमिषारण्य की प्रसिद्धि का प्रमुख कारक माना जाता है।
                नैमिषे चक्रतीर्थे  तु स्नात्वा भरत सत्तमम्।
                सर्व व्याधि विनिर्मुक्तो ,ब्रह्मलोके महीयते।  
 नैमिष का अर्थ चक्र तथा अरण्य का अर्थ वन होता है। इसीलिए नैमिषारण्य को स्वयं ब्रह्मा जी के द्वारा तप ,जप एवं यज्ञ आदि अनुष्ठानों के लिए पावन तपस्थली घोषित की गई। शास्त्रों में इस स्थान को धार्मिक अनुष्ठानों के लिए सर्वोत्कृष्ट स्थान बताया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार नैमिषारण्य परिक्षेत्र में तीन तीर्थस्थल रुद्रावर्त ,ब्रह्मावर्त एवं विष्णुवर्त विद्यमान हैं। सीतापुर जिले में गोमती नदी के किनारे रुद्रावर्त तथा हरदोई जनपद में गोमती नदी के तट पर ब्रह्मावर्त की स्थिति तथा नैमिषारण्य में विष्णुवर्त की स्थिति बतायी गई है। ब्रह्मावर्त तीर्थ के कतिपय अवशेष अभी हाल में ही मनरेगा योजना के अंतर्गत जल संरक्षण के संदर्भ में की गई खुदाई के दौरान प्राप्त हुए हैं। ब्रह्मावर्त के प्राप्त अवशेषों से इसकी पुष्टि हो जाती है। 

भौगोलिक स्थिति :-

पौराणिक आख्यानों के अनुसार यहां पर ८८ हजार ऋषियों ने तपस्या की तिथि और उसी दौरान सम्पन्न यज्ञ में भगवान शिव ,विष्णु एवं ब्रह्मा जी का आह्वान करके उन्हीं के नाम से नैमिषारण्य परिक्षेत्र को तीन भागों में विभक्त कर दिया गया था। सीतापुर एवं हरदोई के मध्य से निकली हुई गोमती नदी के किनारे पर इन तीनों तीर्थों की स्थिति बताई जाती है जैसाकि इस उक्ति से स्पष्ट है :-  
                        तीरथ  वर नैमिष विख्याता ,अति पुनीत साधक सिद्धिदाता। 
नैमिषारण्य उत्तरप्रदेश राज्य के सीतापुर जनपद में लखनऊ से लगभग ८० किलोमीटर दूर गोमती नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा अमौसी लखनऊ है तथा रेलमार्ग से प्रदेश एवं देश के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। नैमिषारण्य राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है तथा सड़कमार्ग द्वारा निकटवर्ती जनपदों एवं प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। यह स्थान नैमिषारण्य रेलवे स्टेशन से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर स्थित है। उत्तररेलवे के अंतर्गत स्थित यह स्टेशन बालामऊ जंक्सन से २६ किलोमीटर की दूरी पर है। बालामऊ से नैमिषारण्य आने के लिए ट्रेन बदलनी पड़ती है। स्टेशन से मात्र डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर चक्रतीर्थ स्थित है। चक्रतीर्थ एक गोलाकार टैंक है जिसमें मध्य से हमेशा एक फौव्वारे द्वारा पानी निकलता रहता है। दर्शनार्थी इसी जल में स्नान करते हैं। नैमिषारण्य का यही प्रमुख तीर्थस्थल कहा जाता है। नैमिषारण्य का परिक्रमा परिक्षेत्र २५० किलोमीटर में फैला है। यह परिक्रमा फाल्गुन की अमावस्या को समाप्त की जाती है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

भगवान सत्यनारायण की कथा के आरम्भ में नैमिषारण्य का स्मरण इस प्रकार किया जाता है :-
          एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः।  
नैमिष की व्युत्पत्ति निमिष शब्द से हुई है जिसका तात्पर्य गौरमुख द्वारा एक निमिष अर्थात पल में असुरों की समस्त सेना का संहार किये  जाने से है। नैमिषारण्य के संबन्ध में कहा जाता है कि इस स्थल पर निमिष नाम के वृक्ष अधिक पाए जाते थे इसीलिए इसका नाम नैमिष पड़  गया।पुराणों में बताया गया है कि असुरों के संहार के समय भगवान विष्णु के चक्र की निमि यहां पर गिर गई थी इसी कारण से इसका नाम नैमिष पड़ा। पुराणों में यह भी उल्लेख है कि समस्त देवता जब भगवान शंकर के साथ भगवान ब्रह्मा के समक्ष उपस्थित होकर असुरों के अत्याचार की व्यथा सुनाई थी तब ब्रह्मा ने देवताओं के रक्षार्थ अपना चक्र छोड़ दिया था और देवताओं को यह निर्देश दिया था कि जहां भी यह चक्र गिरे वहां जाकर तपस्या आरम्भ कर दे।   नैमिष में चक्र गिरने के कारण देवताओं ने यहां पर अपनी तपस्या प्रारम्भ कर  दी थी। कालान्तर में इसे ही चक्रतीर्थ के नाम से जाना गया। इस चक्रतीर्थ का व्यास १२० फिट है तथा इसमें नीचे के  सोतों से पवित्र जल निकलता रहता है और एक नाले के सहारे बाहर निकलता रहता है। मार्कण्डेय पुराण में इसे ८८००० ऋषियों की तपस्थली बताया गया है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्र्वा यहीं पर ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनाया करते थे।   वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड की पुष्पिका में भी नैमिषारण्य का वर्णन मिलता है जिससे विदित होता है कि लव एवं कुश ने गोमती नदी के तट पर राम के अश्वमेध  यज्ञ में सात दिनों तक वाल्मीकि रचित रामायण का सस्वर गान किया था। पुराणों के अनुसार जब महर्षि शौनक ने ब्रह्माजी  की घोर तपस्या की तब ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर उन्हें एक चक्र इस शर्त के साथ प्रदान किया कि वे इसे चलाते हुए आगे बढ़ते जाएँ और जहां पर इस चक्र की नेमि गिर जाये उस स्थल को पवित्र स्थल मानते हुए वहीं पर आश्रम बनकर ज्ञानार्जन करना आरम्भ कर  दें। शौनक के साथ ८८००० ऋषि चक्र लेकर आगे बढे और नैमिष में उस चक्र की नेमि गोमती के तट पर एक तपोवन की धरती में धँस गई। अतः ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार उस स्थल को नैमिष की संज्ञा देते हुए उसे चक्रतीर्थ की मान्यता प्रदान की गई। इस प्रकार गोमती के बांये तट पर स्थित इस चक्रतीर्थ पर सोमवती अमावस्या को मेला लगने लगा। शौनक जी को महर्षि सूत जी ने इसी स्थल पर अठारह पुराणों की कथा सुनायी। द्वापर युग में बलराम जी यहां पर आकर बल्वल नामक राक्षस का बध किया था और यहीं पर एक विशाल यज्ञ का आयोजन भी किया गया था।   
नैमिषारण्य का परिक्षेत्र जिसकी परिक्रमा श्रद्धालुगण किया करते हैं, वह ८४ कोस की है।  प्रत्येक वर्ष फाल्गुन की अमावस्या से पूर्णिमा तक यह परिक्रमा सम्पन्न की जाती है। कहा जाता है कि चौरासी कोस की परिक्रमा से चौरासी लाख योनियों से मुक्ति मिल जाती है।गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है :--                          कहि न जाई नैमिष प्रभुताई ,महिमा जासु पुराणहन गाई।                                                 
 यहां के प्रमुख पावन तीर्थस्थल में पंचप्रयाग ,ललिता  देवी मंदिर ,गोवर्धन महादेव ,क्षेमकाया  मंदिर,हनुमान मन्दिर ,जानकी कुंड ,अन्नपूर्णा मंदिर ,धर्मराज मंदिर व विश्वनाथ जी का मंदिर प्रमुख हैं। शाश्वमेध टीले पर स्थित मंदिर में श्रीकृष्ण एवं पांडवों की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। कहा जाता है कि कलयुग में समस्त तीर्थ नैमिष परिक्षेत्र में ही आकर वास करते हैं जिसके कारण इसे दिव्यभूमि की संज्ञा दी जाती है।इसके सम्बन्ध में कहा गया है :-
                             नैमिषारण्यम प्रथमं नैमिषम पुण्यं ,चक्रतीर्थम च पुष्करम।  

दर्शनीय स्थल :-

नैमिषारण्य के प्रमुख दर्शनीय स्थल चक्रतीर्थ ,व्याास गद्दी ,मनु सतरूपा तपोभूमि ,हनुमानगढ़ी ,सप्त ऋषियों का टीला ,वेदव्यास आश्रम ,पाण्डव किला तथा मुख्य मंदिरों में भूतनाथ महादेव मंदिर ,गोवर्धन महादेव मंदिर ,योगमाया देवी मंदिर ,ललिता देवी मंदिर ,विश्व नाथ  मंदिर एवं अन्नपूर्णा मंदिर हैं।
 चक्रतीर्थ :-   चक्रतीर्थ यहां का प्रमुख धार्मिक स्थल है जो नैमिषारण्य रेलवे स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर एक सरोवर का निर्माण हुआ है जिसका मध्य भाग गोलाकार है तथा निरन्तर इससे जल निकलता रहता है। इस सरोवर की परिधि के समनांतर स्नान करने की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार नैमिषारण्य का पावन तीर्थस्थल चक्रतीर्थ को ही माना जाता है। इसी कुण्ड के निकट ही यात्रियों के विश्राम हेतु कई धर्मशालाएं बनी हुई हैं। ऐसी मान्यता है कि चक्रतीर्थ में पितरों के श्राद्ध करने का सर्वाधिक महत्व है। यहां से ५ किलोमीटर दूर  मिश्रिख में स्थित दधीचि कुण्ड के संबन्ध में बताया गया है कि जब इन्द्र आदि देवताओं ने महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियाँ मांगी थी तब दधीचि ने इसी सरोवर में स्नान करने के पश्चात उन्हें अस्थिदान दिया था। चूँकि ऋषियों द्वारा समस्त तीर्थों का पवित्र जल लाकर इस सरोवर में डाला गया था इसी कारण इस स्थान को मिश्रिख के नाम से जाना गया।
 पंचप्रयाग भी एक सरोवर ही है जिसके किनारे अक्षयवट स्थित है। ललितादेवी नैमिषारण्य का प्रसिद्ध मंदिर है और इसके निकट ही गोवर्धन महादेव ,क्षेमकाया  देवी,जानकी कुण्ड ,हनुमान मंदिर ,अन्नपूर्णा मंदिर धर्मराज मन्दिर तथा विश्व्नाथ जी का मंदिर है।  यहीं पर व्यास जी एवं शुकदेव जी की गद्दी तथा मनु सतरूपा का चबूतरा स्थित है। ब्रह्मावर्त सरोवर जो सम्प्रति सूख गया है तथा उसमें रेत  भर गई है ,यहीं पर स्थित है। पुष्कर सरोवर ,दशाश्व्मेध टीला ,पांडव किला यहां से कुछ दूर पर स्थित है। इसी के निकट स्थित मंदिर में राधाकृष्ण एवं बलराम जी की मूर्तियों के साथ सूत जी की गद्दी स्थित है। 
नैमिषारण्य से ५-६ किलोमीटर की दूरी पर मिश्रिख में स्थित पवित्र तीर्थस्थल में बांके बिहारी का मंदिर ,सीता रसोईं ,सीता कूप ,दधीचि कुण्ड आदि धार्मिक स्थल अवलोकनीय हैं।
दधीचि कुण्ड:- दधीचि कुण्ड के बारे में कहा जाता है कि जब परशुराम जी ने अपना वज्रबाण  दधीचि ऋषि को अर्पित कर तपस्या हेतु हिमालय की ओर प्रस्थान किया था तब जाते समय उनसे यह भी कहा था कि यदि मेरा वज्रबाण खो गया तो तुम्हे घोर अनिष्ट का सामना करना पड़  सकता है। काफी प्रतीक्षा के पश्चात जब परशुराम जी नहीं लौटे तब दधीचि ने उस वज्रबाण को घिसकर उसे पी लिया। वृत्तासुर के वध के लिए जब इन्द्र को वज्रबाण की आवश्यकता हुई तो उन्होंने दधीचि से उस वज्रबाण की जगह पर उनकी हड्डियों की मांग की। दधीचि ने इन्द्र से कहा कि वे उनके शरीर पर पिसा हुआ नमक डालते हुए गायों से उनके शरीर को चटवाएं तो उनकी हड्डियां प्राप्त हो सकती हैं। इन्द्र ने ऐसा ही किया तथा दधीचि की हड्डी से वज्र अस्त्र बनाकर वृत्तासुर का संहार किया। 
नैमिषारण्य को तीर्थराज भी कहा जाता है क्योंकि यहां पर समस्त तीर्थों का जल एकत्रित किये जाने का उल्लेख पुराणों में मिलता है। यहीं पर स्वामी नारदानंद जी महराज का आश्रम भी स्थित है तथा उसी के निकट एक बृह्मचर्य  आश्रम भी स्थित है जहाँ ब्रह्मचारी वैदिक रीति से शिक्षा प्राप्त करते हैं और साधना के उद्देश्य से निवास करते हैं। इसीलिए इस भूमि को दिव्यभूमि कहा जाता है।            

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