Thursday, March 31, 2016

यमुनोत्री

गंगोत्री की भाँति यमुनोत्री भी हिन्दू धर्म का एक ऐसा पवित्र तीर्थस्थल है जो धार्मिक आस्था के साथ साथ अपने अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए भी जाना जाता है। यद्यपि यहां स्थित प्राचीन मन्दिर भूकम्प के प्रभाव से नष्ट हो चुके हैं किन्तु इसका अस्तित्व बनाये रखने हेतु इसका पुनर्निर्माण  कराया गया। यहां का मुख्य मन्दिर यमुना देवी का मन्दिर है। यह चारों धामों में से प्रथम धाम कहा जाने वाला पावन धर्मस्थल है और यहीं से एक किलोमीटर ऊपर कालिन्दी पर्वत समूह से यमुना नदी निकली हुई हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तराखण्ड राज्य में उत्तरकाशी जिले में स्थित यह पावन स्थल समुद्रतल से १०००० फुट की ऊँचाई पर गढ़वाल मण्डल की हिमालय श्रृंखलाओं में स्थित है। चूँकि कालिन्दी पर्वत श्रृंखलायें एक दुर्गम क्षेत्र है अतः यहां तक पहुँचना प्रायः दुष्कर होता है। ऋषिकेश से २ किलोमीटर दूर मुनि की रेती से एक मार्ग गंगोत्री एवं यमुनोत्री के लिए जाता है और मार्ग दूसरा बद्रीनाथ एवं केदारनाथ के लिए जाता है।  टिहरी से मुख्यतः तीन मार्ग निकलते हैं प्रथम मार्ग देवप्रयाग की ओर, द्वितीय मार्ग उत्तरकाशी की ओर एवं तृतीय मार्ग श्रीनगर की ओर निकलता है।टिहरी से ३७ किलोमीटर की दूरी पर धरासू से एक मार्ग उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री के लिए जाता है और दूसरा मार्ग हनुमान चट्टी होते हुए यमुनोत्री की ओर जाता है। धरासू से २४ किलोमीटर दूरी पर स्यानचट्टी  गांव है जो घने जंगल के मध्य बसा हुआ है। स्यानचट्टी से ५ किलोमीटर की दूरी पर हनुमानचट्टी है। मोटर मार्ग  यहीं पर समाप्त हो जाता है अतः ७ किलोमीटर पैदल चलकर जमनाबाई कुण्ड होते हुए आगे ६ किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर यमुनोत्री तक पहुंचा जा सकता है जबकि हल्के वाहनों से जानकीचट्टी तक ही पहुंचा जा सकता है। यमुनोत्री मन्दिर ३२३५ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जिसके प्रांगण में एक विशाल शिला स्तम्भ जिसे दिव्यशिला के नाम से जाना जाता है ,स्थित है।प्रत्येक वर्ष  मई से अक्टूबर के मध्य यहां दर्शनार्थ यात्री आते हैं। यमुनोत्री तक पहुँचने के लिए  ऋषिकेश १५ मील ,रिष्कष से देवप्रयाग ४४ मील देवप्रयाग से खरसोला १० मील ,खरसोला से टेहरी २४ मील ,टेहरी से धरासू २४ मील ,धरासू से डंडलगांव १७ मील ,डंडलगांव से गंगैनी ४ मील ,गंगैनी से हनुमानचट्टी १५ मील हनुमानचट्टी से यमुनोत्री ८ मील अर्थात कुल १६२ मील चलकर यहां तक पहुंचा जा सकता है।  

पौराणिक साक्ष्य :-

यमुनोत्री तीर्थस्थली यमुना नदी के उदगम स्थल से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जो गढ़वाल हिमालय के पश्चिमी भाग में पड़ता है। यमुनोत्री का उदगम स्थल प्रायः हिमाच्छादित रहता है। यहां पर एक झील और हिमनद चंपासर ग्लेशियर समुद्रतल से ४४२१ मीटर की ऊँचाई पर कालिंदी पर्वत पर स्थित है। यहां स्थित मन्दिर का निर्माण टिहरी गढ़वाल के राजा प्रतापशाह द्वारा कराया गया था। पौराणिक आख्यानों के अनुसार असित मुनि की पर्णकुटी इसी स्थान पर थी। अत्यधिक वृद्धावस्था में जब असित मुनि निकटवर्ती सप्तऋषि कुंड सरोवर में स्नान करने में अस्मर्थ हो गए थे तब उनकी अपार श्रद्धा के कारण यमुना जी यहां स्वयं प्रकट हो गईं थीं और उन्हें स्नान करने का अवसर प्रदान किया था। यह स्थान सम्प्रति यमुनोत्री के नाम से जाना जाता है। यमुनोत्री में गर्म पानी के कई कुण्ड हैं जिनके गर्म पानी में कपड़े में बंधा हुआ आलू व चावल आदि  खाद्य सामग्री को पकाया जाता है। इसी पके हुए प्रसाद को मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसे ही श्रद्धालुगण अपने घर ले जाते हैं।  माह मई -जून में अपेक्षाकृत यहां पर अधिक भीड़ देखने को मिलती  है। अतः प्रकृति के वरदान स्वरूप एक तरफ यमुनोत्री की शीतलधारा और दूसरी तरफ गर्म जल के कुण्ड को देखकर श्रद्धालु  आश्चर्यचकित हो जाते हैं।  

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यमुना देवी के मन्दिर तक चढ़ाई का मार्ग अत्यधिक दुर्गम व रोमांचकारी है। चढ़ाई के समय आस पास की पर्वतीय चोटियों एवं घने जंगल की हरियाली मन को सहज ही आकर्षित कर  लेती हैं। ऋषिकेश से सड़क मार्ग द्वारा २२० किलोमीटर की दूरी तय करके यमुनोत्री तक पहुंचा जा सकता है। यहां पर चढ़ाई के लिए तीर्थयात्रियों को कुली एवं किराए की पालकी आसानी से मिल जाती  हैं। मुख्य मंदिर के आस पास कई अन्य मंदिर भी बने हुए हैं। मंदिर के पास ही स्नान के लिए गर्म जल के सोते एवं कुण्ड उपलब्ध हैं। इन कुण्डों में सूर्यकुण्ड सर्वप्रमुख कुण्ड है। यमुनोत्री का मुख्य मन्दिर मां यमुना को समर्पित है। अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर यमुनोत्री का कपाट खुलता है और दीपावली के पर्व पर कपाट बन्द हो जाता है। सूर्यकुण्ड के निकट ही एक शिला दिव्यशिला के नाम से स्थित है। मां यमुना के दर्शन एवं पूजन के पूर्व इस शिला का भी पूजन किया जाता है। 
यमुनोत्री धाम में गर्मी की ऋतु  में दिन का अधिकतम तापमान २० सेंटीग्रेड होने के कारण मौसम सुहाना और रात्रि में न्यूनतम तापमान ०६ सेंटीग्रेड होने के कारण अपेक्षाकृत सर्दी पड़ती है। यात्रियों को ठहरने व विश्राम के लिए कई धर्मशालाएं व निजी विश्रामगृह यहां पर उपलब्ध हैं। यहां पर हिन्दी ,अंग्रेजी एवं गढ़वाली भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। तीर्थयात्रा का उपयुक्त समय अप्रैल से नवंबर का महीना माना जाता है। दिसंबर से मार्च तक यहां का पूरा क्षेत्र हिमाच्छादित रहता है। 
यमुनोत्री की यात्रा हेतु देहरादून स्थित जौलीग्रांट निकटतम हवाई अड्डा है। सड़कमार्ग द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 1 ए होकर २१० किलोमीटर चलकर यमुनोत्री तक पहुंचा जा सकता है। रेलमार्ग द्वारा निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश है जहां से २३१ किलोमीटर मार्ग संख्या 1 ए पर चलकर टैक्सी अथवा निजी कार से यहां पहुंचा जा सकता है। ऋषिकेश से बस अथवा टैक्सी द्वारा नरेंद्रनगर होते हुए २२८ किलोमीटर यात्रा करके फूलचट्टी तक पहुंचकर आगे की ८ किलोमीटर की यात्रा पैदल चढ़ाई चढ़कर सम्पन्न की जाती है। मार्ग संख्या २ ए द्वारा हरिद्वार से ऋषिकेश होते हुए फूलचट्टी तक २५२ किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। फूलचट्टी से ८ किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर यमुनोत्री के दर्शन किये जा सकते हैं। मार्ग पर आस पास गगनचुम्बी मनमोहक बर्फीली चोटियों के दर्शन होते हैं।       

Wednesday, March 30, 2016

गंगोत्री

मुख्यतः गंगोत्री को गंगा नदी के उदगम स्थल के रूप में जाना जाता है। इसे हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थ के रूप में  भी मान्यता प्राप्त है। प्रत्येक वर्ष लाखों श्रद्धालु एवं पर्यटक यहां दर्शनार्थ आते रहते हैं। भागीरथी नदी के किनारे बने गंगोत्री धाम मंदिर का निर्माण अठारहवीं शताब्दी में गोरखा रेजीमेन्ट के जनरल अमरसिंह द्वारा किया गया था। यमुनोत्री की भाँति ही गंगोत्री का मंदिर भी अक्षय तृतीया  के पर्व पर श्रद्धालु भक्तों के दर्शनार्थ खोल जाता है और दीपावली को कपाट बंद कर दिए जाते हैं। यहां से शिवलिंग ,सुदर्शन ,भागीरथी तथा केदारडोम की हिमाच्छादित चोटियां स्पष्ट देखी जा सकती हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तराखण्ड राज्य के हिमालय श्रंखला क्षेत्र में समुद्र तल से ३२०० मीटर की ऊँचाई पर गंगोत्री धाम स्थित है। उत्तरकाशी से १०० किलोमीटर दूर स्थित गंगोत्री धाम  को प्राकृतिक सौन्दर्य एवं आस्था का प्रमुख केंद्र माना जाता है। गंगोत्री मन्दिर का पुनरोद्धार जयपुर राजघराने के राजा माधो सिंह ने बींसवी शताब्दी में करवाया था। इस मन्दिर के आस-पास अनेकों आश्रम ,धर्मशालाएं एवं होटल बने हुए हैं जिनमें यात्रियों के ठहरने की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है। इससे थोड़ी ही दूर पर गौरीकुण्ड एवं केदारकुण्ड स्थित हैं। मन्दिर से १८ किलोमीटर की दूरी पर गोमुख जो गंगा नदी का उदगम स्थल है ,स्थित है। भागीरथी घाटी जो भोज वृक्षों से घिरी हुई है ,के उत्तरी भाग में शिवलिंग एवं सतोपथ की चोटियां दिखलायी पड़ती हैं। घाटी के बाहर केदारगंगा तथा भागीरथी होते हुए जल गंगा नदी में प्रवाहित होता है। नदी के दोनों किनारों पर कई मन्दिर बने हुए हैं। यह वही  स्थल है जहाँ से गंगा हिमखण्डों के गर्भ से बाहर अाकर अपनीआगे की यात्रा आरम्भ करती हैं।यमुनोत्री से गंगोत्री तक पहुँचने के लिए ८ मील चलकर हनुमानचट्टी और हनुमानचट्टी से १७ मील चलकर सिमली ,सिमली से कोरी ११ मील ,कोरी से उत्तरकाशी १० मील ,उत्तरकाशी से झाला ३८ मील ,झाला से भैरवघाटी १० मील और भैरवघाटी से ६ मील चलकर गंगोत्री पहुंचा जा सकता है।  

पौराणिक साक्ष्य एवं कथायें :-

पौराणिक कथाओं से विदित होता है कि भगवान श्रीराम के पूर्वज राजा भगीरथ यहीं पर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की थी। इसी स्थान पर १८ वीं शताब्दी में एक मंदिर का निर्माण हुआ था और मां गंगा इसी स्थान से चलकर मैदानी क्षेत्र में आगे बढ़ती हैं। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में मारे गए अपने परिवार के सदस्यों की मुक्ति के लिए पाण्डवों ने इसी स्थान पर एक  बहुत बड़ा यज्ञ किया था।  गंगोत्री का  यह पावन मन्दिर सफेद ग्रेनाइट के बीस फिट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। 
गंगोत्री स्थल पर दृष्टिपात करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भगवान शिव यहां पर अपनी जटाओं को बिखेरते हुए आज भी तपस्यारत हैं। भगवान शिव की जटाओं से गंगा के उदगम की अनुभूति भी यहां आने पर होती है जैसाकि पौराणिक आख्यानों में राजा भगीरथ के प्रयास /अनुरोध पर भगवान शिव द्वारा अपनी जटाओं से गंगा को छोड़ने का प्रसंग मिलता है। मंदिर के आस-पास गंगोत्री नगर का विकास ७०० वर्ष पूर्व का बताया जाता है। चूँकि पहले चारधामों की यात्रा पैदल ही श्रद्धालु पूर्ण करते थे और उन दिनों चढ़ाई भी कठिन थी।  इसीलिए वर्ष १९८० में गंगोत्री में सड़कों का निर्माण किया गया और धीरे धीरे शहर का उत्तरोत्तर विकास भी होता गया जिसके कारण यात्रा भी अपेक्षाकृत सरल व सुगम हो गई। सर्दियों में जब गंगा जी के जल का स्तर नीचे चला जाता है तब वहां पावन शिवलिंग के दर्शन होने लगते हैं। गंगोत्री के निकट श्याम प्रयाग ,धराली तथा मुखवा गांव स्थित है। कहा जाता है कि जब गंगोत्री मन्दिर का निर्माण नहीं हुआ था, तब तीन चार महीनों के लिए इन गांवों से देवी देवताओं की मूर्तियां यहां एक शिलाखण्ड पर रख दी जाती थीं जिसका दर्शन श्रद्धालुगण किया करते थे और शीत ऋतु आने के पूर्व ही उसे वहीं पर वापस पहुंचा दिया जाता था। 

गंगोत्री यात्रा का समय :-

प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर माह के मध्य दर्शनार्थी यहां उपस्थित होते हैं। ग्रीष्म ऋतु का मौसम यहां पर अत्यन्त सुहावना हो जाता है किन्तु रात्रि के समय सर्दी का अनुभव अवश्य होता है। यहां का न्यूनतम तापमान ६ सेंटीग्रेड तथा अधिकतम तापमान २० सेंटीग्रेड रहता है। दिसंबर से मार्च तक यह क्षेत्र हिमाच्छादित रहता है और तापमान शून्य डिग्री से नीचे चला जाता है। देवदार के वृक्षों से घिरी हुई घाटियों के मध्य गंगा का प्रवाह अत्यन्त मनोहारी लगने लगता है। गंगोत्री से १९ किलोमीटर दूर ३८९२ मीटर की ऊँचाई पर गोमुख स्थित है जो भागीरथी नदी का उदगम स्थल माना जाता है। मान्यता है कि इसके ठंडे जल में स्नान करने से सभी व्याधियां और पाप स्वतः समाप्त हो जाते हैं। गंगोत्री से गोमुख तक की यात्रा पैदल अथवा टट्टुओं पर सवार होकर की जा सकती है। चढ़ाई अधिक कठिन नहीं है। अतः पैदल चलकर भी उसी दिन वापस आया जा सकता है। गोमुख २५ किलोमीटर लम्बा ,४ किलोमीटर चौड़ा एवं लगभग ४० मीटर ऊँचा है। इसी गोमुख में स्थित एक गुफा से भागीरथी नदी का अवतरण होता है। 

जीवजन्तु एवं वनस्पतियाँ :-

मुख्य रूप से यहां पर बलूत ,कुराँस एवं नील देवदार के वृक्ष पाए जाते हैं। गंगोत्री क्षेत्र में प्रायः लंगूर लाल बन्दर ,चीते ,हिरण ,कस्तूरी मृग ,भूरे भालू ,लोमणी ,सेरो, मृग ,साही व तहर देखे जाते हैं। विभिन्न रंग के मनमोहक पक्षी यथा हंसोड़ ,कोकल ,तीतर ,सारिकाएं ,साखिये ,मोनाल पक्षी दिखलायी पड़ते हैं। यहां के स्थानीय निवासी गढ़वाली हैं जो स्थानीय भाषा के अतिरिक्त हिंदी ,अंग्रेजी भी बोल लेते हैं। यहां स्थित भोजवासा में कभी भोजपत्रों का घना जंगल हुआ करता था इसीलिए इसे भोजवासा के नाम से भी जाना जाता है। हजारों वर्ष पूर्व जब कागज का अविष्कार नहीं हुआ था तब भोजपत्र पर ही लिखा जाता था। अब भोजपत्र के जंगल यत्र तत्र  ही दिखलायी पड़ते हैं। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

गंगोत्री के निकट बसे हुए मुखवा गांव के लोग इस मन्दिर के पुजारी नियुक्त किये जाते हैं। इसके निकट ही मार्कण्डेयपुरी जहां मार्कण्डेय मुनि ने तप किया था तथा मातंग ऋषि यहां वर्षों बिना कुछ खाये पिए तपस्या किया करते थे। गंगोत्री से ९ किलोमीटर दूर भैरों घटी है जहां तेज बहाव के साथ भागीरथी आगे बढ़ती हुई दिखाई पड़ती हैं। यहां से भृगु पर्वत श्रृंखला सुदर्शन मातृ तथा चीड़वाला चोटियां स्पष्ट दिखायी पड़ती हैं। गंगोत्री के निकट ही २० किलोमीटर की दूरी पर हर्षिल नामक स्थान भागीरथी नदी के किनारे जलन घाटी के संगम पर स्थित है। बसपा घाटी से हर्षिल दर्रे के द्वारा यह जुड़ा हुआ है। मातृ एवं कैलाश चोटी के अतिरिक्त श्रीकण्ठ की चोटी यहां दूर दूर तक फैली हुई हैं। यह क्षेत्र मीठे सेव व वनस्पतियों के लिए प्रसिद्ध है। गंगोत्री के निकट २५ किलोमीटर की दूरी पर नन्दनवन तपोवन स्थित है। यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है। 
वैसे तो गंगोत्री का इतिहास बहुत ही पुराना है किन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार यह ७०० वर्ष से अधिक पूर्ण प्रतीत होता है। इसे मुखवा एवं मतंग ऋषि की तपस्थली के रूप में जाना जाता है। गंगोत्री से ९ किलोमीटर दूर गंगोत्री चिरवासा ,१४ किलोमीटर दूर गंगोत्री भोजवासा स्थित है। यहां से १४ किलोमीटर की दूरी पर केदारताल स्थित है जहां मनोरम झील के दर्शन होते हैं। यह झील पूर्णतयः साफ सुथरी एवं इसका जल अत्यन्त स्वच्छ दिखायी पड़ता है। शीतऋतु  के प्रारम्भ में देवी गंगा अपने निवास स्थान मुखवा गांव की ओर प्रस्थान करती हैं  और अक्षय द्वितीया के दिन वापस आ जाती हैं। इसके अगले दिन अक्षय तृतीया से यहां उत्सव प्रारम्भ हो जाता है। समुद्रतट से ऊँचाई बहुत अधिक होने के कारण यहां माह अक्टूबर के पश्चात भारी हिमपात होता है और हिमपात के कारण ही आवागमन के सभी रास्ते बन्द हो जाते हैं।    

Tuesday, March 29, 2016

नैमिषारण्य

नैमिषारण्य परिक्षेत्र को अध्यात्म एवं ज्ञान के केन्द्र के साथ ही साथ ऋषियों एवं मुनियों की पवित्र तपोभूमि  के रूप में जाना जाता है।  इसके नाम से ही ध्वनित होता है कि यह परिक्षेत्र वस्तुतः एक अरण्य क्षेत्र है जहां पूर्व में वृक्षों की प्रधानता थी। एकान्त एवं शांत स्थल होने के कारण ऋषियों एवं मुनियों ने इसे अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा के परिमार्जन हेतु तप करने के अनुकूल पाया था। यहां पर चक्रतीर्थ नाम का एक कुण्ड है जिसे नैमिषारण्य की प्रसिद्धि का प्रमुख कारक माना जाता है।
                नैमिषे चक्रतीर्थे  तु स्नात्वा भरत सत्तमम्।
                सर्व व्याधि विनिर्मुक्तो ,ब्रह्मलोके महीयते।  
 नैमिष का अर्थ चक्र तथा अरण्य का अर्थ वन होता है। इसीलिए नैमिषारण्य को स्वयं ब्रह्मा जी के द्वारा तप ,जप एवं यज्ञ आदि अनुष्ठानों के लिए पावन तपस्थली घोषित की गई। शास्त्रों में इस स्थान को धार्मिक अनुष्ठानों के लिए सर्वोत्कृष्ट स्थान बताया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार नैमिषारण्य परिक्षेत्र में तीन तीर्थस्थल रुद्रावर्त ,ब्रह्मावर्त एवं विष्णुवर्त विद्यमान हैं। सीतापुर जिले में गोमती नदी के किनारे रुद्रावर्त तथा हरदोई जनपद में गोमती नदी के तट पर ब्रह्मावर्त की स्थिति तथा नैमिषारण्य में विष्णुवर्त की स्थिति बतायी गई है। ब्रह्मावर्त तीर्थ के कतिपय अवशेष अभी हाल में ही मनरेगा योजना के अंतर्गत जल संरक्षण के संदर्भ में की गई खुदाई के दौरान प्राप्त हुए हैं। ब्रह्मावर्त के प्राप्त अवशेषों से इसकी पुष्टि हो जाती है। 

भौगोलिक स्थिति :-

पौराणिक आख्यानों के अनुसार यहां पर ८८ हजार ऋषियों ने तपस्या की तिथि और उसी दौरान सम्पन्न यज्ञ में भगवान शिव ,विष्णु एवं ब्रह्मा जी का आह्वान करके उन्हीं के नाम से नैमिषारण्य परिक्षेत्र को तीन भागों में विभक्त कर दिया गया था। सीतापुर एवं हरदोई के मध्य से निकली हुई गोमती नदी के किनारे पर इन तीनों तीर्थों की स्थिति बताई जाती है जैसाकि इस उक्ति से स्पष्ट है :-  
                        तीरथ  वर नैमिष विख्याता ,अति पुनीत साधक सिद्धिदाता। 
नैमिषारण्य उत्तरप्रदेश राज्य के सीतापुर जनपद में लखनऊ से लगभग ८० किलोमीटर दूर गोमती नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा अमौसी लखनऊ है तथा रेलमार्ग से प्रदेश एवं देश के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। नैमिषारण्य राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है तथा सड़कमार्ग द्वारा निकटवर्ती जनपदों एवं प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। यह स्थान नैमिषारण्य रेलवे स्टेशन से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर स्थित है। उत्तररेलवे के अंतर्गत स्थित यह स्टेशन बालामऊ जंक्सन से २६ किलोमीटर की दूरी पर है। बालामऊ से नैमिषारण्य आने के लिए ट्रेन बदलनी पड़ती है। स्टेशन से मात्र डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर चक्रतीर्थ स्थित है। चक्रतीर्थ एक गोलाकार टैंक है जिसमें मध्य से हमेशा एक फौव्वारे द्वारा पानी निकलता रहता है। दर्शनार्थी इसी जल में स्नान करते हैं। नैमिषारण्य का यही प्रमुख तीर्थस्थल कहा जाता है। नैमिषारण्य का परिक्रमा परिक्षेत्र २५० किलोमीटर में फैला है। यह परिक्रमा फाल्गुन की अमावस्या को समाप्त की जाती है।  

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

भगवान सत्यनारायण की कथा के आरम्भ में नैमिषारण्य का स्मरण इस प्रकार किया जाता है :-
          एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः।  
नैमिष की व्युत्पत्ति निमिष शब्द से हुई है जिसका तात्पर्य गौरमुख द्वारा एक निमिष अर्थात पल में असुरों की समस्त सेना का संहार किये  जाने से है। नैमिषारण्य के संबन्ध में कहा जाता है कि इस स्थल पर निमिष नाम के वृक्ष अधिक पाए जाते थे इसीलिए इसका नाम नैमिष पड़  गया।पुराणों में बताया गया है कि असुरों के संहार के समय भगवान विष्णु के चक्र की निमि यहां पर गिर गई थी इसी कारण से इसका नाम नैमिष पड़ा। पुराणों में यह भी उल्लेख है कि समस्त देवता जब भगवान शंकर के साथ भगवान ब्रह्मा के समक्ष उपस्थित होकर असुरों के अत्याचार की व्यथा सुनाई थी तब ब्रह्मा ने देवताओं के रक्षार्थ अपना चक्र छोड़ दिया था और देवताओं को यह निर्देश दिया था कि जहां भी यह चक्र गिरे वहां जाकर तपस्या आरम्भ कर दे।   नैमिष में चक्र गिरने के कारण देवताओं ने यहां पर अपनी तपस्या प्रारम्भ कर  दी थी। कालान्तर में इसे ही चक्रतीर्थ के नाम से जाना गया। इस चक्रतीर्थ का व्यास १२० फिट है तथा इसमें नीचे के  सोतों से पवित्र जल निकलता रहता है और एक नाले के सहारे बाहर निकलता रहता है। मार्कण्डेय पुराण में इसे ८८००० ऋषियों की तपस्थली बताया गया है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्र्वा यहीं पर ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनाया करते थे।   वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड की पुष्पिका में भी नैमिषारण्य का वर्णन मिलता है जिससे विदित होता है कि लव एवं कुश ने गोमती नदी के तट पर राम के अश्वमेध  यज्ञ में सात दिनों तक वाल्मीकि रचित रामायण का सस्वर गान किया था। पुराणों के अनुसार जब महर्षि शौनक ने ब्रह्माजी  की घोर तपस्या की तब ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर उन्हें एक चक्र इस शर्त के साथ प्रदान किया कि वे इसे चलाते हुए आगे बढ़ते जाएँ और जहां पर इस चक्र की नेमि गिर जाये उस स्थल को पवित्र स्थल मानते हुए वहीं पर आश्रम बनकर ज्ञानार्जन करना आरम्भ कर  दें। शौनक के साथ ८८००० ऋषि चक्र लेकर आगे बढे और नैमिष में उस चक्र की नेमि गोमती के तट पर एक तपोवन की धरती में धँस गई। अतः ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार उस स्थल को नैमिष की संज्ञा देते हुए उसे चक्रतीर्थ की मान्यता प्रदान की गई। इस प्रकार गोमती के बांये तट पर स्थित इस चक्रतीर्थ पर सोमवती अमावस्या को मेला लगने लगा। शौनक जी को महर्षि सूत जी ने इसी स्थल पर अठारह पुराणों की कथा सुनायी। द्वापर युग में बलराम जी यहां पर आकर बल्वल नामक राक्षस का बध किया था और यहीं पर एक विशाल यज्ञ का आयोजन भी किया गया था।   
नैमिषारण्य का परिक्षेत्र जिसकी परिक्रमा श्रद्धालुगण किया करते हैं, वह ८४ कोस की है।  प्रत्येक वर्ष फाल्गुन की अमावस्या से पूर्णिमा तक यह परिक्रमा सम्पन्न की जाती है। कहा जाता है कि चौरासी कोस की परिक्रमा से चौरासी लाख योनियों से मुक्ति मिल जाती है।गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है :--                          कहि न जाई नैमिष प्रभुताई ,महिमा जासु पुराणहन गाई।                                                 
 यहां के प्रमुख पावन तीर्थस्थल में पंचप्रयाग ,ललिता  देवी मंदिर ,गोवर्धन महादेव ,क्षेमकाया  मंदिर,हनुमान मन्दिर ,जानकी कुंड ,अन्नपूर्णा मंदिर ,धर्मराज मंदिर व विश्वनाथ जी का मंदिर प्रमुख हैं। शाश्वमेध टीले पर स्थित मंदिर में श्रीकृष्ण एवं पांडवों की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। कहा जाता है कि कलयुग में समस्त तीर्थ नैमिष परिक्षेत्र में ही आकर वास करते हैं जिसके कारण इसे दिव्यभूमि की संज्ञा दी जाती है।इसके सम्बन्ध में कहा गया है :-
                             नैमिषारण्यम प्रथमं नैमिषम पुण्यं ,चक्रतीर्थम च पुष्करम।  

दर्शनीय स्थल :-

नैमिषारण्य के प्रमुख दर्शनीय स्थल चक्रतीर्थ ,व्याास गद्दी ,मनु सतरूपा तपोभूमि ,हनुमानगढ़ी ,सप्त ऋषियों का टीला ,वेदव्यास आश्रम ,पाण्डव किला तथा मुख्य मंदिरों में भूतनाथ महादेव मंदिर ,गोवर्धन महादेव मंदिर ,योगमाया देवी मंदिर ,ललिता देवी मंदिर ,विश्व नाथ  मंदिर एवं अन्नपूर्णा मंदिर हैं।
 चक्रतीर्थ :-   चक्रतीर्थ यहां का प्रमुख धार्मिक स्थल है जो नैमिषारण्य रेलवे स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर एक सरोवर का निर्माण हुआ है जिसका मध्य भाग गोलाकार है तथा निरन्तर इससे जल निकलता रहता है। इस सरोवर की परिधि के समनांतर स्नान करने की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार नैमिषारण्य का पावन तीर्थस्थल चक्रतीर्थ को ही माना जाता है। इसी कुण्ड के निकट ही यात्रियों के विश्राम हेतु कई धर्मशालाएं बनी हुई हैं। ऐसी मान्यता है कि चक्रतीर्थ में पितरों के श्राद्ध करने का सर्वाधिक महत्व है। यहां से ५ किलोमीटर दूर  मिश्रिख में स्थित दधीचि कुण्ड के संबन्ध में बताया गया है कि जब इन्द्र आदि देवताओं ने महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियाँ मांगी थी तब दधीचि ने इसी सरोवर में स्नान करने के पश्चात उन्हें अस्थिदान दिया था। चूँकि ऋषियों द्वारा समस्त तीर्थों का पवित्र जल लाकर इस सरोवर में डाला गया था इसी कारण इस स्थान को मिश्रिख के नाम से जाना गया।
 पंचप्रयाग भी एक सरोवर ही है जिसके किनारे अक्षयवट स्थित है। ललितादेवी नैमिषारण्य का प्रसिद्ध मंदिर है और इसके निकट ही गोवर्धन महादेव ,क्षेमकाया  देवी,जानकी कुण्ड ,हनुमान मंदिर ,अन्नपूर्णा मंदिर धर्मराज मन्दिर तथा विश्व्नाथ जी का मंदिर है।  यहीं पर व्यास जी एवं शुकदेव जी की गद्दी तथा मनु सतरूपा का चबूतरा स्थित है। ब्रह्मावर्त सरोवर जो सम्प्रति सूख गया है तथा उसमें रेत  भर गई है ,यहीं पर स्थित है। पुष्कर सरोवर ,दशाश्व्मेध टीला ,पांडव किला यहां से कुछ दूर पर स्थित है। इसी के निकट स्थित मंदिर में राधाकृष्ण एवं बलराम जी की मूर्तियों के साथ सूत जी की गद्दी स्थित है। 
नैमिषारण्य से ५-६ किलोमीटर की दूरी पर मिश्रिख में स्थित पवित्र तीर्थस्थल में बांके बिहारी का मंदिर ,सीता रसोईं ,सीता कूप ,दधीचि कुण्ड आदि धार्मिक स्थल अवलोकनीय हैं।
दधीचि कुण्ड:- दधीचि कुण्ड के बारे में कहा जाता है कि जब परशुराम जी ने अपना वज्रबाण  दधीचि ऋषि को अर्पित कर तपस्या हेतु हिमालय की ओर प्रस्थान किया था तब जाते समय उनसे यह भी कहा था कि यदि मेरा वज्रबाण खो गया तो तुम्हे घोर अनिष्ट का सामना करना पड़  सकता है। काफी प्रतीक्षा के पश्चात जब परशुराम जी नहीं लौटे तब दधीचि ने उस वज्रबाण को घिसकर उसे पी लिया। वृत्तासुर के वध के लिए जब इन्द्र को वज्रबाण की आवश्यकता हुई तो उन्होंने दधीचि से उस वज्रबाण की जगह पर उनकी हड्डियों की मांग की। दधीचि ने इन्द्र से कहा कि वे उनके शरीर पर पिसा हुआ नमक डालते हुए गायों से उनके शरीर को चटवाएं तो उनकी हड्डियां प्राप्त हो सकती हैं। इन्द्र ने ऐसा ही किया तथा दधीचि की हड्डी से वज्र अस्त्र बनाकर वृत्तासुर का संहार किया। 
नैमिषारण्य को तीर्थराज भी कहा जाता है क्योंकि यहां पर समस्त तीर्थों का जल एकत्रित किये जाने का उल्लेख पुराणों में मिलता है। यहीं पर स्वामी नारदानंद जी महराज का आश्रम भी स्थित है तथा उसी के निकट एक बृह्मचर्य  आश्रम भी स्थित है जहाँ ब्रह्मचारी वैदिक रीति से शिक्षा प्राप्त करते हैं और साधना के उद्देश्य से निवास करते हैं। इसीलिए इस भूमि को दिव्यभूमि कहा जाता है।            

Monday, March 21, 2016

अयोध्या

प्राचीन भारत में कोसल के नाम से प्रसिद्ध नगर को सम्प्रति अयोध्या के नाम से जाना जाता है। इक्ष्वाकु से श्रीरामचन्द्र तक सभी चक्रवर्ती राजाओं ने अयोध्या के सिहासन को विभूषित किया है। प्रथम बार इसे मनु ने बसाया था जैसा कि "मनुना मान्वेंद्रेण सा पुरी निर्मितां स्वयम "उक्ति से स्वतः स्पष्ट  है।   हिन्दुओं के सात पवित्र धार्मिक तीर्थस्थलों अर्थात सप्तपुरियों में से अयोध्या प्रमुख एवं प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि होने के कारण एवं प्राचीन समय से ही उच्चकोटि के संतों की साधना -भूमि के रूप में अयोध्या जानी जाती रही है। पहले यह कोसल जनपद की राजधानी थी। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल ९६ वर्गमील था। इस प्राचीन नगर के अवशेष सम्प्रति खण्डहर के रूप में परिवर्तित हो गए हैं।उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत के सभी प्रांतों से भी यह रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। यह नगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। प्रतिवर्ष  यहां लाखों पर्यटक एवं  श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते है। अयोध्या को साकेत एवं अवध के नाम से भी जाना जाता है। अयोध्या शब्द की व्युत्पत्ति "अ "अकार ब्रह्मा, "य" यकार विष्णु एवं "ध" धकार रूद्र के स्वरूप से हुई है। 
               अकारो ब्रह्मा च प्रोक्तं यकारो विष्णुरुच्यते। 
                धकारो  रुद्रयश्च  अयोध्या नाम  राजते। 
सम्प्रति वर्तमान अयोध्या एवं प्राचीन अयोध्या की एकरूपता केवल अयोध्या की पावन भूमि व सरयू नदी ही है। शेष सभी कुछ परिवर्तित हो चुका है।    

भौगोलिक स्थिति :- 

उत्तरप्रदेश राज्य के फ़ैजाबाद जिले के अन्तर्गत यह नगर सरयू नदी जो तीन ओर अयोध्या से घिरी हैं, के किनारे पर बसा हुआ अति प्राचीन नगर है।  अयोध्या का निकटतम हवाई अड्डा अमौसी, लखनऊ जो यहां से लगभग १४० किलोमीटर दूर है, में स्थित है।  अयोध्या का निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन फ़ैजाबाद हैजो उत्तरप्रदेश एवं भारत के अन्य प्रान्तों से यह रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। अयोध्या रेलवे स्टेशन पर मुगलसरायं, वाराणसी एवं लखनऊ से सीधे गाड़ियां आती हैं। यहां से सरयू जी ५-६ किलोमीटर की दूरी तथा कनकभवन ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।  यह नगर राष्ट्रीय राजमार्ग व अन्य राजमार्गों से भारत के समस्त प्रमुख नगरों से भी जुड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बसों द्वारा प्रदेश के समस्त निकटवर्ती प्रमुख शहरों से सीधे यहां पहुंचा जा सकता है। गोरखपुर एवं लखनऊ से यहां राष्ट्रीय राजमार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। वाराणसी से यह ३२४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

स्कन्दपुराण के अनुसार "श्रीराम धनुषाग्ररथ अयोध्या सा महापुरी "है। पौराणिक ग्रन्थों में उपलब्ध अभिलेखानुसार त्रेता युग में भगवान विष्णु ने महाराजा दशरथ के पुत्र राम के रूप में अयोध्या में जन्म लिए थे, इसीलिए वेदों में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है। रामायण में इसकी स्थापना मनु द्वारा किये जाने का उल्लेख मिलता है। तत्कालीन स्थिति के अनुसार यह सरयू के तट पर बारह योजन अर्थात लगभग १४५ किलोमीटर लम्बे  एवं तीन योजन अर्थात ३६ किलोमीटर चौड़ाई के क्षेत्र में बसा था। बहुत समय तक यह सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रही है। जैनियों के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म भी अयोध्या में ही हुआ था। वैवस्वत मनु नामक राजा के चौसठवीं पीढ़ी में महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में भगवान राम ने यहां जन्म लिया था। मनु ,इक्ष्वाकु ,भगीरथ ,रघु ,दिलीप ,हरिश्चंद्र एवं राम जैसे सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी होने का गौरव अयोध्या को प्राप्त है। राजा इक्ष्वाकु के गुरु वशिष्ठ द्वारा सरयू नदी को मानसरोवर से अयोध्या तक ले आने का उल्लेख पुराणों में मिलता है। कहा जाता है कि इस नगर में कोई नदी न होने के कारण वशिष्ठ ने अपने पिता ब्रह्मा जी को तप द्वारा प्रसन्न किया और ब्रह्मा के वरदान से उन्होंने ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को मानसरोवर से सरयू नदी को अयोध्या तक ले आये। मुख्यरूप से अयोध्या श्रीराम की जन्म भूमि होने के कारण विशेष रूप से प्रसिद्ध है। भगवान श्रीराम की लीला के अतिरिक्त यहां श्रीहरि के अन्य सात प्राकट्य हुए थे जिन्हें सप्तहरि के नाम से जाना जाता है। त्रेतायुग में भगवान राम ने यहां अश्वमेध यज्ञ किया था। लगभग ३०० वर्ष पूर्व उसी स्थल पर कुल्लू के राजा ने  एक विशाल मंदिर बनवाया जिसका इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने वर्ष १७८४ में नवनिर्माण करवाया था। 
अयोध्या त्रेतायुग से अबतक ऋषियों एवं मुनियों की पवित्र तपस्थली रही है। इन ऋषियों एवं संतों ने ही अपनी इसी साधना स्थल पर अनेकों आश्रमों एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया। ऐसे संतों में अनत श्री विभूषित स्वामी रामचरण दास "करुणासिंधु जी महराज ",स्वामी रामप्र्रसादाचार्य ,स्वामी युगलानन्य  शरण जी ,स्वामी मनीराम दास जी,स्वामी श्री रघुनाथ दास जी ,श्री जानकीवर शरण एवं श्री उमापति प्रमुख हैं। अयोध्या को वर्तमान स्वरूप में ले आने तथा इसे सवारने का बहुत बड़ा श्रेय स्वामी रामचरण दास "करुणासिंधु जी महराज "को दिया जाता है। 

प्रसिद्ध मन्दिर एवं घाट :-

   यहां निर्मित नागेश्वर मंदिर शिव जी का अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है। अयोध्या के अन्य दर्शनीय स्थलों में श्रीराम मन्दिर, श्रीरामजन्मभूमि, हनुमान गढ़ी, लालसाहब ,वाल्मीकि मन्दिर, बिड़ला मंदिर, कनकभवन, जानकी घाट, विश्व विराट विजय राघव मंदिर, बड़े हनुमान, राम शिला स्थल, तुलसी उद्यान, राजसदन, चारधाम मंदिर, देवकाली मंदिर, श्रीराम हर्षण कुञ्ज, सिद्ध हनुमान बाग राजद्वार, जैन मंदिर, श्रीराम मन्त्रार्थ मण्डपम्, काले राम  मंदिर नाटूकोट्टईमंदिर, मणि पर्वत एवं राम पौड़ी आदि मुख्य हैं ।
 हनुमान गढ़ी :-अयोध्या का प्रमुख आकर्षण  केन्द्र हनुमानगढ़ी जो इसके मध्य भाग में स्थित है,को माना जाता है।  इस स्थल पर श्रीहनुमान जी का एक विशाल मन्दिर बना हुआ है,जहाँ प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु दर्शनार्थ उपस्थित होते हैं । लगभग साठ सीढ़ियां चढ़ने के बाद यहां हनुमान जी के दर्शन होते हैं।  श्रीहनुमान जी के यहां विराजमान होने सन्दर्भ में बताया जाता है कि पहले श्रीहनुमान जी यहां एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि तथा रामकोट की यहीं से रक्षा किया करते थे किन्तु बाद में मंदिर बनवाकर इसमें बाल हनुमान एवं माता अन्जिनी की प्रतिमा स्थापित कर दी गयी। श्रद्धालुगण यहां पर श्रीहनुमान जी की बैठी हुई मूर्ति के दर्शन करके अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति कर लेते हैं। यहाँ पूर्व में स्थित रामकोट जो अब नष्ट हो चुका है ,के अवशेष  भाग पर यह मंदिर निर्मित है। इसके दक्षिण भाग में सुग्रीवटीला,अंगदटीला स्थित है।    
 राम जन्मभूमि :- हनुमानगढ़ी के निकट ही राघवजी का मन्दिर बना हुआ है। मुख्यतः यह भगवान राम चन्द्र जी का जन्मस्थान है। इस मन्दिर में केवल  राघवजी की मूर्ति स्थापित है माँ सीता की नहीं। यहां स्थित राम के प्राचीन मंदिर को बाबर ने मस्जिद के रूप में परिवर्तित करवा दिया था किन्तु लगभग १५ वर्ष पूर्व वह मस्जिद ध्वस्त हो गई  थी और अब उसके स्थान पर श्रीराम के भव्य मंदिर के निर्माण का मामला उच्च्तम न्यायालय में लम्बित है। प्राचीन राम मंदिर के स्थान पर सम्प्रति एक छोटा सा राम मंदिर बना हुआ है। जन्मभूमि के निकट कई अन्य मंदिर बने हुए हैं जैसे सीता रसोई ,चौबीस अवतार ,रंगमहल आनंद भवन ,कोपभवन साक्षीगोपाल आदि।   
  नागेश्वरनाथ मंदिर :-सरयू नदी के तट पर स्थित स्वर्गद्वार घाट पर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक नागेश्वर नाथ जी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।  कहा जाता है कि इस मंदिर को भगवान राम के पुत्र कुश ने बनवाया था। शिवरात्रि पर्व पर यहां पर विशेष पूजा -अर्चना की जाती है।
 जानकी घाट :- अयोध्या के पूर्व से पश्चिम की ओर चलने पर क्रमशः रामघाट ,जानकीघाट ,नयाघाट ,रूपकला घाट ,धोरहरो घाट ,अहिल्याबाई घाट ,जटाई घाट ,शिवाला घाट ,गंगा महल स्वर्गद्वार लक्ष्मण घाट ,सहस्रधारा ,ऋणमोचन घाट मिलते हैं। इनमें जानकी घाट अत्यन्त प्राचीन एवं प्रसिद्ध घाट माना जाता है। यहां स्थित मंदिरों का नवनिर्माण श्री रामचरण दास "करुणासिन्धु जी "ने करवाया था। सैकड़ों दर्शनार्थी प्रतिदिन यहां किशोरीजी की प्रतिमा के समक्ष श्रद्धासुमन चढाते हैं।  
कनकभवन :-    हनुमान गढ़ी के निकट ही विशाल कनकभवन स्थित है जिसमें भगवान राम एवं सीता जी की स्वर्णमुकुट से सुसज्जित भव्य मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसे टीकमगढ़ की रानी ने वर्ष १८९१ में बनवाया था। इसके अतिरिक़्त महत्वपूर्ण पौराणिक भवन जैसे वाल्मीकि रामायण भवन ,दशरथ महल ,लवकुश भवन ,कैकेयी कोपभवन ,रंगमहल ,वेदभवन ,सुमित्रा भवन ,आनन्द भवन ,इच्छा भवन यहां पर स्थित हैं।इसे श्रीराम का अंतःपुर अथवा सीताजी का महल भी कहा जाता है। कहा जाता है कि कैकेयी ने इसे सीताजी को मुंहदिखाई में भेंट की थी।  
 स्वर्गद्वार घाट :-सरयू नदी के किनारे पर स्वर्गद्वार घाट स्थित है जिसके बारे में बताया जाता है कि यहां पर स्नान ,दान ,पूजा -अर्चना करने से सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
लक्ष्मण किला व घाट:-  सरयू नदी के पश्चिमी भाग में घाटों एवं मंदिरों का एक विशाल समूह देखा जाता है जिसमें ,रामघाट ,दशरथघाट ,भरतघाट ,शत्रुध्नघाट,लक्ष्मण घाट ,मांडवी घाट,अहिल्या घाट ,उर्मिला घाट,सीताघाट प्रमुख हैं। इन घाटों के उत्तर दिशा में लक्ष्मण किला स्थित है। लक्ष्मण घाट से लक्ष्मण के स्वर्ग प्रस्थान करने का प्रसंग जुड़ा हुआ है।  इसी घाट पर सहस्रधारा नामक दिव्यस्थल तथा लक्ष्मण मन्दिर स्थित है।
दर्शनेश्वर- हनुमानगढ़ी के निकट ही अयोध्या नरेश का महल स्थित है और इसकी वाटिका में महादेव जी का भव्य मंदिर बना हुआ है। 
 राम मन्दिर के निकट ही लक्ष्मण  मन्दिर भी स्थित है। अहिल्यबाई घाट पर श्रीगंगानाथ जी का मन्दिर बना हुआ  है। अयोध्या में ही प्रसिद्ध जानकी घाट एवं अनेकों अन्य मंदिर स्थित हैं।
 यहां के कुछ मंदिरों का नवनिर्माण स्वामी रामचरण दास "करुणासिंधु जी महराज "ने करवाया था। सरयू तट पर ही वासुदेव घाट स्थित है जहां पर मनु ने मत्स्य भगवान के दर्शन किये थे। इसके अतिरिक़्त इन घाटों के निकट ही लक्ष्मी नारायण मन्दिर ,उदासीन मन्दिर ,अवधबिहारी मंदिर ,रामभरत मिलाप मंदिर,राम जन्म भूमि मन्दिर ,राम कचहरी ,चारधाम मंदिर ,हनुमान मन्दिर व दशरथ भवन स्थित हैं। अयोध्या में जैन मन्दिर भी अत्यधिक लोकप्रिय हैं क्योंकि पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि पर उनके नाम से अलग अलग मंदिर बनवाए गए हैं। श्रीराम नवमी ,सावन झूला तथा श्रीराम विवाह का उत्सव यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
निकटवर्ती स्थल :--
सोनखर:- अयोध्या के निकट स्थित यह स्थान महाराजा रघु के कोषागार के रूप में जाना जाता है। कुबेर देवता यहां पर कभी स्वर्ण वर्षा  की थी इसीलिए इसे सोनखर कहा जाने लगा। 
सूर्यकुण्ड :-रामघाट से लगभग ८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक विशाल सरोवर है और इसी के निकट सूर्य नारायण मंदिर बना हुआ है। 
नन्दीग्राम :-फ़ैजाबाद शहर से थोड़ी ही दूरी पर किन्तु अयोध्या से २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह वही कस्बा है जहां राम के वनवास अवधि में भरत ने तपस्या की थी। 
गुप्तारघाट :-सरयू नदी के तट पर अयोध्या से १६ किलोमीटर दूर यह स्थल सरयू -स्नान के लिए प्रसिद्ध है।  इसी घाट पर गुप्तहरी मंदिर स्थित हैतथा यहां से ३ किलोमीटर की दूरी पर निर्मलकुंड व निर्मलनाथ महादेव का मंदिर बना हुआ है।
दशरथ तीर्थ :-रामघाट से १२ किलोमीटर दूरी पर स्थित स्थल जहां महाराजा दशरथ जी का अंतिम संस्कार किया गया था। 
जनकौरा :-जैसाकि  नाम से ही ध्वनित होता है कि महाराजा जनक जब कभी अयोध्या आते थे तब वे इसी स्थान पर अपना शिविर लगाते थे। यह फ़ैजाबाद -सुल्तानपुर सड़कमार्ग पर अयोध्या से १८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसे जनौरा के नाम से भी जाना जाता है।  
अयोध्या में श्रीराम नवमी के अवसर पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त श्रावण शुक्ल पक्ष में श्रवण मेला  आयोजित होता है। कार्तिक पूर्णिमा पर सरयू स्नान का विशेष महत्व बताया जाता है। यहां ठहरने के लिए सैकड़ों होटल ,गेस्टहाउस व धर्मशालायें  उपलब्ध हैं।        

Thursday, March 17, 2016

प्रयाग

भारतवर्ष के प्रमुख धार्मिक स्थलों में प्रयाग जिसे सम्प्रति इलाहबाद नगर के नाम से सम्बोधित किया जाता है ,को प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है।इसे सभी तीर्थस्थलों का अधिपति माना जाता है तथा त्रिस्थली में भी यह प्रमुख तीर्थ माना जाता है।  भगवान ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि के पश्चात प्रथम यज्ञ यहां पर सम्पन्न कराये जाने के कारण आर्यकाल में इसे प्रयाग की संज्ञा दी गयी। प्रयाग भारतवर्ष का अत्यंत प्राचीन नगर है क्योंकि वेद एवं पुराणों में इस आशय का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसे संगम नगरी ,कुम्भ नगरी तथा तीर्थराज के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। प्रयाग शताध्यायी के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि काशी ,मथुरा ,अयोध्या आदि सप्तपुरियां तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं जिसमें काशी को प्रमुख पटरानी के रूप में जाना जाता है। मूल सम्राट अकबर ने प्रयाग की धार्मिक ,सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना को परिमार्जित करने का प्रयास किया था जिसके कारण उसने इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का वास मानते हुए इसे इलहवास की संज्ञा दी। बाद में अंग्रेजों ने उच्चारण में त्रुटि के कारण इसे इलाहाबाद के नाम से सम्बोधित किया। प्रयाग में प्रत्येक वर्ष कुम्भ मेला ,प्रत्येक छठे वर्ष अर्धकुम्भ मेला एवं बारहवें वर्ष महाकुम्भ मेला आयोजित होता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

प्रयाग उत्तरप्रदेश राज्य में गंगा ,यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के संगम स्थल पर बसा हुआ एक प्राचीन धार्मिक नगर है। अपनी प्राचीनता ,वैभव एवं धार्मिक गतिविधियों के कारण विश्व प्रसिद्ध इस नगर को अबतक अनेकों परिवर्तन का सामना करना पड़ा है। गंगा और यमुना नदी के बहाव में हुए परिवर्तन तथा उनके द्वारा निर्मित कछारी क्षेत्र में विस्तार के कारण इसका भौगोलिक स्वरूप भी तदनुसार परिवर्तित होता रहा है क्योंकि  गंगा तट पर स्थित भरद्वाज आश्रम जो कभी संगम स्थल के निकट था आज वह इलाहबाद के मध्य में स्थित हो गया है। इलाहांबाद भारत के प्रमुख नगरों से वायुमार्ग ,रेलमार्ग तथा सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है।अतः आवागमन के साधन सर्वसुलभ हैं। अंतिम हिन्दू सम्राट हर्षवर्धन के कार्यकाल में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ६३४ ई ० में यहां भ्रमण  हेतु आया था और उसने अपने संस्मरण में यहां की धार्मिक ,सामाजिक एवं ऐतिहासिक स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया था। यहां स्थित संगम का निकटतम रेलवे स्टेशन,प्रयाग, पयाग घाट , इलाहाबाद, इलाहाबाद सिटी ,नैनी एवं झूंसी है। जो यात्री बम्बई ,कलकत्ता जबलपुर से आते हैं उन्हें नैनी में उतरना चाहिए और जो यात्री पूर्वी रेलवे से अयोध्या फ़ैजाबाद होकर आते हैं उन्हें प्रयाग एवं जो बनारस ,गाजीपुर ,छपरा ,बलिया की ओर से आते हैं उन्हें झूंसी स्टेशन पर उतरना सुविधाजनक होगा। कुंभमेले के दौरान एक अस्थायी रेलवे स्टेशन प्रयागघाट भी संचालित होता है।  

पौराणिक साक्ष्य :-

सर्वप्रथम प्रयाग का उल्लेख वेद एवं पुराणों में प्राप्त होता है जिसमें इसकी पवित्रता का उल्लेख गंगा ,यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के मिलन स्थल संगम की महिमा मंडन के रूप में प्राप्त होता है। तीर्थराज प्रयाग के माहात्म्य के संदर्भ में बताया जाता  है कि जब समस्त देवताओं ने सप्तद्वीप ,सप्त समुद्र ,सप्तकुल पर्वत ,सप्तपुरियों ,समस्त तीर्थों एवं समस्त पावन नदियों को तराजू के एक पलड़े पर रखा गया और दूसरे पलड़े पर तीर्थराज प्रयाग को रखा गया तब यह परिलक्षित हुआ कि प्रयागराज का पक्ष भारी पड़  रहा है। सामान्यतः गंगा के उदगम श्रोत गोमुख से प्रयाग तक के मार्ग में जितनी भी नदियां गंगा से मिली हैं उनके मिलन स्थल को प्रयाग के नाम से सम्बोधित किया गया जैसे देवप्रयाग ,कर्णप्रयाग रुद्रप्रयाग आदि किन्तु गंगा नदी में जहां यमुना एवं अदृश्य सरस्वती नदी आकर मिली  हैं अतः उस संगम स्थल को प्रयागराज के नाम से सम्बोधित किया गया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने  रामचरितमानस में प्रयाग-महिमा के संदर्भ में निम्नवत वर्णन किया है:-
    को कहि सकहिं प्रयाग प्रभाऊ ,कलुषपुंज कुंजर मृगराउ। 
   सकल कामप्रद तीरथराऊ ,वेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।

ऐतिहासिक साक्ष्य :-

प्रागैतिहासिक काल में प्रयाग और विन्ध्याचल पर्वत के मध्य स्थित बेलनघाटी में पुरापाषाण ,मध्यपाषाण और नवपाषाण काल के प्राप्त हुए अवशेषों से प्रयाग के ऐतिहासिक स्वरूप का परिचय मिलता है। आर्यकाल में सरस्वती नदी के प्रवाहित होने एवं प्रयाग में आकर गंगा नदी से मिलने की पुष्टि भी होती है। सिन्धुघाटी सभ्यता के पश्चात नगरीकरण गंगा के मैदानी क्षेत्रों में ही आरम्भ हुआ। उत्तरवैदिक काल के प्रमुख नगर कौशाम्बी की स्थिति का परिचय भी इसी से मिलता है। महात्मा बुद्ध के समय १६ महाजनपदों में से एक महाजनपद वत्स की राजधानी कौशाम्बी ही थी। मौर्यकालीन इतिहास से विदित होता है कि उस समय उज्जयनी ,पाटलिपुत्र ,तक्षशिला ,कौशाम्बी व प्रयाग विकसित नगरों की श्रेणी में थे। यहां प्राप्त मौर्यसम्राट अशोक के स्तम्भ लेखों में तीन शासकों के लेख खुदे हुए हैं। गुप्तकाल में प्रयाग गुप्त शासकों की राजधानी रही है। समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा विरचित प्रयाग पशस्ति भी उसी स्तम्भ पर अंकित की गयी थी। इसी प्रकार चन्द्रगुप्त एवं स्कन्दगुप्त के स्तम्भलेख में प्रयाग -महिमा का वर्णन प्राप्त होता है। सम्राट हर्षवर्धन के समय प्रयाग अपने चरमोत्कर्ष पर था क्योंकि हर्षवर्धन के साथ प्रयाग के कुम्भ मेले में आये हुए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि "इस काल में पाटलिपुत्र और वैशाली पतनावस्था में थे ,इसके विपरीत दोआब में प्रयाग और कन्नौज महत्वपूर्ण हो गए थे। कहा जाता है कि ततसमय प्रयाग में आयोजित महामोक्ष परिषद में सम्राट हर्ष ने अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़कर सर्वस्व यहीं पर दान कर दिया था। प्रयाग के कुम्भ मेले के आयोजन का प्रथम ऐतिहासिक अभिलेख हर्ष काल में ही प्राप्त हुआ था। 

घाट एवं मंदिर :-

प्रयाग अपने घाटों एवं मंदिरों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध घाट दशाश्वमेध घाट पर धर्मराज युधिष्ठिर ने दस यज्ञ संपादित किये थे और अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति एवं मुक्ति हेतु पूजा अर्चना की थी। अन्य प्रसिद्ध घाट रामघाट झूंसी में स्थित है। कहा जाता है कि भगवान राम के पूर्वज इला ने यहां पर शासन किया था और उनकी सन्तान पुरुरवा और गन्धर्व इसी घाट पर अग्निहोत्र किये थे। यमुना नदी का जल जिस स्थल पर स्थिर हो जाता है उसके निकट ही त्रिवेणी घाट है जो धार्मिक अनुष्ठानों एवं स्नान के लिए प्रसिद्ध है। त्रिवेणी घाट से थोड़ी दूर पर जहां गंगा व यमुना का जल मिलता है ,वहां संगम घाट स्थित है।  संगमघाट के पहले ही किलाघाट है। अकबर द्वारा निर्मित किले की प्राचीर जहां पर यमुना के जल को स्पर्श करती है,उसे ही किला घाट कहते हैं। 
 किलेघाट से संगमघाट तक जाने के लिए नाव यहीं पर मिलती है और  संगमघाट पर स्नान के पश्चात वापस यहीं पर छोड़ना पड़ता है। इसी घाट से पश्चिम की ओर सरस्वतीघाट है। अन्य घाटों में रसूलाबाद घाट ,नारायण आश्रम घाट ,शिवकुटी घाट प्रसिद्ध घाट हैं जहां श्रद्धालु स्नानादि करके गंगा माँ की पूजा -अर्चना किया करते हैं। संगम से ८ किलोमीटर की दूरी पर दुर्वासा का मंदिर स्थित है। 
प्रयाग में मंदिरों की भी संख्या बहुत अधिक है। यहां के प्रमुख मंदिरों में दशाश्वमेघ मंदिर ,हनुमान मन्दिर ,शंकराचार्य मंदिर, अलोपीबाग स्थित अलोपी माँ का मंदिर,सिविल लाइन्स स्थित हनुमान मन्दिर ,शिवकुटी स्थित शिवमन्दिर एवं नारायण आश्रम स्थित कतिपय मंदिर प्रमुख हैं। इसके अतिरिक़्त गंगा एवं यमुना नदी के तट पर कई छोटे छोटे मंदिर स्थित हैं। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

प्रयाग में संगम तट पर स्थित अकबर द्वारा निर्मित प्राचीन किले का ऐतिहासिक महत्व सर्वविदित है। ऐसी मान्यता है कि इस किले को सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था जिसे कालान्तर में अकबर ने इसका नवनिर्माण कराकर वर्तमान स्वरूप प्रदान किया गया। इस किले के परिक्षेत्र में अशोक स्तम्भ ,जोधाबाई महल ,पातालपुरी मन्दिर ,सरस्वती कूप अक्षयवट एवं सीतामढी दर्शनीय स्थल हैं। सरस्वती कूप में अदृश्य सरस्वती के जल का दर्शन श्रद्धालुगण अवश्य करते हैं। खुशरोबाग जहाँ का अमरुद विश्व प्रसिद्ध है ,इलाहबाद नगर के मध्य में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के सन्निकट स्थित है। खुशरोबाग में खुशरू की माँ एवं बहन की कब्रें एवं मक़बरा स्थित है। छठवें तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ की जन्मस्थली कौशाम्बी ,भक्ति आन्दोलन के सूत्रधार रामानंद की जन्मभूमि प्रयाग ही है। भारद्वाज ऋषि का आश्रम आनन्द भवन के निकट स्थित है। यहीं से थोड़ी दूर अलोपीबाग में अलोपी देवी का मंदिर व प्रसिद्ध सिद्धपीठ स्थित है। सीता समाहित स्थल के रूप में यहां सीतामढ़ी एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। 
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में इलाहाबाद कीमहत्वपूर्ण भूमिका रही है। पंडित मोतीलाल नेहरू का निवास स्थान जो अब आनंद भवन के नाम से जाना जाता है, यहीं पर स्थित है। भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के अधिवेशन सन १८८८ ,१८९२ ,एवं १९१० में यहीं पर सम्पन्न हुए थे। महारानी विक्टोरिया द्वारा अपना घोषणा पत्र यहीं मिंटो पार्क में तत्कालीन वायसराय लार्ड केनिंग द्वारा पढ़ा गया था। अल्फ्रेड पार्क जहां प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों से मुठभेड़ करते हुए शहीद हुए थे, कंपनीबाग में स्थित है। इलाहाबाद में हाईकोर्ट ,महालेखाकार कार्यालय ,राष्ट्रीय संग्रहालय ,इलाहाबाद विश्व विद्यालय ,हिंदी साहित्य सम्मेलन आदि अन्य दर्शनीय स्थल हैं। रामायण काल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल श्रृंगवेरपुर यहां से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। भारद्वाज ऋषि व श्रृंगी ऋषि का आश्रम भी यहीं पर स्थित है। प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल कौशाम्बी जो कभी इलाहाबाद जिले में ही था किन्तु अब पृथक जिला बन गया है ,यहां से थोड़ी दूर पर स्थित है।प्रयाग से २५ किलोमीटर  की दूरी पर लाक्षागृह जहां दुर्योधन ने धोखे से पांडवों को जलाने का प्रयास किया था ,स्थित है।यहीं से लगभग ४० किलोमीटर की दूरी पर सीतामढ़ी गांव है जहां वाल्मीकि आश्रम में लवकुश ने जन्म लिया था , स्थित है ।      
प्रयाग का प्रमुख आकर्षण केन्द्र यहां का संगमस्थल है जहां प्रतिवर्ष कुम्भमेला,छठवें वर्ष अर्ध कुम्भमेला एवं बारहवें वर्ष महाकुम्भ मेला आयोजित किया जाता है।  इस मेले में देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लाखों श्रद्धालु ,साधु -सन्त एवं विद्वान यहां एकत्रित होते हैं और लगभग एक माह तक कुम्भनगरी बसाकर अपने धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार- प्रसार करते हैं। एक माह तक यहां पर श्रद्धालुगण कल्पवास हेतु नित्य गंगा स्नान ,प्रवचन व अन्य धार्मिक क्रियाकलापों में भाग लेते हैं। महाकुम्भ के आयोजन पर एक लघुभारत का दर्शन एक माह के लिए यहां पर होता है। पद्मपुराण के अनुसार प्रयाग में माघ मास के दौरान तीन दिन तक लगातार संगम स्नान करने का फल एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने से अधिक माना जाता है। कुम्भ ,अर्धकुम्भ एवं महाकुम्भ मेले के समय प्रशासन द्वारा यात्रिओं के ठहरने ,खानपान व आवागमन की विशेष व्यवस्था की जाती है। इन मेलों में कभी कभी इतनी अधिक संख्या में श्रद्धालु आ जाते हैं कि प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा जाती है और कोई न कोई अप्रिय घटना घटित हो जाती है।        

Wednesday, March 16, 2016

काशी

विश्व की सर्वाधिक प्राचीन नगरी काशी जिसे वाराणसी भी कहा जाता है ,भारतवर्ष के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है ! कदाचित वरुणा एवं असी नदियों के संगम स्थल पर बसने के कारण ही इसका नाम वाराणसी पड़ा ! पुराणों में इसे भगवान शिव की नगरी जिसमें साक्षात भगवान शिव निवास करते हैं ,कहा जाता है !हजारों वर्षों से काशी को भारत ही नहीं बल्कि विदेशियों द्वारा भी इसे एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल एवं पर्यटन केंद्र के रूप में माना जाता रहा है !यहां स्थित गंगा नदी में स्नान हेतु हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन यहां आते रहते हैं !प्रसिद्ध पर्यटक केंद्र के रूप में यह विदेशियों के लिए प्रमुख आकर्षण का केंद्र रहा है !इस प्राचीन नगर को बनारस के नाम से भी जाना जाता है !वाराणसी में १५०० मंदिर स्थित होने के कारण इसे मंदिरों का शहर भी कहते हैं !काशी  को अपने सुन्दर और स्वच्छ घाटों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है !
भौगोलिक स्थिति :-
वाराणसी उत्तरप्रदेश राज्य के दक्षिण पूर्व स्थित वाराणसी जिले में गंगा नदी के उत्तरी तट पर तथा वरुणा एवं असी नदी के संगम के मध्यवर्ती क्षेत्र में बसा हुआ एक प्राचीन नगर है !यह स्थल गंगा के लगभग ५ किलोमीटर के दक्षिण से उत्तर की ओर अर्धचन्द्राकार परिक्षेत्र में स्थित है !इसे काशी और बनारस नाम से भी जाना जाता है किन्तु प्रदेश सरकार ने इसे वाराणसी नाम से ही एक जिले के रूप में चिन्हांकित किया है !इस प्रकार गंगा के तट पर बसा हुआ यह शहर भारत में विगत दो हजार वर्षों से भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता तथा अध्यात्म का प्रमुख केंद्र रहा है !सारनाथ जहां भगवान बुद्ध ने ज्ञान का उपदेश भिक्षुओं को दिया था ,यहां से मात्र १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ! हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त होने के कारण वाराणसी भारत के प्रमुख नगरों से वायुमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है !
पौराणिक साक्ष्य :-
सर्वाधिक प्राचीन हिन्दू ग्रन्थ ऋग्वेद में काशी का वर्णन "काशिरते --आप इव काशिनासंगृभीता "कथन द्वारा किया गया है !पुराणों में इसे भगवान विष्णु की पुरी आद्य वैष्णव स्थान बताया गया है कि जहाँ भगवान विष्णु आनंद अश्रु टपके थे ,वहां बिन्दुसरोवर बन गया और यहीं पर श्रीहरि बिन्दुमाधव के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे !एक पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान शिव ने क्रोधवश ब्रह्मा जी का पांचवा सिर धड़ से अलग कर दिया था तो वह गिरकर उनके करतल से चिपक गया और ब्रह्मा जी के बारह वर्षों तक अनेकों तीर्थस्थलों के भ्रमण के पश्चात भी उनका कटा हुआ सिर अलग नहीं हुआ किन्तु काशी में प्रवेश करते ही सिर धड़ से अलग हो गया !कहा जाता है कि जिस स्थान पर सिर उनके धड़ से अलग हुआ था उसे कपालमोचन -तीर्थ कहा गया !काशी भगवान शिव को इतनी प्रिय थी कि उन्होंने इसे अपना स्थायी निवास बनाने हेतु भगवान विष्णु से माँग लिया था !हरिवंश पुराण के अनुसार काशी को भरतवंशी राजा काश ने बसाया था किन्तु कुछ विद्वान इसे वैदिक काल से भी पूर्व बसाया गया मानते हैं !काशी का उल्लेख उपनिषदों में भी प्राप्त होता है !शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में काशिराज धृतराष्ट्र ,वृहदारण्यक उपनिषद में काशिराज अजातशत्रु एवं कौषीतकी उपनिषद में काशीऔर विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का वर्णन मिलता है !इस प्रकार काशी नगरी की प्राचीनता उपरोक्त कथनों से स्वयमेव पुष्ट हो जाती है !वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में सुग्रीव द्वारा वानर सेना को पूर्व दिशा की ओर भेजने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद का वर्णन मिलता है !महाभारत में भी काशिराज की कन्याओं का भीष्म द्वारा अपहरण किये जाने की घटना एवं महाभारत युद्ध में काशिराज द्वारा पाण्डवों के पक्ष में युद्ध करने का वर्णन प्राप्त होता है !बौद्धकाल में जातक कथाओं में भी काशी का अनेकों बार वर्णन किया जाना तथा अंगुत्तरनिकाय में काशी को भारत के सोलह महाजनपदों में से एक बताये जाने के कारण भी काशी की प्राचीनता की पुष्टि होती है !पौराणिक कथाओं के अनुसार काशी प्राचीनकाल से ही विद्या एवं व्यापार दोनों का केंद्र रहा है क्योंकि जातक कथाओं में यहां पर मूल्यवान रेशमी वस्त्रों ,सुगन्धित द्रव्यों एवं विद्या ग्रहण करने हेतु सोलह वर्ष की आयु में यहां आने का उल्लेख मिलता है !
अन्य दर्शनीय स्थल :-
काशी अपने रमणीय घाटों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है !वाराणसी में गंगा नदी के तट पर राजघाट ,दशाश्वमेध घाट ,प्रह्लाद घाट ,तुलसीघाट ,हरिश्चंद्र घाट, राजेन्द्र प्रसाद घाट ,केदार घाट, इंदिरा घाट,और विजयनगर घाट अत्यधिक सुंदर घाट यहां पर बने हुए हैं !मणिकर्णिका का प्रसिद्ध एवं प्राचीन घाट है !पुराणों में वर्णित कथानुसार यह व्ही स्थान है जहां पार्वती के कानों की मणि गंगा जी में गिर गयी थी और भगवान शिव द्वारा उसे ढूढ़ने के अथक प्रयास के बावजूद उसका पता नहीं लग पाया था !इस घटना के कारण ही इसे मणिकर्णिका घाट कहा जाता है !इस घाट पर स्नान करने अतिशय पुण्य की प्राप्ति होती है !इसी घाट के निकट श्मशान घाट स्थित है जहाँ प्रतिदिन हजारों शवों की अंत्येष्टि क्रिया की जाती है !मणिकर्णिका घाट के निकट ही भूतनाथ का भव्य मंदिर बना हुआ है जिसमें महाकाल की भव्य मूर्ति स्थापित है !दशश्व्मेध घाट के निकट जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित मान मंदिर एवं वेधशाला स्थित है ! राजघाट पर स्थित आदि केशव मंदिर सर्वाधिक प्राचीन मंदिर है !दशाश्वमेध घाट पर ब्रह्मा जी ने दस अश्वों की बलि दी थी इसी कारण इसका नाम दशाश्वमेध घाट पड़ा !
वाराणसी में वैसे तो लगभग १५०० मंदिर हैं जिनमें अधिकांश मंदिर प्राचीनकाल में बनवाये गए थे और उनका समय समय पर नवनिर्माण कराया जाता रहा है ! इन मंदिरों में विश्वनाथ मंदिर ,संकटमोचन मंदिर और दुर्गा मंदिर सर्वाधिक प्राचीन एवं विश्व प्रसिद्ध मंदिर हैं !काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है !हिन्दू धर्म में इस मंदिर का एक विशिष्ट स्थान है !ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर का दर्शन करने एवं यहां गंगा में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है !आदि शंकराचार्य ,संत एकनाथ ,रामकृष्ण परमहंस ,स्वामी विवेकानंद ,स्वामी दयानंद एवं गोस्वामी तुलसीदास द्वारा इस मंदिर में भगवान शिव के ज्योतितलिंग के दर्शन करने का साक्ष्य मिलता है !काशी विश्वनाथ जी का मंदिर अत्यधिक प्राचीन है किन्तु वर्तमान मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई होल्कर द्वारा सन १७८० में कराया गया था !बाद में महाराजा रंजीतसिंह द्वारा सन १८५३ में १००० किलोग्राम शुद्ध सोने से इसकी सज सज्जा व निर्माण करवाया गया !हिन्दू धर्म में ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर कभी भी नष्ट नहीं हुआ है ,यहां तक किप्रलयकाल में भी भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल की नोक पर धारण कर इसकी रक्षा करते हैं और सृष्टिकाल में पुनः इसे त्रिशूल से निचे उतार देते हैं !इसी स्थल पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था और उनके शयन करने पे उनकी नाभि से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए थे जिन्होंने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की थी !मत्स्यपुराण के अनुसार जप ,ध्यान और ज्ञान से रहित तथा दुःखों से पीड़ित जनों के लिए  ही परमगति बताया गया है !विश्वेश्वर के आनद कानन में पांच मुख्य तीर्थ यथा दशास्वमेघ ,लोलार्ककुण्ड,बिंदुमाधव ,केशव मणिकर्णिका स्थित हैं !पुण्य क्षेत्र काशी में बाबा विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग सनातन कल से हिन्दुओं के आराध्य के रूप में पूज्य रहे हैं !इस ज्योतिर्लिंग का विस्तार पांच कोस में है !पद्मपुराण में यह वर्णित है कि जिस ज्योतिर्लिंग के दर्शन ब्रह्मा एवं विष्णु ने किये थे उसे ही वेदों में काशी के नाम से वर्णित किया गया है !बाबा विश्वनाथ की पंच कोशीय यात्रा नंगे पांव भक्तों को करनी पड़ती है तथा परिक्रमा में निर्धारित नियमों का अनुपालन करना पड़ता है !सर्वप्रथम भक्त मणिकर्णिका कुण्ड एवं गंगा में स्नान करते हैं ततपश्चात परिक्रमा संकल्प हेतु ज्ञानवापी जाते हैं !यहां पर पंडों द्वारा संकल्प दिलाये जाने के बादश्रृंगार गौरी ,बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुनः मणिकर्णिका घाट वापस लौट आते हैं !यहां पर मणिकर्णकेश्वर महादेव एवं सिद्धविनायक का दर्शन करते हुए पंचकोशीय यात्रा प्रारम्भ करते हैं !गंगा के किनारे किनारे चलते हुए अस्सीघाट होकर नगर में प्रवेश करते हैं तथा लंका ,नरिया ,करौरी ,आदित्यनगर तथा चितईपुर होते हुए प्रथम पड़ाव कंदवा पहुंचते हैं !यहां पर कर्दमेश्वर महादेव का दर्शन -पूजन कर रात्रि विश्राम करते हैं !दुसरे दिन कंदवा से अगले पड़ाव भीमचण्डी के लिए प्रस्थान करते हैं !यहां दुर्गा मंदिर में दुर्गा जी की पूजा अर्चना करके तीसरे पड़ाव रामेश्वर के लिए आगे बढ़ते हैं !रस्ते में यात्रीगण मंदिरों में शिव पूजा करते हुए चौथे पड़ाव पांचों पंडवा पहुंचते हैं जो शिवपुर क्षेत्र में है !यहां पांचों पांडवों की मूर्तियां स्थापित हैं !यहीं पर द्रौपदी कुण्ड में स्नान  करके पांडवा का दर्शन करते हैं तथा रात्रि विश्राम के पश्चात अंतिम पड़ाव कपिलधारा की ओर अग्रसर होते हैं !यहां पर कपिलेश्वर महादेव की पूजा  कर परिक्रमा समाप्त करते हैं !
वाराणसी के नवीन मंदिरों में भारतमाता का मंदिर तथा तुलसीमानस मंदिर है !आधुनिक शिक्षा के केंद्र के रूप में काशी हिन्दू विश्व विद्यालय जिसकी स्थापना पंडित मदनमोहन मालवीय ने सन १९१६ में की थी यहीं पर स्थित है !इसके अतिरिक्त काशी विद्यापीठ ,सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय एवं अनेकों संस्कृत पाठशालाएं यहां पर हैं !नवीन शताब्दी में आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने काशी को धर्म एवं संस्कृति का प्रमुख केंद्र बना दिया !महात्मा तुलसीदास ,मधुसूदन सरस्वती और पंडित जगन्नाथ जैसे महाकवियों की भी यह कर्मस्थली `रही है !औरंगजेब की धर्मान्धता से काशी नगरी कुछ धार्मिक स्थलों को तोडा अवश्य  किन्तु भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्न धारा आज भी काशी में प्रवाहित दिखाई पड़ती है !काशी का महत्व इसी से परिलक्षित होता है कि स्कंदपुराण के काशीखण्ड के नाम से एक पृथक खंड बनाकर इसकी महिमा का वर्णन किया गया है !काशीपुरी के बारह प्रसिद्ध नाम काशी ,वाराणसी ,अविमुक्त क्षेत्र ,आनंद कानन ,महाश्मशान ,रुद्रावास ,काशिका ,तपस्थली ,मुक्तिभूमि ,शिवपुरी ,त्रिपुरारी राजनगरी और विश्वनाथ नगरी हैं !स्वयं विश्वनाथ ने पांच कोशीय अपनी पूरी काशी को अपना ही प्रतिरूप माना है !यह पांच कोशीय क्षेत्र असी और वरुणा नदी के मध्य स्थित पांच  क्षेत्र है जिसे विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग की संज्ञा दी गयी है !भगवान शंकर के पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास माना जाता है !कहा जाता है कि जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सर्वत्र सभी को दृष्टिगत होते हैं उसी प्रकार काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ के ही दर्शन होते हैं !
काशी में अठारहवीं शताब्दी में निर्मित दुर्गामंदिर स्थित है जिसे बंगाल की महारानी ने बनवाया था !दुर्गा मंदिर के निकट ही तुलसीमंदिर बना हुआ है जिसे रामायण के रचयता गोस्वामी तुलसीदास जी की स्मृति में बनवाया गया है !इस मंदिर की दीवारों पर रामचरितमानस की चौपाईंया अंकित हैं !नया विश्वनाथ मंदिर काशी के मुख्य आकर्षण का केंद्र है !पुराने मंदिर को जब औरंगजेब ने तुड़वा दिया था तब उसके स्थान पर नया मंदिर बनाने की परिकल्पना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने की !यहीं पर भारत माता  का प्रसिद्ध मंदिर भी स्थित है !
ऐसी लोकमान्यता है कि काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्य फल प्राप्त हो जाता है !तीन बार पंचकोशीय परिक्रमा सम्पन्न करने वाले भक्त के जन्म जन्मांतर के सभी पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं !यदि कोई काशी में मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे पुनर्जन्म से मुक्ति के साथ साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है !चूँकि काशी का शाब्दिक अर्थ प्रकाश देने वाला होता है अतः काशी ज्ञान के प्रकाश को अपने चारों ओर फैलाती है!काशी की ऐसी महिमा विभिन्न धर्मग्रन्थों में बताई गयी है  !
वाराणसी को सम्प्रति एक औद्योगिक नगरी के रूप में भी जाना जाता है !वाराणसी कीगलियाँ इतनी संकरी हैं कि दोपहर के समय भी इन पर धुप नहीं आ पाती है ! वाराणसी शिक्षा का प्रमुख केंद्र भी है क्योंकि यहां स्थित बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हो चुकी है !वाराणसी में यात्रियों के ठहरने के लिए अनेकों धर्मशालाएं ,आश्रमों एवं होटलों में समुचित व्यवस्था उपलब्ध है !भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र होने के कारण इसका उत्तरोत्तर विकास हेु कई योजनाएं कार्यान्वित की जा रहीं हैं !         

Monday, March 14, 2016

चित्रकूट

चित्रकूट शब्द में चित्र का अर्थ दृश्य तथा कूट का अर्थ पर्वत होता है, अतः चित्रकूट से स्वतः ध्वनित होता है कि यह पर्वतीय दृश्यों का अनुपम केंद्र है।  वाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस में वर्णित तथ्यों से यह विदित होता है कि भगवान राम जो त्रेतायुग में पृथ्वी पर अवतार लिए थे, ने अपने १४ वर्षों के वनवास के दौरान  अपने भ्राता लक्ष्मण एवं भार्या सीता के साथ लगभग ११ वर्ष चित्रकूट में ही बिताये थे। चित्रकूट में ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान राम से साक्षात्कार किया था एवं यहीं पर हनुमान जी की प्रेरणा से रामचरितमानस की रचना की थी। इन्हीं कारणों से इसे चित्रकूट धाम की संज्ञा दी जाती है और हिन्दुओं की धार्मिक आस्था में इसका विशेष  स्थान माना जाता है। यह भारत के प्राचीनतम धार्मिक स्थलों में से एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। चित्रकूट वस्तुतः पांच गांवों का समूह है जिसमें करवी ,सीतापुर ,कामता ,कोहली एवं नयागांव सम्मिलित हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तरप्रदेश राज्य में ३८.२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले  हुए चित्रकूट जिले के अन्तर्गत मन्दाकिनी नदी के किनारे पर एक तीर्थस्थल के रूप में स्थित है। मन्दाकिनी नदी जो विन्ध्याचल पर्वत के मध्य से प्रवाहित होती हैं,के तट पर चित्रकूट बसा हुआ है। मंदाकिनी नदी को पयस्विनी भी कहा जाता है। चित्रकूट में ८ -१०  किलोमीटर के क्षेत्र में अनेकों धार्मिक स्थल व मंदिर दिखायी पड़ते हैं। चारों ओर विन्ध्य पर्वत की चोटिओं एवं सघन वन से आच्छादित चित्रकूट पहले एक कस्बे के रूप में था किन्तु अब यह एक नगर का रूप धारण कर चुका है। चित्रकूट जाने के लिए शिवरामपुर रेलवे स्टेशन अथवा कर्वी स्टेशन पर उतरना पड़ता है। दोनों स्टेशनों से चित्रकूट लगभग समान दूरी पर स्थित है। यहां से बस ,तांगे ,आटो अथवा अन्य निजी साधनों से चित्रकूट तक पहुंचा जा सकता है। मंदाकिनी नदी के किनारे स्नान हेतु कई घाट निर्मित हैं  तथा घाटों के समनान्तर कई मंदिर भी बने हुए हैं। 

पौराणिक साक्ष्य :-

ऐसी मान्यता है कि भगवान राम नेअपने भ्राता लक्ष्मण एवं भार्या सीता के साथ अपने चौदह वर्षों के वनवास अवधि में से ग्यारह वर्ष यहीं पर व्यतीत किये थे।  यहां की भील ,किरात कोल जनजातियों ने उनकी सेवा सुश्रुखा की थी। यहीं पर ऋषि अत्रि एवं सती अनसूया ने तपस्या की थी। ब्रह्मा ,विष्णु एवं महेश ने चित्रकूट में ही सती अनुसूया के यहां बालक के रूप में प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए थे। 
चित्रकूट में ही राम भरत मिलाप की ऐतिहासिक घटना भी घटित हुई थी। चित्रकूट के साथ महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का प्रसंग भी जुड़ा हुआ है।  कहा जाता है कि जब गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान राम के दर्शन के लिए आतुर थे तब उन्हें स्वप्न में यह आभास हुआ था कि चित्रकूट में भगवान राम उन्हें किसी दिन दर्शन देंगे। अतः वे चित्रकूट आकर मंदाकिनी नदी के किनारे प्रवास करने लगे थे और एक दिन वे नदी के तट पर बैठे हुए चन्दन घिस रहे थे तभी भगवान राम वहां उनसे चंदन लगवाने के लिए प्रगट हुए थे। 
                     चित्रकूट के घाट पर, भई  सन्तन  की भीर। 
                    तुलसिदास चंदन घिसे,तिलक देंहि रघुबीर।  
इसी कारण मंदाकिनी नदी के किनारे तुलसी मंदिर बनवाया गया था। चित्रकूट का संबंध पन्ना राज्य से भी बताया जाता है क्योंकि उस राजघराने द्वारा निर्मित कई मंदिर यहां पर स्थित हैं। कामदगिरि पर्वत के चारों ओर पत्थरों से निर्मित मार्ग जिसे कामदगिरि परिक्रमा मार्ग कहते हैं ,उसे महाराज क्षत्रसाल की पत्नी महारानी चंद्रकुँवरि ने १७५२ ई ० में छत्रसाल की मृत्यु के पश्चात उनकी स्मृति में बनवाया था। पन्ना राज्य के शासन के दौरान इसे जय सिंह पुर कहते थे। कालांतर में पन्ना के राजा अमान सिंह ने जयसिंह पुर को चित्रकूट के महन्त चरणदास को दान में दिया था। चरणदास जी ने इसे सीतापुर के नाम से बसाया जो आज भी चित्रकूट के प्रमुख कस्बे के रूप में विद्यमान है। चित्रकूट को भगवान राम की आराधना एवं भक्ति का प्रतीक स्थल माना जाता है। उत्तरभारत में पूर्णिमा को गंगा स्नान की भाँति यहां मंदाकिनी नदी में अमावस्या के दिन स्नान करना शुभ एवं पुण्यकारी  माना जाता है।  रामनवमी के दिन यहां पर विशाल मेले  का आयोजन किया जाता है। दीपावली पर यहां भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालुगण आते रहते हैं। चित्रकूट सम्प्रति एक पर्यटक स्थल के नाम से भी जाना जाने लगा है। 

प्रमुख आकर्षण :-

महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को इस स्थल पर उनके वनवास के दौरान निवास करने हेतु प्रेरित किया था। तुलसीदास जी ने कहा है :-चित्रकूट गिरि करहुँ निवासू। तहँ तुम्हार सब भांति सुबासु। यहां पर पवित्र मंदाकिनी नदी जो सती अनुसुइया के तपोबल से यहां अवतरित हुई थीं ,प्रवाहित हैं। 
चित्रकूट में कामदगिरि ,कोटितीर्थ ,देवांगना ,हनुमानगढ़ी ,सीता रसोई ,राघव प्रयाग घाट आदि अनेकों धार्मिक महत्व के स्थल दृष्टिगत होते हैं। कामदगिरि का विशेष धार्मिक महत्व है क्योंकि श्रद्धालु कामदगिरि पर्वत की ५ किलोमीटर की परिक्रमा करते हुए अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु यहां आते हैं। कामदगिरि पर्वत पर अनेकों मंदिर बने हुए हैं। प्रसिद्ध कामतानाथ और भरत मिलाप मंदिर इसी क्षेत्र में स्थित हैं।यहां पर स्थित घाटों में चार घाट प्रमुख हैं यथा राघव प्रयागघाट , कैलाश घाट ,रामघाट व घृतकुल्या घाट। मंदाकिनी नदी के तट पर निर्मित रामघाट परबने हुए यञवेदि मंदिर में वर्ष भर धार्मिक क्रिया कलाप ,पूजा अर्चना चलती रहती है। साधु संत यहां भजन कीर्तन में मग्न होकर भगवान राम का नित्य स्मरण करते हुए देखे जा सकते हैं। सायंकाल इस घाट पर भगवान की आरती की जाती है जिसका दृश्य बहुत ही मनमोहक होता है। रामघाट से २ किलोमीटर की दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनारे ही जानकी कुण्ड स्थित है। जनक पुत्री सीता यहीं पर स्नान करती थीं। इस कुण्ड के निकट ही राम जानकी रघुवीर का प्रसिद्ध मंदिर एवं संकटमोचन मंदिर बना हुआ है। जानकी कुण्ड से कुछ ही दूरी पर मंदाकिनी के किनारे स्फटिक शीला स्थित है। मान्यता है कि इस शिला पर सीता जी बैठती थीं जिसके कारण उनके पद चिह्न आज भी इस शिला पर विद्यमान है। एक बार जब वे इसी शिला पर खड़ी थीं तो जयंत ने कौवे का रूप धारण कर उनके पांव पर अपनी चोंच मार दी थी। इसी शिला पर सीता व राम प्रायः बैठकर प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य का श्रीपान किया करते थे। स्फटिक शिला से ४ किलोमीटर की दूरी पर घने वन से घिरा हुआ एकांत स्थल है जिसे अनुसुइया अत्रि आश्रम के नाम से जाना जाता है। इस आश्रम के मंदिर में मुनि अत्रि ,अनुसुइया ,दत्तात्रेय और दुर्वासा मुनि की मूर्ति विराजमान है। चित्रकूट से १८ किलोमीटर की दूरी पर गुप्त गोदावरी स्थित हैं जहां दो समनान्तर गुफाएं दृष्टिगत होती हैं। एक गुफा तो काफी चौड़ी व ऊंची है किन्तु प्रवेश द्वार बहुत ही संकरा है। गुफा के अंतिम छोर पर एक तालाब स्थित है जिसे गोदावरी नदी की संज्ञा दी जाती है। दूसरी गुफा अधिक लम्बी और अपेक्षाकृत संकरी है किन्तु इसमें हमेशा जल प्रवाहित होता रहता है। कहा जाता है कि इस गुफा में भगवान राम एवं लक्ष्मण बैठकर आपस में वार्तालाप किया करते थे। पहाड़ी के शिखर पर स्थित हनुमान धारा है जिसके पास ही हनुमान जी विशाल मूर्ति दृष्टिगत होती है। मूर्ति के सम्मुख स्थित तालाब में झरने से पानी गिरता हुआ दिखाई पड़ता है। मान्यता है कि यह धारा श्रीराम ने लंका दहन के पश्चात हनुमानजी के विश्राम के लिए बनवायी गयी थी। यहां से कुछ ही दूरी पर सीता रसोई स्थित है जहां सीता जी खाना पकाती थीं। 
चित्रकूट में ही प्रसिद्ध भरतकूप स्थित है। इसके बारे में कहा जाता है कि भगवान राम के राज्याभिषेक के लिए भरत ने समस्त नदियों का जल एकत्रित कर यहीं पर रखा था। इसीलिए इसे भरतकूप कहा जाता है। भगवान राम की स्मृति में यहां पर एक मंदिर भी बनवाया गया था। इसके निकट ही प्रमोदवन जहां लक्ष्मी नारायण का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि प्रमोदवन में राम और सीता प्रेमालाप  किया करते थे। यहीं पर जानकी कुण्ड भी स्थित है जहाँ पर सीता जी स्नान किया करती थीं। महाभारत काल में पांडव बंधु भी चित्रकूट में कुछ समय निवास किये थे। चित्रकूट में कुछ दिन महाराजा हर्ष भी शासन किये थे। हर्ष के पश्चात बुन्देलों ने यहां शासन किया था ततपश्चात मुगलकाल में अब्दुल हमीद नामक मुगल सरदार ने यहां हुकूमत की थीं। छत्रसाल और अब्दुल हमीद के मध्य हुए युद्ध के पश्चात हमीद पराजित हुआ था। 
चित्रकूट में लंगूर जाति के बन्दरों की बहुतायत है किन्तु वे पर्यटकों को कोई नुकसान नहीं करते हैं। यात्रियों से खानेपीने की वस्तु पाने बाद वे चुपचाप पेड़ों पर  चढ़ जाते हैं। मंदाकिनी नदी के तट पर अमावस्या के दिन स्नान करना अत्यंत फलदायी माना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि राम, लक्ष्मण व सीता यहां पर स्नान किया करते थे। रामनवमी के दिन यहां काफी चहल पहल रहती है तथा पूरा क्षेत्र राम मय हो जाता है। चित्रकूट स्थित कोटितीर्थ के बारे में मान्यता है कि देवताओं ने यहीं पर भगवान राम के दर्शन किये थे।यहां के प्रमुख स्थल निम्न हैं :-
गुप्तगोदावरी:-चित्रकूट से १९ किलोमीटर दूर निर्मल प्राकृतिक जलस्रोतों से यह आप्लावित है। यहां दो विशाल गुफाएं हैं और इसी गुफा में एक पतली जलधारा आकर झरने के रूप में दृष्टिगत होती है। गुफा से जलधारा बाहर आकर दो कुंडों में गिरती है और  विलुप्त भी हो जाती है। इसिलए इसे गुप्त गोदावरी कहते हैं। 
कोटितीर्थ :-यह संकर्षण पर्वत पर अवस्थित है। यहां से ऊपर की ऑर चलने पर बाँकेसिद्ध ,पञ्चसरोवर नदी ,सरस्वती नदी ,यमतीर्थ ,सिद्धाश्रम व गृद्धाश्रम स्थित हैं। 
हनुमानधारा :-मंदाकिनी की एक धरा पर्वत पर जाकर हनुमानधारा कहलाती है। यह रामघाट से ४ किलोमीटर दूर तथा कोटितीर्थ के सन्निकट है। यहां तक पहुँचने के लिए ३६० सीढ़ियां चढ़नी पड़तीं हैं। यहां पंचमुखी हनुमान जी की विशाल मूर्ति स्थापित है। हनुमानधारा को दो कुंडों में एकत्रित किया जाता है किन्तु  इस जलधारा के स्रोत का आजतक पता नहीं चल पाया है। हनुमानधारा के  ऊपर की ओर सीता रसोईं स्थित है।
सती अनुसुइया आश्रम :-रामघाट से दक्षिण  की ऑर १८ किलोमीटर की दूरी पर यह आश्रम स्थित है। पूर्व में यह अत्री ऋषि अपनी धर्मपत्नी अनुसुइया के साथ निवास किये थे।
कामदगिरि :-चित्रकूट तीर्थ का प्रमुख आकर्षण कामदगिरि की परिक्रमा माना जाता है। का जाता है कि इसके दर्शन एवं परिक्रमा से समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इसके परिक्रमा मार्ग की परिधि ५ किलोमीटर है। और इस पर्वत पर  भगवती कामना देवी का निवास है और श्रीराम ने भी  इनकी पूजा अर्चना की थी।
प्रमोद वन :-यहां पर श्रीराम लक्ष्मण व सीता जी के साथ वन विहा किया करते थे और भगवान राम का यह प्रिय स्थल होने के कारण इसे प्रमोद वन कहा जाने लगा। 
जानकी कुण्ड :-जानकी कुंड का जीर्णोद्धार रींवा नरेश ने करवाया था तथा यहीं पर उन्होंने लक्ष्मी नारायण जी के भव्य मंदिर का निर्माण भी करवाया था। यहां पर पुत्रजीवा {पुत्रदा }का वृक्ष अभी भी स्थित है जिसकी पूजा स्त्रियां पुत्रकामना से किया करतीं हैं। 
स्फटिक शिला :-यह यहां का अत्यन्त प्राचीन धर्मस्थल है। यहां पर श्रीराम वन विहार की थकान को दूर करने हेतु विश्राम किया करते थे। इसी शीला पर राम व सीता एकसाथ विराजमान होते थे जैसाकि रामचरितमानस से स्पष्ट होता है :-
एकबार पुनि कुसुम सुहाये ,निजकर भूषन राम बनाये। 
सीतहिं पहिराए प्रभु सादर ,बैठे स्फटिक शिला पर सुन्दर।
भरतकूप :-यह झाँसी इलाहबाद रेलमार्ग पर स्थित है। कहा जाता है कि जब भरत जी श्रीराम को मनाने हेतु यहां पर आये थे तब अपने साथ समस्त तीर्थों का जल भी उनके राज्याभिषेक हेतु ले आये थे किन्तु श्रीराम द्वारा मना कर देने पर वह जल यहीं  स्थित एक कुंएं में डाल दिया गया था और तभी से यह कुँवा भरतकूप के नाम जाने लगा। 
गणेशबाग :- चित्रकूट से १० किलोमीटर दूर कर्वी -देवांगना मार्ग पर यह स्थित है। इसका निर्माण १९ वीं सदी में विनायकराव पेशवा द्वारा अपने आमोद प्रमोद हेतु करवाया।  यहां पर एक बावली ,षट्कोंनी पंचमंदिर स्थित है। इसकी स्थापत्य कला खजुराहो से मिलती जुलती है। 
बांके सिद्ध :- चित्रकूट से ११ किलोमीटर दूर तथा गणेश बाग़ से ३ किलोमीटर दक्षिण पूर्व में विंध्य पर्वत के पार्श्वभाग में यह प्राकृतिक सौंदर्य का अद्वितीय स्थल है। यह एक प्राकृतिक कन्दरा है जो एक विशाल चट्टान बीच में एक कक्ष के रूप में दृष्टिगत होता है। गुफा तक पहुँचने के लिए पक्की सीढ़ियां बनी हुईं हैं। ऊपर से निर्मल जल का झरना गुफा को आर्द्र करता हुआ कक्ष में आकर विलीन हो जाता है। 
वाल्मीकि आश्रम :-चित्रकूट से ३० किलोमीटर दूर बांदा -इलाहाबाद मार्ग पर  स्थित एक छोटी सी पहाड़ी पर अवस्थित है। इसी पर्वत पर वाल्मीकि का आश्रम बना।  पर्वत की ऊपरी छोटी पर वाल्मीकि जी की मूर्ति स्थापित है और इसी के निकट लालापुर नामक बस्ती है।       

आवागमन :-

चित्रकूट का निकटवर्ती एयरपोर्ट इलाहबाद है। खजुराहो यहां से १८५ किलोमीटर की दूरी पर है। 
देवांगना घटी के ऊपर प्लेन पर्वतीय क्षेत्र पर नवनिर्मित हवाई अड्डा तैयार किया गया है जिस पर अभी छोटे प्लेन अथवा हेलीकाप्टर उतारने की व्यवस्था उपलब्ध है।  इलाहाबाद  व लखनऊ से बस अथवा ट्रेन द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। चित्रकूट से ८ किलोमीटर  ददोरी पर कर्वी रेलवे स्टेशन है।  इलाहबाद ,जबलपुर ,झाँसी ,दिल्ली ,हावड़ा ,आगरा ,मथुरा, लखनऊ,कानपूर ग्वालियर ,मुगलसराय ,वाराणसी ,अयोध्या आदि शहरों से यहां रेलमार्ग  द्वारा पहुंचा जा सकता है। सड़कमार्ग से भी उक्त शहरों से उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की बसों अथवा निजी कार द्वारा सीधे यहां पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से चित्रकूट के लिए सीधे बस सेवा उपलब्ध रहती है।     

Friday, March 11, 2016

वृन्दावन

योगेश्वर श्रीकृष्ण की लीला स्थली वृन्दावन प्राचीन धार्मिक तीर्थस्थल एवं पर्यटन केन्द्र के रूप में जाना जाता है। इसे प्रणयभूमि अथवा प्रणयस्थली भी कहा जाता है। वृन्दावन को व्रज का हृदय भी कहा जाता है क्योंकि यहां पर राधा एवं कृष्ण ने अपनी दिव्य प्रेम लीला की थी। भगवान श्रीकृष्ण ,राधा एवं गोपियों ने अपने प्रेम से इस स्थली को अभिसिंचित किया था।  यहीं पर श्रीकृष्ण अपनी वंशी की मधुर तानों से राधा एवं गोपियों को भाव विह्वल कर दिया करते थे। वृन्दावन आने वाले श्रद्धालुओं को आज भी कृष्ण की वंशी की मनमोहक ध्वनि यहां पर सुनायी पड़ती है। वृन्दावन को परमधाम अथवा परमगुप्त स्थान माना जाता है। पद्मपुराण में इसे ईश्वर का साक्षात् शरीर ,पूर्ण ब्रह्म से सम्पर्क का केन्द्र स्थान तथा परमानन्द का आश्रय बताया गया है। चैतन्य महाप्रभु ,स्वामी हरिदास ,श्री महाप्रभु बल्ल्भाचार्य आदि संतों ने इस स्थली को सजाया एवं संवारा था तथा इसे विश्व की अनश्वर सम्पत्ति के रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशी युवक युवतियां प्रेम रस में सराबोर होकर आज भी श्रीकृष्ण को वृन्दावन की गली -कूंचों ,खेत -खलिहानों ,कुञ्ज -लताओं और यमुना के तट पर इस कामना से खोज करते हैं कि शायद कहीं पर उन्हें योगेश्वर की मनमोहक छवि का दिव्य -दर्शन हो जाये। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तरप्रदेश राज्य के मथुरा जिले में यमुना नदी के किनारे विश्वविख्यात वृन्दावन नगर बसा हुआ है। यमुना जी इसे तीनों ओर से घेर रखा है। वृन्दावन की प्राकृतिक छटा अत्यन्त ही मनमोहक है एवं  सघन कुंजों के मध्य खिले हुए मनमोहक फूलों की सुगन्ध से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी देवलोक में हम विचरण कर रहें हैं। बसंत ऋतु के आगमन पर यहां की छटा एवं सावन भादों की हरियाली देखकर मन मुग्ध हो जाता है। वृन्दावन मथुरा से १० किलोमीटर दूर स्थित होने के कारण श्रद्धालुगण एक साथ ही दोनों धार्मिक स्थलों का दर्शन कर लेते हैं। 

पौराणिक साक्ष्य :-

पौराणिक कथाओं में वर्णित है कि वृंदा देवी जो जलन्धर नामक राक्षस की पत्नी थीं ,ने भगवान विष्णु की तपस्या करके उनसे यह वरदान मांगा था कि उनके पति  जलन्धर अमर हो जाएँ। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने वृंदा को यह वरदान दिया कि जब तक तुम पातिव्रत धर्म का अनुसरण करती रहोगी तब तक तुम्हारे पति जलन्धर को कोई भी व्यक्ति नहीं मार सकेगा। यह वरदान प्राप्त होने के पश्चात जलन्धर देवताओं से युद्ध करने लगा और युद्ध में देवताओं को पराजित कर उन पर अधिकार प्राप्त कर लिया। इस घटना से भगवान विष्णु भी अपने को पराजित महशूस करने लगे और उन्होंने कपटपूर्वक जलन्धर का रूप धारण कर वृंदा के पातिव्रत धर्म को भंग कर दिया और अवसर पाकर भगवान शंकर ने जलन्धर का वध कर दिया। वास्तविकता का ज्ञान होने पर वृंदा ने भगवान विष्णु को शाप देकर सालिगराम बना दिया। देवताओं के विशेष आग्रह पर वृंदा ने विष्णु को शाप मुक्त कर दिया तब विष्णु भगवान ने वृंदा को पुनः यह वरदान दे दिया कि वह अगले जन्म में तुलसी के रूप में पृथ्वी पर जन्म लेगी और समस्त प्राणी उसकी पूजा करेंगे। कहा जाता कि वृन्दी के नाम पर ही इसका नाम वृन्दावन पड़ा।  दूसरी मान्यता यह है कि राधा के सोलह नामों में उनका एक नाम वृन्दा भी था और यही वृंदा राधा के रूप में कृष्ण से इस स्थल पर प्रणय लीला की थी। इसीलिए इसे वृन्दावन का नाम से जाना गया। 
चैतन्य महाप्रभु ने १५वीं शताब्दी में अपनी व्रजयात्रा के समय वृन्दावन तथा कृष्ण लीला से संबंधित अन्य स्थलों की पहचान अपनी दिव्यदृष्टि से की थी। इसके पश्चात शांडिल्य एवं भागुरी ऋषि के सहयोग से श्री वज्रनाभ ने यहां कहीं पर सरोवर ,कहीं पर कुण्ड और कहीं पर मन्दिरों का  नव -निर्माण करवाया। कालान्तर में श्रीकृष्ण की उक्त लीला स्थलियां  जब नष्ट होने लगीं तब महाप्रभु चैतन्य ने इन स्थलों का नवनिर्माण करवाकर इन्हें पुनः प्रकाश में लाया। आगे चलकर श्री सनातन गोस्वामी ,श्री रूप गोस्वामी ,श्री गोपाल भट्ट ,श्री रघुनाथ भट्ट ,श्री रघुनाथ गोस्वामी व श्री जीव गोस्वामी ने अथक प्रयास कर कृष्ण लीला स्थली को पुनः निर्मित करवाया। वर्तमान वृंदावन में स्थित मंदिरों का निर्माण राजा मान सिंह ने मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में किया था। मूलतः यह प्राचीन मंदिर पहले सात मंजिलों में था किन्तु औरंगजेब द्वारा ऊपर के दो मंजिल तुड़वा दिए जाने  के बाद पांच मंजिल ही शेष रह गया। कहा जाता है कि ऊपरी मंजिल पर जलता हुआ दीप मथुरा से स्पष्ट दिखायी पड़ता है। यहां के अन्य प्राचीनतम मन्दिर रंग जी का मंदिर है जिसे रंगमहल के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर दक्षिण की स्थापत्य शैली में बनाया गया था। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

नन्द गाँव ,बरसाना ,गोवर्धन और राधाकुण्ड सभी दर्शनीय स्थल एक दुसरे के सन्निकट स्थित हैं। नन्द गाँव में ही बाबा नन्द एवं माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का लालन- पालन किया था। यह गाँव नन्दीश्वर पहाड़ी पर बसा हुआ है। कहा जाता है कि ऋषि तांडल ने कंस को यह शाप दे दिया था कि यदि तुम्हारा कोई भी दूत नन्दीश्वर पहाड़ी पर जायेगा तो वह तत्काल वहीं पर पत्थर बन जायेगा। अतः कंस के अत्याचार एवं दमनकारी नीति से बचने के लिए बाबा नन्द ने नन्दीश्वर पहाड़ी का आश्रय लिया था। नन्द बाबा के साथ अन्य लोग भी यहां बसते गए और पूरा गाँव बस गया। नन्द गाँव के निकट ही उद्धव वन है। नन्द गाँव में जहां कभी नन्द जी का महल था अब वहां पर श्रीकृष्णजी व बलराम का  भव्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए ६५ सीढियाँ पार करनी पड़ती हैं। 
बरसाना राधा जी की जन्म भूमि है। राधा महाराज वृषभानु की पुत्री थीं। नन्द गाँव से बरसाना ७-८ किलोमीटर दूर है। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण जब नन्द गाँव स्थित कदम्ब के पेड़ पर चढ़कर अपनी वंशी  बजाय करते थे तो उस वंशी की धुन सुनकर राधा मोहित होकर उनके पास दौड़ी चली आती थीं। इस प्रकार राधा और कृष्ण के अमर प्रेम  के कारण  बरसाने को विश्व में प्रेमस्थल के रूप में जाना जाता है। गोवर्धन पर्वत बरसाना से २० किलोमीटर दूर है। इसे पर्वतराज की संज्ञा दी जाती है। प्रत्येक महीने की अमावस्या एवं पूर्णिमा की तिथि पर श्रद्धालु गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हैं। इस परिक्रमा मार्ग में गोवर्धन पर्वत के अवशेषों के साथ साथ कुसुम सरोवर ,राधाकुण्ड ,कृष्ण सरोवर ,मानसी गंगा सरोवर और मानसी गंगा स्थित हैं।  कुल मिलाकरगोवर्धन क्षेत्र की सात कोस की परिक्रमा की जाती है और पूरे मार्ग में भक्त राधे राधे और गोवर्धन महराज की जय का उदघोष करते रहते हैं। परिक्रमा नंगे पैर तथा साथ में दंडवत ,दूध की धार में लेटकर अथवा रिक्शे से सुविधानुसार की जाती है। परिक्रमा के दो मार्ग हैं ,पहली बड़ी परिक्रमा १२ किलोमीटर की दानघाटी से प्रारम्भ होकर मंदिर से थोड़ा आगे समाप्त होती है तो दूसरी परिक्रमा ९ किलोमीटर  की है।  जहाँ बड़ी परिक्रमा समाप्त होती है उसके सामने के रास्ते से शुरू होकर बस स्टैण्ड के पास होते हुए दानघाटी पर समाप्त होती है।  गोवर्धन के संबंध में एक विचित्र कथा है कि पहले व्रजवासी सुख समृद्धि के लिए इन्द्र की पूजा किया करते थे।  ग्वालबालों ने एक बार इंद्र की पूजा के स्थान पर कृष्ण की पूजा कर डाली जिससे इंद्र बहुत ही क्रोधित हो गए और उन्होंने सम्पूर्ण व्रजमण्डल में तेज बारिश कर दी। तेज आंधी  और वर्षा से प्रभावित हो व्रजमण्डल त्राहि त्राहि करने लगा। व्रजवासियों की यह दशा देखकर श्रीकृष्ण ने अपनी ऊँगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर समस्त ग्रामवासियों को उसके नीचे आश्रय दिया और उनके प्राणों की रक्षा की। इससे इन्द्र और अधिक कुपित होकर लगातार सात दिनों तक बारिश करते रहे और कृष्ण ने भी सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत को ऊँगली पर ही उठाये रखा था।  अन्ततः इन्द्र का अभिमान टूट गया और अपने  इस कृत्य के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की। 
गोवर्धन से ६ किलोमीटर दूरी पर राधा कुण्ड स्थित है और उसी के निकट कृष्ण कुण्ड भी स्थित है। इस कुण्ड के बारे में कहा जाता है कि वृषासुर नामक एक मायावी राक्षस जब अपनी सींग से वहां की पहाड़ियों को खोदने लगा तथा अपने खुर से पृथ्वी को खुरचने लगा था तब श्रीकृष्ण ने उससे युद्ध कर उसका वध कर दिया था। इस बैल रुपी राक्षस की हत्या के पाप से मुक्ति के लिए राधा ने उनके पाप निवारणार्थ सभी तीर्थों की नदियों के जल में स्नान करने का सुझाव कृष्ण को दिया। तभी कृष्ण ने वहां पर दो अलग अलग कुण्ड स्थापित किया और समस्त नदियां स्वयं आकर उसमें अपना जल डाल दीं। जिस कुण्ड में राधा जी ने स्नान किया वह राधाकुण्ड एवं जिसमें कृष्ण जी ने स्नान किया वह कृष्ण कुण्ड के नाम से जाना जाने लगा !ऐसी मान्यता है कि इन कुंडों में स्नान करने से समस्त तीर्थों में स्नान करने का फल भक्तों को प्राप्त होता है। 
वृन्दावन के प्राचीन मंदिरों में बांकेबिहारी तथा राधा -माधव का मंदिर प्रमुख हैं। इन मंदिरों में राधा व कृष्ण की मूर्तियां स्थापित हैं। बांके बिहारी मंदिर का निर्माण स्वामी हरिदास ने किया था। यहीं पर कृष्ण -बलराम का एक भव्य मंदिर विदेशी पर्यटकों द्वारा बनवाया गया है। इसके अतिरिक्त जानकीवल्ल्भ मंदिर ,श्रीगोविन्द मंदिर ,रंगमन्दिर ,कांच का मंदिर ,राधा -गोविन्द मंदिर ,राधा श्याम मंदिर ,गोपेश्वर मंदिर ,युगल किशोर मंदिर ,मदनमोहन मंदिर ,मानस मंदिर ,अक्रूर मंदिर ,मीराबाई का मंदिर ,रसिक बिहारी मंदिर ,गोर दाऊ का मंदिर व अष्ट सखी मंदिर वृन्दावन के आकर्षण के प्रमुख केन्द्र हैं। निकटवर्ती धार्मिक स्थलों में श्रृंगार वन ,सेवा कुञ्ज ,चीरघाट ,रास मंडल ,वंशीवट ,वेणुकूप ,राधा बाग ,निधिवन ,द्वादश आदित्य टीला व कालियादह आदि प्रमुख हैं।  यहां पर ठहरने के लिए अनेकों धर्मशालाएं व आश्रमों में समुचित व्यवस्था उयलब्ध है। यहां स्थित होटलों में भी खान -पान व ठहरने की उत्कृष्ट व्यवस्था उपलब्ध है। प्रतिवर्ष देश एवं विदेश से लाखों पर्यटक एवं तीर्थयात्री यहाँ दर्शनार्थ आते रहते हैं। 

Thursday, March 10, 2016

मथुरा

मथुरा उत्तरप्रदेश राज्य का एक जिला तथा प्रमुख धार्मिक महत्व का तीर्थस्थल एवं प्राचीन नगर के  रूप में जाना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की जन्म भूमि के कारण विशेष रूप से यह प्रसिद्ध है। इस प्रकार इसे एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है। यह आदिकाल से ही प्राचीन भारतीय संस्कृति ,धर्म ,दर्शन ,कला एवं साहित्य का केंद्र रहा है। महाकवि सूरदास ,संगीताचार्य स्वामी हरिदास ,स्वामी दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्द एवं महाकवि रसखान की कर्मस्थली भी मथुरा ही थी। उत्तरप्रदेश के प्रमुख शहर आगरा से मात्र ५७ किलोमीटर की दूरी पर यह स्थित है। देश की राजधानी दिल्ली से इसकी दूरी १४१ किलोमीटर है। यहां श्रीकृष्ण के जन्म स्थान होने के कारण श्रीकृष्ण से संबंधित अनेकों मंदिर दृष्टिगत होते हैं। देश एवं विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां प्रतिवर्ष इसके दर्शन के लिए आते रहते हैं। मथुरा में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशेष मेले का आयोजन होता है जिसमें बहुत अधिक संख्या में पर्यटक भाग लेते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी के दिन यहां स्थित मंदिरों को बहुत ही आकर्षक ढंग से सजाया जाता है तथा भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तरप्रदेश  राज्य के मथुरा जिले में स्थित मथुरा एक प्राचीन नगर है। मथुरा एवं वृन्दावन के मध्य यमुना नदी प्रवाहित हैं जो दोनों शहरों की सीमा रेखा निर्धारित करती हैं। मथुरा से मात्र २६ किलोमीटर की दूरी पर गोवर्धन पर्वत स्थित है। मथुरा नगर आगरा से दिल्ली की ओर ५८ किलोमीटर उत्तर पश्चिम एवं दिल्ली से आगरा की ओर १४५ किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में यमुना नदी के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २ पर स्थित है। 

पौराणिक साक्ष्य :-

वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर एवं मधु दानव नगर के नाम से सम्बोधित किया गया है। मधुनगरी ,शूरसेन नगरी तथा मधुरा के नाम से भी इसे जाना जाता है। प्राचीन काल में यह आर्यावर्त के रूप में प्रसिद्ध था किन्तु गंगा यमुना की प्राचीन संस्कृति की संवाहक यह नगरी श्रीकृष्ण की जन्म भूमि एवं उनकी बालक्रीड़ा- स्थल के कारण  विशेष रूप से विख्यात है। पूर्व में यह लवणासुर की राजधानी भी थी। लवणासुर जो मधुदानव का पुत्र था ,का वध शत्रुघ्न ने किया था। अतः मधुपुरी अथवा मथुरा रामायण काल में ही बसाये जाने का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है। मधु दानव के पुत्र लवणासुर ने इसे सजाया एवं संवारा था। इस प्रकार प्राचीन काल से अबतक विभिन्न नामों से विभूषित हो रही मथुरा नगरी का धार्मिक महत्व कृष्ण जन्म भूमि के कारण ही अधिक है। 

निकटवर्ती दर्शनीय स्थल :-

मथुरा नगर के चारों ओर चार शिव मन्दिर स्थापित हैं यथा पूर्व में पिपलेश्वर ,दक्षिण में रंगेश्वर ,उत्तर में गोकर्णेश्वर और पश्चिम में भूतेश्वर महादेव का मंदिर। इसीलिए इसे वाराह भूतेश्वर क्षेत्र भी कहा जाता है। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने श्री केशवदेव जी की मूर्ति यहां पर स्थापित की थी किन्तु औरंगजेब द्वारा उसे तुड़वाकर मस्जिद का निर्माण करवा दिया गया था। कालान्तर में मस्जिद के पीछे एक नया केशवदेव का मंदिर बनवा दिया गया। मथुरा में ही कंकाली देवी का मंदिर कंकाली टीले पर स्थित है। कहा जाता है कि जब कंस ने कंकाली को देवकी की पुत्री समझकर उसका वध करना चाहा तो वह उसके हाथ से छूटकरवह  आकाश की ओर चली गयी थी। इसीलिए प्राचीन केशवदेव मंदिर में देवकी और वसुदेव दोनों की मूर्तियां स्थापित की गयी थी। सम्प्रति यहां पर श्रीपरख जी द्वारा निर्मित द्वारकाधीश का प्रसिद्ध मंदिर निर्मित है। इस मंदिर के अतिरिक़्त गोविन्द जी का मंदिर ,किशोरीरमन जी का मंदिर स्थित हैं। वसुदेव घाट पर गोवर्धन नाथ जी का मंदिर ,मदनमोहन जी का मंदिर एवं बिहारी जी का मंदिर बना हुआ है। 
भगवान श्रीकृष्ण जहां पर बचपन में बाल- क्रीड़ा किया करते थे वह स्थान गोकुल यहां से थोड़ी ही दूर पर स्थित है। इसी स्थान पर श्रीकृष्ण माखन चुराया करते थे तथा ग्वाल बाल के साथ गाय चराया करते थे। विश्राम घाट या विश्रांत घाट यहां का बहुत ही मनमोहक स्थल है। विश्रांतिक तीर्थ ,असिकुण्डा तीर्थ ,बैकुण्ठ तीर्थ ,कालिंजर तीर्थ एवं चक्रतीर्थ नाम से पांच प्रसिद्ध मंदिरों वर्णन मिलता है। विश्रांत घाट से थोड़ी दूर पर पीछे की ओर श्री रामानुज सम्प्रदाय का नारायण जी एवं कंसखार यहीं पर स्थित हैं। रामजी द्वारे में श्री रामजी का मंदिर है जिसमें अष्टभुजी श्रीगोपाल जी की मूर्ति स्थापित है। रामनवमी के दिन यहां पर मेले का आयोजन किया जाता है। इसी के निकट विष्णु जी का मंदिर ,बंगाली घाट पर मदनमोहन मंदिर व गोकुलेश मंदिर स्थित हैं। मथुरा के पश्चिमी भाग में एक ऊंचे टीले पर महाविद्या का मंदिर तथा सुंदर कुण्ड एवं पशुपति महादेव का मंदिर है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहां सरस्वती जी प्रवाहित होती थी जो गोकर्णेश्वर  के निकट यमुना जी में मिल जाती थीं। पौराणिक कथा के अनुसार जब एक सर्प नन्द बाबा को निगलने के लिए उद्द्यत हो गया था तब श्री कृष्ण ने सर्प को ऐसी लात मारी कि वह अपने असली रूप सुदर्शन विद्याधर के रूप में प्रगट हो गया। यहीं पर चामुण्डा का मंदिर भी स्थित है।  
चामुण्डा से मथुरा की ओर आगे बढ़ने पर अंबरीश  टीला जहां राजा अंबरीश ने तप किया था ,दिखाई पड़ता है। सम्प्रति यहां पर जाहरपीर का मठ व हनुमान जी का मंदिर दिखाई पड़ता है। मथुरा के पास नृसिंह गढ़ जहां नरहरि ने ४०० वर्षों तक तपस्यारत  होकर शरीर त्याग किया था ,स्थित है। मथुरा से २६ किलोमीटर दूरी पर गोवर्धन स्थान है। कहा जाता है कि जब इन्द्र के प्रकोप से वहां पर मूसलाधार बरसात होने लगी थी तब मथुरा वासियों ने इस आपदा से रक्षा के लिए श्रीकृष्ण से अनुरोध किया था। कई दिनों से हो रही बारिश से मथुरावासियों को राहत दिलाने हेतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊँगली पर उठा लिया था और समस्त मथुरावासियों को उसके नीचे खड़ा करके इंद्र के प्रकोप से उनकी रक्षा की थी। 
मथुरा से लगभग ४८ किलोमीटर दूर बरसाना स्थान है जहां राधा ने जन्म लिया था । बरसाने की होली सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। लोक रीति से होली मनाने का अपना निराला ढंग बरसाने में ही देखने को मिलता है जिसे लट्ठमार होली के नाम से जाना जाता है। लट्ठमार होली में औरतें रंग ,गुलाल एवं अबीर एक दूसरे पे डालते हुए लाठी से पुरुषों पर वार करती हैं और पुरुष नाचते गाते हुए अपने को लाठी के प्रहार से अपने को बचने का प्रयास करते हैं।होली के त्यौहार पर इस लट्ठमार होली को देखने लिए देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग यहां पर एकत्रित होते हैं। 
मथुरा से १० किलोमीटर की दूरी पर वृंदावन प्रसिद्ध धार्मिक स्थल स्थित है। वृन्दावन में ही कृष्ण गोपियों के साथ रास लीला करते थे तथा माखन से भरी मटकी फोड़कर उन्हें छकाया करते थे। यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुराकर एकांत में वृक्षों पर टांगकर उनकी हंसी उड़ाए जाने की घटना यहीं पर हुई थी। यहीं पर सन १५९० में निर्मित श्रीकृष्ण का भव्य मंदिर यहीं पर स्थित है। प्रत्येक एकादशी एवं अक्षय नवमी को मथुरा की परिक्रमा श्रद्धालुगण श्रद्धापूर्वक करते हैं। देवशयनी एवं देवोत्थानी एकादशी को मथुरा गरुण एवं गोविन्द वृन्दावन की एक साथ परिक्रमा की जाती है जिसे २१ कोसी परिक्रमा के नाम से जाना जाता है।   

Wednesday, March 9, 2016

ऋषिकेश

ऋषिकेश हरिद्वार से लगभग २५ किलोमीटर तथा देहरादून से ४१ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जो हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थस्थल माना जाता है। गंगोत्री ,यमुनोत्री ,केदारनाथ ,बद्रीनाथ धाम जाने के लिए यात्री ऋषिकेश होकर ही वहां पहुँचते हैं। यह उत्तराखण्ड राज्य के देहरादून जिले में स्थित है। यह गढ़वाल हिमालय के प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध है और हिन्दुओं की आस्था से जुड़ा हुआ यह नगर धार्मिक महत्व के कारण विशेष रूप से प्रसिद्ध है। 

भौगोलिक स्थिति :-

गंगा नदी जहां पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर मैदानी क्षेत्र की ओर अग्रसर होती हैं उस स्थल को ऋषिकेश के नाम से जाना जाता है। इसे हिमालय का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। यह समुद्रतल से १३६० फिट की ऊँचाई पर स्थित है। ऋषिकेश को हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। हिमालय की निचली पहाड़ियों में स्थित यह स्थल प्रकृतिक सौन्दर्य एवं योग साधना का प्रमुख केंद्र माना जाता है। ऋषिकेश निकटवर्ती राज्यों के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग ,सड़कमार्ग एवं वायुमार्ग से जुड़ा हुआ है। ऋषिकेश से १८ किलोमीटर की दूरी पर देहरादून के निकट जॉलीग्रांट हवाईअड्डा स्थित है !एयर इंडिया ,जेट एवं स्पाइस जेट की फ्लाइटें इसे दिल्ली से संबद्ध करती हैं। ऋषिकेश निकटतम रेलवे स्टेशन है जो शहर से ५ किलोमीटर की दूरी पर है। यह देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली के कश्मीरी गेट से डीलक्स बसें तथा उत्तरप्रदेश के प्रमुख नगरों से उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की बसों द्वारा अथवा निजी साधनों से सड़क मार्ग से यहां पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक साक्ष्य :-

वैसे तो ऋषिकेश के संबंध में अनेकों धार्मिक  कथाएं प्रचलित हैं किन्तु यह कहा जाता है कि समुद्र  मन्थन के दौरान जब समुद्र से विष निकला था तो भगवान शिव ने इसी स्थान पर उस विष का पान किया था जिसके कारण  उनका गला नीला पड़  गया था।  इसीलिए  उन्हें नीलकण्ठ के नाम से जाना जाने लगा। दूसरी कथा है कि भगवान राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के दौरान यहां के घने जंगलों में कुछ समय व्यतीत किया था। इसका प्रमाण यह है कि लक्ष्मण द्वारा निर्मित लक्ष्मण झूला यहां आज भी विद्यमान है। सन १९३९ ई ० में लक्ष्मण झूले का नवनिर्माण कराया गया बताया जाता है। यह भी कहा जाता है कि ऋषि राभ्या ने यहीं पर कठोर तपस्या करके भगवान का साक्षात दर्शन किया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने ऋषिकेश के रूप में यहां अवतार लिया था इसी कारण इस स्थल को ऋषिकेश के नाम से जाना गया। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

यहां स्थित लक्ष्मण झूले को ऋषिकेश का प्रमुख आकर्षण माना जाता है क्योंकि यह झूला गंगा के एक तट से दूसरे तट को बिना किसी खम्भे के जोड़ता है। इस झूलेदार पुल पर चलने पर यह हिलता हुआ प्रतीत होता है। कहा जाता है कि लक्ष्मण ने गंगा पार करने हेतु अपने बाण चलाकर इस पुल का निर्माण किया था। लगभग ४५० फिट लम्बे इस झूले के निकट ही लक्ष्मण और रघुनाथ जी का मंदिर बना हुआ है। लक्ष्मण झूले से गुजरते समय माँ गंगा की धारा एवं निकटवर्ती पर्वत चोटिओं का दर्शन अत्यन्त मनमोहक लगता है।इसके  निकट स्थित शिवानंद आश्रम एवं स्वर्गाश्रम के मध्य स्थित राम झूला भी गंगा को पार करने हेतु पुल के रूप में दृष्टिगत होता है। ऋषिकेश में गंगा स्नान हेतु त्रिवेणी घाट बना हुआ है। ऐसी मान्यता है कि इस घाट पर गंगा यमुना व सरस्वती नदी का संगम होता है। इसी घाट से गंगा दाहिनी ओर मुड़कर आगे हरिद्वार की ओर अग्रसर होती हैं। 
ऋषिकेश के मध्य भाग में पाचीन भरत मंदिर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि यहां पर दसरथ पुत्र भरत ने तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें यह वरदान दिया था कि उनकी मूर्ति को यहां पर भरत मूर्ति के नाम से जाना जायेगा। मुख्य मंदिर में प्रविष्ट होने के पूर्व सात दालान पर करने पड़ते हैं जिसमें पहले दालान के नीचे हमेशा जल बहता हुआ मिलता है जो यात्रियों  के पग धोता रहता है। यहीं पर एक संस्कृत विद्यालय भी स्थित है। भरत मंदिर से थोड़ी दूर पूर्व की ओर चलने पर कुब्जा भृक नामक घाट है जिसमें तीन विभिन्न स्रोतों से पानी आता रहता है। इसीलिए इसे त्रिवेणी कहते हैं। त्रिवेणी घाट के दक्षिण में रघुनाथ मंदिर बना हुआ है। परमार्थ निकेतन घाट इसी के निकट स्थित है जो स्वामी विशुद्धानन्द जी द्वारा बनवाया गया था। परमार्थ निकेतन आश्रम को काली कमली वाले बाबा के आश्रम के नाम से भी जाना जाता है। लक्ष्मण झूले द्वारा गंगा को पार करते समय कैलाश निकेतन मंदिर भी निकट ही दिखाई पड़ता है। १२ खण्डों में बना हुआ यह प्राचीन मंदिर अपनी स्थापत्य शैली के कारण अन्य मंदिरों से भिन्न प्रतीत होता है। ऋषिकेश से २२ किलोमीटर दूरी पर ३००० वर्ष पुरानी वशिष्ठ गुफा स्थित है जो बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मार्ग स्थित है। आज भी इस गुफा में सन्तों को समाधिस्थ ध्यान मुद्रा में देखा जा सकता है। इस गुफा के भीतर एक शिवलिंग भी बना हुआ है। 
रामझूला पार करते समय गीता भवन जिसे सन १९५० में गोयन्दका जी ने बनवाया था ,स्थित है। यहां पर रामायण एवं महाभारत काल के चित्रों से सजी हुई दीवारें विशेष आकर्षण का केंद्र हैं। गीता प्रेस गोरखपुर की प्रमुख शाखा एवं आयुर्वेदिक चिकित्सालय भी इसके प्रांगण में स्थित है। लक्ष्मण झूले निकट ही लक्ष्मण जी का प्राचीन मन्दिर बना हुआ है तथा मंदिर के निकट ही सिद्धपीठ स्वर्गनिवास मंदिर एवं गंगा मंदिर बने हुए हैं। गंगा मन्दिर में अनेकों देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। मंदिर में भूमिगत शिवपुरी है जहां  ब्रह्मा ,शिव ,पार्वती ,राम -लक्ष्मण आदि की मूर्तियां स्थापित हैं। लक्ष्मण झूले से २ किलोमीटर की दूरी पर मुनि की रेती नामक स्थान है।   
स्वर्गाश्रम ऋषिकेश का प्रमुख आकर्षण है क्योंकि यहां भगवान के २४ अवतारों की मूर्तियों के साथ पौराणिक कथाओं के चित्र अंकित किये गए हैं। परमार्थ निकेतन में भी इसी प्रकार के चित्र देखने को मिलते हैं। ऋषिकेश से लक्ष्मण झूला की ओर जाते समय गंगा तट पर एक बहुत बड़ा गुरुद्वारा बना हुआ है जहां सिख धर्म के अनुयायियों के ठहरने आदि के लिए समुचित व्यवस्था उपलब्ध रहती है। ऋषिकेश से थोड़ी ही दूर पर लगभग ५५०० फिट की ऊँचाई पर स्वर्गाश्रम की पहाड़िओं पर नीलकण्ठ महादेव का मंदिर स्थित है। कहा जाता है  कि भगवान शंकर ने समुद्र मंथन के दौरान निकले हुए विष का पान इसी स्थान पर किया था। ऋषिकेश की यात्रा करते समय नीलकण्ठ महादेव के इस मंदिर का दर्शन श्रद्धालुगण अवश्य करते हैं। इस मंदिर के परिसर में एक झरना भी दिखाई पड़ता है जिसमें भक्तगण स्नान करके नीलकण्ठ महादेव का दर्शन करते हैं। 
ऋषिकेश में यात्रियों  के ठहरने के लिए समुचित व्यवस्था धर्मशालाओं एवं होटलों में उपलब्ध रहती है। यहां केवल शुद्ध शाकाहारी भोजन ही होटलों में उपलब्ध होता है। यहां स्थित अनेकों आश्रमों में दिन रात भजन कीर्तन चलते रहते हैं जिससे यहां का वातावरण आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त करने के अनुकूल रहता है। आश्रमों में यात्रियों के ठहरने व भोजनादि की अच्छी व्यवस्था रहती है। सायंकाल गंगा आरती का दृश्य बहुत ही मनमोहक लगता है इसीलिए  देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी प्रतिदिन हजारों  श्रद्धालु यहां आत्मशांति हेतु आते रहते हैं। प्रशासन की ओर से भी यात्रियों के आवागमन की समुचित व्यवस्था की जाती है। उत्तरांचल राज्य की परिवहन निगम की बसें तीर्थयात्रियों को उनके गन्तव्य तक ले जाती रहती हैं। निकटवर्ती दर्शनीय स्थलों तक जाने के लिए किराये की जीप व कार हमेशा उपलब्ध रहती हैं। 
ऋषिकेश को योग की राजधानी भी कहा जाता है क्योंकि यहां स्थित प्रत्येक आश्रम में योग का शिक्षण एवं प्रशिक्षण दिया जाता रहता है। ऋषिकेश में धार्मिक पुस्तकों ,पूजन सामग्री एवं हस्त शिल्प के सामानों की अनेकों दूकानें देखने को मिलती हैं। अन्य सामग्री यथा कड़ी एवं सूती वस्त्र ,गढ़वाल वूल एवं क्राफ्ट की भी दूकानें दृष्टिगत होती हैं जहां पर उत्तम श्रेणी के सामानों का क्रय किया जा सकता है।  

Tuesday, March 8, 2016

गंगासागर

गंगा नदी हिमालय की श्रृंखलाओं से निकलकर पश्चिम बंगाल की दक्षिणी सीमा पर स्थित सागर बंगाल की खाड़ी में जिस स्थान पर मिलती हैं ,उसे गंगा सागर के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः गंगा सागर एक वन द्वीप समूह है जिसमें मनमोहक वृक्ष देखे जाते हैं। प्राचीन काल में इसे ही पाताल लोक के नाम से जाना जाता था। इसे सागर द्वीप अथवा गंगासागर संगम भी कहते हैं। 

भौगोलिक स्थिति :-

पश्चिम बंगाल राज्य में बंगाल की खाड़ी के कांटिनेंटल शेल्फ में कलकत्ता से लगभग १५० किलोमीटर दक्षिण स्थित यह द्वीप समूह स्थित है।  इसका कुल क्षेत्रफल ३०० वर्ग किलोमीटर है। इसमें लगभग ४३ गांव आते हैं जिनकी जनसंख्या लगभग १६०००० है। यहीं पर गंगा नदी सागर में विलीन होती हैं। गंगा नदी के डेल्टा के रूप में विकसित गंगा सागर बहुत ही मनमोहक स्थान है। इस द्वीप में ही अनेकों नहरें ,छोटी छोटी नदियां व अन्य जलमार्ग देखे जा सकते हैं। हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थान गंगा सागर इसी द्वीप समूह में स्थित है। प्रायः तीर्थ यात्री कलकत्ता से नाव अथवा स्ट्रीमर के द्वारा गंगा सागर तक पहुँचते हैं। कलकत्ता से दक्षिण में ३० किलोमीटर दूरी पर स्थित डायमण्ड हार्वर स्टेशन से भी नाव व जहाज गंगासागर तक जाते हैं। 

पौराणिक साक्ष्य :-

कहा जाता है कि राजा भगीरथ के साठ हजार पूर्वज कपिल ऋषि के शाप से जलकर राख हो गए थे। अतः भगीरथ अपने साठ हजार पितरों की मुक्ति एवं उद्धार के लिए भगवान शंकर की घोर तपस्या करके माँ गंगा को धरती पर ले आये थे। भगवान शिव ने अपनी जटाओं से गंगा को जब छोड़ा तब गंगा राजा भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी और हिमालय से हरिद्वार के मैदानी क्षेत्र होते हुए काशी एवं प्रयाग तक पहुंची और प्रयाग से सीधे कलकत्ता पहुँच गयीं। कलकत्ता से आगे की ओर डायमंड हार्वर होते हुए गंगा सागर जहाँ कपिल मुनि का आश्रम था ,वहां पर भगीरथ के ६०००० पितरों की राख को बहाते हुए उनका उद्धार किया था और अन्ततः बंगाल की खाड़ी में स्थित गंगा सागर में समाहित हो गयीं। इसीलिए इस स्थल का नाम गंगासागर पड़ा। कलकत्ता में गंगा नदी को हुगली नदी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर गंगा जी का कोई मंदिर नहीं है, केवल डेढ़ दो किलोमीटर का स्थान सुरक्षित अवश्य है जहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। पहले यहां कपिल मुनि का आश्रम था किन्तु अब वह आश्रम भी गंगा का बहाव के साथ सागर में विलीन हो चुका है। कपिल मुनि के आश्रम में जो भी मूर्तियां थीं उन्हें कलकत्ता में सुरक्षित रख दिया जाता है। मेले कुछ दिन पूर्व पुरोहित उसे वहां से लाकर इस स्थान पर पुनः रख देते हैं। इस प्रकार यहां पर अस्थायी मंदिर ही दृष्टिगोचर होता है। प्रायः यह क्षेत्र जलमग्न रहता है केवल चौथे वर्ष ही इस स्थल पर मेले का आयोजन हो पाता  है। इसी कारण कहा जाता है कि बाकी  तीरथ बार बार गंगा सागर एक बार। 
र्ष १९७३ में कपिल ऋषि का एक नया मंदिर बनवाया गया जिसमें कपिल मुनि की मूर्ति रखी गयी है। इस मूर्ति के एक तरफ राजा भगीरथ को गोद में लिए हुए गंगा जी की मूर्ति है तो दूसरी तरफ राजा सगर एवं हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है। इसके अतिरिक्त आचार्य कपिलानन्द जी का आश्रम ,महादेव मन्दिर ,योगेन्द्र मठ ,शिव शक्ति महानिर्वाण आश्रम और भारत सेवा संघ का विशाल मंदिर है। 
गंगा सागर में मेले के दिनों में लाखों श्रद्धालु यहां पर दर्शन के लिए पहुँचते हैं तथा शेष दिनों यहां सन्नाटा छाया रहता है।यहां बहुत कम साधु सन्त स्थायी रूप से निवास करते हैं क्योंकि सम्पूर्ण क्षेत्र वनस्पतियों ,पेड़ पौधों से आच्छादित रहता है।  यहां का प्रमुख मेला मकर संक्रान्ति को आयोजित होता है और इसी दिन गंगा सागर में स्नान का पावन पर्व मनाया जाता है और तीन दिन तक पवित्र स्नान का कार्यक्रम चलता है। यहां स्नान करने का फल अन्य तीर्थों के सम्मिलित पुण्य के बराबर माना  जाता है। कहा जाता है कि गंगा सागर में एक बार स्नान करने पर १० अश्वमेघ यज्ञ और एक हजार गाय  दान करने के बराबर का फल मिलता है। जहां पर गंगा सागर मेले का आयोजन होता है वहां से कुछ ही दूरी पर वामनखल स्थान है जहां एक प्राचीन मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर के निकट बुड़बुड़िर तट पर विशालाक्षी का भव्य मंदिर बना हुआ है।