Thursday, February 25, 2016

केदारनाथ धाम

बद्रीनाथ धाम की भांति केदारनाथ धाम भी हिंदुओं के प्रमुख चार धामों में से एक धाम के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष भारत के सभी प्रांतों से लाखों श्रद्धालु भक्त केदारनाथ जी के दर्शन के लिए आते रहते हैं। यह धाम प्रमुख रूप से भगवान शंकर को समर्पित है। केदारनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक शिवलिंग तथा पंच केदार में से प्रमुख केदार के रूप में जाना जाता है। सर्द जलवायु के कारण इस मंदिर का कपाट माह अप्रैल से नवंबर माह तक के लिए दर्शन हेतु खोला जाता है। इस मंदिर का निर्माण पांडव के वंशज जनमेजय द्वारा कराया गया था। इस मंदिर की आयु के संबन्ध में वास्तविक जानकारी नहीं है फिर भी यह विगत एक हजार वर्षों से इसी रूप में देखा जाता रहा है। राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार यह १२ -१३ वीं शताब्दी  का मंदिर है। यहां पर स्थित स्वयंभू शिवलिंग का वर्णन पुराणों में अवश्य दृष्टिगत होता है। आदि शंकराचार्य द्वारा  इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्र प्रयाग जिलान्तर्गत हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में केदार नाथ धाम स्थित है। यह समुद्रतल से ३५८१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है तथा इसके पृष्ठ भाग में बर्फ से आच्छादित विशाल पर्वत माला है। चौरीबारी हिमनद के कुण्ड से निकली मंदाकिनी नदी के निकट केदारनाथ पर्वत श्रृंखलाओं की घाटी में केदारनाथ धाम स्थित है। मंदिर के पृष्ठ भाग में शंकराचार्य की समाधि है। यह मंदिर कत्यूरी शैली में निर्मित होने के कारण इसे वास्तुकला का अद्वितीय प्रतीक माना  जाता है। मंदिर के गर्भगृह में उभरती हुई नुकीली चट्टान की पूजा भगवान शिव के रूप में की जाती है। केदारनाथ धाम पहुँचने के लिए रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होते हुए २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक मोटरमार्ग से तथा आगे की १४ किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर सम्पन्न की जाती है। मार्ग में कई मोड़ व ढलान मिलते हैं। केदारनाथ मंदिर मंदाकिनी नदी के घाट पर निर्मित है। कपाट  छोटा होने के कारण तथा मंदिर की स्थिति घाटी में होने के कारण मंदिर के अन्दर पर्याप्त प्रकाश नहीं मिलता है। यहां स्थित स्वयंभू लिंग की लम्बाई २ फिट है। मंदिर में द्रौपदी सहित पञ्च पांडवों की विशाल मूर्ति भी स्थापित की गयी है। मंदिर के पीछे अनेकों कुण्ड स्थित हैं जिनमें पूजा - अर्चना व तर्पण आदि क्रिया सम्पन्न की जाती है। केदारनाथ पहुँचने के लिए हरिद्वार से ऋषिकेश १५ मील ,ऋषिकेश से देवप्रयाग ४४ मील ,देवप्रयाग से श्रीनगर १९ मील ,श्रीनगर से रुद्रप्रयाग १८ मील ,रुद्रप्रयाग से अगस्तमुनि १२ मील ,अगस्तमुनि से कुंडचट्टी १० मील ,कुंडचट्टी से गुप्तकाशी ३ मील ,गुप्तकाशी से नलचट्टी २ मील ,नलचट्टी से फलचट्टी 2मील ,फलचट्टी से सोनप्रयाग १६ मील सोनप्रयाग से गौरीकुंड ३ मील ,गौरीकुंड से केदारनाथ ७ मील दूर है। इस प्रकार कुल १५१ मील की दूरी तय करके केदारनाथ पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक साक्ष्य :-

केदारनाथ मंदिर का निर्माण  १२ वीं -१३ वीं शताब्दी में हुआ माना  जाता है।  भोज स्तुति के अनुसार यह सम्वत १०७६-९९ में राजा भोज द्वारा बनवाया गया था। यह भी मान्यता है कि इसका निर्माण आदि शंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में कराया गया था जिसका  पाण्डवों द्वारा द्वापरकाल में नवनिर्माण कराया गया । प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० शिवप्रसाद डबराल के अनुसार आदि शंकराचार्य से पूर्व भी शैव भक्त केदारनाथ धाम की यात्रा किया करते थे। वर्ष २०१३ में आकस्मिक भूस्खलन एवं भारी वर्षा से आयी बाढ़ के कारण केदारनाथ धाम स्थित मंदिर अत्यधिक क्षतिग्रस्त हो गए थे जिसके कारण मंदिर की बाहरी दीवारें पूरी तरह से गिर गयीं थीं किन्तु ऐतिहासिक मंदिर का मुख्य भाग तथा सदियों पुराना गुम्बद यथावत आज भी सुरक्षित है। इसका नवनिर्माण कराकर पहले के स्वरूप में ला दिया गया है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास हेतु धर्मशालाएं एवं पण्डों के पक्के मकान भी क्षतिग्रस्त हो गए थे। उपरोक्त कथनों से यह पुष्ट होता है कि समय समय पर केदारनाथ का नवनिर्माण कराया जाता रहा है। केदारनाथ मंदिर का निर्माण ६ फिट ऊंचे चौकोर चबूतरे पर किया गया है। मंदिर के मुख्य भाग में मण्डप व गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है और मंदिर के  बाहर प्रांगण में शिव के वाहन नंदी की मूर्ति स्थापित की गयी है। मंदिर का मूल निर्माण कब और किसके द्वारा कराया गया था ,इस संबन्ध में कोई प्रामाणिक व ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता है। इस मंदिर के पुजारी आज भी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही नियुक्त किये जाते हैं तथा संरक्षण वर्तमान शंकराचार्य जी का रहता है। 
     केदारनाथ धाम स्थित ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संदर्भ में ऐसी मान्यता है कि हिमालय के केदार चोटी पर भगवान विष्णु के अवतार स्वरूप महान तपस्वी नर और नारायण तपस्या करते थे। उन्हीं की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी प्रकट होकर उनके अनुरोध पर ज्योतिर्लिंग के रूप में हमेशा यहीं पर वास करने लगे। केदारनाथ श्रृंग पर स्थित होने के कारण इसे केदारनाथ धाम की संज्ञा दी गयी। 
   दूसरी मान्यता है कि महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरान्त पाण्डव अपने बंधु- बांधवों की हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए भगवान शिव के दर्शन के लिए हिमालय की यात्रा की थी। भगवान शिव पाण्डवों  को दर्शन नहीं देना चाहते थे अतः उन्होंने बैल का रूप धारण कर अन्य गाय एवं  बैलों के झुण्ड में घुसकर  उन्हें दिग्भ्रमित करना चाहे किन्तु पाण्डवों ने भगवान शिव को पहचान लिया और भीम ने उस बैल को रोकने हेतु अपने दोनों पैरों को पर्वत की चोटी के सहारे फैला दिया। सभी गाय बैल तो उनके पैर के नीचे से निकल गए किन्तु शिवरूप धारी बैल भीम के पैर के नीचे से निकलने में संकोच करने लगे  तो भीम ने बैल की पीठ और पूंछ को बलपूर्वक पकड़ना चाहा। शिव रूपधारी बैल ने ऐसा देखकर अंतर्ध्यान होना चाह ही रहे थे कि भीम ने उनके पीठ को बलपूर्वक पकड़ लिया। भीम की भक्ति एवं आग्रह से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हो गए एवं युद्ध में मृत्यु प्राप्त पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। कहा जाता है कि जब भगवान शिव अंतर्ध्यान होना चाह रहे थे तो उनकी ऊपरी धड़ काठमांडू में प्रदर्शित हुआ जहाँ उन्हें पशुपतिनाथ के नाम से जाना गया। भगवान शिव की भुजाएं तुंगनाथ में ,मुख रुद्रनाथ में ,नाभि मदमदेश्वर में और जटायें कल्पेश्वर में प्रगट हुईं। 
भगवान शिव का प्रमुख मंदिर केदारनाथ में स्थित है। केदारनाथ के निकट ही भैरोनाथ मंदिर ,गंध सरोवर एवं वासु  की ताल स्थित हैं। केदारनाथ मंदिर में शिव पिण्ड को स्नान कराकर उसपर घी के तेल का लेपन किया जाता है और लेपन के पश्चात धूप, दीप ,नैवेद्य चढाकर विधिवत उनकी आरती की जाती है। सन्ध्या के समय भगवान शिव का श्रृंगार किया जाता है। 
चूंकि केदारनाथ व बद्रीनाथ धाम एक ही पर्वत श्रृंखला में स्थित हैं अतः जो श्रद्धालु केदारनाथ के दर्शन करते हैं वे बद्रीनाथ के दर्शन भी करते हैं। ऐसा न करने पर धाम की यात्रा निष्फल मानी  जाती है। कहा जाता है कि केदारनाथ पथ सहित नर नारायण मूर्ति के दर्शन से भक्तों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें जीवन्मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। 
केदारनाथ पहुँचने का मुख्य मार्ग गौरीकुंड से १५ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। इस पैदल यात्रा में घोड़े ,बग्घी ,खच्चरों का भी सहारा लिया जा सकता है। केदारनाथ धाम पहुँचने के लिए गंगोत्री से एक दूसरा मार्ग भी है। इस मार्ग में मनमोहक घाटियां व झरने भी दिखायी पड़ते हैं। यहां से वासु की ताल ८ किलोमीटर दूर है। अनेक ऋषि एवं मुनि आज भी इसके आस पास स्थित गुफाओं एवं कंदराओं में तपस्यारत देखे जा सकते हैं। 

दर्शन का समय :-

केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रान्ति से १५ दिन पूर्व खोले जाते हैं और अगहन संक्राति पर प्रातः चार बजे उन्हें घृत कमल वस्त्रादि से अलंकृत करके कपाट बंद कर दिए जाते हैं। पुनः ६ माह बाद अप्रैल में कपाट खोले जाते हैं। प्रायः केदारनाथ जी का मंदिर श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रातः ७ बजे खोला जाता है और दोपहर में एक से दो बजे के मध्य विशेष  पूजा करके भगवान के विश्राम के लिए कपाट बंद कर दिए जाते हैं। सांयकाल ५ बजे पुनः दर्शन के लिए कपाट खोले जाते हैं। पंचमुखी भगवान शिव की प्रतिमा का श्रृंगार  करने के पश्चात ७. ३० बजे से ८.३० बजे तक आरती की जाती है और उसके पश्चात कपाट बंद कर दिए जाते हैं। केदारनाथ जी के दर्शन ,पूजा - अर्चना व प्रसाद चढ़ाने हेतु रसीद काटी जाती है और उसी के अनुसार पूजा के विधान का अनुसरण करना आवश्यक होता है।

अन्य दर्शनीय स्थल :-

पदमपुराण के अनुसार केदारनाथ परिक्षेत्र में स्थित अनेकों धर्मस्थलों में पंचकेदार अतिमहत्वपूर्ण स्थल हैं। पंचकेदार के अन्तर्गत निम्न स्थल आते हैं :-

केदारनाथ :

-केदारनाथ में महिष की छिपी हुई मुद्रा में भगवान शिव विराजमान हैं। यह ऋषिकेश से २२९ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां तक पहुंचने के लिए १६ किलोमीटर की पैदल यात्रा पर्वतीय चढ़ाई चढ़कर करनी  पड़ती  है।

मदमाहेश्वर :- 

  यह पंचकेदार में दूसरा केदार है। यहां पर भगवान शिव महिष की नाभि स्वरूप में विराजमान हैं। यह ऊखीमठ से १२ मील की दूरी पर स्थित है। यहां तक पहुँचने के लिए कालीमठ होकर यात्रा करनी पड़ती है। रुद्रप्रयाग से केदारनाथ राष्ट्रिय राजमार्ग से ऊखीमठ होकर उनियाणा गाँव तक वाहन द्वारा पहुंचा जा सकता है। इसके बाद रासी गौंडार गांव से १० किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर  भगवान मदमाहेश्वर के दर्शन किये जा सकते हैं। दूसरा मार्ग गुप्तकाशी से कालीमठ तक वाहन द्वारा और कालीमठ से आगे पैदल चढ़ाई चढ़कर पहुंचा जा सकता है। 


तुंगनाथ :- 

यह पंचकेदार में तीसरा केदार कहलाता है। यहां पर भगवान शिव महिष के नाभि के ऊपर और सिर के नीचे के भाग अर्थात धड़ स्वरूप में स्थित हैं। यहां पर तुंगनाथ जी का प्राचीन मंदिर स्थापित है जिसमें भगवान शिव उक्त स्वरूप में विराजमान हैं। यह मंदिर समुद्रतट से १२२३५ फिट की ऊँचाई पर स्थित है। यह उत्तराखण्ड में मौजूद सभी तीर्थों में सबसे  ऊँचाई पर स्थित है। तुंगनाथ तक जाने के लिए दो रास्ते हैं पहला ऊखीमठ से चोपताधारतक वाहन द्वारा और आगे तीन किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर पैदल चलना पड़ता है।दूसरा मार्ग गोपेश्वर मंडल होते हुए चोपताधार तक जाता है।

रुद्रनाथ :- 

यह पंचकेदार में चौथा केदार कहा जाता है। रुद्रनाथ भारत का पहला ऐसा तीर्थ है जहां भगवान शिव के मुखाकृति के दर्शन होते हैं। शेष स्थानों पर उनके लिंग के ही दर्शन होते हैं। भगवान शिव रूद्र रूप में यहां विशाल गुफा में विराजमान हैं। यह विशाल गुफा दो खण्डों में विभक्त है। यहां तक पहुंचने के लिए गोपेश्वर से पैदल रुद्रनाथ तक जाना पड़ता है। गोपेश्वर से  ५ किलोमीटर पहले तक वाहन द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। आगे की यात्रा पैदल चलकर सम्पन्न करनी पड़ती है।   

कल्पेश्वर :-

पंचकेदारों में यह पांचवा केदार माना जाता है। यहां पर महषि रूप में भगवान शिव जटाजूट के साथ प्रतिष्ठित हैं। यह मंदिर  ६००० फिट की ऊँचाई पर बना हुआ है तथा ऊगम गाँव में हिरण्यवती नदी के किनारे स्थित है। यहां तक पहुँचाने के लिए हेलंगचट्टी से पैदल जाना पड़ता है और अलकनंदा पल को पार करके ७ किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचा जा सकता है।
उपरोक्त स्थलों के अतिरिक्त यहां स्थित गुप्तकाशी में विश्वनाथ जी  का प्रसिद्ध मंदिर दर्शनीय है जो रुद्रप्रयाग से २४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां  स्थित ऊखीमठ में केदारनाथ की रावल साहिब पीठ स्थित है जो मदमाहेश्वरसे १२ मील की दूरी पर है। यहां पर शिवजी का मंदिर व कुछ दुकानें व धर्मशालाएं बनी हुई हैं। यहां से गणेश चट्टी ३ मील की दूरी पर स्थित है। जोशीमठ रुद्रप्रयाग से ६९ मील दूर एवं पिपालकोटी से १९ मील दूर बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। यहां पर मंदिर  समिति का गेस्टहाउस व काली कमलीवाला धर्मशाला स्थित है भगवान बद्री नाथ का यह शीतकालीन आवास माना जाता है। यहां पर स्वामी शंकराचार्य का मठ स्थित है।   

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