Tuesday, February 23, 2016

ज्वाला जी

ज्वाला जी का मन्दिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले से ३० किलोमीटर दूर प्रकृति आँचल में स्थित है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में वर्णित ५१ शक्तिपीठों में सम्मिलित है। इसे जोतावाली देवी का मंदिर भी कहा जाता है। यहां पर हिन्दुओं के पूज्य अन्य मंदिर भी हैं। इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण सन १८३५ ई ० में राजा संसारचन्द्र ने करवाया था। मंदिर के अंदर माँ की नौ ज्योतियाँ हमेशा ही प्रज्ज्वलित रहती हैं। इन नौ ज्योतियों में महाकाली ,अन्नपूर्णा, चण्डी,हिंगलाज ,विंध्यवासिनी ,महालक्ष्मी, सरस्वती ,अम्बिका एवं अंजीदेवी सम्मिलित हैं। यह मंदिर दिल्ली से ४७३ किलोमीटर, पठानकोट से १२३ किलोमीटर ,शिमला से २१२ किलोमीटर एवं धर्मशाला से ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका निकटवर्ती हवाई अड्डा गूगल है जो ज्वाला जी से ४६ किलोमीटर दूरस्थित है। रेलमार्ग द्वारा पठानकोट से चलनेवाली विशेष रेलगाड़ी से यहां पहुंचा जा सकता है। पालमपुर से सड़क मार्ग द्वारा मंदिर तक पहुँचने की सुविधा है। दिल्ली ,पठानकोट ,शिमला आदि शहरों से सीधे बस द्वारा अथवा निजी वाहन से इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक मान्यता :-

दुर्गा शप्तशती एवं देवी माहात्म्य में देवताओं और दानवों के बीच सौ वर्षों तक युद्ध चलने एवं इस युद्ध में दानवों की विजय का वर्णन मिलता है। दानवों से पराजित होकर देवतागण ब्रह्माजी के साथ विष्णुजी एवं शिवजी के पास गए। सम्पूर्ण  वृतान्त सुनकर वे सभी  अत्यधिक क्रोधित हो गए जिसके कारण शिव के तेज से देवी का मुख ,विष्णु के तेज से बाहें ,ब्रह्मा के तेज से चरण, यमराज के तेज से बाल ,इन्द्र के तेज से कटि प्रदेश एवं अन्य देवताओं के तेज से देवी के शरीर का निर्माण हुआ।तत्पश्चात  देवताओं की आराधना से प्रसन्न होकर देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध कर उसका वध कर दिया। तभी से देवी को महिषासुर मर्दिनी भी कहा जाता है। 
ज्वालाजी शिव और शक्ति से सम्बद्ध  होने के कारण एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ के रूप में जानी जाती हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार जिन ५१ स्थानों पर देवी के कोई न कोई अंग गिरे थे उन स्थानों को शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त हो गयी। जब राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया था तथा शिव एवं सती  को उस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया था तब सती को अपने पिता का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा था और वे क्रोधवश यज्ञ में पहुँच गयीं थीं। वहां जाकर सती ने देखा कि यज्ञस्थल पर भगवान शिव का बहुत ही अपमान किया जा रहा है तो वे इसे सहन न कर सकीं  और हवनकुण्ड में कूद पड़ीं। भगवान शिव को जब इस घटना की जानकारी हुई तो वे यज्ञस्थल पर पहुंचकर सती के शरीर को हवनकुण्ड से निकालकर वहीं पर ताण्डवनृत्य प्रारम्भ कर दिया। ऐसा देखकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। ब्रह्माण्ड को इस संकट में देखकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के ५१ टुकड़े कर दिए। यह ५१ टुकड़े जिन जिन स्थानों पर गिरे वहीं शक्तिपीठ बन गयी। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर सती की जीभ गिरी थी। कहा जाता है कि ज्वाला मंदिर में एक अलौकिक ज्योति हमेशा स्वतः प्रज्ज्वलित रहती है। 

ऐतिहासिक कथा :-

ज्वाला मंदिर के इस स्थल को सर्वप्रथम एक गोपालक ने देखा था। गाय चराते हुए वह इस स्थल पर पहुंचा तो उसने अपनी गाय का दूध इस पवित्र ज्वालामुखी में दाल दिया तभी ज्वाला जी ने कन्या का रूप धारण कर इस दूध को पी लिया था। इस घटना को  लोगों ने जब स्थानीय राजा  को बतायी तब राजा के द्वारा अपने सिपाहियों से इसकी पुष्टि करायी गयी और इस घटना से अत्यधिक प्रभावित होकर वहां देवी के एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया । 
ज्वाला जी के संबन्ध में एक अन्य कथा भी प्रचलित है जो मुगलकाल से संबंधित है। सम्राट अकबर जो हिन्दू धर्म का बहुत आदर करता था जब ज्वाला जी की उक्त घटना ध्यानु नामक एक व्यक्ति से सुनी तब माँ की नौ स्वतः प्रज्ज्वलित ज्योति के दर्शन हेतु ध्यानु भक्त के साथ इस स्थल की यात्रा की। अकबर ने ज्वालाजी के स्थल पर ध्यानु भक्त के घोड़े का सिर कटवा दिया और कहा कि अगर तेरी माँ में अलौकिक शक्ति है तो घोड़े के सिर को जोड़कर उसे पुनः जीवित करा लो। ध्यानु भक्त ने देवी की स्तुति की और अपना सिर भी माता को चढ़ा दिया । माता की शक्ति से ध्यानु भक्त और घोड़े दोनों का सिर स्वतः जुड़ गया और वे जीवित भी हो गए। इस घटना से अकबर बहुत ही प्रभावित हुआ और उसने देवी के मंदिर में सवा मन का सोने का क्षत्र चढ़ाया और दिल्ली से ज्वाला जी के मंदिर  तक नंगे पांव पैदल चलकर आया। कहा जाता है कि माता ने यह भेंट स्वीकार नहीं की और सोने के क्षत्र को किसी अन्य रहस्य्मयी धातु में परिवर्तित कर दिया। यह क्षत्र आज भी यहां विद्यमान है। ज्वाला जी के मंदिर में आरती के समय एक अलौकिक एवं अदभुत दृश्य देखने को मिलता है। यहां पर रात  और दिन के मध्य ५ बार आरती की जाती है।  प्रथम आरती सूर्योदय के समय दूसरी  भोग लगाने के पूर्व एवं तीसरी बार सांयकाल ,चौथी बार रात्रि में की जाती है। पाँचवी और अंतिम बार आरती देर रात देवी के शयन के पूर्व शयन शैय्या को फूलों व सुगन्धित पदार्थों से सजाकर की जाती है। यह क्रिया प्रत्येक दिन भक्तों द्वारा की जाती है। शयन के समय आरती में काफी संख्या में श्रद्धालुगण सम्मिलित होते हैं। 

 विशेष आयोजन 

नवरात्रि के समय ज्वाला जी के मंदिर स्थल के पास एक विशाल मेले का आयोजन होता है। नवरात्रि में श्रद्धालुओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। प्रांगण में अखण्ड देवी पाठ का आयोजन किया जाता है और वैदिक मन्त्रों के साथ हवन व विशेष पूजा -अर्चना की जाती है। यहां आने वाले श्रद्धालु अपने साथ लाल रंग की ध्वजा अपने साथ लाते  हैं और माँ को श्रद्धा पूर्वक चढ़ाते हैं। 
मंदिर का मुख्य द्वार बहुत ही आकर्षक एवं भव्य है। मंदिर से थोड़ी ही दूरी  पर अकबर द्वारा निर्मित एक नहर स्थित है जिसे अकबर नहर के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि नौ स्वतः प्रज्ज्वलित ज्योतियों को बुझाने हेतु इस नहर का निर्माण कराया था। ज्वाला मंदिर से थोड़ी दूर पर गोरखनाथ जी का मंदिर है। यहां पर एक ऐसा कुण्ड  भी स्थित है जिसका पानी खौलता हुआ प्रतीत होता है किन्तु गर्म नहीं होता है। ज्वाला जी से ४. ५ किलोमीटर दूरी पर नगिनी माता का मंदिर है तथा ५ किलोमीटर दूरी पर रघुनाथ जी का मंदिर है। रघुनाथ मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था जिसमें राम लक्ष्मण व सीता की मूर्ति स्थापित की गयी है। ज्वाला जी प्रांगण में अनेकों धर्मशालाएं एवं होटल बने हुए हैं जहां रहने एवं खानपान का समुचित प्रबन्ध रहता है। निकटवर्ती शहर पालमपुर व कांगड़ा हैं। यहां से मंदिर तक जाने के लिए किराये की टैक्सी व् डीलक्स बसें उपलब्ध हो जाती हैं। दिल्ली से ज्वाला देवी तक सीधे दिल्ली परिवहन निगम की बसें उपलब्ध रहतीं हैं।     

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