Sunday, February 28, 2016

बद्रीनाथ धाम

बद्रीनाथ धाम हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। पुराणों में हिन्दू धर्म के चार धामों का वर्णन मिलता है जिसमें बद्रीनाथ धाम प्रमुख है। बद्रीनाथ मन्दिर में भगवान विष्णु की मूर्ति को बद्रीनाथ के रूप में स्थापित किया गया है। इसीलिए इसे बद्रीनाथ अथवा बदरी नारायण मंदिर भी कहा जाता है। हिमाच्छादित हिमालय पर्वत से घिर हुआ बद्रीनाथ  सम्पूर्ण परिक्षेत्र धरती का स्वर्ग कहलाता है।
चारधाम यात्रा के लिए कुछ दर्शनार्थी पहले काशी ,द्वारका व रामेश्वरम धाम की यात्रा करते हैं तो कुछ बद्रीनाथ जी के दर्शन के बाद इन तीनों धामों की यात्रा करते हैं। उत्तराखण्ड यात्रा के अन्तर्गत बद्रीनाथ ,केदारनाथ ,गंगोत्री ,यमुनोत्री एवं कैलाश मानसरोवर के दर्शन श्रद्धालुगण करते हैं। इस परिक्षेत्र में प्रवेश हेतु कई मार्ग चिह्नित हैं यथा कोटद्वार ,काठगोदाम ,अल्मोड़ा एवं हरिद्वार जहां से यात्रा आरम्भ की जा सकती है किन्तु प्रायः लोग हरिद्वार होकर ही बद्रीनाथ की यात्रा किया करते हैं।  
 यात्रियों के विश्राम हेतु यहां पर्याप्त धर्मशालाएं उपलब्ध हैं।  वर्ष २०१६ में बद्रीनाथ धाम के यात्रियों की सुविधा के लिए१०,००० यात्रियों के ठहरने के लिए व्यवस्था जिला प्रशासन द्वारा की जा रही है। चारधाम यात्रामार्ग पर २४ घंटे हाइवे पेट्रोलिंग की जाएगी एवं यात्रियों की सुविधा हेतु बायोमीट्रिक फोटो पंजीकरण क्रय जायेगा।  

भौगोलिक स्थिति :-

उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में समुद्र तल से ३१३३ मीटर की ऊँचाई पर ऋषि गंगा एवं अलकनन्दा नदी के संगम पर स्थित बद्रीनाथ धाम हिन्दू धर्म एवं आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र है।उत्तराखण्ड को तपोभूमि अथवा भूबैकुंठ  के नाम से भी जाना जाता है।   उत्तरी हिमालय की पहाड़ियों में स्थित यह पञ्च बदरी में से एक बदरी है। यह ऋषिकेश से २९४ किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित है। इसके दोनों ओर नर और नारायण की पर्वत श्रृंखलाएँ हैं तथा हिमाच्छादित नीलकंठ की मनमोहक चोटी यहां से स्पष्ट दिखायी पड़ती है। बदरीनाथ मन्दिर अलकनंदा नदी के किनारे पर स्थित है एवं यहां निर्मित मंदिरों में बौद्ध वास्तुकला प्रतिबिम्बित होती है। बद्रीनाथ मंदिर के सामने गर्म पानी का एक कुण्ड है जिसे तप्तकुण्ड के नाम से जाना जाता है। दर्शनार्थी बद्रीनाथ के दर्शन के पूर्व इसी कुण्ड में स्नान करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस कुण्ड के जल में हिमालय की अनेकों औषधियों एवं खनिज पदार्थों का मिश्रण पाया जाता है जिसके कारण ही इसमें स्नान करने से असाध्य रोगों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। यहीं पर धार्मिक अनुष्ठानों एवं पूजा हेतु एक वर्गाकार चबूतरा बनाया गया है जिसे ब्रह्मकपाल के नाम से जाना जाता है। कुछ दूरी पर भगवान विष्णु के पैरों के निशान जिसे चरणपादुका कहते हैं ,दिखाई पड़ता है। बद्रीनाथ धाम से ५ किलोमीटर पर एक गाँव है जिसे माणा गांव के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि यहीं पर स्थित व्यास गुफा में चारों वेदों के मंत्रों को चार भागों में विभक्त किया गया था और कई पुराणों की रचना भी इसी क्षेत्र में की गयी थी। यहां तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग  का प्रयोग किया जाता है।हरिद्वार से बद्रीनाथ की कुल दूरी १८३ मील है। इस मार्ग में हरिद्वार से ऋषिकेश १५ मील ,ऋषिकेश से देवप्रयाग ४४ मील ,देवप्रयाग से श्रीनगर १९ मील ,श्रीनगर से रुद्रप्रयाग १८ मील ,रुद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग २० मील,कर्णप्रयाग से नन्दप्रयाग १३ मील ,नंदप्रयाग से चमोली ६ मील ,चमोली से पीपलकोटी ८ मील ,पीपलकोटी से जोशीमठ २१ मील ,जोशीमठ से पांडुकेश्वर ८ मील ,पांडुकेश्वर से बद्रीनाथ ११ मील दूरी पर स्थित है। दूसरा मार्ग कोटद्वार से पुरी ५७ मील तथा पूरी से श्रीनगर १९ मील चलकर मार्ग संख्या _१ से बद्रीनाथ पहुंचा जा सकता है।  

पौराणिक साक्ष्य :

ऐसी पौराणिक मान्यता है कि जब गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था तो आगे चलकर वह १२ 
विभिन्न धाराओं में विभक्त हो गयीं थी। बद्रीनाथ धाम की धारा अलकनंदा के नाम से जानी  गयीं।बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा कराया गया था। बद्रीनाथ धाम में एक मंदिर ऐसा भी है जिसमें बद्रीनाथ अथवा विष्णु की वेदी बनी हुई है। बद्रीनाथ की मूर्ति का निर्माण शालिग्राम शिला से किया गया था जो चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में अवस्थित हैं। मान्यता है कि जब भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार -प्रसार प्रारम्भ हुआ था तब बौद्ध के अनुयायिओं ने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा अर्चना करने लगे थे। आदि शंकराचार्य के समय में बौद्ध तिब्बत की ओर प्रयाण करते समय उस मूर्ति को अलकनंदा नदी में फेंक दिए थे जिसे आदि शंकराचार्य ने अलकनंदा से बाहर निकालकर उसकी पुनर्स्थापना की थी। इसलिए यहां नर नारायण विग्रह की पूजा की जाती है और एक अखण्ड ज्योति का प्रज्ज्वलन भी किया जाता है। अत्यधिक शीत के कारण अलकनंदा नदी में श्रद्धालु स्नान न करके निकटवर्ती तप्तकुंड के गरम पानी में स्नान करते हैं। बद्रीनाथ धाम में वनतुलसी की माला ,चने की कच्ची दाल ,गरी का गोला व मिश्री का सम्मिलित प्रसाद मंदिरों में चढ़ाया जाता है। 
कहा जाता है कि नीलकण्ठ पर्वत के सन्निकट भगवान विष्णु  बाल रूप में अवतरित हुए थे तथा अलकनंदा नदी के समीप ही क्रीड़ा करने लगे थे। बाल रूप भगवान विष्णु के रोने की आवाज सुनकर माँ पार्वती का  हृदय द्रवित हो गया था और वे भगवान शिव के साथ वहाँ प्रगट होकर बालक विष्णु से रोने का कारण पूंछा तो बालक ने ध्यान करने योग्य उपयुक्त स्थान की मांग की। भगवान शिव व पार्वती ने इसी स्थल को ध्यान करने योग्य उपयुक्त स्थान बताते हुए बालक विष्णु को वहीं पर ध्यान लगाने का आदेश दिया। यही स्थान  आगे चलकर बद्रीनाथ धाम के नाम से जाना गया। यह भी मान्यता है कि भगवान विष्णु जब यहां पर ध्यान मुद्रा में तपस्यारत थे तो अचानक हिमपात होने लगा था जिससे उनका सम्पूर्ण शरीर बर्फ से ढक गया। माता लक्ष्मी इस घटना से द्रवित होकर उन्होंने वेर के वृक्ष का रूप धारण करके समस्त बर्फ को अपने ऊपर धारण कर लिया था। कालान्तर में  भगवान विष्णु ने जब अपनी तपस्या पूर्ण कर ली तब उन्होंने देखा कि माँ लक्ष्मी ने वेर  के वृक्ष के रूप में सम्पूर्ण बर्फ को अपने ऊपर धारण कर लिया है तो भगवान विष्णु ने उनको भी अपने बराबर तपस्या का हकदार मानते हुए यह वरदान दिया कि मेरे साथ ही माँ लक्ष्मी की भी पूजा अर्चना श्रद्धालुओं द्वारा की जाएगी। इसी समय उन्होंने अपने को बद्रीनाथ नाम से जाना जाये ऐसी घोषणा भी की। भगवान विष्णु ने जिस स्थान पर तपस्या की थी वह स्थान तप्तकुंड के नाम से जाना गया तथा प्रत्येक मौसम में यहां गर्म धारा बहने लगी। तप्तकुंड के निकट ही चरणपादुका ,शेषनेत्र ताल ,व्यासगुफा ,गणेशगुफा व भीमपुल स्थित हैं।  
बद्रीनाथ मंदिर के कपाट प्रत्येक वर्ष मई महीने में खुलते हैं और नवम्बर महीने के तीसरे सप्ताह में बंद हो जाते हैं। ऐसा मौसम के कारण होता है। 

प्रमुख दर्शनीय स्थल :-

१- अलकनंदा नदी के किनारे स्थित तप्तकुण्ड जिसमें गर्म पानी में स्नान कर श्रद्धालु भगवान बद्रीनाथ जी का दर्शन करते हैं। 
२-शेषनाग के प्रतिबिम्ब स्वरूप शिलाखण्ड जिसे शेषनेत्र के नाम से जाना जाता है ,यहां से ४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 
३- चरणपादुका जो भगवान विष्णु के चरण चिह्न के रूप में जानी जाती है ,यहीं पर थोड़ी दूर पर स्थित है। 
४ -ब्रह्मकपाल जो एक समतल वर्गाकार चबूतरा है ,इसके निकट ही स्थित है। 
५- नीलकण्ठ का  हिमाच्छादित शिखर यहां से स्पष्ट दिखाई पड़ता है। 
६- अलकनंदा नदी का उदगम स्थल अलकापुरी जो कुबेर का निवास स्थान  भी माना जाता है ,यहां से थोड़ी दूर पर ही स्थित है। 
७- सतोपंथ जहां से महाराज युधिष्ठिर ने सशरीर स्वर्गारोहण किया था ,कुछ ही दूर पर स्थित है। 
८- सरस्वती नदी जो माणा गाँव में दृश्य हैं ,इसके सन्निकट स्थित हैं। 
९- भगवान विष्णु के तपस्या से उनकी जंघा से उत्पन्न उर्वशी का मन्दिर बामणी गाँव में स्थित है। 
१०-वसुधारा जहां अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी ,माणा गाँव से ८ किलोमीटर दूर स्थित है। 
११- लक्ष्मी वन माँ लक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध वन यहां से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। 
१२- भीमपुल सरस्वती नदी पर स्थित है जिसका निर्माण पाण्डु -पुत्र भीम ने करवाया था ,यहीं पर है। 
१३- वेदव्यास गुफा व गणेश गुफा यहीं पर स्थित है जहाँ उपनिषदों की रचना हुई थी। 
१४-माता मूर्ति मन्दिर जो भगवान बद्रीनाथ की माता के रूप में पूज्य हैं ,का विशाल मंदिर यहीं पर स्थित है। 
बद्री नाथ धाम यात्रा के समय चारों ओर पर्वत श्रृंखलाएँ व मनमोहक घाटियो  के दर्शन होते हैं। यहां दुर्गम पहाड़ियों पर सँकरे मार्ग से छोटे वाहनों से ही पहुंचा जा सकता है। बद्रीनाथ धाम से ऊपर की ओर नारायण पर्वत पर दृष्टि डालने पर ऐसा प्रतीत होता है कि शेषनाग का फन बद्रीनाथ धाम पर प्रतिबिम्बित हो रहा है।इस यात्रा के दौरान प्राकृतिक दृश्य, शुद्ध हवा ,एवं स्वच्छ वातावरण का अनुभव अपने आप में अविस्मरणीय होता है।  श्रद्धालु इस यात्रा की समाप्ति पर अपने समस्त पापों से मुक्ति तथा आध्यात्मिक उपलब्धि के चरमोत्कर्ष की अनुभूति करते हैं और अंततः मोक्ष प्राप्त करते हैं।  कहा जाता है कि इस यात्रा का दौरान भगवान बद्रीनाथ जी की निम्नांकित स्तुति करते हुए यात्रा करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं :---
पवन मन्द ,सुगन्ध शीतल ,हेम मन्दिर शोभितम। 
निकट गंगा ,बहत निर्मल ,श्री बद्रीनाथ विश्वाम्भरम्। 
शेष सुमिरन ,करत निशिदिन,धरत ध्यान माहेश्वरम्। 
वेद , ब्रह्मा करत स्तुति , श्री बद्रीनाथ विश्वाम्भरम्। 
शक्ति गौरी ,गणेश शारद ,नारद मुनि उच्चारणम्। 
योग ध्यान अपार लीला ,श्री बद्रीनाथ विश्वाम्भरम्। 
इन्द्र, चन्द्र, कुबेर, दिनकर ,धूप दीप  प्रकाशितम। 
सिद्ध मुनिजन,करत जयज,श्री बद्रीनाथ विश्वाम्भरम्। 
यक्ष ,किन्नर करत कौतुक ,ज्ञान गन्धर्व प्रकाशितम। 
श्री लक्ष्मी कमला चँवर डोले,श्री बद्रीनाथ विश्वाम्भरम्। 
श्रीबद्रीनाथ की पढत स्तुति होत पाप विनाशनम। 
कोटि तीर्थ  भयो  पुण्य, प्राप्त  यह  फलदायकम  

Thursday, February 25, 2016

केदारनाथ धाम

बद्रीनाथ धाम की भांति केदारनाथ धाम भी हिंदुओं के प्रमुख चार धामों में से एक धाम के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष भारत के सभी प्रांतों से लाखों श्रद्धालु भक्त केदारनाथ जी के दर्शन के लिए आते रहते हैं। यह धाम प्रमुख रूप से भगवान शंकर को समर्पित है। केदारनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक शिवलिंग तथा पंच केदार में से प्रमुख केदार के रूप में जाना जाता है। सर्द जलवायु के कारण इस मंदिर का कपाट माह अप्रैल से नवंबर माह तक के लिए दर्शन हेतु खोला जाता है। इस मंदिर का निर्माण पांडव के वंशज जनमेजय द्वारा कराया गया था। इस मंदिर की आयु के संबन्ध में वास्तविक जानकारी नहीं है फिर भी यह विगत एक हजार वर्षों से इसी रूप में देखा जाता रहा है। राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार यह १२ -१३ वीं शताब्दी  का मंदिर है। यहां पर स्थित स्वयंभू शिवलिंग का वर्णन पुराणों में अवश्य दृष्टिगत होता है। आदि शंकराचार्य द्वारा  इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्र प्रयाग जिलान्तर्गत हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में केदार नाथ धाम स्थित है। यह समुद्रतल से ३५८१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है तथा इसके पृष्ठ भाग में बर्फ से आच्छादित विशाल पर्वत माला है। चौरीबारी हिमनद के कुण्ड से निकली मंदाकिनी नदी के निकट केदारनाथ पर्वत श्रृंखलाओं की घाटी में केदारनाथ धाम स्थित है। मंदिर के पृष्ठ भाग में शंकराचार्य की समाधि है। यह मंदिर कत्यूरी शैली में निर्मित होने के कारण इसे वास्तुकला का अद्वितीय प्रतीक माना  जाता है। मंदिर के गर्भगृह में उभरती हुई नुकीली चट्टान की पूजा भगवान शिव के रूप में की जाती है। केदारनाथ धाम पहुँचने के लिए रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होते हुए २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक मोटरमार्ग से तथा आगे की १४ किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर सम्पन्न की जाती है। मार्ग में कई मोड़ व ढलान मिलते हैं। केदारनाथ मंदिर मंदाकिनी नदी के घाट पर निर्मित है। कपाट  छोटा होने के कारण तथा मंदिर की स्थिति घाटी में होने के कारण मंदिर के अन्दर पर्याप्त प्रकाश नहीं मिलता है। यहां स्थित स्वयंभू लिंग की लम्बाई २ फिट है। मंदिर में द्रौपदी सहित पञ्च पांडवों की विशाल मूर्ति भी स्थापित की गयी है। मंदिर के पीछे अनेकों कुण्ड स्थित हैं जिनमें पूजा - अर्चना व तर्पण आदि क्रिया सम्पन्न की जाती है। केदारनाथ पहुँचने के लिए हरिद्वार से ऋषिकेश १५ मील ,ऋषिकेश से देवप्रयाग ४४ मील ,देवप्रयाग से श्रीनगर १९ मील ,श्रीनगर से रुद्रप्रयाग १८ मील ,रुद्रप्रयाग से अगस्तमुनि १२ मील ,अगस्तमुनि से कुंडचट्टी १० मील ,कुंडचट्टी से गुप्तकाशी ३ मील ,गुप्तकाशी से नलचट्टी २ मील ,नलचट्टी से फलचट्टी 2मील ,फलचट्टी से सोनप्रयाग १६ मील सोनप्रयाग से गौरीकुंड ३ मील ,गौरीकुंड से केदारनाथ ७ मील दूर है। इस प्रकार कुल १५१ मील की दूरी तय करके केदारनाथ पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक साक्ष्य :-

केदारनाथ मंदिर का निर्माण  १२ वीं -१३ वीं शताब्दी में हुआ माना  जाता है।  भोज स्तुति के अनुसार यह सम्वत १०७६-९९ में राजा भोज द्वारा बनवाया गया था। यह भी मान्यता है कि इसका निर्माण आदि शंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में कराया गया था जिसका  पाण्डवों द्वारा द्वापरकाल में नवनिर्माण कराया गया । प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० शिवप्रसाद डबराल के अनुसार आदि शंकराचार्य से पूर्व भी शैव भक्त केदारनाथ धाम की यात्रा किया करते थे। वर्ष २०१३ में आकस्मिक भूस्खलन एवं भारी वर्षा से आयी बाढ़ के कारण केदारनाथ धाम स्थित मंदिर अत्यधिक क्षतिग्रस्त हो गए थे जिसके कारण मंदिर की बाहरी दीवारें पूरी तरह से गिर गयीं थीं किन्तु ऐतिहासिक मंदिर का मुख्य भाग तथा सदियों पुराना गुम्बद यथावत आज भी सुरक्षित है। इसका नवनिर्माण कराकर पहले के स्वरूप में ला दिया गया है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास हेतु धर्मशालाएं एवं पण्डों के पक्के मकान भी क्षतिग्रस्त हो गए थे। उपरोक्त कथनों से यह पुष्ट होता है कि समय समय पर केदारनाथ का नवनिर्माण कराया जाता रहा है। केदारनाथ मंदिर का निर्माण ६ फिट ऊंचे चौकोर चबूतरे पर किया गया है। मंदिर के मुख्य भाग में मण्डप व गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है और मंदिर के  बाहर प्रांगण में शिव के वाहन नंदी की मूर्ति स्थापित की गयी है। मंदिर का मूल निर्माण कब और किसके द्वारा कराया गया था ,इस संबन्ध में कोई प्रामाणिक व ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता है। इस मंदिर के पुजारी आज भी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही नियुक्त किये जाते हैं तथा संरक्षण वर्तमान शंकराचार्य जी का रहता है। 
     केदारनाथ धाम स्थित ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संदर्भ में ऐसी मान्यता है कि हिमालय के केदार चोटी पर भगवान विष्णु के अवतार स्वरूप महान तपस्वी नर और नारायण तपस्या करते थे। उन्हीं की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी प्रकट होकर उनके अनुरोध पर ज्योतिर्लिंग के रूप में हमेशा यहीं पर वास करने लगे। केदारनाथ श्रृंग पर स्थित होने के कारण इसे केदारनाथ धाम की संज्ञा दी गयी। 
   दूसरी मान्यता है कि महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरान्त पाण्डव अपने बंधु- बांधवों की हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए भगवान शिव के दर्शन के लिए हिमालय की यात्रा की थी। भगवान शिव पाण्डवों  को दर्शन नहीं देना चाहते थे अतः उन्होंने बैल का रूप धारण कर अन्य गाय एवं  बैलों के झुण्ड में घुसकर  उन्हें दिग्भ्रमित करना चाहे किन्तु पाण्डवों ने भगवान शिव को पहचान लिया और भीम ने उस बैल को रोकने हेतु अपने दोनों पैरों को पर्वत की चोटी के सहारे फैला दिया। सभी गाय बैल तो उनके पैर के नीचे से निकल गए किन्तु शिवरूप धारी बैल भीम के पैर के नीचे से निकलने में संकोच करने लगे  तो भीम ने बैल की पीठ और पूंछ को बलपूर्वक पकड़ना चाहा। शिव रूपधारी बैल ने ऐसा देखकर अंतर्ध्यान होना चाह ही रहे थे कि भीम ने उनके पीठ को बलपूर्वक पकड़ लिया। भीम की भक्ति एवं आग्रह से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हो गए एवं युद्ध में मृत्यु प्राप्त पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। कहा जाता है कि जब भगवान शिव अंतर्ध्यान होना चाह रहे थे तो उनकी ऊपरी धड़ काठमांडू में प्रदर्शित हुआ जहाँ उन्हें पशुपतिनाथ के नाम से जाना गया। भगवान शिव की भुजाएं तुंगनाथ में ,मुख रुद्रनाथ में ,नाभि मदमदेश्वर में और जटायें कल्पेश्वर में प्रगट हुईं। 
भगवान शिव का प्रमुख मंदिर केदारनाथ में स्थित है। केदारनाथ के निकट ही भैरोनाथ मंदिर ,गंध सरोवर एवं वासु  की ताल स्थित हैं। केदारनाथ मंदिर में शिव पिण्ड को स्नान कराकर उसपर घी के तेल का लेपन किया जाता है और लेपन के पश्चात धूप, दीप ,नैवेद्य चढाकर विधिवत उनकी आरती की जाती है। सन्ध्या के समय भगवान शिव का श्रृंगार किया जाता है। 
चूंकि केदारनाथ व बद्रीनाथ धाम एक ही पर्वत श्रृंखला में स्थित हैं अतः जो श्रद्धालु केदारनाथ के दर्शन करते हैं वे बद्रीनाथ के दर्शन भी करते हैं। ऐसा न करने पर धाम की यात्रा निष्फल मानी  जाती है। कहा जाता है कि केदारनाथ पथ सहित नर नारायण मूर्ति के दर्शन से भक्तों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें जीवन्मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। 
केदारनाथ पहुँचने का मुख्य मार्ग गौरीकुंड से १५ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। इस पैदल यात्रा में घोड़े ,बग्घी ,खच्चरों का भी सहारा लिया जा सकता है। केदारनाथ धाम पहुँचने के लिए गंगोत्री से एक दूसरा मार्ग भी है। इस मार्ग में मनमोहक घाटियां व झरने भी दिखायी पड़ते हैं। यहां से वासु की ताल ८ किलोमीटर दूर है। अनेक ऋषि एवं मुनि आज भी इसके आस पास स्थित गुफाओं एवं कंदराओं में तपस्यारत देखे जा सकते हैं। 

दर्शन का समय :-

केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रान्ति से १५ दिन पूर्व खोले जाते हैं और अगहन संक्राति पर प्रातः चार बजे उन्हें घृत कमल वस्त्रादि से अलंकृत करके कपाट बंद कर दिए जाते हैं। पुनः ६ माह बाद अप्रैल में कपाट खोले जाते हैं। प्रायः केदारनाथ जी का मंदिर श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रातः ७ बजे खोला जाता है और दोपहर में एक से दो बजे के मध्य विशेष  पूजा करके भगवान के विश्राम के लिए कपाट बंद कर दिए जाते हैं। सांयकाल ५ बजे पुनः दर्शन के लिए कपाट खोले जाते हैं। पंचमुखी भगवान शिव की प्रतिमा का श्रृंगार  करने के पश्चात ७. ३० बजे से ८.३० बजे तक आरती की जाती है और उसके पश्चात कपाट बंद कर दिए जाते हैं। केदारनाथ जी के दर्शन ,पूजा - अर्चना व प्रसाद चढ़ाने हेतु रसीद काटी जाती है और उसी के अनुसार पूजा के विधान का अनुसरण करना आवश्यक होता है।

अन्य दर्शनीय स्थल :-

पदमपुराण के अनुसार केदारनाथ परिक्षेत्र में स्थित अनेकों धर्मस्थलों में पंचकेदार अतिमहत्वपूर्ण स्थल हैं। पंचकेदार के अन्तर्गत निम्न स्थल आते हैं :-

केदारनाथ :

-केदारनाथ में महिष की छिपी हुई मुद्रा में भगवान शिव विराजमान हैं। यह ऋषिकेश से २२९ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां तक पहुंचने के लिए १६ किलोमीटर की पैदल यात्रा पर्वतीय चढ़ाई चढ़कर करनी  पड़ती  है।

मदमाहेश्वर :- 

  यह पंचकेदार में दूसरा केदार है। यहां पर भगवान शिव महिष की नाभि स्वरूप में विराजमान हैं। यह ऊखीमठ से १२ मील की दूरी पर स्थित है। यहां तक पहुँचने के लिए कालीमठ होकर यात्रा करनी पड़ती है। रुद्रप्रयाग से केदारनाथ राष्ट्रिय राजमार्ग से ऊखीमठ होकर उनियाणा गाँव तक वाहन द्वारा पहुंचा जा सकता है। इसके बाद रासी गौंडार गांव से १० किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर  भगवान मदमाहेश्वर के दर्शन किये जा सकते हैं। दूसरा मार्ग गुप्तकाशी से कालीमठ तक वाहन द्वारा और कालीमठ से आगे पैदल चढ़ाई चढ़कर पहुंचा जा सकता है। 


तुंगनाथ :- 

यह पंचकेदार में तीसरा केदार कहलाता है। यहां पर भगवान शिव महिष के नाभि के ऊपर और सिर के नीचे के भाग अर्थात धड़ स्वरूप में स्थित हैं। यहां पर तुंगनाथ जी का प्राचीन मंदिर स्थापित है जिसमें भगवान शिव उक्त स्वरूप में विराजमान हैं। यह मंदिर समुद्रतट से १२२३५ फिट की ऊँचाई पर स्थित है। यह उत्तराखण्ड में मौजूद सभी तीर्थों में सबसे  ऊँचाई पर स्थित है। तुंगनाथ तक जाने के लिए दो रास्ते हैं पहला ऊखीमठ से चोपताधारतक वाहन द्वारा और आगे तीन किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर पैदल चलना पड़ता है।दूसरा मार्ग गोपेश्वर मंडल होते हुए चोपताधार तक जाता है।

रुद्रनाथ :- 

यह पंचकेदार में चौथा केदार कहा जाता है। रुद्रनाथ भारत का पहला ऐसा तीर्थ है जहां भगवान शिव के मुखाकृति के दर्शन होते हैं। शेष स्थानों पर उनके लिंग के ही दर्शन होते हैं। भगवान शिव रूद्र रूप में यहां विशाल गुफा में विराजमान हैं। यह विशाल गुफा दो खण्डों में विभक्त है। यहां तक पहुंचने के लिए गोपेश्वर से पैदल रुद्रनाथ तक जाना पड़ता है। गोपेश्वर से  ५ किलोमीटर पहले तक वाहन द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। आगे की यात्रा पैदल चलकर सम्पन्न करनी पड़ती है।   

कल्पेश्वर :-

पंचकेदारों में यह पांचवा केदार माना जाता है। यहां पर महषि रूप में भगवान शिव जटाजूट के साथ प्रतिष्ठित हैं। यह मंदिर  ६००० फिट की ऊँचाई पर बना हुआ है तथा ऊगम गाँव में हिरण्यवती नदी के किनारे स्थित है। यहां तक पहुँचाने के लिए हेलंगचट्टी से पैदल जाना पड़ता है और अलकनंदा पल को पार करके ७ किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचा जा सकता है।
उपरोक्त स्थलों के अतिरिक्त यहां स्थित गुप्तकाशी में विश्वनाथ जी  का प्रसिद्ध मंदिर दर्शनीय है जो रुद्रप्रयाग से २४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां  स्थित ऊखीमठ में केदारनाथ की रावल साहिब पीठ स्थित है जो मदमाहेश्वरसे १२ मील की दूरी पर है। यहां पर शिवजी का मंदिर व कुछ दुकानें व धर्मशालाएं बनी हुई हैं। यहां से गणेश चट्टी ३ मील की दूरी पर स्थित है। जोशीमठ रुद्रप्रयाग से ६९ मील दूर एवं पिपालकोटी से १९ मील दूर बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। यहां पर मंदिर  समिति का गेस्टहाउस व काली कमलीवाला धर्मशाला स्थित है भगवान बद्री नाथ का यह शीतकालीन आवास माना जाता है। यहां पर स्वामी शंकराचार्य का मठ स्थित है।   

Tuesday, February 23, 2016

ज्वाला जी

ज्वाला जी का मन्दिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले से ३० किलोमीटर दूर प्रकृति आँचल में स्थित है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में वर्णित ५१ शक्तिपीठों में सम्मिलित है। इसे जोतावाली देवी का मंदिर भी कहा जाता है। यहां पर हिन्दुओं के पूज्य अन्य मंदिर भी हैं। इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण सन १८३५ ई ० में राजा संसारचन्द्र ने करवाया था। मंदिर के अंदर माँ की नौ ज्योतियाँ हमेशा ही प्रज्ज्वलित रहती हैं। इन नौ ज्योतियों में महाकाली ,अन्नपूर्णा, चण्डी,हिंगलाज ,विंध्यवासिनी ,महालक्ष्मी, सरस्वती ,अम्बिका एवं अंजीदेवी सम्मिलित हैं। यह मंदिर दिल्ली से ४७३ किलोमीटर, पठानकोट से १२३ किलोमीटर ,शिमला से २१२ किलोमीटर एवं धर्मशाला से ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका निकटवर्ती हवाई अड्डा गूगल है जो ज्वाला जी से ४६ किलोमीटर दूरस्थित है। रेलमार्ग द्वारा पठानकोट से चलनेवाली विशेष रेलगाड़ी से यहां पहुंचा जा सकता है। पालमपुर से सड़क मार्ग द्वारा मंदिर तक पहुँचने की सुविधा है। दिल्ली ,पठानकोट ,शिमला आदि शहरों से सीधे बस द्वारा अथवा निजी वाहन से इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। 

पौराणिक मान्यता :-

दुर्गा शप्तशती एवं देवी माहात्म्य में देवताओं और दानवों के बीच सौ वर्षों तक युद्ध चलने एवं इस युद्ध में दानवों की विजय का वर्णन मिलता है। दानवों से पराजित होकर देवतागण ब्रह्माजी के साथ विष्णुजी एवं शिवजी के पास गए। सम्पूर्ण  वृतान्त सुनकर वे सभी  अत्यधिक क्रोधित हो गए जिसके कारण शिव के तेज से देवी का मुख ,विष्णु के तेज से बाहें ,ब्रह्मा के तेज से चरण, यमराज के तेज से बाल ,इन्द्र के तेज से कटि प्रदेश एवं अन्य देवताओं के तेज से देवी के शरीर का निर्माण हुआ।तत्पश्चात  देवताओं की आराधना से प्रसन्न होकर देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध कर उसका वध कर दिया। तभी से देवी को महिषासुर मर्दिनी भी कहा जाता है। 
ज्वालाजी शिव और शक्ति से सम्बद्ध  होने के कारण एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ के रूप में जानी जाती हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार जिन ५१ स्थानों पर देवी के कोई न कोई अंग गिरे थे उन स्थानों को शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त हो गयी। जब राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया था तथा शिव एवं सती  को उस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया था तब सती को अपने पिता का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा था और वे क्रोधवश यज्ञ में पहुँच गयीं थीं। वहां जाकर सती ने देखा कि यज्ञस्थल पर भगवान शिव का बहुत ही अपमान किया जा रहा है तो वे इसे सहन न कर सकीं  और हवनकुण्ड में कूद पड़ीं। भगवान शिव को जब इस घटना की जानकारी हुई तो वे यज्ञस्थल पर पहुंचकर सती के शरीर को हवनकुण्ड से निकालकर वहीं पर ताण्डवनृत्य प्रारम्भ कर दिया। ऐसा देखकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। ब्रह्माण्ड को इस संकट में देखकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के ५१ टुकड़े कर दिए। यह ५१ टुकड़े जिन जिन स्थानों पर गिरे वहीं शक्तिपीठ बन गयी। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर सती की जीभ गिरी थी। कहा जाता है कि ज्वाला मंदिर में एक अलौकिक ज्योति हमेशा स्वतः प्रज्ज्वलित रहती है। 

ऐतिहासिक कथा :-

ज्वाला मंदिर के इस स्थल को सर्वप्रथम एक गोपालक ने देखा था। गाय चराते हुए वह इस स्थल पर पहुंचा तो उसने अपनी गाय का दूध इस पवित्र ज्वालामुखी में दाल दिया तभी ज्वाला जी ने कन्या का रूप धारण कर इस दूध को पी लिया था। इस घटना को  लोगों ने जब स्थानीय राजा  को बतायी तब राजा के द्वारा अपने सिपाहियों से इसकी पुष्टि करायी गयी और इस घटना से अत्यधिक प्रभावित होकर वहां देवी के एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया । 
ज्वाला जी के संबन्ध में एक अन्य कथा भी प्रचलित है जो मुगलकाल से संबंधित है। सम्राट अकबर जो हिन्दू धर्म का बहुत आदर करता था जब ज्वाला जी की उक्त घटना ध्यानु नामक एक व्यक्ति से सुनी तब माँ की नौ स्वतः प्रज्ज्वलित ज्योति के दर्शन हेतु ध्यानु भक्त के साथ इस स्थल की यात्रा की। अकबर ने ज्वालाजी के स्थल पर ध्यानु भक्त के घोड़े का सिर कटवा दिया और कहा कि अगर तेरी माँ में अलौकिक शक्ति है तो घोड़े के सिर को जोड़कर उसे पुनः जीवित करा लो। ध्यानु भक्त ने देवी की स्तुति की और अपना सिर भी माता को चढ़ा दिया । माता की शक्ति से ध्यानु भक्त और घोड़े दोनों का सिर स्वतः जुड़ गया और वे जीवित भी हो गए। इस घटना से अकबर बहुत ही प्रभावित हुआ और उसने देवी के मंदिर में सवा मन का सोने का क्षत्र चढ़ाया और दिल्ली से ज्वाला जी के मंदिर  तक नंगे पांव पैदल चलकर आया। कहा जाता है कि माता ने यह भेंट स्वीकार नहीं की और सोने के क्षत्र को किसी अन्य रहस्य्मयी धातु में परिवर्तित कर दिया। यह क्षत्र आज भी यहां विद्यमान है। ज्वाला जी के मंदिर में आरती के समय एक अलौकिक एवं अदभुत दृश्य देखने को मिलता है। यहां पर रात  और दिन के मध्य ५ बार आरती की जाती है।  प्रथम आरती सूर्योदय के समय दूसरी  भोग लगाने के पूर्व एवं तीसरी बार सांयकाल ,चौथी बार रात्रि में की जाती है। पाँचवी और अंतिम बार आरती देर रात देवी के शयन के पूर्व शयन शैय्या को फूलों व सुगन्धित पदार्थों से सजाकर की जाती है। यह क्रिया प्रत्येक दिन भक्तों द्वारा की जाती है। शयन के समय आरती में काफी संख्या में श्रद्धालुगण सम्मिलित होते हैं। 

 विशेष आयोजन 

नवरात्रि के समय ज्वाला जी के मंदिर स्थल के पास एक विशाल मेले का आयोजन होता है। नवरात्रि में श्रद्धालुओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। प्रांगण में अखण्ड देवी पाठ का आयोजन किया जाता है और वैदिक मन्त्रों के साथ हवन व विशेष पूजा -अर्चना की जाती है। यहां आने वाले श्रद्धालु अपने साथ लाल रंग की ध्वजा अपने साथ लाते  हैं और माँ को श्रद्धा पूर्वक चढ़ाते हैं। 
मंदिर का मुख्य द्वार बहुत ही आकर्षक एवं भव्य है। मंदिर से थोड़ी ही दूरी  पर अकबर द्वारा निर्मित एक नहर स्थित है जिसे अकबर नहर के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि नौ स्वतः प्रज्ज्वलित ज्योतियों को बुझाने हेतु इस नहर का निर्माण कराया था। ज्वाला मंदिर से थोड़ी दूर पर गोरखनाथ जी का मंदिर है। यहां पर एक ऐसा कुण्ड  भी स्थित है जिसका पानी खौलता हुआ प्रतीत होता है किन्तु गर्म नहीं होता है। ज्वाला जी से ४. ५ किलोमीटर दूरी पर नगिनी माता का मंदिर है तथा ५ किलोमीटर दूरी पर रघुनाथ जी का मंदिर है। रघुनाथ मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था जिसमें राम लक्ष्मण व सीता की मूर्ति स्थापित की गयी है। ज्वाला जी प्रांगण में अनेकों धर्मशालाएं एवं होटल बने हुए हैं जहां रहने एवं खानपान का समुचित प्रबन्ध रहता है। निकटवर्ती शहर पालमपुर व कांगड़ा हैं। यहां से मंदिर तक जाने के लिए किराये की टैक्सी व् डीलक्स बसें उपलब्ध हो जाती हैं। दिल्ली से ज्वाला देवी तक सीधे दिल्ली परिवहन निगम की बसें उपलब्ध रहतीं हैं।     

चामुण्डा देवी

चामुण्डा देवी ५१ शक्तिपीठों में से एक प्रमुख शक्तिपीठ है। यहां पर वर्ष भर श्रद्धालु चामुण्डा देवी के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु आते रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां पर आने वाले भक्तों की समस्त मनोकामनाएं दर्शन मात्र से ही पूर्ण हो जाती हैं। चामुंडा देवी का मन्दिर माता काली को समर्पित है। चूँकि माता काली शक्ति और संहार की देवी हैं इसीलिए चंड  और मुंड के संहार करने के कारण इन्हें चामुण्डा देवी की संज्ञा दी जाती है। अतः इस मंदिर में स्थापित शक्तिस्वरूपा माँ काली की पूजा चामुण्डा देवी के रूप में की जाती है। इसी कारण इन्हें शिवशक्ति के प्रमुख केंद्र के रूप में मान्यता दी जाती है। 

भौगोलिक स्थिति :-

चामुंडा देवी का प्रसिद्ध मन्दिर हिमांचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में ज्वाला जी के मंदिर से कुछ ही दूर पर स्थित है। यह मंदिर समुद्र तल से १००० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहां से हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण एवं सम जलवायु के कारण भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लाखों श्रद्धालु प्रत्येक वर्ष यहां आते हैं। यह मंदिर धर्मशाला से १५ किलोमीटर दूर बँकर नदी के किनारे पर स्थित है। यहां पहुँचने के लिए कई मार्ग हैं किन्तु श्रद्धालु काँगड़ा के पहले ज्वालाजी का दर्शन करते हुए चामुण्डा देवी का दर्शन करते हैं। ज्वालाजी से डेढ़ दो घंटे की यात्रा करके चामुण्डा देवी पहुँचा जा सकता है। चामुण्डा देवी तक पहुँचने का दूसरा मार्ग पठानकोट से छोटी लाइन रेलमार्ग द्वारा है जो पपरोला तक जाती है।  पठानकोट -पपरोला के मध्य में आप चामुण्डा देवी रेलवे स्टेशन पर उतरकर मंदिर तक आसानी से पहुँच सकते हैं। सड़कमार्ग से बस अथवा निजी वाहन से भी पहुंचा जा सकता है। बस द्वारा पठानकोट से धर्मशाला होकर भी यहां पहुँच जा सकता है। चूंकि पठानकोट प्रमुख राज्यों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है अतः रेल द्वारा आसानी से यात्रा की जा सकती है। 
चामुण्डा देवी का मंदिर पहाड़ियों के मध्य स्थित है। अतः पर्वतीय सौन्दर्य का आनन्द लेते हुए चामुण्डा देवी का दर्शन किया जा सकता है। हरीभरी वादियों ,कल -कल की ध्वनि करते हुए झरने सहज ही मन को आकर्षित कर लेते हैं। वायु मार्ग से पहुँचने के लिए हवाई अड्डा गूगल में स्थित है !गूगल से २८ किलोमीटर की दूरी पर चामुण्डा देवी का मंदिर है। यहां से टैक्सी अथवा बस के द्वारा पहुँचा जा सकता है। सड़क मार्ग से हिमाचल प्रदेश के पर्यटन विभाग की बसें हमेशा उपलब्ध रहतीं हैं। चामुण्डा देवी धर्मशाला से १५ किलोमीटर एवं ज्वालाजी से ५५ किलोमीटर दूर हैं। अतः श्रद्धालु इन दोनों तीर्थस्थलों की यात्रा आसानी से एकसाथ कर सकतें हैं। शीतकाल में यहां काफी सर्दी पड़ती है जिसके कारण तापमान शून्य से काफी नीचे पहुँच जाता है। अतः गर्म कपड़े लेकर ही यहां की यात्रा करना सुविधापूर्ण होगा। अप्रैल से अक्टूबर तक मौसम अपेक्षाकृत गर्म होता है लेकिन रात में सर्दी का अहसास होता है। जनवरी से मार्च तक यहां की यात्रा के लिए उपयुक्त समय माना  जाता है.

पौराणिक कथा एवं साक्ष्य :-

दुर्गा शप्तशती में माँ चामुण्डा देवी का वर्णन किया गया है। जब शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्यों का देव और मानव पर अत्याचार बहुत अधिक बढ़ गया था एवं देवतागण  अधिक परेशान थे ऐसे समय में देवता और मानव मिलकर देवी दुर्गा की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर माँ दुर्गा ने शुम्भ और निशुम्भ से उनकी रक्षा करने का वचन दिया। कहा जाता है कि एक बार शुम्भ और निशुम्भ के दूतों ने माँ कौशिकी को पहचान लिया और शुम्भ और निशुम्भ को इसकी जानकारी दी इस पर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत माँ  कौशिकी के पास यह सन्देश लेकर भेजा कि शुम्भ व निशुम्भ चूंकि तीनों लोकों के राजा हैं अतः वे उनकी रानी बनने को तैयार हो जाएँ। सन्देश सुनकर माता ने उसी दूत से यह कहा कि उन्हें मालूम है कि वे दोनों बहुत शक्तिशाली हैं किन्तु उनके प्रस्ताव स्वीकार करने के पूर्व मेरी यह शर्त उस तक पहुंचा दो कि मैं उसी से विवाह करूगी जो युद्ध में मुझे पराजित कर देगा। दूत वापस आकर माँ द्वारा बतायी गयी शर्त से शुम्भ और निशुम्भ को अवगत कराया। माँ का सन्देश सुनकर दोनों बहुत क्रोधित हुए और माँ द्वारा लगाई गयी शर्त की हंसी उड़ाई।
शुम्भ और निशुम्भ ने चण्ड और मुण्ड  नामक दो असुरों को यह आदेश दिया कि वे कौशिकी के केश खींचते हुए उसके पास ले आयें। चण्ड और मुण्ड दोनों अपने स्वामी के आदेश का पालन करने हेतु कौशिकी के निकट गए और उन्हें अपने साथ चलने को कहा। माँ कौशिकी के मना करने पर भी जब वे दोनों असुर अड़े रहे और देवी के ऊपर प्रहार करने के लिए उद्यत हो गए तब माँ कौशिकी ने अपना काली का  विकराल रूप धारण कर लिया और दोनों असुरों का  वहीं पर वध कर दिया। इनके वध के पश्चात ही माँ को चामुण्डा देवी के नाम से जाना जाने लगा। 
देवी की उत्पत्ति कथा का वर्णन दुर्गा शप्तशती एवं देवी माहात्म्य में विधिवत वर्णित है जिसमें यह  बताया गया है कि सैकड़ों वर्षों तक देवताओं एवं असुरों के मध्य हुए युद्ध में अन्ततः असुरों की विजय हुई थी।  असुरराज महिषासुर  स्वर्ग पर अधिकार करके वहां का भी राजा बन बैठा था और देवताओं को बलात धरती पर रहने के लिए मजबूर कर दिया था। इस अत्याचार से क्षुब्ध होकर देवतागण भगवान विष्णु के पास सहायतार्थ पहुँच गए। भगवान विष्णु ने उन्हें देवी की आराधना करने का परामर्श दिया। अतः देवताओं ने त्रिदेव ब्रह्मा ,विष्णु एवं महेश से उत्पन्न दिव्य प्रकाश स्वरूपा देवी की आराधना की और यथाशक्ति भेंट आदि चढ़ाई। भगवान शिव ने सिंह ,विष्णु ने कमल ,इन्द्र ने घंटा तथा समुद्र ने माला उन्हें  भेंट की जिससे प्रसन्न होकर देवी ने देवताओं को यह वरदान दिया वे देवताओं की रक्षा अवश्य करेगी। इस वरदान पूर्ति हेतु देवी ने महिषासुर से युद्ध करके अंततः उसका वध कर दिया। इसीलिए माँ देवी को महिषासुर मर्दिनी भी कहा जाता है।  
चामुण्डा देवी को शिवशक्ति का प्रमुख केंद्र माना जाता है। इसीलिए इन्हें चामुण्डा नदीकेश्वेर भी कहते हैं। यह सिद्ध पीठ बाणगंगा के तट पर स्थित है। मान्यता है कि भगवान शंकर मृत्यु ,विनाश और शवतारी विसर्जन के रूप में चामुण्डा देवी के इस मंदिर में विद्यमान हैं। यह तांत्रिकों एवं योगियों की तंत्र साधना का भी प्रमुख केंद्र माना जाता है। श्रद्धालुगण माँ के दर्शन के पूर्व बाणगंगा में विधिवत स्नान करते हैं क्योंकि बाणगंगा में स्नान शुभ एवं मंगलकारी माना  गया है। स्नान करते समय भक्तगण भगवान शिव का स्मरण करते हैं। मंदिर के पास पीछे एक पवित्र गुफा के अंदर भगवान शिव का प्राकृतिक शिवलिंग स्थापित है और विभिन्न देवी देवताओं के चित्र एवं आकृति  यहां देखी जा सकती है। मंदिर के मुख्य द्वार पर श्री हनुमानजी एवं भैंरोंनाथ की प्रतिमा स्थापित की गयी है। ऐसी मान्यता है कि हनुमान जी माँ की रक्षा के लिए यहां हमेशा विराजमान रहते हैं। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

चामुण्डा देवी के ठीक पीछे आयुर्वेदिक चिकित्सालय ,पुस्तकालय एवं संस्कृत विद्यालय स्थित हैं। मंदिर प्रांगण में बहुत सी दुकानें हैं जिसमें धार्मिक पुस्तकें ,पूजन सामग्री एवं माता को चढ़ाने हेतु प्रसाद ख़रीदा जा सकता है। नवरात्रि के समय चामुण्डा देवी के दर्शन के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु  यहां उपस्थित होते हैं। मंदिर के अन्दर अखण्ड पाठ विशेष सप्तचन्डी का पाठ ,नवरात्रि पूजा एवं कीर्तन की व्यवस्था की जाती है। इसी समय यहां पर एक विशाल मेले का आयोजन भी होता है। विशेष हवन पूजा आदि के लिए लम्बी -लम्बी कतारें लगने का दृश्य भी यहां देखने को मिलता है। 

Friday, February 19, 2016

अमरनाथ धाम

अमरनाथ धाम हिन्दुओं का एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसे  हिमालय की गोद  में हिन्दू- धर्म के उच्च शिखर पर फहरा रही धर्म- पताका के रूप में जाना जाता है !यद्यपि बाबा अमरनाथ की यात्रा बहुत ही कठिन एवं दुर्गम है फिर भी प्रत्येक वर्ष लाखों श्रद्धालुओं इस  हिम निर्मित प्राकृतिक शिवलिंग जिसे अमरनाथ के नाम से जाना जाता है ,के दर्शन हेतु पहुँचने की तत्परता एवं स्पर्धा में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। 

भौगोलिक स्थिति :-

हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थस्थल अमरनाथ धाम जम्मू एवं कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर पूर्व में समुद्र तल १३६०० फुट की ऊँचाई पर एक पवित्र गुफा में स्थित है !यह गुफा लगभग ६० फुट लम्बी ,३० फुट चौड़ी एवं ५ फुट ऊंची है !यह पवित्र गुफा चारों ओर से हिमाच्छादित है !गुफा के भीतर हिम से निर्मित एक विशाल शिवलिंग दृष्टिगत होता है। इसी गुफा में सफेद कबूतरों का एक जोड़ा कभी कभी दिखाई पड़ता था।  यहां दृष्टिगत शिवलिंग को हिमानी स्वम्भू शिवलिंग भी कहा जाता है। अमरनाथ की यात्रा आषाढ़ पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर पूरे सावन महीने तक  की जाती है क्योंकि इस समय यात्रा के लिए मौसम अनुकूल होता है !अमरनाथ गुफा की सम्पूर्ण परिधि १५० फुट है और गुफा के भीतर जलकण हमेशा टपकते रहते हैं। इन्हीं टपकती हुई बूंदों की सतत क्रिया से प्राकृतिक शिव लिंग का स्वतः निर्माण होता है। प्राकृतिक शिवलिंग १० फुट लम्बा एवं ४-५ फुट चौड़ा दृष्टिगत होता है। यद्यपि प्रत्येक वर्ष आकार में किंचित परिवर्तन अवश्य होता रहता है क्योंकि चन्द्रमा के आकार के घटने -बढ़ने के साथ ही साथ इसका आकार भी घटता -बढ़ता रहता है !श्रावण पूर्णिमा के दिन यह शिवलिंग अपने पूर्णाकार में देखा जा सकता है !अतः श्रावण पूर्णिमा के पहले ही श्रद्धालु अमरनाथ की यात्रा हेतु पंजीकरण करा लेते हैं !

पौराणिक साक्ष्य :-

ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव अपने हिमालय प्रवास के दौरान इसी गुफा में तपस्या की थी और इसी स्थल पर माता पार्वती को अमरकथा सुनाई थी। कथा सुनाते  समय सफेद कबूतर का एक जोडे ने गुफा में कहीं एकांत  छिपकर अमरकथा का श्रवण कर लिया था। इसी कथाश्रवण के प्रभाव से शुकदेव ऋषि अमर हो गए थे। अमरनाथ गुफा में यदि कोई श्रद्धालु इन सफेद कबूतरों का दर्शन संयोगवश कर लेता है तो वह उसे साक्षात भगवान शिव एवं पार्वती का दर्शन मानकर वह अपने को धन्य मान लेता है। 
कुछ विद्वानों का यह भी अभिमत है कि भगवान शिव जब माँ पार्वती को अमरकथा सुनाने हेतु इस गुफा की ओर प्रस्थान कर रहे थे तो उन्होंने अपने शरीर पर लिपटे हुए नागों में से कुछ  को अनंतनाग में ,मस्तक पर स्थित चन्दन को चंदनबाड़ी में ,अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले में लिपटे हुए शेषनाग को शेषनाग स्थल पर छोड़ दिया था। इसी कारण इनके नाम से ही इन स्थलों का नामकरण कर दिया गया। अमरनाथ यात्रा के दौरान उक्त स्थान आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में एक मुसलमान चरवाहे ने सर्वप्रथम इस प्राकृतिक शिवलिंग का दर्शन किया था और उसके द्वारा ही अन्य स्थानीय लोगों को इस संबन्ध में बताया गया था तभी से बाबा अमरनाथ के प्राकृतिक शिवलिंग के दर्शन की परम्परा आरम्भ हुई जो आजतक यथावत श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्रबिन्दु बना हुआ है। 

अमरनाथ यात्रा :-

अमरनाथ गुफा तक पहुँचने के लिए सम्प्रति दो मार्ग उपलब्ध हैं। प्रथम मार्ग पहलगाम होकर और द्वितीय मार्ग सोनमर्ग /बलटाल होकर। इन दोनों स्थानों से सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। पहलगाम से यात्रा आरम्भ करना अपेक्षाकृत सरल व आरामदायक माना जाता है। रोमांच एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रेमी लोग इसी मार्ग का चयन करते हैं। यद्यपि अमरनाथ की यात्रा काफी कठिन और उसके मार्ग अत्यधिक दुर्गम हैं ,फिरभी श्रद्धालुओं की आस्था उन्हें वहां तक निर्विघ्न पहुंचा ही देती है। अमरनाथ गुफा आसपास का तापमान शून्य डिग्री से काफी नीचे होता है। इसीलिये उपयुक्त यात्रा का समय माह अगस्त माना गया है। पठानकोट से आगे की यात्रा करने पर सर्वप्रथम चक्की नदी का पुल और रावी का लहराता हुआ दरिया मिलता है। जम्मू शहर से ३१५ किलोमीटर की दूरी पर पहलगाम स्थित है जहाँ से अमरनाथ गुफा के लिए यात्रा प्रारम्भ होती है !यहांतक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग से बस द्वारा अथवा निजी वाहन से पहुंचा जा सकता है। पहलगाम प्रसिद्ध पर्यटक स्थल भी है। अतः यहां से चारों ओर हिमाच्छादित चोटियों के मध्य स्थित घाटियों के दर्शन होते हैं। पहलगाम में धर्मशालाएं ,होटल एवं जम्मू सरकार की ओर से लंगर आदि की व्यवस्था उपलब्ध है। अमरनाथ गुफा की ओर यहीं से पैदल यात्रा आरम्भ की जाती  है। यात्रा का पहला पड़ाव चंदनवाड़ी पड़ता है जो पहलगाम से १६ किलोमीटर दूर है !यात्री यहां किञ्चित विश्राम करके आगे की ओर बढ़ते हैं !ठण्ड से बचने तथा थकान के
 बाद यहां रात्रि विश्राम हेतु कैंप की व्यवस्था रहती है। चंदनवाड़ी से पिस्सूघाटी की ओर बढ़ने पर लिददर नदी के किनारे किनारे आसानी से चढ़ाई चढ़ ली जाती है किन्तु आगे की यात्रा अपेक्षाकृत कठिन हो जाती है। चंदनवाड़ी से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्द शेषनाग नामक दूसरा पड़ाव है। शेषनाग तक पहुँचने में श्रद्धालुओं को अपेक्षाकृत अधिक थकान का अनुभव होने लगता है। यहां पर पर्वतों के मध्य नीले पानी की एक झील है जिसकी लम्बाई लगभग डेढ़ किलोमीटर है। चूँकि भगवान शिव ने अमरकथा सुनाने के पूर्व यहींपर शेषनाग का परित्याग किया था अतः ऐसा माना जाता है कि इसी झील में शेषनाग निवास करने लगे। लोगों का यह भी कहना है कि २४ घंटे में एकबार वे जल से ऊपर उठकर दर्शन दे देते हैं। यात्री यहां रात्रि विश्राम करके तीसरे दिन की यात्रा को आगे बढ़ाते हैं। शेषनाग से अगला पड़ाव पंचतरणी है जो ८ किलोमीटर की दूरी पर है !यहांतक पहुँचने के लिए वैववेल टॉप एवं महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता है। महागुणास चोटी  से पंचतरणी तक का मार्ग स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। यहीं पर पांच छोटी छोटी नदियां बहती हैं इसीलिए इसे पंचतरणी कहते हैं। पंचतरणी चारों ओर से बर्फ से आच्छादित है। समुद्रतल से १३५०० फुट की ऊँचाई होने के कारण यहां का तापमान शून्य से काफी नीचे होता है फलस्वरूप बर्फीली हवाओं से अत्यधिक ठंड का अनुभव होने लगता है !यहां पर आक्सीजन की कमी का भी अनुभव होने लगता है !कुछ यात्री उसी दिन अमरनाथ गुफा पहुंचकर वापस पंचतरणी लौट आते हैं तथा कुछ लोग पंचतरणी में विश्राम करके अगले दिन अमरनाथ गुफा की ओर प्रस्थान करते हैं !इस यात्रा के दौरान मार्ग में बर्फ जमी हुई मिलती है !इस मार्ग से यात्रा करने में तीन दिन लगते हैं। दूसरा मार्ग बालटल होकर १४ किलोमीटर दूरी तय करके अमरनाथ गुफा तक पहुँच जा सकता है जिसमें दो दिन लग जाते है। किराये के घोड़े से जाने वाले श्रद्धालु उसी दिन वापस आ जाते हैं। बलटाल जम्मू से ४०० किलोमीटर दूर है। जम्मू से ऊधमपुर के रास्ते बस द्वारा भी पहुंचा जा सकता  है किन्तु यह मार्ग जोखिम भरा है इसीलिए भारत सरकार इस मार्ग से यात्रा का उत्तरदायित्व यात्रियों पर छोड़ दिया है। 
अमरनाथ यात्रा में भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी  श्रद्धालु  भाग लेते हैं। यहाँ पर अन्य तीर्थस्थानों की भांति पण्डे ,भिखारी एवं पुरोहितों की ठेकेदारी देखने को नहीं मिलती है। किसी प्रकार के मोलभाव अथवा धार्मिक आस्था पर प्रतिकूल असर डालने वाली परिस्थितियां यहां दृष्टिगत नहीं होती हैं। प्रत्येक पड़ाव पर आत्मीयता ,सेवाभाव व सहयोग का प्रदर्शन दृष्टिगत होता है। जलपान हेतु धार्मिक संस्थाओं के लंगर यहां पर उपलब्ध है। 
अमरनाथ धाम को तीर्थों का तीर्थ माना  जाता है ! इस यात्रा में स्वर्गारोहण का आनंद भक्तों को प्राप्त होता है !बृद्ध एवं बीमार व्यक्तियों को इस यात्रा हेतु किराये के घोड़े व पालकी आदि का सहारा ले लेना चाहिए एवं सर्दी से बचने हेतु पर्याप्त व्यवस्था करके ही यात्रा प्रारम्भ करनी चाहिए।                          

Tuesday, February 16, 2016

वैष्णों देवी

माँ काली ,माँ सरस्वती एवं माँ लक्ष्मी की समन्वित शक्ति स्वरूपा त्रिकुटा देवी जिन्हें माँ वैष्णवी के नाम से जाना जाता है ,का मन्दिर हिन्दू आस्था का एक ऐसा प्रतीक है जहाँ प्रत्येक वर्ष लाखों श्रद्धालु माँ के जयकारे लगाते हुए दुर्गम पहार्डियों पर चढ़कर पहुंचते हैं और अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु माँ के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। इस  स्थान को हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थ की मान्यता दी जाती है। ऐसी मान्यता है कि कोई श्रद्धालु भक्त यदि सच्चे मन से माँ के दरबार में उपस्थित होता है तो उसकी सम्पूर्ण मनोकामनाएं स्वतः पूर्ण हो जाती हैं। त्रिकूट पर्वत पर एक गुफा में माँ वैष्णवी के मंदिर को हिन्दुओं की पवित्र आस्था के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। माँ वैष्णवी का मंदिर त्रिकूट पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे अदभुत प्राकृतिक सौन्दर्य का भी केन्द्र माना  जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

माँ वैष्णवी देवी का मंदिर जम्मू एवं कश्मीर राज्य के जम्मू जिले में जम्मू से ५० किलोमीटर दूर स्थित कटरा गावं जो अब कटरा शहर के नाम से जाना जाता है ,के समीप कटरा से १२ किलोमीटर दूर माणिक नामक पहाड़ी पर स्थित है। मन्दिर जिस गुफा में स्थित है वह गुफा ६० फिट लम्बी ,३० फिट चौड़ी एवं ५ फिट ऊंची है !इस गुफा के चारों ओर बर्फ से आच्छादित पहाड़ियां हैं। 
       माँ वैष्णों देवी की यात्रा का आरम्भ जम्मू से होता है। जम्मू तक आप हवाई जहाज ,रेल ,बस ,टैक्सी अथवा निजी वाहन से पहुँच सकते हैं। जम्मू ब्राड गेज लाइन से सम्बद्ध है। रेलवे स्टेशन ऊधमपुर से कटरा तक नये रेलमार्ग से ट्रेन द्वारा भी पहुँच सकते हैं। रेल द्वारा जम्मू पहुंचकर वहां से  तक पहुंचा जा सकता है।  रेल द्वारा जम्मू पहुंचकर यात्री बस के द्वारा केवल दो घण्टे में कटरा पहुँच जाता है। जम्मू से कटरा ५२ किलोमीटर की दूरी पर है। गर्मियों के समय जब श्रद्धालुओं की संख्या में अतिशय वृद्धि हो जाती है ,तब दिल्ली से जम्मू के लिए रेल विभाग द्वारा विशेष रेलगाडियां भी चलायी जाती हैं। जम्मू भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग १ ए पर स्थित है। उत्तर भारत के कई प्रमुख शहरों से सीधे बस या टैक्सी द्वारा भी आप कटरा तक पहुँच सकते हैं। कटरा से १४  किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर माता वैष्णों देवी की पवित्र गुफा स्थित है और इससे ३ किलोमीटर दूरी पर भैरवनाथजी का मंदिर है। यात्री को कटरा से ही मां के दर्शन की निःशुल्क पर्ची निर्गत  करवा लेनी चाहिए।

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

माता वैष्णों देवी के संबन्ध में दो कथाएँ प्रचलित हैं। हिन्दू महाकाव्य के अनुसार माँ वैष्ण्वीदेवी भारत के दक्षिणी भाग में रत्नाकर सागर के घर में जन्म ली थीं। इस  बालिका के जन्म से अत्यधिक प्रसन्न होकर इसके मातापिता ने बालिका की इच्छा का समादर करते हुए उसका लालन पालन उसी के अनुसार किया। देवी बालिका का नाम त्रिकुटा रखा गया। जब बालिका ९ वर्ष की थी तो उसने अपने पिता रत्नाकर सागर से समुद्र के किनारे तपस्या करने की अनुमति लेकर तपस्या प्रारम्भ कर दी। भगवान राम जब माँ सीता की खोज में समुद्रतट  पर पहुंचे थे तभी उन्होंने वहां तपस्यारत बालिका त्रिकुटा को देखा तब भगवान राम उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की गुफा में बैठकर तपस्या करने का परामर्श उसे दिया था। त्रिकुटा ने इस आदेश का पालन करते हुए माणिक पहाड़ियों की एक गुफा में बैठकर तपस्या प्रारम्भ कर दी। 
द्वितीय कथा माँ वैष्णों के परम भक्त श्रीधर से जुडी है जो वर्तमान कटरा से २ किलोमीटर दूर पर स्थित हँसली गांव में रहते थे। मान्यता है कि माँ ने एक बालिका के रूप में उन्हें स्वप्न-दर्शन दिया था और श्रीधर को गाँव में एक बड़ा भंडारा करने की प्रेरणा दी थी। माँ के आदेश पर श्रीधर ने समस्त ग्रामवासियों एवं आसपास के साधुसन्तों को भण्डारे में आने के लिए आमंत्रित किया। कहते हैं कि इसी भंडारे में श्रीधर ने भैरवनाथ को भी उनके शिष्यों सहित आमंत्रित कर लिया था। भैरवनाथ ने भंडारे में खीरपूरी की जगह मांस-मदिरा की मांग करने पर श्रीधर ने असहमति व्यक्त कर दी थी। पुनः भैरवनाथ के हठ करने पर अपने भक्त की इज्जत बचाये रखने हेतु माँ ने कन्या का रूप धारणकर भंडारे में उपस्थित हुईं और भैरवनाथ को समझा बुझाकर हठ छोड़ने की सलाह दी। भैरवनाथ ने अहंकार में कन्या की बात को अनसुना करके उसे पकड़कर सबक सिखाने का प्रयास किया। ऐसा देखकर कन्या त्रिकूट पर्वत की ओर भागी और एक गुफा में छिपकर हनुमानजी से प्रार्थना करने लगी कि वे भैरवनाथ को नौ माह तक उससे द्वंदयुद्ध  करके रोके रखें। भैरवनाथ से दूर भागते समय माता ने एक बाण भी  चलाया था जिसके फलस्वरूप जल की एक धारा प्रकट हो गयी थी जिसे बाणगंगा के नाम से जाना गया। बाणगंगा के किनारे आज भी माता के पदचिह्न देखने को मिलता है। नौ माह तक माता ने गुफा में घोर तपस्या करके आध्यात्मिक ज्ञान और दैवी शक्तियां प्राप्त की और अंत में भैरवनाथ द्वारा तपस्या भंग करने के प्रयास सफल होने पर उन्होंने महकाली का रूप धारण करके उसका वध कर दिया। 
अपनी मृत्यु के पूर्व भैरवनाथ ने माता की दैवीय शक्ति को पहचानते हुए यह आग्रह किया था कि वे उसे क्षमा कर दें।  उसके आग्रह पर सकारात्मक रुख अपनाते हुए उसे यह वरदान दिया कि तीर्थयात्री उनके दर्शन के पश्चात भैरवनाथ के दर्शन अवश्य करेंगे तभी उनको पुण्य की प्राप्ति होगी। वरदान देने के पश्चात माता ने तीन पिंडों से युक्त चट्टान का रूप धारण कर सदा के लिए ध्यानमग्न हो गयीं। श्रीधर पण्डित माँ की  पास पहुंचकर विधिविधान से पिण्डों की पूजा अर्चना की जिससे प्रसन्न होकर माता प्रकट हुई और उन्हें अपनी पूजा के लिए अधिकृत कर दिया। तभी से श्रीधर व उनके वंशज आजतक माँ वैष्णों देवी पूजा करते आ रहे हैं। 

वैष्णों देवी यात्रा के प्रमुख पड़ाव :-

माता वैष्णों देवी मन्दिर तक पहुँचने हेतु स्थानीय यात्रा कटरा से प्रारम्भ होती है। भारत के समस्त राज्यों से आये हुए श्रद्धालु यहां पर किंचित विश्राम करके पहाड़ियों की सीधी चढ़ाई जो लगभग १२ किलोमीटर है ,प्रारम्भ करते हैं। असमर्थ व्यक्ति व बच्चों को चढ़ाई के लिए पालकी ,पिट्ठू या किराये के घोड़े की व्यवस्था भी रहती है। यात्रा प्रारम्भ करते समय माता के दर्शन हेतु निःशुल्क यात्रा पर्ची निर्गत की जाती है जिसकी अवधि ६ घंटे होती है। उचित होगा कि पर्ची निर्गत होने के तुरन्त बाद चढ़ाई की यात्रा प्रारम्भ करना चाहिए। यात्रा पर्ची की प्रथम इन्ट्री बाणगंगा चेकप्वाइंट पर होती है और यहीं पर सामान आदि की चेकिंग की जाती है, ततपश्चात आगे की चढ़ाई प्रारम्भ कर सकते हैं। यदि पर्ची निर्गत होने के ६ घंटे तक चेकपोस्ट पर इंट्री नहीं करा पाये तो यात्रा पर्ची स्वतः निरस्त मान ली जाती है और पुनः यात्रा पर्ची निर्गत कराना पड़ता है।
यहां पर भगवती वैष्णों मां के दर्शन तीन भव्य पिण्डियों के रूप में होते हैं जो क्रमशः महाकाली ,महालक्ष्मी एवम महासरस्वती के दर्शन माने जाते हैं। प्रातः एवम सायंकाल दोनों समय पिण्डियों का स्नान ,श्रृंगार पूजन तथा आरती की जाती है। इन तीनों देवियों ने समय समय पर अवतार लेकर दुष्टों का संहार किया है।  
यात्रा के दौरान जगह जगह पर विश्रामस्थल व जलपान आदि की व्यवस्था रहती है। जगह जगह पर क्लार्क रूम की सुविधा भी उपलब्ध रहती है जिसमें आप अपना सामान निर्धारित शुल्क पर सुरक्षित रखकर आगे की यात्रा को सरल व सुगम बना सकते हैं। कम समय में आरामदायक यात्रा हेतु हेलीकाप्टर सुविधा भी उपलब्ध है। इसके लिए ७००रुपये से १०००रुपये तक खर्च करके कटरा से सांझीछत तक हेलीकाप्टर से पहुँच सकते हैं। अर्धक्वाँरी से मंदिर तक की चढ़ाई हेतु बैटरीकार सेवा भी प्रारम्भ हो चुकी है। छोटे बच्चों एवं वृद्ध व्यक्तियों को मंदिर तक चढ़ाने हेतु स्थानीय व्यक्ति भी निर्धारित शुल्क पर उपलब्ध रहते हैं। 

विश्रामस्थल :-

माँ के मन्दिर तक पहुँचने वाले यात्रियों के लिए जम्मू ,कटरा भवन के निकटवर्ती स्थानों पर माँ वैष्णों देवी श्राइनबोर्ड की कई धर्मशालाएं व होटल भी हैं जिनमें ठहरकर यात्रा की थकान मिटाकर आगे बढ़ा जा सकता है। सुविधा हेतु इनकी पूर्व बुकिंग कराना आवश्यक होता है। माँ वैष्णों देवी का मुख्य मेला /उत्सव नवरात्रि में आयोजित होता है। इन नौ दिनों में लाखों श्रद्धालु माता के दर्शन करते हैं। अधिक भीड़ होने पर नियंत्रण के लिए यात्रा पर्ची निर्गत करने की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है। नवरात्रि में देवी की आराधना व दर्शन विशेष फलदायी माना  जाता है। श्रीत्रिकूटा देवी को ही वैष्णों देवी के नाम से जाना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि त्रिकुटा देवी की उत्त्पत्ति भगवान विष्णु से हुई है। ऐसी मान्यता है कि जो श्रद्धालु देवी के दर्शन कर लेते हैं उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। कुछ श्रद्धालु अपनी यथेष्ट मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु मनौती भी मानते हैं और इच्छा पूर्ण होने पर पुनः जाकर मंदिर में भेंट आदि चढ़ाकर उसकी प्रतिपूर्ति करते हैं।   

निकटवर्ती दर्शनीय स्थल :-

जम्मू एवं कटरा के निकट कई दर्शनीय स्थल व हिल स्टेशन हैं जहां आप प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति कर सकते हैं। मन्दिर से ३ किलोमीटर की दूरी पर भैरोनाथ का मन्दिर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जिस स्थान माँ वैष्णों देवी ने अहंकारी भैरवनाथ का वध किया था वह स्थान भवन के नाम से जाना जाता है।  इस स्थान पर माँ काली ,माँ सरस्वती व माँ लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित है जिसके समन्वित स्वरूप माँ वैष्णों देवी के नाम से जाना जाता है। भैरोनाथ का वध करने पर उसका सिर ३ किलोमीटर दूर जिस स्थान पर गिरा था वहां पर भैरोनाथ का मंदिर स्थापित है क्योंकि भैरवनाथ के पश्चाताप करने पर माँ ने उसे यह वरदान दिया था कि मेरे दर्शन तब तक पूर्ण नहीं होंगे जब तक श्रद्धालु मेरे दर्शन के पश्चात भैरवनाथ के दर्शन नहीं कर लेते। 

यात्रा के समय सावधानियाँ :-

सम्प्रति माता  वैष्णों देवी मंदिर तक पहुंचने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती क्योंकि यह स्थान सीधे वायुमार्ग ,रेलमार्ग व सड़कमार्ग से जुड़ गया है। चूंकि माँ का मंदिर  दुर्गम पहाड़ियों के मध्य एक गुफा में स्थित है जहाँ सर्दियों में तापमान -३ से -५ डिग्री तक पहुँच जाता है और चट्टानों के टूटने का खतरा भी बना रहता है ,अतः किंचित सावधानी बरतते हुए अनुकूल मौसम में यात्रा करना श्रेयस्कर होगा।  ह्रदय रोग व उक्त रक्त चाप से पीड़ित व्यक्तियों को चढ़ाई के लिए सीढ़ियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। चूँकि यह मन्दिर लगभग ५२०० फिट की ऊंचाई पर स्थित है, अतः यात्रा के दौरान उलटी अथवा चक्कर आने की संभावना बनी रहती है। इसके लिए अपने साथ औषधियाँ लेकर ही यात्रा करना उपयुक्त होगा। यथासम्भव यात्रा के दौरान कम से कम सामान लेकर चढ़ाई आरम्भ करनी चाहिए ताकि अनावश्यक श्रम से बचा जा सके। कमजोर ,अस्वस्थ व बूढ़े व्यक्तियों को चढ़ाई के समय छड़ी अथवा लाठी का सहारा लेना चाहिए। यात्रा के दौरान ट्रैकिंग शूज का प्रयोग आरामदायक होगा। सम्पूर्ण यात्रा के दौरान केवल माँ के दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुए एवं जयकारे लगाते हुए चढ़ाई करने से आध्यात्मिक शक्ति का स्वतः संचय हो जाता है जिससे आपके अन्दर अप्रत्याशित उत्साह का संचरण हो जायेगा।