Saturday, December 31, 2016

      २०१७--------- नव वर्ष अभिनन्दन -------  २०१७  



                              गत  वर्ष को कहें अलविदा ,
                     नव वर्ष को कहें स्वागतम। 
                      मधुमास सा आनन्दमय हो,
                      नव वर्ष का शुभ आगमन। 


                                                  डॉ ० जटाशंकर त्रिपाठी 
                                                                 उपसचिव 
                                                         खाद्य एवं रसद विभाग 
                                                         उत्तर प्रदेश सचिवालय       

Thursday, October 6, 2016

लेखक-परिचय

डॉ जटाशंकर त्रिपाठी "जिज्ञासु "का जन्म ६ अप्रैल १९५८ ई० को उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रतापगढ़ जिलान्तर्गत कुंडा तहसील स्थित ग्राम गोपालापुर में हुआ था। अपने पिता स्व० शिवशंकर त्रिपाठी एवं माता स्व० रामदुलारी ने अपनी अनेकों मनौतियों के फलस्वरूप आठवीं सन्तान के रूप में इनको जन्म दिया था। अतः इनका लालन-पालन एवं प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई। जूनियर हाईस्कूल की परीक्षा बहोरिकपुर विद्यालय से तथा हाईस्कूल एवं इंटर की परीक्षा लखपेड़ा कोटा भवानीगंज से उत्तीर्ण की।स्नातक की पढ़ाई हेतु प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और यहीं से स्नातक,स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करके डी०फिल०की उपाधि दर्शनशास्त्र में प्राप्त की।इनका विवाह श्रीमती शांति देवी से हुआ एवम दो पुत्र सञ्जीव एवं राजीव तथा दो पुत्रियां पूर्णिमा एवं ज्योत्स्ना को जन्म दिया किन्तु वर्ष २०१५ में राजीव, जो पूर्वांचल ग्रामीण बैंक में सहायक मैनेजर थे, की आकस्मिक मृत्यु से इन्हें गहरा आघात लगा।विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही अपनी साहित्यिक अभिरुचि को साकार करते हुए कविताएं,कहानी एवम लेख आदि लिखना आरम्भ कर दिया था तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके प्रकाशन के साथ ही आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद से रेडियो कार्यक्रमों  के प्रसारण में भी सहभागिता करने लगे।वर्ष १९८९ ई ० में लोकसेवा आयोग से सहायक समीक्षा अधिकारी के पद  पर उत्तरप्रदेश सचिवालय में चयनित हुए और सम्प्रति डिप्टी सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत हैं।इनका शोध प्रबन्ध "भारतीय समकालीन दर्शन में प्रो० रानडे के योगदान "को एकेडमी ऑफ कम्परेटिव फिलासफी एन्ड रिलिजन ,बेलगांव ,कर्नाटक द्वारा वर्ष १९८२ ई में प्रकाशित किया गया। इनका काव्य संग्रह"श्रृंखला"वर्ष १९८९ एवं "जीवेम शरदः शतम {योगासन,प्रणायाम एवं ध्यान}"वर्ष २०१४ ई में प्रकाशित हुआ। राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान उत्तरप्रदेश द्वारा इन्हें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं साहित्य गौरव का पुरस्कार एवं सम्मानपत्र प्रदान किया गया। रसिकपीठ जानकीघाट बड़ा स्थान, श्रीअयोध्या के संस्थापक अनंत श्रीविभूषित स्वामी करुणासिन्धु जी महराज,जो इनके पूर्वज थे,के ३४१वीं जन्मतिथि पर उनकी जन्मभूमि गोपालापुर में माह अप्रैल २०१५ को सम्पन्न हुए नवकुंडीय श्रीराम महायज्ञ के अवसर पर उनकी पुण्यस्मृति में एक स्मारिका का प्रकाशन करके अपनी धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभिरुचि को मूर्तरूप देते हुए तदुपरान्त"भारत के प्रमुख तीर्थस्थल" एवं "हमारे पूज्य सन्त " नामक दो पुस्तकों की रचना की।      

Thursday, September 22, 2016

आशीर्वचन

अनंत श्री विभूषित कनिष्ठ जगतगुरु शंकराचार्य                                श्री चौमुखनाथ परमधाम आश्रम 
स्वामी आत्मानंद सरस्वती जी महराज                                              ग्राम लखरौनी पथरिया 
राष्ट्रिय अध्यक्ष -विश्व हिन्दू जागरण परिषद                                        जिला- दमोह {म० प्र० }
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष -श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण न्यास अयोध्या


                                                                    आशीर्वचन 

परम् श्रद्धेय, डॉ जटाशंकर त्रिपाठी  जी ,
                                       आप द्वारा लिखी गयी दोनों पुस्तकों "भारत के प्रमुख तीर्थस्थल "एवं "हमारे पूज्य सन्त"को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।निश्चित ही आपके द्वारा किया जा रहा आध्यात्मिक एवं वैदिक प्रयास निश्चित ही राष्ट्र के लिए अलौकिक सम्पदा के रूप में संचित होगी। इसी आशा के साथ आपके दीर्घायु होने की शुभकामना सहित। 
                                                                                                 


                                                                                                           स्वामी आत्मानंद सरस्वती 

Monday, September 19, 2016

शुभ कामना सन्देश

डॉ प्रणव पण्डया  एमडी {मेडिसिन }
कुलाधिपति- देव संस्कृति विश्वविद्यालय 
प्रमुख- अखिल विश्व गायत्री परिवार 
निदेशक- ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान 
सम्पादक- अखण्ड ज्योति                                                                                     २५ अगस्त २०१६ 
                                                                                                                     श्री कृष्ण जन्माष्टमी 

                                                        " शुभ कामना सन्देश"
भयध्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो। तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता। {भागवत }
युधिष्ठिर विदुर से कहते हैं -आप जैसे भक्त स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान द्वारा तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं। 
तीर्थों के माध्यम से ऋषियों ने भारत जैसे भूभाग में रहने वाले विभिन्न आचार विचार के व्यक्तियों को एक भावनात्मकसूत्र में बाँध रखा है। मानसरोवर से  लेकर कन्याकुमारी तक का क्षेत्र धर्म प्रेमियों को एक ही सांस्कृतिक धरोहर के रूप में दिखता है। गंगोत्री का जल पाकर रामेश्वरम प्रसन्न होते हैं। यह भाव रहते उत्तर दक्षिण की एकात्मता में कुचक्रियों के प्रयास बाधक नहीं बन सकते। 
केरल में पैदा हुए शंकराचार्य ने चार कोनों पर चारधाम बनाये। शरीर छोड़ा उत्तराखण्ड में। दक्षिण के मन्दिरों में उत्तराखण्ड के पुरोहित तथा उत्तराखण्ड में दक्षिण के पुरोहितोँ द्वारा ही पूजा होती थी। यह सूत्र कभी नहीं टूट सकते। बंगाल के श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने इष्ट ब्रज और द्वारिका में देखते हैं। उन क्षेत्रों को जागृत तीर्थ बनाकर पूर्व पश्चिम के स्नेह को अक्षुण्य बनाते हैं। भगवान शिवजी देवी सती के अंगों को देश के कोने के हर भाग स्थापित करते हैं और वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना करते हैं। शक्ति साधना के दिव्य प्रवाह से वह सारे क्षेत्र बंधें हैं। अयोध्या के राजा राम दक्षिण भारत के रामेश्वरम की स्थापना करते हैं। यह तीर्थ-परम्परा का पुनर्जीवन है। 
यह जानकर प्रसन्नता है कि परमपूज्य गुरुदेव पँ०श्रीराम शर्मा आचार्य जी एवं परम् वन्दनीया माताजी के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाले हमारे अभिन्न डॉ जटाशंकर त्रिपाठी ने "भारत के प्रमुख तीर्थस्थल "ग्रन्थ का निरूपण किया है। इसके अन्तर्गततीर्थस्थलों का महात्म्य,शक्तिपीठ एवं उसकी अवधारणा,मां विंध्यवासिनी देवी,स्वर्ण  मन्दिर,भुवनेश्वर,पद्मनाभमन्दिर,तारापीठ,महालक्ष्मीमन्दिर,मीनाक्षी,कन्याकुमारी,नान्देड़साहिब,नासिक, तिरुपतिबालाजी,चिदम्बरम,मल्लिकार्जुनज्योतिर्लिंग,कोणार्क,श्रीकांचीपुरी,रामेश्वरम,जगन्नाथधाम,शिरडी, द्वारिकाधाम,सोमनाथ,पारसनाथ,पटनासाहिब,बैजनाथधाम,गया,बोधगया,अमरकंटक,ओंकारेश्वर,उज्जैन, श्रीनाथद्वारा,माउन्टआबू,अजमेरशरीफ,पुष्कर,कामाख्यादेवी,कैलाशमानसरोवर,देवप्रयाग,यमुनोत्री,गंगोत्री, नैमिषारण्य,अयोध्या,प्रयाग,काशी,चित्रकूट,वृन्दावन,मथुराऋषिकेश,हरिद्वार,गंगासागर,बद्रीनाथधाम, केदारनाथ,ज्वालाजी,चामुण्डा देवी,अमरनाथ,वैष्णों देवी आदि तीर्थस्थलों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि,भौगोलिक स्थिति,पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ,मन्दिर एवं घाट,अन्य दर्शनीय स्थलों,ठहरने आदि की व्यवस्था का वर्णन किया गया है। 
"भारत के प्रमुख तीर्थस्थल " में डॉ जटाशंकर त्रिपाठी जी ने हरिद्वार के प्रमुख तीर्थस्थलों में गंगा की गोद,हिमालय की छाया में बसे युग तीर्थ गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज,देव संस्कृति विश्व विद्यालय को सम्मिलित करके पाठकों को युग ऋषि परम् पूज्य गुरुदेव पँ० श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा स्थापित आध्यात्मिक केन्द्र एवं उससे जुड़े नौ दिवसीय एवं एक मासीय प्रशिक्षण से जोड़ा है। निश्चित रूप से पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे। मथुरा से जुड़े अखण्ड ज्योति संस्थान,गायत्री तपोभूमि एवं जन्मभूमि आंवलखेड़ा के सूर्य मन्दिर के बारे में पढ़कर पाठकों को चैतन्य तीर्थ सिद्ध पीठ में जाने का मन करेगा। 
डॉ जटाशंकर त्रिपाठी को भारत के प्रमुख तीर्थस्थल के प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई। उनके मंगलमय जीवन की कामना ऋषियुग्म से करता हूँ। 
                                                                                                    डॉ०  प्रणव पण्डया       

Friday, September 16, 2016

शुभकामना सन्देश

रसिक पीठाधीश्वर महांत जन्मेजय शरण जी महराज                                १५ अगस्त २०१६ 
जानकीघाट,बड़ा स्थान ,श्रीअयोध्या, उ० प्र०                                               स्वतन्त्रता दिवस 
                                       शुभकामना सन्देश 
महापुरुषों एवं सन्तों की लोकयात्रा लोक शिक्षा के लिए होती है। भगवददर्शन एवं तत्वानुसन्धान ये दोनों ही किसी सन्त के आध्यात्मिक जीवन के मुख्य सम्बल माने जाते हैं। स्वरूपज्ञान के विभिन्न स्तरों में रमण करने वाले ऐसे साधनामार्ग के पथिकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करके अथवा सत्संग द्वारा जो भी ऊर्जा प्राप्त होती है,वही कालान्तर में अन्तःप्रकाश बनकर जीवन के कल्याणकारी मार्ग को प्रशस्त करती है। सन्तों के शास्त्र ज्ञान तथा बाह्य प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान न देकर केवल उनके साधनामार्ग एवं उपदेशों को ही आत्मोन्नति की कसौटी मानना चाहिए और उसी का अनुसरण भी करना चाहिए । 
भारत की सन्त-परम्परा की लम्बी श्रृंखला से कतिपय सन्तों के जीवन-दर्शन एवं उनके कृतित्व को "हमारे पूज्य सन्त "नामक इस पुस्तक में संकलित करते हुए डॉ ० जटाशंकर त्रिपाठी  ने एक सराहनीय कार्य किया है। इन्होंने अपनी इस पुस्तक में जिन सन्तों का चित्रण किया है,वे  अपने युग के प्रकाश स्तम्भ थे। सनातन धर्म के संरक्षक जगद्गुरु शंकराचार्य,नाथ सम्प्रदाय के संरक्षक गुरु गोरखनाथ तथा रसिकपीठ के संस्थापक श्री करुणासिन्धु जी महाराज,स्वामी श्री रामप्रसादाचार्य जी,स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी,स्वामी विशुद्धानन्द जी,स्वामी करपात्री जी,श्रीराम शर्मा आचार्य जी आदि सन्तों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए डॉ ० त्रिपाठी ने उन्हें जनसामान्य से सुपरिचित कराने का पुनीत कार्य किया है। अतः एतदर्थ मैं उन्हें अपनी हार्दिक शुभकामना एवं स्नेहाशीष प्रदान करता हूँ। 
                                                                                       रसिक पीठाधीश्वर महांत जन्मेजय शरण 
                                                                                           श्री जानकीघाट  बडा  स्थान 
                                                                                              श्री अयोध्या ,फैजाबाद, उ० प्र० 

आशीर्वचन

बिन्दुगाद्याचार्य महांत देवेंद्रप्रसादाचार्य जी महराज                                              १५ अगस्त २०१६ 
श्री रामप्रसाद सेवा ट्रस्ट ,श्री अयोध्या ,उ० प्र०                                                       स्वतन्त्रता दिवस 
                                                                       आशीर्वचन 

प्राचीनकाल में सम्पूर्ण उत्तर भारत -भूमि को देवभूमि की संज्ञा दी जाती रही है तथा भारतवर्ष के कण कण को तीर्थ भी कहा जाता रहा है क्योंकि हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में ही हिंदुओं के अधिकांश तीर्थस्थल पाए जाते हैं। तीर्थ की परिभाषा "तारयितुम समर्थः इति तीर्थः "अर्थात संसार रूपी भवसागर को पार कराने में जो समर्थ हो ,वही तीर्थ है, दी गयी है। तीर्थों का धार्मिक महत्व तो है ही ,साथ ही साथ सामाजिक सामञ्जस्य स्थापित करने व सत्संग का सुअवसर प्रदान करने में भी तीर्थों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। सामान्यतः सम्पूर्ण भारत में एक ही तीर्थस्थल है क्योंकि यहां पर विष्णु तत्व अर्थात सत्वगुण के उत्सर्जक केंद्र के रूप में चार धाम,शिवतत्व के उत्सर्जक केंद्र के रूप में द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं शक्ति तत्व के उत्सर्जक केंद्र के रूप में इक्यावन शक्तिपीठों के साथ साथ सहस्रों दैवीय ऊर्जा के अन्य केंद्र यहां पर स्थापित किये गये हैं। ये सभी क्रेन्द्र मानव निर्मित नहीं हैं बल्कि दैवीय अथवा प्राकृतिक हैं। बाद में इन्हीं केंद्रों को तीर्थस्थल कहा जाने लगा और इसके दर्शन को ही तीर्थयात्रा। कैलाश से कन्याकुमारी और कामाख्या से कच्छ तक सम्पूर्ण भारतवर्ष की पावन भूमि तीर्थस्थल मानी जाने लगी। तीर्थ -दर्शन से पाप तो नष्ट होते ही हैं ,साथ ही साथ भाग्योदय भी होता है तथा परम् पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त हो जाता है। 
ड़ॉ० जटाशंकर त्रिपाठी  ने ऐसे तीर्थों को इस पुस्तक में संकलित करते हुए उनका विस्तृत वर्णन,पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करके वास्तव में एक पुनीत कार्य किया है। जो व्यक्ति इन तीर्थों की यात्रा करने में शारीरिक रूप से अथवा अन्य किसी कारणवश असमर्थ हैं,वे इस पुस्तक को पढ़कर कम से कम इन तीर्थों की मानसिक यात्रा तो कर ही सकते हैं और उनके बारे में सम्यक जानकारी भी प्राप्त करके ज्ञानार्जन कर सकते हैं। 
मैं ड़ॉ० जटाशंकर त्रिपाठी  के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए इस पुस्तक के सफल प्रकाशन हेतु अपनी शुभकामना व्यक्त करता हूँ। 
                          सर्वे  भवन्तु  सुखिनः ,सर्वे  सन्तु  निरामया। 
                           सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद दुःखभाग्भवेत।  
                                                                                        बिन्दुगाद्याचार्य महांत देवेन्द्रप्रसादाचार्य 
                                                                                     अध्यक्ष , श्री रामप्रसाद सेवा ट्रस्ट, अयोध्या 

Monday, August 29, 2016

राज्यों के विवरण

                                                                  उत्तराखण्ड
शास्त्रों में वर्णित चारधामों यथा बद्रीनाथ,द्वारिकाधाम,जगन्नाथपुरी एवं रामेश्वरम के अतिरिक्त उत्तराखण्ड में चारधाम के अंतर्गत केदारनाथ,गंगोत्री एवम यमुनोत्री की भी गणना की जाती है। उत्तराखण्ड स्थित हिमालय की पहाड़ियों में पूरब से पश्चिम तक अनेकों तीर्थस्थल स्थित हैं जहां प्रतिवर्ष श्रद्धालुगण उनके दर्शन किया करते हैं। यद्यपि उत्तराखण्ड स्थित तीर्थस्थानों की यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं को अपेक्षाकृत सँकरे मार्ग,सीधी चढ़ाई ,आकस्मिक वर्षा ,हिमपात एवं फिसलन भरे मार्ग से गुजरना पड़ता है जिसके कारण वृद्धजनों के लिए यह यात्रा कठिनाईपूर्ण एवम जोखिमपूर्ण अवश्य है किन्तु सम्प्रति प्रदेश सरकार द्वारा इस यात्रा के दौरान यात्रियों के लिए दी जाने वाली सुविधाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि की जा रही है। हिमालय क्षेत्र का शांतिपूर्ण वातावरण ,प्राकृतिक दृश्य एवं आध्यात्मिक अनुभूति की सघनता के कारण उत्तराखण्ड के तीर्थस्थलों की यात्रा विशेष महत्व रखती है। उत्तराखण्ड के प्रमुख तीर्थस्थलों में गंगोत्रीधाम,यमुनोत्रीधाम,बद्रीनाथ,हेमकुंड साहिब,जागेश्वर,ऋषिकेश हरिद्वार,केदारनाथ,कैलाश मानसरोवर,देवीधुरा आदि विश्व-प्रसिद्ध धर्मस्थल माने जाते  हैं। उत्तर प्रदेश से पृथक होकर एक नए राज्य के रूप में उत्तराखण्ड को भारत की देवभूमि कहा जाता है अतः इस प्रदेश में स्थित धर्मस्थलों का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व सर्वविदित है।

                                           हिमांचल प्रदेश 
   हिमांचल  प्रदेश भारतवर्ष का एक छोटा सा प्रान्त है जो वनसम्पदा एवं प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। ऊंची ऊंची पहाड़ियों पर बर्फ से आच्छादित चोटियों के अप्रतिम सौन्दर्य का आनन्द व अनुभति लेने हेतु देश एवम विदेश से हजारों पर्यटक प्रतिवर्ष यहां पर आते रहते हैं। यहां पर शिमला,मनाली,कुल्लू व धर्मशाला जैसे प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल यद्यपि इसका अधिकांश भाग वर्षभर हिमाच्छादित रहता है  फिरभी पर्यटकों के आवागमन में कोई कमी नहीं आती है। कुल्लू का दशहरा विश्वप्रसिद्ध है जिसमें काफी संख्या में पर्यटक एकत्रित होते है। यहां की अर्थव्यवस्था कृषि एवं बागवानी पर आधारित है.हिमांचल के सेव विश्वभर में प्रसिद्ध है जिनका निर्यात भी  वृहद स्तर पर होता है। हिमांचल के निवासी प्रायः धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं। यहां पर प्राचीनकाल से ही लकड़ी के मकान व  बनवाये जाने की प्रथा रही है जो यथावत आअज भी यत्र -तत्र देखी  जा सकती है।  चीड़ एवं ,देवदार के वृक्षों से इमारती लकड़ियों  सर्वाधिक उपयोग इसी प्रदेश में होता है। यहां की जलवायु शीतप्रधान है अतः भेड़ों के ऊन से स्वेटर,शाल व टोपी बनाने का उद्योग यहां के लोगों की आय का प्रमुख साधन है।

                                         उत्तरप्रदेश  
भौगोलिक क्षेत्रफल एवम जनसँख्या की दृष्टि से उत्तरप्रदेश भारतवर्ष का सबसे बड़ा प्रान्त है। उत्तरांचल के पश्चात ऊतरप्रदेश में ही सर्वाधिक तीर्थस्थल स्थित हैं। भगवान श्रीराम व कृष्ण की जन्मभूमि होने के कारण तथा गंगा यमुना जैसी पवित्र नदियों का परवाह इसी प्रदेश से होने के कारण भी इसका महत्व बढ़ जाता है। विश्व के सबसे बड़े मेले कुंभमेले का आयोजन प्रयाग में ही किया जाता है। यहां पर हिन्दू,जैन,बौद्ध धर्म का सर्वाधिक विस्तार हुआ है जिसके कारण इन धर्मों के धर्मस्थल यहां पर विशेष आकर्षण के केंद्र माने जाते हैं। .काशी,प्रयाग,कौशाम्बी.अयोध्या ,नैमिषारण्य मथुरा वृंदावन जैसे प्राचीन नगर उत्तरप्रदेश के गौरव माने जाते हैं क्योंकि इनका वर्णन हिन्दू-धर्मशास्त्रों,पुराणों,वेदों,उपनिषदों, महाभारत एवम रामायण में विस्तृत रूप से मिलता है। आगरा ,फतेहपुर,सारनाथ,कुशीनगर आदि नगरों का ऐतिहासिक महत्व सर्वविदित है यहां स्थित तीर्थस्थलों में नैमिषारण्य,अयोध्या,काशी,मथुरा,वृंदावन,प्रयाग,चित्रकूट, विंध्याचल आदि प्रमुख हैं। 

                                                            जम्मू-कश्मीर 
जम्मू-कश्मीर भारत का एक ऐसा राज्य है जो अपने प्राकृतिक सौन्दर्य एवम वनसम्पदा के कारण पृथ्वी का स्वर्ग कहलाता है। हिमाच्छादित घाटियाँ ,मनोरम झीलें ,घास के हरे भरे मैदान एवम देवदार तथा चिनार के पेड़ों की उपलब्धता के कारण इसकी समृद्धता का आकलन सहज रूप से किया जा सकता है। यही कारण है कि विदेशी पर्यटकों का बहुत बड़ा भाग इस प्रदेश की यात्रा करता है। आतंकवाद की छिटपुट घटनाओं ने यात्रियों की संख्या पर थोड़ा रोक अवश्य लगा दिया है किन्तु धार्मिक पर्यटक अभी भी उस उत्साह से यहां आते रहे हैं। 
   यहां का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल अमरनाथ जी का धाम है जहाँ स्थित पवित्र गुफा में बाबा भोलेनाथ का दर्शन प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में किये जाने की परम्परा आजतक जीवन्त बनी हुई है। यद्यपि यहां पर वर्षभर हिमपात होता रहता है और कड़ाके की ठंडी भी पड़ती है फिरभी पर्यटक यहां आने में थोड़ा भी नहीं हिचकते हैं। जम्मू-कश्मीर का दूसरा धार्मिक स्थल वैष्णों देवी का मन्दिर है जो प्रमुख इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है। यहां पर आने वाले दर्शनार्थियों के लिए प्रदेश सरकार एवम भारत सरकार दोनों ने उत्तम व्यवस्था कर रखी है। कठिन चढ़ाई से बचने के लिए अब रेलमार्ग द्वारा सीधे कटरा तक पहुंच जा सकता है। देश के करोड़ों लोगों की आस्था मां वैष्णों देवी का प्रति अटूट है अतः वे इनके दर्शनार्थ बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष यहां आते रहते हैं और अपने मनोरथ की सम्पूर्ति करके अपने को धन्य मानते हैं। 

                                                              आसाम 
भारतवर्ष के उत्तर पूर्व में स्थित आसाम    प्रान्त भी वनसम्पदा से भरपूर एवम प्राकृतिक सौन्दर्य का अनुपम केंद्र माना जाता है। इसकी राजधानी गुआहाटी है। इस प्रान्त में मुख्य रूप से ब्रह्मपुत्र नदी बहती हैं और इसी के तट पर गुआहाटी बस हुआ है जो आसाम का सर्वाधिक सुन्दर नगर है। यह नगर जनसँख्या की दृष्टि से अधिक बड़ा नहीं है किन्तु अपनी चाय के बागान के लिए यह विश्व भर में प्रसिद्ध है। .यहां पर भारतवर्ष की ७५ प्रतिशत चाय का उत्पादन होता है यहां पर जनजातियों का बाहुल्य है इसीलिए यहां पर कई भाषाएँ व संस्कृति देखने को मिलती है। उग्रवाद की अनेकों घटनाओं के कारण आजकल यह विशेष चर्चा में अवश्य रहता है किन्तु पर्यटकों का आवागमन वर्षभर बना रहता है। यहां पर छोटे छोटे कई धर्मस्थल व पर्यटक केन्द्र  स्थित हैं किन्तु मुख्य रूप से कामाख्या देवी जो इक्यावन शक्तिपीठों में से एक हैं ,के कारण यह विश्व भर में जादू-टोने की सिद्धि प्राप्त करने के केंद्र के रूप में जाना जाता है। 

                                                             पश्चिम बंगाल 
भारत के उत्तर- पश्चिम में स्थित यह प्रान्त भारत के महत्वपूर्ण राज्यों में से एक है। सांस्कृतिक महत्व के इस प्रदेश में गंगासागर,सिद्धपीठ तारापीठ तारकेश्वर महादेव आदि धर्मस्थल स्थित हैं जहां प्रत्येक वर्ष हजारों श्रद्धालुओं का आवागमन होता रहता है। मध्यकालीन भारत के कई धार्मिक सुधर व आंदोलन का यह जन्मदाता माना जाता है। देश विभाजन के समय इसका कुछ भाग पाकिस्तान का अंग बन गया था जो सम्प्रति बंगलादेश के नाम से स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया है। यहां के लोगों में मां दुर्गा के प्रति अगाध श्रद्धा देखने को मिलती है और यही कारण है कि यहां पर दुर्गापूजा व दशहरा आदि का त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस प्रान्त की राजधानी कलकत्ता है। गंगा नदी गंगोत्री से निकलकर इस प्रदेश के मैदानी क्षेत्र में बहती हुई अंत में समुद्र में मिल जाती हैं। इस स्थान पर प्रतिवर्ष एक बहुत बड़े मेले का आयोजन भी किया जाता है। यहां स्थित दार्जलिंग  को एक मनोरम पर्यटन केंद्र के रूप में जाना जाता है। .दार्जलिंग की चाय विश्व- प्रसिद्ध है। दार्जलिंग के सन्निकट कई बौद्धमठ बने हुए हैं जहां लामा जाती के लोगों का बाहुल्य है। 

                                                               
                                                              गुजरात
भारतवर्ष के पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित गुजरात प्रान्त की गणना एक समृद्धशाली राज्य के रूप में की जाती है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जन्मस्थली पोरबन्दर इसी प्रान्त में स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण अपने जीवनकाल के अंतिम समय में यहां पर स्थित द्वारिका आकर द्वारिका नगरी बसाई थी। यद्यपि सम्प्रति उसका अस्तित्व तो नहीं है क्योंकि समुद्र में समा जाने के कारण उसके अवशेष को  ही अबतक भारतीय पुरातत्व वैज्ञानिकों द्वारा खोज जा सका  है। हिन्दू धर्म का यह प्राचीन एवम प्रसिद्ध केंद्र था इसीलिए यहां पर हजारों की संख्या में मन्दिर दृष्टिगत होते हैं। 
भारत का प्रसिद्ध मन्दिर सोमनाथ इसी प्रान्त में स्थित है। इस ऐतिहासिक मन्दिर को कई बार बहरी आक्रमणों का सामना करना पड़ा था और इसकी सम्पत्ति को भरी नुकसान उठाना पड़ा था किन्तु अंतिम बार भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा इस मन्दिर का नवनिर्माण करवाया गया था। गुजरात में कई अन्य पर्यटन केंद्र स्थित हैं जहां बड़ी संख्या में देश के एवं  विदेशी पर्यटक वर्षभर आते रहते हैं। गुजरात सरकार द्वारा इन पर्यटन केंद्रों का समय समय पर पुनरोद्धार करवाया जाता रहा है और इसे विश्वस्तरीय स्वरूप प्रदान किया जाता रहा है। इस प्रान्त की राजधानी अहमदाबाद को सबसे बड़ा नगर होने का गौरव प्राप्त है। यहां पर कई कपड़े की मीलें व अन्य उद्योग स्थापित हैं जो इसकी समृद्धता के सहायक माने जाते हैं। 
                                                                              महाराष्ट्र 
महाराष्ट्र भारतवर्ष के मध्यभाग में पूर्वी समुद्रतट पर स्थित एक समृद्धशाली एवम व्यापारिक प्रान्त है। यह समुद्रतट पर अरब की खाड़ी के सन्निकट होने के कारण प्राचीनकाल से ही जलमार्ग से व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है। मराठा शासकों द्वारा पोषित इस प्रान्त में छत्रपति शिवाजी जैसे महान योद्धा जिसने मुगल सम्राट औरंगजेब से युद्ध में सामना किया था ,का नाम उल्लेखनीय है। इस प्रान्त की राजधानी मुम्बई भारतवर्ष का  अत्यधिक प्राचीन नगर माना जाता है। 
महाराष्ट्र में प्रसिद्ध एलिफेंटा ,अजन्ता व एलोरा की गुफाएं स्थित हैं। इन गुफाओं में स्थित विभिन्न मूर्तियां अपनी कलात्मकता ,उन्मुक्त कामक्रीड़ा एवं भव्यता के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। सिक्ख धर्म का प्रमुख धार्मिक केन्द्र नान्देड साहिब इसी प्रान्त में अवस्थित है। बम्बई फिल्म उद्योग का भी प्रमुख केंद्र है। यहां के धार्मिक स्थलों में शिरडी के साईं बाबा,नासिक,पण्ढरपुर,कोल्हापुर,घृणेश्वर महादेव,त्रयम्बकेश्वर व भीमशंकर के मन्दिर मुख्य हैं। नासिक प्राचीनकाल से ही हिन्दू धर्म का प्रधान केंद्र रहा है। बौद्ध धर्म स्थलों में यहां पर स्थित कार्ली की गुफा की गणना की जाती है। 
                                                                           बिहार  
बिहार भारतवर्ष का एक ऐसा प्रान्त है जहां धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं ज्ञान की त्रिवेणी हमेशा से ओरवाहित होती रही है। शिक्षा एवं संस्कृति का तो यह एक ऐसा प्रधान केन्द्र था जिसके कारण यहां पर स्थित नालन्दा विव विद्यालय में देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी छात्र पढ़ने के लिए आया करते थे।इसकी राजधानी पटना को प्राचीनकाल में पाटलिपुत्र के नाम से जाना जाता था। यहीं पर स्थित बोधगया में भगवान बुद्ध को सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसका प्रतीकस्वरूप महाबोधि मन्दिर यहां पर अवलोकनीय है। 
बिहार प्रदेश हिन्दू,बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रधान केंद्र के रूप में भी विश्व  विख्यात है। यहां पर स्थित गया पौराणिक काल से हिन्दुओं के लिए पितृ- तर्पण एवं श्राद्ध करने तथा एक तीर्थ के रूप में जाना जाता रहा है। भारतवर्ष के सभी प्रान्तों से लोग प्रतिवर्ष यहां पर पितृ- तर्पण हेतु आते रहते हैं। यहां से थोड़ी ही दूरी पर स्थित बोधगया में नालन्दा विश्व विद्यालय व बौद्ध धर्म के कई स्मारक बने हुए हैं।यहीं पर स्थित राजगीर व पावापुरी जैनियों के प्रसिद्ध तीर्थस्थल के रूप में जाने जाते हैं। भगवान महावीर का जन्म बिहार के वैशाली नामक स्थान पर हुआ था। सिक्ख धर्म के भी प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र पटना साहिब यहीं पर अवस्थित है। इसके अतिरिक्त बौद्ध स्थल के अन्य केंद्र लुम्बिनी, वैशाली एवं राजगीर यहीं पर स्थित हैं।
                                                                      मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश को प्राचीनकाल में मालवा प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यह एक जनजाति बाहुल्य प्रान्त है तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारतवर्ष का सबसे बड़ा राज्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी मध्यप्रदेश का महत्व है क्योंकि यह प्राचीनकाल से ही एक समृद्धशाली प्रान्त के रूप में जाना जाता रहा है। मौर्य सम्राट अशोक के कार्यकाल में मालवा एक प्रशासनिक केंद्र था। बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल साँची यहीं पर स्थित है जिसमें सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तूप व स्तम्भ दर्शनीय हैं।
खजुराहो का प्रसिद्ध मन्दिर मध्यप्रदेश में ही स्थित है जो अपनी कला एवं सौन्दर्यमयी चित्रों एवं काम-क्रीड़ा करते हुई मूर्तियों आदि के लिए विश्व प्रसिद्ध है।उज्जैन जिसे प्राचीनकाल में उज्जैनी अथवा अवन्तिका के नाम से भी जाना जाता था ,हिन्दू- धर्म का प्रमुख केंद्र है जहां पर सिहस्थ कुम्भ मेले का आयोजन होता है। महाकालेश्वर का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर उज्जैन में ही स्थित है। महाराजा चन्द्रगुप्त ने यहां पर काफी दिनों तक शासन किया था तथा प्रसिद्ध कवि कालिदास उन्हीं के नवरत्नों में से एक थे। 
मध्यप्रदेश में ही ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इसके अतिरिक्त अमरकण्टक धार्मिक स्थल भी मध्यप्रदेश का प्रमुख आकर्षण का केंद्र है।
                                                                       राजस्थान
राजस्थान प्रान्त भारतवर्ष का एक प्रमुख धार्मिक एवम पर्यटन केंद्र है। यहां की संस्कृति ,कला एवं साहित्य की अपनी अलग पहचान है। इसका बहुत बड़ा भाग रेगिस्तान होने के बावजूद इसे राजा  महाराजाओं की वीरभूमि होने का गौरव प्राप्त है। यहां के प्रमुख आकर्षण यहां स्थित प्राचीन किले,इमारतें व राजमहल हैं। भारत सरकार द्वारा यहां पर प्रत्येक वर्ष थार महोत्सव का भव्य आयोजन किया जाता है जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम द्वारा लोक गायकों व नर्तकियों द्वारा अपनी अपनी कला का प्रदर्शन किया जाता है। 
राजस्थान में हिंदुओं का पवित्र धार्मिक- स्थल पुष्कर स्थित है जो भगवान ब्रह्मा जी को समर्पित है तथा   एकमात्र ब्रह्मा जी के मन्दिर स्थापित होने का गौरव भी इसे प्राप्त है।पुष्कर में प्रत्येक वर्ष एक वृहद मेले का आयोजन किया जाता है जहां देश एवं विदेश से पर्यटक उपस्थित होते हैं। अन्य धार्मिक स्थलों में श्रीनाथ द्वारा ,अजमेर शरीफ,मौन आबू,जीर्णमाता का मन्दिर ,खाटूश्याम और सालासर हनुमान मन्दिर तथा मेहंदीपुर के बाला जी महराज मन्दिर प्रमुख हैं। वैसे तो राजस्थान में छोटे बड़े कुल मिलाकर एक हजार से अधिक मन्दिर स्थित हैं किन्तु यहां का जैन मन्दिर व माउन्ट आबू विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ब्रह्म कुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय यहीं पर स्थित है।     
                                                                    झारखण्ड
भारतवर्ष के अठ्ठाइसवें प्रान्त के रूप में झारखण्ड नाम से दिनांक १५ नवम्बर सन २००० को नवीनतम प्रान्त की इसे मान्यता प्राप्त हुई थी। झारखण्ड पहले वन प्रदेश का एक समूह था जिसे बिहार के दक्षिणी भाग को पृथक करके बनाया गया। प्रसिद्ध औद्योगिक नगरी रांची इसकी राजधानी है। अन्य बड़े नगरों में धनबाद,बोकारो व जमशेदपुर आदि प्रमुख नगर हैं। झारखण्ड की सीमायें उत्तर में बिहार,पश्चिम में उत्तरप्रदेश एवं छत्तीसगढ़,दक्षिण में ओडिसा और पूर्व में पश्चिम नेपाल को स्पर्श करती है। यह सम्पूर्ण प्रदेश छोटा नागपुर के पठार पर स्थित है। स्वर्णरेखा यहां की प्रमुख नदी है। यह प्रदेश वन्य जीवों के संरक्षण के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस प्रदेश में विभिन्न भाषाओँ,संस्कृतियोँ एवं धर्मों का संगम दृष्टिगत होता है। द्रविण,आर्य एवं आस्ट्रो- एशियाई तत्वों का मिला जुला रूप यहां पर देखने को मिलता है। इसके प्रारम्भिक इतिहास में राजवंशों की भूमिका प्रभावी रही है क्योंकि उड़ीसा के राजा जयसिंहदेव इसे अपना क्षेत्र मानते थे। कबीलाई सरदार के रूप में मुंडा का नाम आज भी यहां पर जीवन्त है। 
यहां के प्रमुख धार्मिक स्थलों में देवघर बैजनाथ धाम प्रसिद्ध है जहां पर द्वादश ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गयी थी। पर्यटक केंद्रों में हुँडरु जलप्रपात ,दलमा अभयारण्य ,बेतला राष्ट्रीय उद्यान आदि मुख्य हैं। यहां पर जैन धर्म- स्थल पारसनाथ स्थित है जो श्री समेद शिखर के नाम से भी जाना जाता है।
                                                                           तमिलनाडु 
भारतवर्ष के दक्षिणी भाग में स्थित तमिलनाडु प्रान्त धर्म,संस्कृति एवं कला का अनुपम केंद्र माना जाता है। यहां पर हिंदुओं का बाहुल्य है और धर्म के प्रति बहुत अधिक आस्था के कारण यहां पर लगभग एक हजार मन्दिर दिखाई पड़ते हैं। यहां की प्राचीन सभ्यता द्रविण है इसीलिए द्रविण कला का विकास यहां पर उत्तरोत्तर होता रहा है। यहां के प्रमुख नगरों में कांचीपुरम,तंजौर,मदुरै आदि प्रमुख हैं। ये सभी प्राचीन नगर हैं क्योंकि हजारों वर्षों पूर्व निर्मित मन्दिर अथवा उनके अवशेष आज भी यहां पर देखने को मिलते हैं। कांचीपुरम व मदुरै नगर की गणना अत्यंत साफ सुथरे नगरों में की जाती है। भारतवर्ष के दक्षिणी तट पर बसे हुए कन्याकुमारी यहां का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल माना जाता है। यहां का सूर्योदय व सूर्यास्त दोनों का दृश्य अत्यन्त मनमोहक होता है जिसे देखने के लिए देश एवं विदेश से पर्यटक वर्षभर यहां पर आते रहते हैं। स्वामी विवेकानन्द जिस शिला पर बैठकर योगसाधना की थी ,वह शिला विवेकानंद के नाम से जनि जाती है तथा यहां पर बना हुआ भव्य स्मारक भी विवेकानन्द के नाम से जाना जाता है।
                                                                        उड़ीसा 
उड़ीसा को प्राचीनकाल में कलिंगदेश के नाम से जाना जाता था। सम्राट अशोक  के कलिंग युद्ध के पश्चात ही बौद्ध धर्म अपनाये जाने के कारण भी इसका ऐतिहासिक महत्व है। यह धार्मिक पर्यटन का प्रमुख केंद्र होने के साथ साथ कला, साहित्य,संगीत का भी प्रमुख केंद्र रहा है। जगन्नाथपुरी जो भारतवर्ष के चारधामों में से प्रमुख धाम है ,इसी प्रान्त में स्थित है। यहां स्थित पूरी नगर में भगवान जगन्नाथ का प्रसिद्ध मन्दिर अवस्थित है जहां भारत के समस्त प्रान्तों से श्रद्धालुगण इनके दर्शनार्थ आते रहते हैं। समुद्रतट पर बसे होने के कारण इसकी छटा को देखने हेतु भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी पर्यटक यहां पर आते रहते हैं। इस प्रान्त के निवासियों की धर्म के प्रति विशेष आस्था देखने को मिलती है। यही कारण है कि यहां पर सम्पूर्ण प्रान्त में अनेकों मन्दिर व धर्मस्थलों का निर्माण करवाया गया है।
यहां के प्रमुख धार्मिक स्थलों में जगन्नाथपुरी,कोणार्क,भुवनेश्वर,उदयगिरि और खण्डगिरि प्रमुख हैं। कोणार्क अपने सूर्य मन्दिर के लिए विश्व विख्यात है तो भुवनेश्वर जो इस प्रान्त की राजधानी भी है ,को उत्कल काशी के नाम से जाना जाता है क्योंकि यहां पर कोटि शिवलिंगों की स्थापना की गयी है। उदयगिरि और खण्डगिरि जैन धर्म स्थल के रूप में जाने जाते हैं। ये दोनों अलग अलग चट्टानें हैं जिनकी गुफाओं में जैन मन्दिर का निर्माण हुआ है। अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए ये स्थान विश्व भर में प्रसिद्ध हैं।

                                                                         आन्ध्रप्रदेश 
भारतवर्ष के दक्षिणी भाग में स्थित आन्ध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद है। यहां पर मुख्यतः तेलगू भाषा बोली जाती है। सम्राट अशोक के कार्यकाल में यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था और पर चालुक्य एवम चोल राजाओं ने लम्बे समय तक शासन किया था। मुगलकाल में बनवाई गयी कतिपय ऐतिहासिक इमारतों में चारमीनार विश्व- प्रसिद्ध इमारत मानी जाती है। सलारगंज का प्रसिद्ध संग्रहालय इसी प्रान्त में स्थित है जिसमें बहुमूल्य कलाकृतियाँ सुरक्षित रखी गयीं हैं। 
यहां के प्रमुख धर्मस्थलों में तिरुपति बालाजी का मन्दिर विश्व प्रसिद्ध है जिसे देखने हेतु देश विदेश के श्रद्धालु एवं पर्यटक वर्षभर यहां पर आते रहते हैं। तिरुपति बालाजी हिदुओं का प्रमुख धार्मिक स्थल है जिसे भगवान विष्णु का वैकुण्ठधाम भी कहा जाता है। 
                                                                            केरल 
भारतवर्ष के सुदूर दक्षिणी भाग में स्थित केरल प्रान्त अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण विशेष रूप से प्रसिद्ध है। सन १९५६ ई ० में ट्रावनकोर ,कोचीन एवं मालावार को मिलाकर इस राज्य का गठन किया गया था। मलयालम यहां की मुख्य भाषा है जिसका जन्म तमिल से माना जाता है। समुद्रतट पर स्थित होने के कारण यह प्राचीनकाल से समुद्री व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है। केरल के मसाले विश्व प्रसिद्ध हैं। यहां के जनजीवन पर पुर्तगाली, अरबी एवं चीनी सभ्यता का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। यहां पर स्थित कोवलम विदेशी पर्यटकों के विशेष आकर्षण का केंद्र है। इस प्रान्त में हिन्दू,मुस्लिम,ईसाई सभी का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है। यहां के निवासियों  का प्रमुख उद्योग मछली  पकड़ना है। 
यहां  के प्रमुख धार्मिक स्थल पद्मनाभ मन्दिर, श्रृंगेरीपीठ, मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग, गुरुवायूर आदि हैं।श्रृंगेरी पीठ की स्थापना आदि शंकराचार्य द्वारा लगभग ५०० ई ० पू ० में की गयी थी।         
       

   

Wednesday, July 6, 2016

विन्ध्यवासिनी देवी

 foU/;kokfluh nsoh
         foU/;okfluh fl) nsohihB dks foU/;kpy nsoh ds uke ls tkuk tkrk gSA ;g fl)ihB fofo/k lEiznk; o /keZ ds mikldks dks euksokfNar Qy nsus okyh ihB ds :i esa vkfn dky ls izfl) gSaA ;g पुण्य  Hkwfe iqjkru dky ls +_f"k;ksa] eqfu;ksa ,oa rFkk fLFk;ksa dh ez)k ,oa vk/;k freu ÅWpk  ds dsUnz ds :i eas iki fuokfj.kh ,oa eqfDrdy ;k=h ds :i esa tkuh tkrh jgh gSA f=dks.k ;a= ij fLFkr foU/;okfluh fuokfluh nsoh yksd fgrki egky{eh egkjkuh o egkljLorh dk :i /kkj.k djrh gSA tgkW ij ladYi ek= ,slh mikldks dks fl);ka izkIr gks tkrh gSA eS= o 'kkjnkiz uojkf= ij ns'k gh ugh fons'kksa ls Hkh J)kyqx.kksa dk vkokxeu ;gkW ij jgrk gSA ,slh ekU;rk gS fd 'kkjnk oklafrd uojkf= esa dh Hkxorh ukS fnuksa rd eafnj dh Nr ds Åij yxs irkdk esa fojkteku gks tkrh gSA Lo.kZ fufeZr bl /ot dh fo'ks"krk gS fd lw;Z pUnz irkfduh ds :i esa ifjfofrZr gks tkrk gS vkSj ,slk peRdkj dsoy foU/;okfluh dh irkdk esa gh gksrk gSA
HkkSxksfyd fLFkfr
         Hkkjr ds m0iz0 izkUr esa foU/;kpy dh igkfM;ksa esa ekW xaxk dh ifo= ty/kkjkvksa dh dy dR; /ofu ls eq[kkjr ,oa izd`fr dh vuqie NVk ls vfreafMr foU/;kpy uxj esa foU/;okfluh nsoh dk eafnj fLFkr gSA ;g izd`frd lkSUn;Z dk vuwBk LFky gksus ds lkFk&lkFk /keZ ,oa laLd`fr dk izeku dsUnz Hkh ek= ekuk gSA foU/;kpy ns'k ds izeq[k uxjks ls jsyekxZ }kjk tqM+k gqvk gSa  D;ksfd fnYyh ok;k bykgkckn&eqxyljk;& gkoM+k jsy ekxZ ij ;g fLFkr gSA izns'k ds izeq[k uxjks ls ;g lMd ekxZ }kjk tqMk gqvk gS m0iz0 ifjokgu fuxe dh cls fu;fer :i ls izeq[k uxjks ls ;gkW rd lapkfyr gksrh gSA ;g fl)ihB bykgkckn ls 85 fd0eh0 dh nwjh ij fLFkr gSA foU/;kpy jsyos LVs'ku ls foU/;okfluh eafnj ek= ,d fd0eh0 dh nwjh ij fLFkr gS tgkW rd vklkuh ls iSny pydj igqpk tk ldrk gSA fetkZiqj jsyos LVs'ku ls ;g eafnj 06 fd0eh0 dh nwjh ij gSA Bgjus ds fy;s ykt] gksVy] vfrfFkx`g dh leqfpr O;oLFkk ;gkW miyC/k gSA
ikSjkf.kd ,oa ,sfrgkfld lk{;
         foU/;kpy ioZr ij fLFkr foU/;okfluh nsoh e/kq rFkk dSVHk ukeds nks vklqjks dh fuoku djus okyh Hkxorh ;a= dh vf/k"Bk=h nsoh gS blh fy, bl LFky ij ri djus dk fo'ks"k egRo gS vkSj iqjkrudky ls ;ksxh o _f"kx.k ;gk riL;k djrs vk;s gSA dgkW tkrk gS fd l`f"V ds vkje ls iwoZ dksbZ izy; ds ckn Hkh bl {ks= dk vfLrRo ;Fkkor jgrk gSA vkfn 'kfDr dh 'kkjor yhyk Hkwfe foU/;okfluh ds /kke esa blh fy;s o"kZ Hkj J)kyqvks ds vkokxeu ls pgy igy jgrh gSA foU/;kpy f='kfDr;ksa egky{eh] egkdkyh] egk'kfDr dk vkokl LFky gSA ;gkW ij ikoZrh th us Hkxoku f'ko dk ifr ds :i esa izkIr djus gsrq ?kksj riL;k dh Fkh ftlds dkj.k ;gkW mUgsa ^vi.kkZ^ dh mikf/k izkIr gqbZ FkhA Hkxoku Jhjke us ;gkW fLFkr jkexaxk ?kkV ij vius fizrjksa dks Jk)riZ.k fd;k Fkk rFkk jkes'oj fyax dh LFkkiuk djds jkedq.M dh LFkkiuk dh FkhA ;gka ds riks ou esa Hkxoku fo".kq dks lqn'kZu pdz dh izkfIr gqbZ Fkh bl izdkj Jh ;a= ij LFkkfir ;g LFky vkfndky ls egk'kfDr dh yhyk Hkwfe ds :i esa tkuh tkrh jgh gSA dfri; dFkkvksa esa ;gkW lrh ds i`"B Hkkx ftlds dkj.k bls 'kfDrihB dh Hkh ekU;rk iznku dh x;h gSA czgek] fo".kq o egs'k Hkh vkfn'kfDr dh ekr`Hkko mikluk djds l`f"V cukus esa leFkZ gq, FksaA bldh iqf"V ekdZ.Ms; iqjk.k Jh nqxkZ lIr'krh dh dFkkvksa ls Hkh gksrk gSA buesa crk;k x;k gS fd l`f"V ds vkjafHkd voLFkk;s loZ= dsoy ty gh fo|eku FkkA Hkxoku fo".kq 'ks"k 'kS¸;k ij funzk esa yhu Fks vkSj fo".kq ds ukfHk dey ij ok;ks iztkifr vkRe fpUre esa foeXxu Fksa rHkh fo".kq ds d.kZ jU/kz ls nks egkdky vlqjksa dk izknqHkZko gqvk vkSj nksuks czgek ds o/k ds fy;s m|r gks x;sA czgek vlaet ij iM+ x;sa D;ksfd jtksxq.kh czgek dks muls ;q} dj ijkLr djuk vlEHko FkkA ;g  dk;Z fo".kq th gh dj ldrsa Fksa fdUrq os funzkoLFkk esa FksA ,sls esa czgek th us Hkxorh egkek;k dh Lrqfr dh vkSj egkek;k us mu vlqjksa dk o/k djds ladV dks lekIr fd;kA
मनु एवं सतरूपा द्वारा सतयुग में मंदाकिनी के तट पर की गई घोर तपस्या से प्रसन्न होकर महामाया ने उन्हें प्रकट होकर यह वरदान दिया कि शीघ्र ही मैं विन्ध्याचल पर्वत पर निवास करूंगी जहां मुझे विंध्यवासिनी के नाम से जाना जायेगा। त्रेतायुग में वनवास के दौरान भगवान श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण एवं भार्या सीता के साथ यहां आकर मां विंध्यवासिनी की पूजा अर्चना की थी। द्वापरयुग में युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों के साथ इस मंदिर में आकर मां विंध्यवासिनी की पूजा करके उनका दिव्य दर्शन किया था। गुप्तकाल में विंध्यवासिनी मंदिर का नवनिर्माण हुआ था और पालवंशों ने इनकी कीर्ति पताका दिग्दिगन्त तक फहराया था। आदिगुरु शंकराचार्य ने छठीं शताब्दी में यहां की यात्रा की थी एवं मां विंध्यवासिनी के दर्शन किये थे। चौदहवीं व पंद्रहवीं शताब्दी में यवनों के आक्रमण से इसे क्षति अवश्य पहुंची थी किन्तु सोलहवीं शताब्दी में सेठ संगमलाल ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। उन्नीसवीं शताब्दी में घनश्यामदास बिरला ने इसका नवनिर्माण करवाया था और इसी के निकट बिड़ला धर्मशाला की स्थापना भी की थी। 
foU/;okfluh eafUnj
        foU/;kapy esa ekW foU/;okfluh dk eafUnj ÅWph igkM+h ij fLFkr gSA ;gkW ij ekW y{eh fojkteku gSA eafUnj esa falagklu  <kbZ gkFk dk nsoh foxzg vofLFkr gSA eafUnj ds if'peh ekXkZ esa fLFkr izkxa.k esa ckjgHkqth nsoh dh izfrek fLFkr gS rFkk nwljs Hkkx esa liZds'oj f'koth fojkteku gSA nf{k.k Hkkx esa ekW dkyh dh eqfrZ vkSj mRrj dh vksj /keZ/otk nsoh vofLFkr  gSA eafUnj dk izkax.k HkO; ,oa fo'kky gS vkSj ewfrZ ds Åij ÅWps f'k[kj dk fuekZ.k  fd;k x;k gSA eafUnj esa xHkZx`g ds vfrfjDr vusd d{k o cjkens fufeZr gS] rFkk vkustkus ds ldjs ekxZ Hkh cus gq, gSA ;+= ds if'peh dks.k ij mRrj fn'kk dh vksj eq[k fd;s gq, v"VHkqth nsoh fojkteku gSA tks viuh v"VHkqtkvksa ls leLr dkeukvksa dh flf} gsrq lHkh fn'kkvksa esa fLFkr HkDrksa dh viuh v"VHkqtk ls j{kk fd;k djrh gSA ,slh ekU;rk gS fd ogkW v"Vny dey vkPNkfnr gS ftlds Åij lksyg ny ,oa mlds ckn pkSohl ny ds e/; esa fLFkr fcUnq ij czgeLi:ik egkek;k v"VqHkqth :i esa fojkteku gSA
सहस्र चंडीपाठ में इस स्थान की त्रिकोण यात्रा का माहात्म्य व फल वर्णित है। वर्ष की दोनों नवरात्रियों को यहां पर विशाल मेले का आयोजन होता है। देवी भागवत में इनकी १०८ दिव्य शक्तिस्थलों में गणना की जाती है तथा देवी के प्रमुख १२ विग्रहों में यह स्थान सर्वप्रमुख माना जाता है। विंध्यवासिनी मंदिर में प्रतिदिन १२-३० बजे से १-३० बजे तक मंगला आरती ,सायंकाल ७-३० बजे से ८-३० बजे तक राज आरती एवं ९-३० बजे से १०-३० बजे रात्रि तक शयन आरती की जाती है। यह तीनों आरती क्रमशः मां के बालरूप ,नव यौवना रूप व वृद्धारूप की प्रतीक मानी जाती है। इस मंदिर में प्रतिवर्ष एक करोड़ से अधिक भक्तों का आवागमन होता है। 


vU; n'kZuh; LFky
        foU/;kpy ifj{ks= esa vla[; eafnj cus gq, gSa fdUrq fuEukfDr eafnj o /keZLFkyksa dk fo'ks"k egRo crk;k tkrk gS %&

dkyh eafnj
         foU/;okfluh eafnj ls yxHkx rhu fd0eh0 dh nwjh ij Hkwry ij dkyh[kksg LFky ij egkdkyh] dkyh eafnj esa fojkteku gSA bl eafnj ds xHkZxz`g esa cSBh gqbZ eqnzk esa ekW dkyh dh v)Zeq[kh vR;Ur izkphu ewfrZ vofLFkr gS ;g eafnj vkdkj esa rks NksVk vo'; gS fdUrq bldk f'k[kj HkO; ,oa ÅWpk gSA
ljLorh eafnj
         ;g eafnj v"VHkqth igkMh ij eq[; eafnj ls yxHkx rhu fdyksehVj  nwjh ij fLFkr gS tgkW iSny o futh dkj@VSDlh @fjD'ks  ls igWqpk tk ldrk gSA ;gkW fLFkr nsoh dks v"VHkqth nsoh dgrs gSA
tydwi
       eq[; eafnj ds izkax.k es ,d tydwi fufeZr gS ftldk ty vkS"k/kh; xq.kksa ds dkj.k vkjksX; iznk;d ekuk tkrk gSA
xs:gok ljksoj
       v"VHkqth eafnj ls ek= ,d fd0eh0 dh nwjh ij ;g ljksoj fLFkr gS tks vkdkj esa NksVk gS ;gkW ij ;k=h foJke djds blh esa Luku djds d`".k eafnj ds n'kZu djrs gSA
xaxk?kkV
       foU/;kpy esa xaxk esa xaxk th dk izokg rst o xgjkbZ vf/kd gks tkrh gSA xaxk?kkV ;gkW dk izeq[k ?kkV gS tgkW n'kZukFkhZ dks xaxk ds ikou ty esa Luku djds ;gkW fLFkr eafnj esa LFkkfir nsoh nsorkvksa ds n'kZu djrs gSA
       lEiw.kZ uxj esa vusdks NksVs NksVs eafnj Hkh cus gq;s gSA n'kZukFkhZ uxj Hkze.k ds lkFk&lkFk bl eafnj dk n'kZu dk iq.; ykHk izkIr djrs gSA uxj esa vusdks iaMksa ds fuokl LFkku ij Hkh ;k=h Bgj ldrs gS vkSj muds ekxZ n'kZu ls ekW foU/;kokluh dk n'kZu vklkuh ls dj ldrs gSA  

स्वर्णमंदिर

सिक्ख धर्म की आस्था के सर्वोत्कृष्ट केंद्र एवं पवित्र तीर्थस्थल के रूप में स्वर्णमंदिर सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। अमृतसर नगर में स्थित एक मनोरम व विशाल सरोवर के मध्य में निर्मित स्वर्णमंदिर बहुत ही आकर्षक एवं भव्य मंदिर है। सम्पूर्ण विश्व में सिक्खधर्म के अनुयायी जब भी भारत आते हैं तब वे अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के दर्शन अवश्य करते हैं। इस मंदिर की स्थापना सिक्खधर्म के चौथे गुरु श्रीरामदास जी द्वारा की गई थी। अमृतसर नगर में १३ अन्य गुरुद्वारे भी निर्मित हैं किन्तु प्रमुख गुरुद्वारा स्वर्ण मंदिर को माना जाता है। इस गुरु द्वारे में प्रवेश के कठोर नियम बनाए गए हैं जिसका अनुपालन करने के बाद ही प्रवेश सम्भव होता है। स्वर्णमंदिर में गुरुग्रन्थ साहिब अवस्थित हैं जिसके कारण सिक्खधर्म के अनुयायी अत्यन्त श्रद्धा एवं अनुशासन के साथ इस मंदिर में गुरुग्रन्थ साहिब के दर्शन  करते हैं ।
भौगोलिक स्थिति :-
स्वर्णमंदिर भारतवर्ष के पंजाब प्रान्त के अमृतसर नामक शहर के मध्यभाग में स्थित है। अमृतसर नगर व्यास नदी के तट पर बसा हुआ पंजाब राज्य का एक अत्यन्त समृद्धशाली शहर माना जाता है। पूर्वी पंजाब में स्थित यह शहर उत्तरी रेलवे का प्रमुख जंक्सन है और अमृतसर पहुँचने के लिए रेलमार्ग ,सड़कमार्ग एवं वायुमार्ग की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। अमृतसर दिल्ली व भारत के अन्य प्रमुख नगरों से रेलमार्ग व सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। यह जालंधर से १८० किलोमीटर ,लुधियाना से १०० किलोमीटर ,फिरोजपुर से १६० किलोमीटर ,चंडीगढ़ से २३५ किलोमीटर और दिल्ली से ४४६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पाकिस्तान की सीमारेखा से मात्र २९ किलोमीटर की दूरी पर अमृतसर नगर स्थित है। यहां पर पर्यटकों के ठहरने के लिए अनेकों धर्मशालाएं यथा संतराम धर्मशाला ,गुरुवाणी बाजार स्थित हरपाल का धर्मशाला ,गुरुबाजार स्थित गुरुरामदास जी का धर्मशाला प्रमुख हैं। चूँकि अमृतसर स्थित स्वर्णमंदिर को एक पर्यटन स्थल की मान्यता प्राप्त है अतः प्रत्येक माह यहां पर देश एवं विदेश से हजारों श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-
पौराणिक आख्यानों के अनुसार त्रेतायुग में जब श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ का घोडा छोड़ा था तब लव एवं कुश ने उस घोड़े को पकड़ लिया था तथा भरत ,लक्ष्मण एवं शत्रुहन से उन्हें युद्ध करना पड़ा था और उस युद्ध में लवकुश ने उन्हें परास्त भी कर दिया था। कहा जाता है कि यह युद्ध इसी स्थल पर हुआ था। पुराणों में यह उल्लेख भी मिलता है कि लव एवं कुश यहां स्थित सरोवर के निकट विद्याध्ययन व रामायण पाठ के लिए भी आये थे। सिक्खधर्म के चौथे गुरु रामदास जी ने इस सरोवर की खुदाई कराकर इसे विस्तारित किया था किन्तु पुनः इसमें मिटटी आ जाने पर गुरु अर्जुनदेव जी ने अपने कार्यकाल में ही इस सरोवर की सफाई करवाकर इसे स्नान करने योग्य बना दिया था।
अमृतसर नगर की स्थापना का क्रम सन् १५७४ ई से प्रारम्भ माना जाता है क्योंकि गुरु रामदास जी ने यहां पर  स्थित सरोवर के  किनारे डेरा डालने के पश्चात उनके भक्तों की भारी भीड़ एकत्रित होने पर कारसेवा द्वारा  इस सरोवर की खुदाई आरम्भ की गई थी। बाद में गुरु साहिब ने सरोवर के निकट की जमीन भी खरीद ली थी तब भक्तों ने उस सरोवर की खुदाई करके उसे विस्तार रूप प्रदान कर दिया था। प्रारम्भ में यहां गुरु के निवास स्थल के रूप में गुरुमहल का निर्माण करवाया गया था और उसके निकट रामदासपुर नामक बस्ती बसायी गई और कालान्तर में यही बस्ती अमृतसर नगर के रूप में जानी गई। गुरु रामदास जी ने यहां पर एक मंदिर बनवाकर उसे एक प्रधान धार्मिक केंद्र बनाये जाने की योजना बनायी थी किन्तु दो वर्ष बाद ही उनकी आकस्मिक मृत्यु के कारण योजना का कार्यान्वयन सम्भव न हो सका । बाद में उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी गुरु अर्जुनदेव ने १६०१ ई. में इस सरोवर के मध्य में स्वर्ण मंदिर का निर्माण करवाया तथा यहां पर पवित्र गुरुग्रंथ साहिब को विराजमान किया था। पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने बाद में इस मंदिर के कुछ भाग में संगमरमर लगवाया तथा शेष भाग को तांबे से जड़वाकर उस पर सोने की पर्त चढ़वा दी थी। कहा जाता है कि इसकी मढ़वाई में ४५० किलोग्राम सोने का उपयोग किया गया था। तभी से इसे स्वर्णमंदिर के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।
अमृतसर गुरु गोविन्द सिंह जी का निवास स्थल एवं गुरु तेग बहादुर सिंह का जन्म स्थान भी है। यहां स्थित सरोवर की लम्बाई ४२५ फिट एवं चौड़ाई ४९० फिट तथा गहराई १८ फिट है। भक्तजन कारसेवा करके समय समय पर इसकी सफाई करते रहें हैं। हरमिंदर साहिब के चारों ओर चार भव्य द्वार बनवाए गए जो इस तथ्य के प्रतीक हैं कि यहां पर सभी धर्मों के लिए प्रवेश अनुमन्य है। सन् १८६२ ई में अहमदशाह पुरोनी  ने हरमिंदर साहिब को काफी नुकसान पहुँचाया था किन्तु बाद में सिक्खों ने अमृतसर पर कब्जा करके सन् १८६४ ई में जस्सा सिंह अहलूवालिया के नेतृत्व में इसकी नींव रख दी गई थी। गुरु अर्जुनदेव ने सर्वप्रथम हरमिंदर साहिब में ग्रंथि परम्परा की शुरुआत की थी।
दर्शनीय स्थल :-
स्वर्णमंदिर पवित्र सरोवर के मध्य में स्थित है जहां ६० मीटर लम्बे पुल के द्वारा पहुंचा जा सकता है। इस पुल के किनारों को दर्शन ड्योढ़ी कहा जाता है। हरमिंदर साहिब ५२ मीटर ऊंचे व वर्गाकार चबूतरे पर बनवाया गया है। स्वर्णमंदिर तीन मंजिला है और इसकी स्थापत्य कला अद्वितीय है ।इस पवित्र सरोवर के निकट ही दुखभंजन बेरी नामक एक पेड़ स्थित है। इस पवित्र सरोवर में स्नान करके श्रद्धालुगण इस सरोवर की परिक्रमा भी करते हैं तथा ततपश्चात दर्शन ड्योढ़ी होते हुए हरमिंदर साहिब तक पहुंचते हैं। स्वर्ममन्दिर के निकट ही संगमरमर से बना हुआ अकालतख्त स्थित है जिसकी स्थापना सिक्ख धर्म के छठें गुरु गोविन्द सिंह जी ने किया था। यहीं से सिक्खधर्म के उपदेश व हुक्मनामे प्रसारित किये जाते हैं । यहीं पर पूर्व गुरुओं के अस्त्र शस्त्र ,आभूषण व वस्त्रादि सुरक्षित रखे गए हैं। इस प्रकार यह ऐतिहासिक धरोहर व संग्रहालय भी माना जाता है।
स्वर्णमंदिर में गुरु के लंगर का विशेष महत्व है क्योंकि भोजन के समय यहां पर सभी को पंक्तिबद्ध बैठाकर भोजन प्रदान किया जाता है। यह लंगर निःशुल्क है तथा भोजन में दाल ,चावल ,चपातियां व सब्जी सम्मिलित रहती है। लंगर का प्रबन्ध कारसेवा के द्वारा किया जाता है। यहां पर जूते पहनकर अथवा सिर खुला  रखकर आना सख्त मना है। गुरुओं के जन्मदिन पर अथवा सिक्खधर्म के अन्य विशेष त्योहारों या पर्वों पर स्वर्णमंदिर को विधिवत सजाया जाता है। मंदिर के दर्शन के पश्चात लोग यहां स्थित  पैड़ी के चरणामृत अवश्य लेते हैं   क्योंकि ऐसी मान्यता है कि चरणामृत लेने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। स्वर्णमंदिर में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। मंदिर में प्रवेश के पूर्व पैर धोने के लिए बहते हुए पानी की व्यवस्था यहां पर की गई है। मंदिर परिसर में धूम्रपान का पूर्णतयः निषेध है। यहां पर प्रातःकाल ३ बजे से रात्रि १० बजे तक गुरुग्रन्थ साहिब का अखंडपाठ होता रहता है और रात्रि में १० बजे पाठ समाप्त होने पर गुरुग्रन्थ साहिब को ससम्मान कोठा साहब नामक पवित्र स्थान पर स्थापित कर दिया जाता है। प्रतिदिन हरमिंदर साहिब की सफाई कर इसे दूध से धोया जाता है और विधिवत कपडे से पोंछकर चांदनी बिछायी जाती है। श्रद्धालुगण पूरे दिन यहां पर अपना माथा टेकने पहुँचते रहते हैं।
हरमिंदर साहिब परिसर में अकालतख्त ,दर्शन ड्योढ़ी ,बेरबाबा बुड्ढा साहिब ,थड़ा साहिब ,संतोख सर साहिब ,गुरुद्वारा रामदास ,गुरुद्वारा विवेकसर और गुरुद्वारा शहीद संजका एवं  अन्य धार्मिक स्थल बने हुए हैं। अमृतसर स्थित जलियांवाला बाग में उन शहीदों के स्मारक बने हैं जिन्हें १३ अप्रैल १९१९ ई को हुए नरसंहार में अंग्रेजों ने गोलियों से भून दिया था। अमृतसर स्थित सरोवर के निकट कई अन्य हिन्दू मंदिर भी बने हुए हैं जिनमें दुर्गाजी का मंदिर प्रमुख है। यहीं पर सत्यनारायण जी का मंदिर भी स्थित है। अमृतसर स्थित अन्य महत्वपूर्ण धर्मस्थलों के विवरण निम्नवत हैं :-
तरनतारन :- अमृतसर से २० किलोमीटर की दूरी पर तरनतारन सिक्खधर्म का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित है जो व्यास और सतलज नदी के संगम स्थल पर स्थित है।यहां पर गुरु अर्जुनदेव जी ने एक मंदिर का निर्माण करवाया था और इस धर्मस्थल पर वैशाख अमावस्या को एक वृहत मेले का आयोजन किया जाता है। 
श्रीज्वालामुखी :--अमृतसर पठानकोट रेलवे मार्ग पर यह मंदिर स्थित है जो इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है। यह अमृतसर से २१ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और कहा जाता है कि यहां पर सती की जिह्वा गिरी थी जिसके कारण इसे शक्तिपीठ की मान्यता प्रदान की गई थी । यहां पर पृथ्वी से एक ज्वाला निरन्तर निकलती रहती है इसीलिए इसे ज्वालामुखी की संज्ञा दी गई थी। 
चिन्तपूर्णा  देवी:--पंजाब के होशियारपुर जनपद में यह मंदिर स्थित है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए १६० सीढियाँ चढ़नी पड़तीं हैं। यहां पर देवी की कोई प्रतिमा स्थापित नहीं है बल्कि देवी के पिंडी के दर्शन ही श्रद्धालुगण यहां पर करते हैं। 
पंजा साहिब :--यह स्थल हसन अभल रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर दक्षिण की ओर पेशावर से लाहौर रेलमार्ग पर स्थित है। यहां पर गुरुनानक जी भाई मदराना के साथ में गए थे और पीरवाली से पानी छोड़ने के लिए अनुरोध किया था। जब पिर ने अनुरोध स्वीकार नहीं किया तब गुरुनानक ने उस पहाड़ी की क्रमशः तीन बार यात्रा की और पुनः अनुरोध किया तब पहाड़ी से पानी स्वयं एक झरने के रूप में गिरने लगा था। इस समय यह स्थल पाकिस्तान में है। गुरूद्वारे के पीछे पीरवाली कंधारी पीरपहाड़ी पर स्थित हैं।     

Friday, June 17, 2016

शक्तिपीठ एवं उनकी अवधारणा

पौराणिक मान्यता है कि प्रजापति दक्ष द्वारा कनखल में आयोजित अपने वृहस्पति नामक महायज्ञ में सभी देवताओं को आमन्त्रित किया गया था किन्तु उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर को नहीं आमंत्रित किया। माता सती को जब यह ज्ञात हुआ तब वे पितृमोह के कारण वहाँ बिना आमंत्रण के ही पहुँच गईं। वहां जाकर उन्होंने देखा कि यज्ञानुष्ठान में उनके पति शिवजी का कोई भाग नहीं लगाया गया था तथा उनके पिता द्वारा शिव जी के प्रति अपमानजनक भाषा का भी प्रयोग किया जा रहा है। इस कृत्य पर सती अत्यधिक क्रोधित हो गईं और वे उसी यञकुण्ड में कूद पड़ीं। यह देखकर क्रोध में आकर वहां उपस्थित शिव के गणों ने दक्ष की हत्या कर दी एवं काफी उत्पात भी मचाया। जब भगवान शंकर को यह ज्ञात हुआ तब वे वहां पहुंचकर सती के शव को अपने कंधे पर रखकर पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण करने लगे। सृष्टि विनाश के भय से भगवान विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के कई टुकड़े कर दिए ताकि शिव जी का क्रोध शांत किया जा सके। सती के आभूषण एवं शरीर के टुकड़े भूमण्डल पर जिन जिन स्थलों पर गिरे थे उन उन स्थलों पर महापीठ अथवा शक्तिपीठ की स्थापना हुई। ऐसे ही इक्यावन स्थलों के विवरण निम्नवत हैं :-
१- किरीट शक्तिपीठ :- पश्चिम बंगाल राज्य के वटनगर {लालबाग } में स्थित इस शक्तिपीठ में माता सती का किरीट गिरा था। इन्हें विमला देवी व भुवनेसगवरी भी कहा जाता है।
२-कात्यायनी शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ उत्तरप्रदेश राज्य के वृंदावन नगर में स्थित है। कहा जाता है कि यहां पर सती का केशपाश गिरा था। मथुरा से वृंदावन जाते समय वृंदावन से २ किलोमीटर पहले ही यह स्थल अवस्थित है।
३ -करवीर शक्तिपीठ :- कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी के मंदिर में यह पीठ अवस्थित है। इन्हें महिष मर्दिनी भी कहा जाता है। यह कोल्हापुर रेलवे स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। यहां सती के दोनों नेत्र गिरे थे।
४-श्रीपर्वत शक्तिपीठ :- यहां पर सती का दाहिना तलुवा गिरा था। श्रीपर्वत पर स्थापित इस सुन्दर शक्तिपीठ में सुन्दरानन्द भैरव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्हें सुंदरी शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यह शक्तिपीठ आसाम प्रान्त में जौनपुर नामक स्थान पर बताया जाता है।
५-विशालाक्षी शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ उत्तरप्रदेश के वाराणसी नगर में मीरघाट मोहल्ले में अवस्थित है। यहां पर सती के दाहिने कान की मणि गिरी थी। यह काशी विश्व्नाथ के प्रसिद्ध मंदिर के निकट स्थित है।
६-विश्वमातृका शक्तिपीठ :- यहां पर सती का वामगण्ड {गाल } गिरा था। इन्हें विशेश्वरी देवी भी कहा जाता है। यह गोदावरी नदी के तट पर आंध्रप्रदेश के राजमाहेंदरी रेलवे स्टेशन के निकट नदी के उस पार कुब्बूर नामक स्थान पर स्थित है।
७-नारायणी शक्तिपीठ :- कन्याकुमारी से त्रिवेन्द्रम मार्ग पर १२ किलोमीटर की दूरी पर यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां पर सती के ऊपरी दांत गिरे थे। इसे शुचीन्द्रम के नाम से भी जाना जाता है।
८- पञ्चसागर वाराही शक्तिपीठ :- यहां पर सती के निचले दांत गिरे थे। इसे पम्पसागर भी कहते हैं। इसके निश्चित स्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद है।
९-ज्वालामुखी शक्तिपीठ :- कहा जाता है कि यहां पर सती की जिह्वा गिरी थी। यहां देवी अम्बिका ज्वालामुखी के रूप में उन्मत्त भैरव के साथ विराजमान हैं। यह हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा मंदिर रेलवे स्टेशन के समीप स्थित हैं। स्टेशन से मात्र २ किलोमीटर की दूरी पर इनका मंदिर बना हुआ है।
१० -अवन्तिदेवी शक्तिपीठ :- इसे भैरवपर्वत शक्तिपीठ भी कहते हैं। यहां पर सती का ऊपरी ओंठ गिरा  था। मध्यप्रदेश के क्षिप्रा नदी के तट पर यह शक्तिपीठ अवस्थित है। कुछ लोग गुजरात के गिरनार पर्वत पर इन्हें अवस्थित मानते हैं।
११ -भैरवी शक्तिपीठ :- इन्हें हिंगलाज देवी भी कहा जाता है। यहां पर सती का ब्रह्मरन्ध्र गिरा  था। यह शक्तिपीठ पाकिस्तान में अवस्थित बताई जाती है।
१२-गुह्येश्वरी शक्तिपीठ :- यहां पर सती के दोनों घुटने गिरे थे। यह शक्तिपीठ नेपाल में बागमती नदी के तट पर स्थित बताई जाती है। पशुपतिनाथ के सन्निकट स्थित होने के कारण यात्रा का मार्ग तदनुसार चयन किया जा सकता है।
१३ -मुक्तेश्वरी गंडकी शक्तिपीठ :- यहां पर सती का दाहिना गाल गिरा  था। देवी गण्डकी चक्रपाणि भैरव के साथ यहां अवस्थित हैं। यह मध्य नेपाल में गंडक नदी के उदगम स्थल पर स्थित मुक्तिनाथ मंदिर में स्थापित हैं।
१४ -चट्टलपीठ भवानी शक्तिपीठ:- यहां स्थित पर्वत पर सती की दाहिनी भुजा गिरी थी। यह बंग्लादेश के चटगांव में अवस्थित हैं। चटगांव से रेल द्वारा सीताकुंड स्टेशन होकर यहां पहुंचा जा सकता है।
१५ -अपर्णा देवी शक्तिपीठ:- इसे करतोया शक्तिपीठ भी कहते हैं। यहां सती का बांया तलुवा गिरा था। देवी अपर्णा के रूप में वामन भैरव के साथ वे यहां विराजमान हैं। बंग्लादेश के बोगरा स्टेशन से ३६ किलोमीटर की दूरी पर भवानीपुर गांव में यह मंदिर स्थित है।
१६ -सुगंधा शक्तिपीठ :- इन्हें उग्रतारा शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यहां पर सती की नासिका गिरी थी। सुगन्धा नदी के तट पर शिकारपुर गांव {बंग्लादेश }में यह अवस्थित हैं।
१७ -यशोरेश्वरी शक्तिपीठ :- यहां पर सती की हथेली गिरी थी। यह शक्तिपीठ भी बंग्लादेश के ईश्वरपुर ग्राम जो यशोहार के निकट है ,अवस्थित हैं।
१८-लंका शक्तिपीठ :- यहां स्थित देवी को इद्राक्षी देवी के नाम से जाना जाता है। यहां पर देवी सती का नूपुर गिरा था। यह शक्तिपीठ श्रीलंका में अवस्थित है।
१९-मानस शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ चीन के द्वारा अधिकृत तिब्बत जहां मानसरोवर स्थित है ,के निकट अवस्थित  है। यहां पर सती की बांयीं हथेली गिरी थी।
२०- जयदुर्गा शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ कर्नाटक प्रदेश में अवस्थित है। यहां पर सती के दोनों हाथ गिरे बताये जाते हैं।
२१- अट्टहास शक्तिपीठ :- इस स्थान पर सती का अधरोष्ठ गिरा था। इन्हें फुलोरा देवी के नाम से भी जाना जाता है। यह शक्तिपीठ दिल्ली -कलकत्ता रेलमार्ग पर अहमदपुर नामक स्टेशन के निकट है और यहीं स्थित फुल्लोरा देवी के मंदिर में यह पीठ अवस्थित मानी जाती है।
२२ -भ्रामरी भद्रकाली :- इसे जनस्थान शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। यहां पर सती का चिबुक गिरा था। यहां स्थित भद्रकाली मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित मानी जाती है जो महाराष्ट्र में नासिक के  पंचवटी में स्थित है।
२३- महामाया देवी :- इसे कश्मीर शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। यहां पर सती का कण्ठभाग गिरा था। बाबा अमरनाथ के निकट दूसरा हिमानी शिवलिंग जिसे पार्वती पीठ कहते हैं ,में यह अवस्थित है।
२४- नन्दीपुरशक्तिपीठ :- यहां पर सती का कण्ठहार गिरा था। अतः यहां देवी नंदिनी के रूप में नंदिकेश्वर भैरव के साथ अवस्थित हैं। यह एक प्राचीन वटवृक्ष के नीचे स्थित है, जो दिल्ली हावड़ा रेलमार्ग पर सैथिना स्टेशन के पास नन्दीपुर ग्राम में है।
२५- श्रीशैलम शक्तिपीठ :-इन्हें महालक्ष्मी भ्रमराम्बा के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर सती की ग्रीवा गिरी थी। श्रीशैल के मल्लिकार्जुन पर्वत पर स्थित भ्रमराम्बा देवी के मंदिर में यह अवस्थित हैं। यह शक्तिपीठ हैदराबाद से २५० किलोमीटर दूर मरकापुर रोड रेलवे स्टेशन की निकट है।
26-काली शक्तिपीठ :- यहां पर सती के दाहिने पैर की चार उँगलियाँ गिरी थीं। यहां की अधिष्ठात्री देवी कालिका हैं। यह पश्चिम बंगाल में कलकत्ता रेलमार्ग पर अवस्थित हैं।
२७- विराट शक्तिपीठ :- इसे अम्बिका देवी के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान की राजधानी जयपुर से ६४ किलोमीटर उत्तर स्थित विराटनगर की प्राचीन गुफा में यह अवस्थित हैं। यहां पर सती के दाहिने पैर की उंगलियां गिरी थीं। यहां अलवर से बस द्वारा भी पहुंचा जा सकता है।
२८- युगाद्या शक्तिपीठ :- यह पश्चिम बंगाल के कटवाक्षीर  नामक  ग्राम में स्थित हैं। यहां पर सती के दाहिने पैर का अंगूठा गिरा था। कहते हैं कि क्षीर ग्राम की भूतधारी महामाया के साथ देवी युगाद्या की भद्रकाली स्वरूप एकाकार होकर यहां पर स्थित हैं।
२९- देवीकूप पीठ :- इन्हें कुरुक्षेत्र पीठ अथवा सावत्री पीठ भी कहते हैं। यहां पर सती का दाहिना चरण गिरा था। यह दिल्ली -अमृतसर रेलमार्ग पर कुरुक्षेत्र स्टेशन के निकट दिल्ली से मात्र ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
३०- विभाष शक्तिपीठ :- यहां पर सती का बायाँ टखना गिरा था। इस शक्तिपीठ में देवी कपालिनी के रूप में अवस्थित हैं। यह पश्चिम बंगाल के आसनसोल रेलवे स्टेशन के निकट तुमलुक नामक स्थान पर देवी विराजमान हैं।
३१- त्रिपुरसुंदरी शक्तिपीठ :- यह त्रिपुरा के उदयपुर नगर से २-३ किलोमीटर की दूरी पर राधाकिशोर ग्राम में अवस्थित हैंऔर यहां पर सती का दाहिना पैर गिरा था।
३२- त्रिस्तोता शक्तिपीठ :- इन्हें भ्रामरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर सती का बायां पैर गिरा था। पश्चिम बंगाल प्रान्त के सिलीगुड़ी के निकट यह शक्तिपीठ स्थित है।
मगध शक्तिपीठ :-इन्हें सर्वानन्दकरी पटनेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर सती की दाहिनी जांघ गिरी थी। यह पटना -हावड़ा -दिल्ली रेलमार्ग पर स्थित मुंगेर में अवस्थित हैं।
३३- जयन्ती शक्तिपीठ :- यह मेघालय राज्य के गारोखासी की पहाड़ियों पर स्थित हैं। यहां पर सती की बायीं जांघ गिरी थी। यह शक्तिपीठ शिलांग से ५३ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है।
३४- कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ :- असम प्रान्त के गुवाहाटी में स्थित नीलाञ्चल पर्वत पर अवस्थित कामाख्या देवी के मंदिर में यह विराजमान हैं। यहां पर सती का योनिमण्डल गिरा था। तंत्र मंत्र की साधना का यह प्रसिद्ध स्थल माना जाता है।
३५- शोणशक्तिपीठ :- इन्हें देवी नर्मदा के नाम से जाना जाता है। नर्मदा के पवित्र कुण्ड से मात्र ४ किलोमीटर दूरी पर सोन नदी के उद्गम स्थल पर स्थित शोणाक्षी देवी के मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित है। यहां पर सती का दाहिना नितम्ब गिरा था। यह छत्तीसगढ़  अमरकंटक के सन्निकट स्थित हैं। पेण्ड्रारोड रेलवे स्टेशन से ३५ किलोमीटर चलकर यहां पहुंचा जा सकता है।
३६- काँची शक्तिपीठ :- यहां पर स्थित देवी को देवगर्भा के नाम से जाना जाता है। इस स्थल पर सती का कंकाल गिरा था। इसे कामकोटि भी कहते हैं। कामाक्षी मंदिर में स्थित इस शक्तिपीठ को त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है। यह चेन्नई से ७५ किलोमीटर की  अवस्थित हैं।
३७- कालमाधव शक्तिपीठ :- यहां पर सती का बायाँ नितम्ब गिरा था। यहां स्थित देवी को काली देवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसका प्रमाणिक स्थल अज्ञात है।
३८- विरजा क्षेत्र शक्तिपीठ :- इन्हें विमला देवी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। यह जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित मंदिर में अवस्थित मानी जाती हैं। यहां पर सती की नाभि गिरी थी। यहां तक पहुँचने के लिए जगन्नाथ जाने वाला मार्ग का चयन किया जाना उपयुक्त होगा ।
३९-प्रयाग शक्तिपीठ :- यहां पर ललित देवी  से यह शक्तिपीठ जानी जाती है। यहां पर सती की हस्तांगुलि गिरी थी। इलाहाबाद किले में अवस्थित अक्षयवट के समीप कल्याणी ललिता  देवीमंदिर में यह अवस्थित मानी जाती हैं।
४०- उज्जयिनी शक्तिपीठ :- इन्हें देवी मंगल चण्डी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। उज्जैन स्थित हरिसिद्ध देवी के मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित बतायी जाती है। यहां पर सती की कोहनी गिरी थी इसीलिए उज्जैन स्थित इस मंदिर में देवी की कोहनी की पूजा की जाती है।
४१- मणिवेदिका शक्तिपीठ :- इसे गायत्री देवी शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है। यहां पर सती की दोनों कलाई गिरी थी। यह राजस्थान के पुष्कर में गायत्री की पहाड़ी पर अवस्थित मानी जाती हैं।
४२-बहुला शक्तिपीठ :- यहां पर सती का बायाँ बाहु गिरा था। यहां पर देवी चण्डिका भीरुक भैरव के साथ अवस्थित हैं। यह पश्चिम बंगाल की वीरभूमि में कटवा नामक स्टेशन के निकट स्थित है। इसे महाक्षेत्र भी कहा जाता है।
४३- कन्यकाश्रम शक्तिपीठ :- कन्याकुमारी स्थित भद्रकाली मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित बताई जाती है। यहां पर सती का पृष्ठ भाग गिरा था। कुछ लोग यहां पर उनके ऊपरी दाँत गिरने की भी  पुष्टि करते हैं।
४४- वक्त्रेश्वर शक्तिपीठ :- इन्हें महिष मर्दिनी भी कहा जाता है। यहां पर सती का मष्तिष्क गिरा था। यह पश्चिम बंगाल में सैंथिया स्टेशन से ११ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित बतायी जाती हैं।
४५- जयदुर्गा हृदयेश्वरी शक्तिपीठ :- यहां पर सती का ह्रदय गिरा था। अतः इसे प्रधान शक्तिपीठ की संज्ञा दी जाती है। यह पटना -कलकत्ता मार्ग पर गिरिडीह स्टेशन के निकट वैद्यनाथ धाम स्थित मंदिर में अवस्थित बताई जाती हैं।
४६- जालन्धर शक्तिपीठ :- इन्हें त्रिपुर मालिनी शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है। यहां पर सती का वाम स्तन गिरा था। यहां तक पहुँचने हेतु पठानकोट -बैजनाथ -पथरौल रेलमार्ग से नगरौरा -बंगवा स्टेशन पर उतरना पड़ता है।
४७- रामगिरी शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ मध्यप्रदेश के मैहर के शारदा मंदिर में अवस्थित मानी जाती हैं। कुछ लोग इन्हें चित्रकूट में अवस्थित मानते हैं। यहां पर सती का दाहिना स्तन गिरा था। चूँकि रामगिरि पर्वत चित्रकूट में है इसीलिए यह मतभेद उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है।
४८- अम्बाजी शक्तिपीठ :- इसे प्रभाष शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यहां पर यह चन्द्रभागा देवी के नाम से जानी जाती हैं। यहां सती का उदर भाग गिरा था। यह गिरनार पर्वत पर स्थित अम्बाजी के मंदिर में अवस्थित बताई जाती हैं।
४९- रत्नावली शक्तिपीठ :- यहां पर सती का दाहिना स्कन्ध गिरा था। रत्नावली पर्वत पर चेन्नई के निकट यह शक्तिपीठ अवस्थित मानी जाती है। कुछ लोग इसे कन्याकुमारी में स्थित मानते हैं।
५०- मिथिला शक्तिपीठ :- इसे महादेवी उमा मिथिलेश्वरी भी कहा जाता है। यह बिहार राज्य के मिथिला में अवस्थित है तथा यहां पर सती का बायाँ स्कन्ध गिरा था। बिहार के उग्रतारा मंदिर एवं समस्तीपुर के जयमंगला देवी मंदिर में यह संयुक्त रूप में विराजमान बताई जाती है।
५१ -नलहरि शक्तिपीठ :- इस पीठ में स्थापित देवी को महाकाली के रूप में प्रतिष्ठित माना जाता है। यहां पर सती की आँत गिरी थी। यहां पर कोई भी मंदिर नहीं बना हुआ है बल्कि एक टीले पर आंत की आकृति में यह अवस्थित हैं। यह हावड़ा -क्यूल मेन लाइन पर नलहाठी रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर की दूरी पर तथा शांतिनिकेतन से २  किलोमीटर दूरी पर स्थित हैं।  
        

Wednesday, June 15, 2016

तीर्थस्थल का माहात्म्य

हिंदू धर्म एवं संस्कृति में तीर्थस्थल एवं उसके माहात्म्य के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। सामान्यतः तीर्थ शब्द संस्कृत भाषा के तृ  धातु में थक् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका अर्थ पापों से मुक्ति देने वाला अथवा सांसारिक बन्धन से मुक्ति देने वाला होता हैऔर संस्कृत की उक्ति "तारयितुम समर्थः इति तीर्थः "इसे पूर्णतयः चरितार्थ करती है। भारतवर्ष में तीर्थ की अवधारणा प्रायः किसी पवित्र नदी के किनारे ,वृहत सरोवर अथवा कुण्ड के निकट स्थित स्थल से की गई है ताकि उसके पवित्र जल में स्नान करके आत्मशुद्धि की प्रारम्भिक क्रिया सम्पन्न की जा सके। वैसे तो पुराणों में गुरुतीर्थ एवं मातापिता तीर्थ का वर्णन भी मिलता है।  अतः स्कन्दपुराण में तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार हैं :-
स्थावर तीर्थ --इसके अन्तर्गत भूलोक में अवस्थित सभी तीर्थ यथा गंगोत्री ,यमुनोत्री ,गंगा ,यमुना सरस्वती आदि नदियां तथा हिमालयएवं कैलाश पर्वत और वृन्दावन,नैमिषारण्य आदि वनक्षेत्र के साथ गुरुकुल आश्रम आदि  सम्मिलित किये जाते हैं।
जंगम तीर्थ --इसके अन्तर्गत ब्राह्मण,साधु,सन्यासी,ऋषि,मुनि,महात्मा आदि गतिशील तीर्थ सम्मिलित माने जाते हैं।
मानस तीर्थ --सत्य,क्षमा, दया, इंद्रिय निग्रह, दान, धर्म तप, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य आदि को मानस तीर्थ कहा जाता है।ऐसी मान्यता है कि इन सभी तीर्थों में मानस तीर्थ श्रेष्ठ हैं।
तीर्थों का विस्तृत महत्व वैदिक वाङ्ग्मय से लेकर पुराणों एवं अन्य धर्मशास्त्रों में विस्तारपूर्वक बताया गया है। उक्त सभी में इसे संकटमोचक ,पापमुक्ति ,पुण्य सँचय ,देवकृपा की प्राप्ति एवं मोक्ष प्रदाता के रूप में वर्णन किया गया है। तीर्थस्थलों से मनुष्य में चारित्रिक विकास एवं आत्मतुष्टि की प्राप्ति होती है। पूर्ण समर्पित भाव से ईश्वर के धाम अथवा मंदिर में उनकी विधिवत पूजा, अर्चना व दर्शन करने का पुण्य प्राप्त कर व्यक्ति में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचरण और नकारात्मक ऊर्जा का विसर्जन होता है। आत्मशुद्धि ही तीर्थयात्रा का प्राथमिक उद्देश्य माना जाता है। इसीलिए कहा गया कि "तरति संसार महार्णवम येन तत् तीर्थमिति "अर्थात तीर्थ ही मनुष्य के पापों को उन्मोचित करके भवसागर पार कराने में समर्थ है।तीर्थ यात्रा से सामाजिक सामञ्जस्य भी स्थापित होता है। तीर्थस्थलों पर आयोजित होने वाले स्नान पर्व ,मेले व अन्य धार्मिक संस्कारों से सामाजिक समरसता सुदृढ़ होती है। शैव ,शाक्त ,बौद्ध ,जैन ,इस्लाम ,ईसाई सिख सभी धर्मों के अनुयायी इन स्थलों पर आकर आपस के मतभेद को दूर कर लेते हैं तथा भाईचारे का सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
भारत में धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न करने हेतु भी कुछ धर्मस्थलों को चिह्नित करके उन्हें विशेष मान्यता प्रदान की गई है जैसे अस्थिविसर्जन ,पिण्डदान व तर्पण ,मुण्डन ,विवाह संस्कार आदि। इसी के दृष्टिगत तीर्थों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। प्रथम नित्य तीर्थ जिसमें काशी,कैलाश ,मानसरोवर ,प्रयाग ,आदि सम्मिलित हैं और जिन्हें प्राचीनकाल से विशेष मान्यता प्राप्त है ऐसी गंगा ,यमुना ,नर्मदा गोदावरी ,कावेरी सरस्वती आदि नदियां भी इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं। दूसरे भगवदीय तीर्थ के अंतर्गत ऐसे स्थान चिह्नित किये गए हैं जहाँ भगवान ने स्वयं अवतार लिया था अथवा किसी भक्त को दर्शन दिए थे जैसे अयोध्या ,मथुरा ,रामेश्वरम आदि। तीसरे श्रेणी में सन्त तीर्थ आते हैं जिनके अंतर्गत सन्त की जन्मभूमि ,साधनास्थली एवं निर्वाणस्थली को सम्मिलित किया गया है। भारत के ऐसे पावन स्थल जहाँ सिद्धपीठ ,पवित्र नदियाँ ,जलसरोवर ,पर्वत ,मन्दिर ,कूप ,वटवृक्ष ,ऋषि मुनि के आश्रम व सन्त महात्मा के निवास स्थल पाए जाते हैं ,को भी तीर्थवत माना जाता है। पद्मपुराण में इसी के समर्थन में कहा गया है :-
         तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यः नरः संसारभीरुचिः।
          पुण्योदकेषु  सततं  साधु  श्रेणी  विराजेषु।।
तीर्थ शब्द के प्रथम अक्षर "ती" का तात्पर्य तीन उद्देश्यों की सम्पूर्ति के सन्दर्भ में भी प्रयुक्त होता है। प्रथम सात्विक व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति हेतु तीर्थयात्रा करते हैं, द्वितीय राजसी व्यक्ति जो सकाम भाव से अपने मनोरथ की पूर्ति हेतु यात्रा करते है और तृतीय तामसी व्यक्ति जो अपने मनोविकार ,शारीरिक कष्ट व धनसंग्रह के उद्देश्य की सिद्धि के लिए तीर्थयात्रा करते हैं।  तीर्थतीर्थ यात्रा का उद्देश्य मुख्यतः अन्तःकरण की शुद्धि एवं  ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करना है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि जो मनुष्य इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रख पाते हैं तथा वे जो काम, क्रोध,अहंकार ,विषयासक्ति, लोभ, आदि की पूर्ति  में ही संलग्न रहते हैं, उन्हें तीर्थस्थल में जाकर स्नान व ईश्वर के दर्शन का फल नहीं मिल पाता है बल्कि वे केवल पर्यटक बनकर ही वहां से वापस लौट आते हैं।
हिन्दू धर्म में तीर्थस्थलों का विभाजन उनकी महत्ता को दृष्टिगत करते हुए निम्नवत किया गया है ;-

चारधाम --धाम का तात्पर्य आवास स्थल होता है। ईश्वर के चार महत्वपूर्ण आवास स्थलों को ही चारधाम के रूप में वर्णित किया जाता है। ये चार धाम वही स्थल हैं जहाँ पर भगवान विष्णु ने अवतार स्वरूप किंचित समय तक निवास किया था। इसके अन्तर्गत भारत के पूर्वी भाग में स्थित जगन्नाथपुरी ,पश्चिम में द्वारिका धाम ,उत्तर में बदरीनाथ धाम एवं दक्षिण में रामेश्वरम धाम आते हैं। उत्तराखण्ड में बदरीनाथ ,केदारनाथ ,गंगोत्री एवं यमुनोत्री को भी हिमालय परिक्षेत्र को भी चारधाम की संज्ञा दी जाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि चारधाम यात्रा से समस्त तीर्थों के सम्मिलित पुण्य की प्राप्ति हो जाती है। चारधाम की स्थापना आदि शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों पर चार पवित्र मठ बनवाकर की थी। 

सप्तपुरियाँ --शास्त्रों में अयोध्या ,मथुरा ,काशी ,हरिद्वार ,अवन्तिका ,काँचीपुरम ,व द्वारिका की गणना सप्तपुरियों में की गई है तथा इन सभी के अधिपति के रूप में प्रयाग को तीर्थराज की संज्ञा दी गई है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग --सम्पूर्ण भारत में भगवान शिव के बारह पवित्र ज्योतिर्लिंग विभिन्न प्रान्तों में अवस्थित हैं। इनमें सोमनाथ ,मल्लिकार्जुन ,महाकालेश्वर ,वैद्यनाथ ,ओंकारेश्वर ,,भीमशंकर ,नागेश्वर ,त्र्यंबकेश्वर ,केदारनाथ ,घुश्मेश्वर एवं काशी विश्वनाथ जी सम्मिलित हैं।
पञ्च  सरोवर --पञ्च सरोवर के अन्तर्गत मानसरोवर ,पुष्कर सरोवर ,बिन्दुसरोवर ,नारायण सरोवर एवं चम्पासरोवर आते हैं जहां स्नान करने से मुक्ति मिल जाती है,ऐसी मान्यता है ।
सप्तसरितायें --वेद, उपनिषद, पुराण एवं धर्मशास्त्रों में अनेकों पवित्र नदियों का उल्लेख मिलता है जिनमें सप्तसरिताओं का विशेष महत्व बताया गया है। इनमें गंगा,यमुना ,सरस्वती ,नर्मदा ,सिन्धु ,गोदावरी और कावेरी नदियां सम्मिलित की गईं हैं। इन सातों नदियों के तटों पर अनेकों तीर्थस्थल स्थापित हुए हैं।
शक्तिपीठ --पुराणों में वर्णित है कि सती के शरीर के विभिन्न टुकड़े जिन जिन स्थानों पर गिरे थे उन उन स्थानों पर शक्तिपीठ की स्थापना की गई थी। भारत में ऐसे इक्यावन स्थान हैं जिन्हें शक्तिपीठ के रूप में चिह्नित किया गया है और वहां पर स्थापित देवी की प्रतिमा की विधिवत पूजा एवं अर्चना की जाती है। इसके अतिरिक्त देवी के जाग्रत १२ प्रधान विग्रह का भी उल्लेख मिलता है। ऐसे विग्रह स्थलों में कामाक्षी देवी ,भ्रमराम्बां ,कन्याकुमारी ,अम्बा ,महालक्ष्मी ,कालिका,ललिता ,विंध्यवासिनी ,विशालाक्षी ,मंगलागौरी ,सुन्दरी एवं गुह्यकेश्वरी {नेपाल }प्रमुख हैं।
तीर्थयात्रा हेतु श्रद्धा ,विश्वास एवं ईश्वर के दर्शन की उत्कट अभिलाषा का होना अनिवार्य है। यात्रा के पूर्व श्री गणेश ,साधु ,ब्राह्मण व गाय की विधिवत पूजा करना आवश्यक माना जाता है। लोभ,द्वेष,माया,मोह,अहंकार, क्रोध,एवं कामभावना का परित्याग करके की गई तीर्थयात्रा  अधिक फलदायी मानी जाती है। कहा जाता है कि सतयुग में ध्यान द्वारा ,त्रेतायुग में यज्ञानुष्ठान द्वारा ,द्वापरयुग में भगवान की पूजा करके जो फल मनुष्य प्राप्त करता है वह फल कलियुग में केवल हरिकीर्तन द्वारा ही  मिल जाता है। कलियुग में भगवान कृष्ण के कीर्तन व दर्शन से पूर्व की सात पीढ़ियां और आगे आने वाली चौदह पीढ़ियों का उद्धार हो जाने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसी भाव को इस प्रकार कहा है:-
                          कलियुग समजुग आन नहिं जो नर कर  विस्वास।
                          गाई  राम गुन गन विमल भव तरु विनहिं  प्रयास।।
कलियुग में मनुष्य अनेकानेक कष्टों एवं समस्यायों से ग्रसित रहता है, अतः वह भारत के समस्त तीर्थों के दर्शन कर अपनी समस्यायों के समाधान हेतु ईश्वरीय कृपा प्राप्त करना चाहता है। तीर्थयात्रा हेतु सभी धर्मों, जातियों एवं वर्गों के लिए यह अवसर उपलब्ध होता है। महाभारत में पुलस्त्य ऋषि का यह कथन स्मरणीय है :-
                                 पुष्करे  तु  कुरुक्षेत्रे   गंगायां  मगधेषु  च। 
                                  स्नात्वा तारयेत जन्तुःसप्तसप्तावरोसतय।।
अर्थात पुष्कर ,कुरुक्षेत्र ,गंगा और मगध देश के तीर्थों फल्गु नदी आदि में स्नान करने वाला मनुष्य अपनी पूर्व और आगे की सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। 
भारतवर्ष में प्रायः लोग जीवन के अन्तिम भाग में तीर्थयात्रा करने का संकल्प करते हैं किन्तु जीवन क्षणभंगुर होने के कारण जीवन के अंतिम भाग का निर्धारण करना उनके वश में नहीं है, अतःयह उपयुक्त होगा कि जीवन में जब कभी भी अवसर प्राप्त हो जाये तो तीर्थयात्रा तुरंत कर लेनी चाहिए। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि वृद्धावस्था में दुर्गम मार्गों पर  तीर्थयात्रा करना कदाचित कठिन हो जाता है।                

Tuesday, June 7, 2016

आत्मनिवेदन

भारत एक धर्म प्रधान देश है। अतः प्राचीनकाल में उत्तरी भारत में स्थित हिमालय के सम्पूर्ण परिक्षेत्र को ऋषियों एवं मुनियों की तपस्थली होने के कारण इसे देवभूमि की संज्ञा भी दी जाती थी। वैसे तो भारतवर्ष में प्रत्येक दो चार किलोमीटर पर कोई न कोई देवालय ,मंदिर ,गुरुद्वारा व चर्च देखने को मिल जाता है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं जिसकी पवित्रता को आत्मसात करते हुए हम उन्हें तीर्थस्थल की संज्ञा देते हैं। धर्म पूर्णतयः आस्था का ही विषय है और आस्था को तर्कों से नियमित नहीं किया जा सकता है। वह स्वतःस्फूर्त होती है।यद्यपि धार्मिक आस्था का सुपरिणाम हमें अपने जीवनकाल में ही देखने को मिल जाता है। धार्मिक व्यक्ति यह मानता है कि ईश्वर की असीम चेतना उसकी चेतना से जुडी हुई है इसीलिए उसमें अतिरिक्त सकारात्मक ऊर्जा और आशावाद का संचरण भी होता है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त एकनाथ जी का मत है कि हमे एक तीर्थयात्री की तरह जीवन बिताना चाहिए जो प्रातःकाल यात्रा के लिए चलता है और शाम को पुनः अपने घर वापस आ जाता है। तीर्थस्थलों का दर्शन करने से मन और मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है तथा एक विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति भी होती है। जिस प्रकार शरीर का प्रत्येक अंग ऊर्जा सम्पन्न होते हुए भी समान अनुभूति नहीं कर पाता, केवल मन व ह्रदय ही आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति कर पाता है ,उसी प्रकार भारत के कण कण में भगवान होते हुए भी कुछ ही स्थल ऐसे हैं जहां ईश्वर की साक्षात् अनुभूति हो पाती है। भारतवर्ष में कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां भगवान ने लीलाएं की थी अथवा निवास किया था ,अतः ऐसे स्थानों  पर जाने से विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इस ब्लॉग/पुस्तक में ऐसे ही तीर्थस्थलों का वर्णन किया गया है जहां जाने से मन को अपूर्व शांति व आनन्द  की प्राप्ति होती है। 
आत्मानुभूति के चरम उद्देश्य मोक्ष जिसे स्थायी शांति भी कहा जाता है, की प्राप्ति के क्रम में ही भारत के चारों कोनो पर चार धामों की स्थापना की गई थी। इनमें से तीन धामों की यात्रा अपेक्षाकृत सरल व सुगम है किन्तु बद्रीनाथ की यात्रा में सीधी चढ़ाई चढ़ने के कारण अपेक्षाकृत किञ्चित कठिनाई अवश्य महशूस की जाती है किन्तु उनके प्रति अटूट विश्वास,आस्था एवं समर्पण के कारण यह यात्रा भी आसान लगने लगती है। 
सम्पूर्ण विश्व में भारत ही ऐसा देश है जो समस्त धर्मों के अनुयायियों का एकल गन्तव्य है। धर्मानुयायी जिस सभ्यता ,विरासत ,अध्यात्म ,दर्शन व प्राकृतिक दृश्यों की मिश्रित अनुभूति को आत्मसात करना चाहते हैं ,वह भारतवर्ष में सहज ही उपलब्ध है। यही कारण है कि भारतवर्ष में पर्यटकों का सबसे बड़ा वर्ग धार्मिक पर्यटकों का है। प्रत्येक धर्म जैसे हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,जैन ,बौद्ध आदि के अपने अपने तीर्थस्थल हैं और उन तीर्थस्थलों का पर्यटन के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। पर्यटन के क्षेत्र में आध्यात्मिक पर्यटन एक नवीन     अवधारणा है। आध्यात्मिक पर्यटन स्थल का तात्पर्य अपनी आन्तरिक चेतना के विकास के उद्देश्य को प्राप्त करना है तथा धार्मिक पर्यटन का तात्पर्य अपने धर्म के उन प्रतीक स्थलों जहां पूर्व में देवी देवता अथवा सिद्ध पुरुष व संतगण कभी निवास किया करते थे, ऐसे ही धर्मस्थलों का दर्शन कर उनकी अलौकिक शक्तियों को आत्मसात करना माना जाता है। चूँकि आध्यात्मिकता प्राकृतिक एवं सार्वभौम तत्व है और इस तत्व को आत्मसात करने हेतु किसी धर्म से जुड़ा होना अनिवार्य भी नहीं है। अतः ऐसे पर्यटन स्थलों को भी आध्यात्मिक स्थलों की मान्यता दी जा सकती है जो पूर्व में आध्यात्मिक महापुरुषों की कर्मस्थली रही हो। पांडिचेरी का अरविन्द आश्रम ,हरिद्वार का शांतिकुंज आश्रम ,अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का दरगाह एवं शिरडी के साईंबाबा आदि ऐसे ही धर्मस्थल हैं जहाँ लोग किसी धर्म से प्रेरित हो करके नहीं जाते हैं बल्कि इन स्थानों की आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित होकर यहां स्थित धर्मस्थलों की यात्रा किया  करते हैं। 
भारतवर्ष को ३३ करोड़ देवी देवताओं का निवास स्थल माना जाता है। अतः स्वाभाविक है कि ऐसे देश में धार्मिक स्थलों की संख्या भी अनगिनत ही होगी। यही कारण है कि ऐसे धर्मस्थल  अपनी महत्ता एवं अलौकिक शक्ति के कारण ही कालान्तर में तीर्थस्थल का रूप ले लेते हैं। ऐसे स्थलों पर श्रद्धालुगण अपने समस्त कष्टों को दूर करने एवं सुख समृद्धि प्राप्त करने की मनोकामना के साथ एकत्र होते हैं और ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा को फलीभूत करके पुण्य की प्राप्ति करते हैं और ऐसे ही कतिपय धर्मस्थलों को  तीर्थस्थल की श्रेणी में रखा गया है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित चारों धामों, द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं इक्यावन शक्तिपीठों के दृष्टिगत अति महत्वपूर्ण धार्मिक तीर्थस्थलों का चयन करके उन्हें इस पुस्तक में समाविष्ट किया गया है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त मुस्लिमधर्म, र्सिखधर्म,जैनधर्म एवं बौद्धधर्म से सम्बन्धित कतिपय महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। ऐसे तिरपन  तीर्थस्थलों के सम्बन्ध में उनका सामान्य परिचय ,भौगोलिक स्थिति ,पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य तथा निकटवर्ती अन्य धार्मिक स्थलों की सम्यक जानकारी सुधी पाठकों के संज्ञान में लायी जा रही है ताकि ऐसे तीर्थस्थलों की यात्रा के पूर्व इन वर्णित तथ्यों को संज्ञान में लेते हुए यदि श्रद्धालुगण वहां पर जाते हैं तो उन्हें उस तीर्थस्थल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी पहले से ही रहेगी और पूर्व जानकारी का लाभ उन्हें उस परिक्षेत्र के अन्य दर्शनीय स्थलों के निरीक्षण में सहायक होगा। 
इस पुस्तक में तीर्थस्थलों के सम्बन्ध में प्रामाणिक तथ्यों हेतु तद्सम्बन्धित पुस्तकों एवं इंटरनेट पर उपलब्ध तथ्यों से पुष्टि करने के पश्चात ही उनके बारे में आवश्यक तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं। यदि कोई तथ्य असंगत प्रतीत होता हो तो इसके लिए सुधी पाठकों के सुझाव आमन्त्रित करते हुए त्रुटि के लिए क्षमा चाहता हूँ। तीर्थस्थलों के सम्बन्ध में आवश्यक तथ्यों के संकलन में श्री बृजेश कुमार मिश्र ,डॉ राजमणि चतुर्वेदी  श्री रामकुमार,श्री रमेश चन्द्र त्रिपाठी,का पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ है जिसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।महांत जन्मेजय शरण जी महराज,महांत देवेन्द्रप्रसादाचार्य जी महराज,स्वामी आत्मानन्द सरस्वती जी महराज जिनकी प्रेरणा से यह पुस्तक तैयार हो पायी ,के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।  तीर्थस्थलों की सम्यक जानकारी हेतु चित्रों एवं मानचित्रों का भी इस पुस्तक में समावेश किया गया है। आशा है कि श्रद्धालु पाठकगण इससे अधिक लाभान्वित होंगे।