हिंदू धर्म एवं संस्कृति में तीर्थस्थल एवं उसके माहात्म्य के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। सामान्यतः तीर्थ शब्द संस्कृत भाषा के तृ धातु में थक् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका अर्थ पापों से मुक्ति देने वाला अथवा सांसारिक बन्धन से मुक्ति देने वाला होता हैऔर संस्कृत की उक्ति "तारयितुम समर्थः इति तीर्थः "इसे पूर्णतयः चरितार्थ करती है। भारतवर्ष में तीर्थ की अवधारणा प्रायः किसी पवित्र नदी के किनारे ,वृहत सरोवर अथवा कुण्ड के निकट स्थित स्थल से की गई है ताकि उसके पवित्र जल में स्नान करके आत्मशुद्धि की प्रारम्भिक क्रिया सम्पन्न की जा सके। वैसे तो पुराणों में गुरुतीर्थ एवं मातापिता तीर्थ का वर्णन भी मिलता है। अतः स्कन्दपुराण में तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार हैं :-
स्थावर तीर्थ --इसके अन्तर्गत भूलोक में अवस्थित सभी तीर्थ यथा गंगोत्री ,यमुनोत्री ,गंगा ,यमुना सरस्वती आदि नदियां तथा हिमालयएवं कैलाश पर्वत और वृन्दावन,नैमिषारण्य आदि वनक्षेत्र के साथ गुरुकुल आश्रम आदि सम्मिलित किये जाते हैं।
जंगम तीर्थ --इसके अन्तर्गत ब्राह्मण,साधु,सन्यासी,ऋषि,मुनि,महात्मा आदि गतिशील तीर्थ सम्मिलित माने जाते हैं।
मानस तीर्थ --सत्य,क्षमा, दया, इंद्रिय निग्रह, दान, धर्म तप, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य आदि को मानस तीर्थ कहा जाता है।ऐसी मान्यता है कि इन सभी तीर्थों में मानस तीर्थ श्रेष्ठ हैं।
तीर्थों का विस्तृत महत्व वैदिक वाङ्ग्मय से लेकर पुराणों एवं अन्य धर्मशास्त्रों में विस्तारपूर्वक बताया गया है। उक्त सभी में इसे संकटमोचक ,पापमुक्ति ,पुण्य सँचय ,देवकृपा की प्राप्ति एवं मोक्ष प्रदाता के रूप में वर्णन किया गया है। तीर्थस्थलों से मनुष्य में चारित्रिक विकास एवं आत्मतुष्टि की प्राप्ति होती है। पूर्ण समर्पित भाव से ईश्वर के धाम अथवा मंदिर में उनकी विधिवत पूजा, अर्चना व दर्शन करने का पुण्य प्राप्त कर व्यक्ति में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचरण और नकारात्मक ऊर्जा का विसर्जन होता है। आत्मशुद्धि ही तीर्थयात्रा का प्राथमिक उद्देश्य माना जाता है। इसीलिए कहा गया कि "तरति संसार महार्णवम येन तत् तीर्थमिति "अर्थात तीर्थ ही मनुष्य के पापों को उन्मोचित करके भवसागर पार कराने में समर्थ है।तीर्थ यात्रा से सामाजिक सामञ्जस्य भी स्थापित होता है। तीर्थस्थलों पर आयोजित होने वाले स्नान पर्व ,मेले व अन्य धार्मिक संस्कारों से सामाजिक समरसता सुदृढ़ होती है। शैव ,शाक्त ,बौद्ध ,जैन ,इस्लाम ,ईसाई सिख सभी धर्मों के अनुयायी इन स्थलों पर आकर आपस के मतभेद को दूर कर लेते हैं तथा भाईचारे का सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
भारत में धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न करने हेतु भी कुछ धर्मस्थलों को चिह्नित करके उन्हें विशेष मान्यता प्रदान की गई है जैसे अस्थिविसर्जन ,पिण्डदान व तर्पण ,मुण्डन ,विवाह संस्कार आदि। इसी के दृष्टिगत तीर्थों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। प्रथम नित्य तीर्थ जिसमें काशी,कैलाश ,मानसरोवर ,प्रयाग ,आदि सम्मिलित हैं और जिन्हें प्राचीनकाल से विशेष मान्यता प्राप्त है ऐसी गंगा ,यमुना ,नर्मदा गोदावरी ,कावेरी सरस्वती आदि नदियां भी इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं। दूसरे भगवदीय तीर्थ के अंतर्गत ऐसे स्थान चिह्नित किये गए हैं जहाँ भगवान ने स्वयं अवतार लिया था अथवा किसी भक्त को दर्शन दिए थे जैसे अयोध्या ,मथुरा ,रामेश्वरम आदि। तीसरे श्रेणी में सन्त तीर्थ आते हैं जिनके अंतर्गत सन्त की जन्मभूमि ,साधनास्थली एवं निर्वाणस्थली को सम्मिलित किया गया है। भारत के ऐसे पावन स्थल जहाँ सिद्धपीठ ,पवित्र नदियाँ ,जलसरोवर ,पर्वत ,मन्दिर ,कूप ,वटवृक्ष ,ऋषि मुनि के आश्रम व सन्त महात्मा के निवास स्थल पाए जाते हैं ,को भी तीर्थवत माना जाता है। पद्मपुराण में इसी के समर्थन में कहा गया है :-
तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यः नरः संसारभीरुचिः।
पुण्योदकेषु सततं साधु श्रेणी विराजेषु।।
तीर्थ शब्द के प्रथम अक्षर "ती" का तात्पर्य तीन उद्देश्यों की सम्पूर्ति के सन्दर्भ में भी प्रयुक्त होता है। प्रथम सात्विक व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति हेतु तीर्थयात्रा करते हैं, द्वितीय राजसी व्यक्ति जो सकाम भाव से अपने मनोरथ की पूर्ति हेतु यात्रा करते है और तृतीय तामसी व्यक्ति जो अपने मनोविकार ,शारीरिक कष्ट व धनसंग्रह के उद्देश्य की सिद्धि के लिए तीर्थयात्रा करते हैं। तीर्थतीर्थ यात्रा का उद्देश्य मुख्यतः अन्तःकरण की शुद्धि एवं ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करना है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि जो मनुष्य इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रख पाते हैं तथा वे जो काम, क्रोध,अहंकार ,विषयासक्ति, लोभ, आदि की पूर्ति में ही संलग्न रहते हैं, उन्हें तीर्थस्थल में जाकर स्नान व ईश्वर के दर्शन का फल नहीं मिल पाता है बल्कि वे केवल पर्यटक बनकर ही वहां से वापस लौट आते हैं।
हिन्दू धर्म में तीर्थस्थलों का विभाजन उनकी महत्ता को दृष्टिगत करते हुए निम्नवत किया गया है ;-
चारधाम --धाम का तात्पर्य आवास स्थल होता है। ईश्वर के चार महत्वपूर्ण आवास स्थलों को ही चारधाम के रूप में वर्णित किया जाता है। ये चार धाम वही स्थल हैं जहाँ पर भगवान विष्णु ने अवतार स्वरूप किंचित समय तक निवास किया था। इसके अन्तर्गत भारत के पूर्वी भाग में स्थित जगन्नाथपुरी ,पश्चिम में द्वारिका धाम ,उत्तर में बदरीनाथ धाम एवं दक्षिण में रामेश्वरम धाम आते हैं। उत्तराखण्ड में बदरीनाथ ,केदारनाथ ,गंगोत्री एवं यमुनोत्री को भी हिमालय परिक्षेत्र को भी चारधाम की संज्ञा दी जाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि चारधाम यात्रा से समस्त तीर्थों के सम्मिलित पुण्य की प्राप्ति हो जाती है। चारधाम की स्थापना आदि शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों पर चार पवित्र मठ बनवाकर की थी।
सप्तपुरियाँ --शास्त्रों में अयोध्या ,मथुरा ,काशी ,हरिद्वार ,अवन्तिका ,काँचीपुरम ,व द्वारिका की गणना सप्तपुरियों में की गई है तथा इन सभी के अधिपति के रूप में प्रयाग को तीर्थराज की संज्ञा दी गई है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग --सम्पूर्ण भारत में भगवान शिव के बारह पवित्र ज्योतिर्लिंग विभिन्न प्रान्तों में अवस्थित हैं। इनमें सोमनाथ ,मल्लिकार्जुन ,महाकालेश्वर ,वैद्यनाथ ,ओंकारेश्वर ,,भीमशंकर ,नागेश्वर ,त्र्यंबकेश्वर ,केदारनाथ ,घुश्मेश्वर एवं काशी विश्वनाथ जी सम्मिलित हैं।
पञ्च सरोवर --पञ्च सरोवर के अन्तर्गत मानसरोवर ,पुष्कर सरोवर ,बिन्दुसरोवर ,नारायण सरोवर एवं चम्पासरोवर आते हैं जहां स्नान करने से मुक्ति मिल जाती है,ऐसी मान्यता है ।
सप्तसरितायें --वेद, उपनिषद, पुराण एवं धर्मशास्त्रों में अनेकों पवित्र नदियों का उल्लेख मिलता है जिनमें सप्तसरिताओं का विशेष महत्व बताया गया है। इनमें गंगा,यमुना ,सरस्वती ,नर्मदा ,सिन्धु ,गोदावरी और कावेरी नदियां सम्मिलित की गईं हैं। इन सातों नदियों के तटों पर अनेकों तीर्थस्थल स्थापित हुए हैं।
शक्तिपीठ --पुराणों में वर्णित है कि सती के शरीर के विभिन्न टुकड़े जिन जिन स्थानों पर गिरे थे उन उन स्थानों पर शक्तिपीठ की स्थापना की गई थी। भारत में ऐसे इक्यावन स्थान हैं जिन्हें शक्तिपीठ के रूप में चिह्नित किया गया है और वहां पर स्थापित देवी की प्रतिमा की विधिवत पूजा एवं अर्चना की जाती है। इसके अतिरिक्त देवी के जाग्रत १२ प्रधान विग्रह का भी उल्लेख मिलता है। ऐसे विग्रह स्थलों में कामाक्षी देवी ,भ्रमराम्बां ,कन्याकुमारी ,अम्बा ,महालक्ष्मी ,कालिका,ललिता ,विंध्यवासिनी ,विशालाक्षी ,मंगलागौरी ,सुन्दरी एवं गुह्यकेश्वरी {नेपाल }प्रमुख हैं।
तीर्थयात्रा हेतु श्रद्धा ,विश्वास एवं ईश्वर के दर्शन की उत्कट अभिलाषा का होना अनिवार्य है। यात्रा के पूर्व श्री गणेश ,साधु ,ब्राह्मण व गाय की विधिवत पूजा करना आवश्यक माना जाता है। लोभ,द्वेष,माया,मोह,अहंकार, क्रोध,एवं कामभावना का परित्याग करके की गई तीर्थयात्रा अधिक फलदायी मानी जाती है। कहा जाता है कि सतयुग में ध्यान द्वारा ,त्रेतायुग में यज्ञानुष्ठान द्वारा ,द्वापरयुग में भगवान की पूजा करके जो फल मनुष्य प्राप्त करता है वह फल कलियुग में केवल हरिकीर्तन द्वारा ही मिल जाता है। कलियुग में भगवान कृष्ण के कीर्तन व दर्शन से पूर्व की सात पीढ़ियां और आगे आने वाली चौदह पीढ़ियों का उद्धार हो जाने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसी भाव को इस प्रकार कहा है:-
कलियुग समजुग आन नहिं जो नर कर विस्वास।
गाई राम गुन गन विमल भव तरु विनहिं प्रयास।।
कलियुग में मनुष्य अनेकानेक कष्टों एवं समस्यायों से ग्रसित रहता है, अतः वह भारत के समस्त तीर्थों के दर्शन कर अपनी समस्यायों के समाधान हेतु ईश्वरीय कृपा प्राप्त करना चाहता है। तीर्थयात्रा हेतु सभी धर्मों, जातियों एवं वर्गों के लिए यह अवसर उपलब्ध होता है। महाभारत में पुलस्त्य ऋषि का यह कथन स्मरणीय है :-
पुष्करे तु कुरुक्षेत्रे गंगायां मगधेषु च।
स्नात्वा तारयेत जन्तुःसप्तसप्तावरोसतय।।
अर्थात पुष्कर ,कुरुक्षेत्र ,गंगा और मगध देश के तीर्थों फल्गु नदी आदि में स्नान करने वाला मनुष्य अपनी पूर्व और आगे की सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है।
भारतवर्ष में प्रायः लोग जीवन के अन्तिम भाग में तीर्थयात्रा करने का संकल्प करते हैं किन्तु जीवन क्षणभंगुर होने के कारण जीवन के अंतिम भाग का निर्धारण करना उनके वश में नहीं है, अतःयह उपयुक्त होगा कि जीवन में जब कभी भी अवसर प्राप्त हो जाये तो तीर्थयात्रा तुरंत कर लेनी चाहिए। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि वृद्धावस्था में दुर्गम मार्गों पर तीर्थयात्रा करना कदाचित कठिन हो जाता है।
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