Wednesday, June 1, 2016

भुवनेश्वर

प्राचीनकाल में भुवनेश्वर को कोटिलिंग के नाम से जाना जाता था। कोटिलिंग का तात्पर्य सैकड़ों शिवलिंग से है। चूँकि यहां पर सैकड़ों शिवमंदिर बने हुए थे अतः इसे कोटिलिंग की संज्ञा दी गई थी। काशी की भांति यहां भी कोटिशिवलिंग स्थापित थे, सम्भवतः इसीलिए इसे शिव मंदिरों का नगर अथवा उत्कल  काशी के नाम से सम्बोधित किया गया था। भुवनेश्वर का लिंगराज  मन्दिर विश्व विख्यात है। भुवनेश्वर से थोड़ी दूर पर ही विश्व प्रसिद्ध कोर्णाक का सूर्य मन्दिर भी स्थित  है। भुवनेश्वर प्राचीनकाल में प्रसिद्ध बौद्ध धर्म- स्थल भी रहा है क्योंकि यहां पर लगभग १००० वर्षों तक बौद्ध धर्म फलता फूलता रहा है। जैन धर्म का भी यह प्रधान केंद्र रहा है क्योंकि प्रथम शताब्दी में यहां चेटी वंश के प्रसिद्ध राजा खारवेल हुए थे जो जैन धर्म के अनुयायी थे।  इस प्रकार भुवनेश्वर को एक बहुसांस्कृतिक नगर के रूप में भी जाना जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के उड़ीसा प्रान्त में भुवनेश्वर नगर स्थित है जो उड़ीसा की राजधानी भी है। यह नगर बहुत ही खूबसूरत एवं हराभरा दिखायी पड़ता है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अत्यधिक मनमोहक एव आकर्षक है। उदयगिरि एवं खंडगिरी की गुफाएं यहां से ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। यह नगर वायुमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से देश के प्रसिद्ध नगरों से जुड़ा हुआ है।नगर से ५ किलोमीटर की दूरी पर हवाईअड्डा स्थित है। यह रेल जंक्शन भी है जहां से कोलकता,दिल्ली और जगन्नाथ के लिए सुपरफास्ट गाड़ियां संचालित होती हैं।  यहां पर आश्चर्यजनक मंदिरों एवं गुफाओं के अतिरिक्त कई अन्य सांस्कृतिक स्थल भी स्थित हैं। भारत की राजधानी दिल्ली  से भुवनेश्वर की दूरी १७४१ किलोमीटर है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पुराणों में इस स्थल को एकाग्रक्षेत्र अथवा उत्कल काशी के नाम से उल्लेख किया गया है। प्राचीनकाल में यहां पर हजारों ऋषि एवं मुनि तपस्या किया करते थे और यही पर भगवान शिव एवं माता पार्वती जी भी निवास किया करते थे। मान्यता है कि आज भी भगवान शिव एवं पार्वती जी यहां विद्यमान हैं। अनुश्रुतियों के अनुसार भुवनेश्वर में किसी समय ७००० मन्दिर थे जिनका निर्माण ७०० वर्षों में हुआ था। सम्प्रति लगभग ६०० मन्दिर ही शेष बच्चे हुए हैं। भुवनेश्वर से १०० किलोमीटर की दूरी पर खुदाई करने पर तीन बौद्ध विहारों का पता चला है जो रत्नागिरि ,उदयगिरि एवं ललितगिरि के नाम से जाने जाते हैं। इससे स्पष्ट कि तेरहवीं शताब्दी तक यहां बौद्ध धर्म अपनी चरमस्थिति पर विकसित हो गया था। यहां पर जैन धर्म की कई कलाकृतियां खुदाई के दौरान प्राप्त हुईं हैं। यहां के प्रमुख हिन्दू मंदिरों में लिंगराज मन्दिर ,राजारानी मन्दिर ,परशुरामेश्वर मन्दिर ,मुक्तेश्वर मन्दिर ,अनन्तवासुदेव मन्दिर तथा धार्मिक स्थलों में उदयगिरि व खंडगिरी दर्शनीय हैं। ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप के कारण यहां स्थित कई धार्मिक स्थल अब नष्ट हो चुके हैं। यहां स्थित हिन्दू मंदिरों का निर्माण सातवीं शताब्दी में किया गया बताया जाता है। तीसरी शताब्दी ई० पू०  यहीं पर प्रसिद्ध कलिंग का युद्ध हुआ था और इसी युद्ध के परिणाम स्वरूप चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने यहीं पर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था।

 अन्य दर्शनीय स्थल :-

भुवनेश्वर का विश्व प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल लिंगराज मन्दिर ही माना जाता है। इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति ने ग्यारहवीं शताब्दी में करवाया था। १८५ फिट ऊंचा यह मंदिर कलिंग स्कूल आव आर्किटेक्चर का प्रतीक माना जाता है। यह मंदिर नागर शैली में निर्मित हुआ था। इसमें प्रवेश करते ही एक चतुर्भुजाकार चबूतरा मिलता है जो १६० फिट लम्बा एवं १४० फिट चौड़ा है। इस मंदिर का निर्माण अन्य मंदिरों से बिल्कुल अलग प्रतीत होता है। इस मंदिर में स्थापित भगवान शिव तथा माता पार्वती तथा अन्य देवी देवताओं की मूर्ति चारकोलिथ पत्थर से बनायी गई है जिनकी चमक आज भी यथावत है। इसमें खजुराहो की भाँति मूर्तियां उकेरी गईं हैं। पार्वती मन्दिर जो इस मंदिर परिसर के उत्तरी दिशा में है,अपनी सुन्दर नक्काशी के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। इसके चारों ओर कई छोटे छोटे मंदिर बने हुए हैं। वैताल मन्दिर इनमें से प्रमुख है जिसमें चामुण्डा देवी की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति देखने में अत्यधिक भयावह लगती है। लिंगराज मन्दिर के परिसर में ६४ अन्य छोटे छोटे मन्दिर निर्मित हैं। इस मन्दिर को भुवनेश्वर महादेव मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर स्थापित शिवलिंग की पूजा के पूर्व गंगाजल से इसे स्नान कराया जाता है। गंगाजल उपलब्ध न होने पर निकट ही स्थित बिन्दु सरोवर के जल से स्नान कराया जाता है।परशुरामेश्वर मंदिर यहां का प्राचीनतम मंदिर है। अनन्त वासुदेव यहां का एकमात्र विष्णु मन्दिर है। यहां के शेष  अन्य सभी मन्दिर भगवान शिव जी को ही समर्पित हैं। यहां के अन्य दर्शनीय स्थलों में ब्रह्मेश्वर मंदिर, भास्केश्वरमंदिर, मुक्तेश्वर मंदिर,केदारेश्वर मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर एवं परशुरामेश्वर मंदिर हैं। उपरोक्त सभी मंदिर अति प्राचीन हैं। यहीं पर बैताल मंदिर भी अवस्थित है जिसमें चामुंडा देवी एवं महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा की प्रतिमा स्थापित हैं। इस मंदिर में तंत्र मंत्र की साधना करके अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की जाती हैं। नगर से १५ किलोमीटर दूर एक प्राचीन गोलाकार मंदिर है जिसमें साठ योगिनियों की मूर्ति स्थापित है। भारत के चार योगिनियों के मंदिरों में से यह एक है।  
भुवनेश्वर स्थित राजारानी मंदिर की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। इसमें शिव एवं पार्वती जी की भव्य मूर्ति स्थापित है। इसके नामकरण के सन्दर्भ में बताया जाता है कि इसका निर्माण एक विशेष प्रकार के पत्थरों से हुआ है जिसे राजारानी पत्थर कहा जाता है। इसीलिए इस मंदिर को राजारानी मंदिर की संज्ञा दी जाती है। इसकी दीवारों पर सुन्दर कलाकृतियां देखने को मिलती हैं जो खजुराहो की कलाकृतियों की याद दिलाती हैं। यहां प्रवेश शुल्क ५ रूपये भारतीयों के लिए और १०० रुपये विदेशियों के लिए निर्धारित है। इस मंदिर के चारों कोनो पर चार छोटे छोटे मंदिर भी  बने हुए हैं। 
मुक्तेश्वर मंदिर समूह के मंदिर यहीं पर राजारानी मंदिर से १०० गज की दूरी पर बने हुए हैं। इस समूह में दो महत्वपूर्ण मंदिर परमेश्वर मंदिर तथा मुक्तेश्वर मंदिर अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों मंदिरों की स्थापना ६५० ई ० के आस पास मानी जाती हैं।  परमेश्वर मंदिर अधिक सुरक्षित है और इन दोनों के गर्भगृह में शिवलिंग की स्थापना हुई है।
मुक्तेश्वर मंदिर अपेक्षाकृत परमेश्वर मंदिर से छोटा है। इसकी स्थापना दसवीं शताब्दी में की गई मानी जाती है और इसके दायीं तरफ एक कुंआ स्थित है जिसे मरीची कुण्ड कहा जाता है। इन मंदिरों की दीवारों पर चित्रकारी बहुत ही कलात्मक ढंग से की गई है। पंचतन्त्र की कथा का सुन्दर चित्रण यहां देखने को मिलता है। 
भुवनेश्वर बाजार के निकट ही स्थित बिंदु सरोवर के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने का विशेष फल बताया जाता है। यहीं पर दर्शनार्थी स्नान करके अपने पितरों को पिंडदान व तर्पण आदि करते हैं।  ततपश्चात लिंगराज मंदिर का दर्शन करते हैं। कहा जाता है कि इस सरोवर में स्नान करने से समस्त तीर्थों के स्नान का फल मिल जाता है क्योंकि पूर्व में यहां पर तपस्यारत ऋषियों मुनियों ने सभी तीर्थों के जल अपने कमंडल में भरकर लाये थे और इसी सरोवर में डाल दिए थे। इसीलिए इसे समस्त तीर्थों के सम्मिलित फल का दाता माना जाता है।       

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