Friday, June 17, 2016

शक्तिपीठ एवं उनकी अवधारणा

पौराणिक मान्यता है कि प्रजापति दक्ष द्वारा कनखल में आयोजित अपने वृहस्पति नामक महायज्ञ में सभी देवताओं को आमन्त्रित किया गया था किन्तु उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर को नहीं आमंत्रित किया। माता सती को जब यह ज्ञात हुआ तब वे पितृमोह के कारण वहाँ बिना आमंत्रण के ही पहुँच गईं। वहां जाकर उन्होंने देखा कि यज्ञानुष्ठान में उनके पति शिवजी का कोई भाग नहीं लगाया गया था तथा उनके पिता द्वारा शिव जी के प्रति अपमानजनक भाषा का भी प्रयोग किया जा रहा है। इस कृत्य पर सती अत्यधिक क्रोधित हो गईं और वे उसी यञकुण्ड में कूद पड़ीं। यह देखकर क्रोध में आकर वहां उपस्थित शिव के गणों ने दक्ष की हत्या कर दी एवं काफी उत्पात भी मचाया। जब भगवान शंकर को यह ज्ञात हुआ तब वे वहां पहुंचकर सती के शव को अपने कंधे पर रखकर पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण करने लगे। सृष्टि विनाश के भय से भगवान विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के कई टुकड़े कर दिए ताकि शिव जी का क्रोध शांत किया जा सके। सती के आभूषण एवं शरीर के टुकड़े भूमण्डल पर जिन जिन स्थलों पर गिरे थे उन उन स्थलों पर महापीठ अथवा शक्तिपीठ की स्थापना हुई। ऐसे ही इक्यावन स्थलों के विवरण निम्नवत हैं :-
१- किरीट शक्तिपीठ :- पश्चिम बंगाल राज्य के वटनगर {लालबाग } में स्थित इस शक्तिपीठ में माता सती का किरीट गिरा था। इन्हें विमला देवी व भुवनेसगवरी भी कहा जाता है।
२-कात्यायनी शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ उत्तरप्रदेश राज्य के वृंदावन नगर में स्थित है। कहा जाता है कि यहां पर सती का केशपाश गिरा था। मथुरा से वृंदावन जाते समय वृंदावन से २ किलोमीटर पहले ही यह स्थल अवस्थित है।
३ -करवीर शक्तिपीठ :- कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी के मंदिर में यह पीठ अवस्थित है। इन्हें महिष मर्दिनी भी कहा जाता है। यह कोल्हापुर रेलवे स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। यहां सती के दोनों नेत्र गिरे थे।
४-श्रीपर्वत शक्तिपीठ :- यहां पर सती का दाहिना तलुवा गिरा था। श्रीपर्वत पर स्थापित इस सुन्दर शक्तिपीठ में सुन्दरानन्द भैरव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्हें सुंदरी शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यह शक्तिपीठ आसाम प्रान्त में जौनपुर नामक स्थान पर बताया जाता है।
५-विशालाक्षी शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ उत्तरप्रदेश के वाराणसी नगर में मीरघाट मोहल्ले में अवस्थित है। यहां पर सती के दाहिने कान की मणि गिरी थी। यह काशी विश्व्नाथ के प्रसिद्ध मंदिर के निकट स्थित है।
६-विश्वमातृका शक्तिपीठ :- यहां पर सती का वामगण्ड {गाल } गिरा था। इन्हें विशेश्वरी देवी भी कहा जाता है। यह गोदावरी नदी के तट पर आंध्रप्रदेश के राजमाहेंदरी रेलवे स्टेशन के निकट नदी के उस पार कुब्बूर नामक स्थान पर स्थित है।
७-नारायणी शक्तिपीठ :- कन्याकुमारी से त्रिवेन्द्रम मार्ग पर १२ किलोमीटर की दूरी पर यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां पर सती के ऊपरी दांत गिरे थे। इसे शुचीन्द्रम के नाम से भी जाना जाता है।
८- पञ्चसागर वाराही शक्तिपीठ :- यहां पर सती के निचले दांत गिरे थे। इसे पम्पसागर भी कहते हैं। इसके निश्चित स्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद है।
९-ज्वालामुखी शक्तिपीठ :- कहा जाता है कि यहां पर सती की जिह्वा गिरी थी। यहां देवी अम्बिका ज्वालामुखी के रूप में उन्मत्त भैरव के साथ विराजमान हैं। यह हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा मंदिर रेलवे स्टेशन के समीप स्थित हैं। स्टेशन से मात्र २ किलोमीटर की दूरी पर इनका मंदिर बना हुआ है।
१० -अवन्तिदेवी शक्तिपीठ :- इसे भैरवपर्वत शक्तिपीठ भी कहते हैं। यहां पर सती का ऊपरी ओंठ गिरा  था। मध्यप्रदेश के क्षिप्रा नदी के तट पर यह शक्तिपीठ अवस्थित है। कुछ लोग गुजरात के गिरनार पर्वत पर इन्हें अवस्थित मानते हैं।
११ -भैरवी शक्तिपीठ :- इन्हें हिंगलाज देवी भी कहा जाता है। यहां पर सती का ब्रह्मरन्ध्र गिरा  था। यह शक्तिपीठ पाकिस्तान में अवस्थित बताई जाती है।
१२-गुह्येश्वरी शक्तिपीठ :- यहां पर सती के दोनों घुटने गिरे थे। यह शक्तिपीठ नेपाल में बागमती नदी के तट पर स्थित बताई जाती है। पशुपतिनाथ के सन्निकट स्थित होने के कारण यात्रा का मार्ग तदनुसार चयन किया जा सकता है।
१३ -मुक्तेश्वरी गंडकी शक्तिपीठ :- यहां पर सती का दाहिना गाल गिरा  था। देवी गण्डकी चक्रपाणि भैरव के साथ यहां अवस्थित हैं। यह मध्य नेपाल में गंडक नदी के उदगम स्थल पर स्थित मुक्तिनाथ मंदिर में स्थापित हैं।
१४ -चट्टलपीठ भवानी शक्तिपीठ:- यहां स्थित पर्वत पर सती की दाहिनी भुजा गिरी थी। यह बंग्लादेश के चटगांव में अवस्थित हैं। चटगांव से रेल द्वारा सीताकुंड स्टेशन होकर यहां पहुंचा जा सकता है।
१५ -अपर्णा देवी शक्तिपीठ:- इसे करतोया शक्तिपीठ भी कहते हैं। यहां सती का बांया तलुवा गिरा था। देवी अपर्णा के रूप में वामन भैरव के साथ वे यहां विराजमान हैं। बंग्लादेश के बोगरा स्टेशन से ३६ किलोमीटर की दूरी पर भवानीपुर गांव में यह मंदिर स्थित है।
१६ -सुगंधा शक्तिपीठ :- इन्हें उग्रतारा शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यहां पर सती की नासिका गिरी थी। सुगन्धा नदी के तट पर शिकारपुर गांव {बंग्लादेश }में यह अवस्थित हैं।
१७ -यशोरेश्वरी शक्तिपीठ :- यहां पर सती की हथेली गिरी थी। यह शक्तिपीठ भी बंग्लादेश के ईश्वरपुर ग्राम जो यशोहार के निकट है ,अवस्थित हैं।
१८-लंका शक्तिपीठ :- यहां स्थित देवी को इद्राक्षी देवी के नाम से जाना जाता है। यहां पर देवी सती का नूपुर गिरा था। यह शक्तिपीठ श्रीलंका में अवस्थित है।
१९-मानस शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ चीन के द्वारा अधिकृत तिब्बत जहां मानसरोवर स्थित है ,के निकट अवस्थित  है। यहां पर सती की बांयीं हथेली गिरी थी।
२०- जयदुर्गा शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ कर्नाटक प्रदेश में अवस्थित है। यहां पर सती के दोनों हाथ गिरे बताये जाते हैं।
२१- अट्टहास शक्तिपीठ :- इस स्थान पर सती का अधरोष्ठ गिरा था। इन्हें फुलोरा देवी के नाम से भी जाना जाता है। यह शक्तिपीठ दिल्ली -कलकत्ता रेलमार्ग पर अहमदपुर नामक स्टेशन के निकट है और यहीं स्थित फुल्लोरा देवी के मंदिर में यह पीठ अवस्थित मानी जाती है।
२२ -भ्रामरी भद्रकाली :- इसे जनस्थान शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। यहां पर सती का चिबुक गिरा था। यहां स्थित भद्रकाली मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित मानी जाती है जो महाराष्ट्र में नासिक के  पंचवटी में स्थित है।
२३- महामाया देवी :- इसे कश्मीर शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। यहां पर सती का कण्ठभाग गिरा था। बाबा अमरनाथ के निकट दूसरा हिमानी शिवलिंग जिसे पार्वती पीठ कहते हैं ,में यह अवस्थित है।
२४- नन्दीपुरशक्तिपीठ :- यहां पर सती का कण्ठहार गिरा था। अतः यहां देवी नंदिनी के रूप में नंदिकेश्वर भैरव के साथ अवस्थित हैं। यह एक प्राचीन वटवृक्ष के नीचे स्थित है, जो दिल्ली हावड़ा रेलमार्ग पर सैथिना स्टेशन के पास नन्दीपुर ग्राम में है।
२५- श्रीशैलम शक्तिपीठ :-इन्हें महालक्ष्मी भ्रमराम्बा के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर सती की ग्रीवा गिरी थी। श्रीशैल के मल्लिकार्जुन पर्वत पर स्थित भ्रमराम्बा देवी के मंदिर में यह अवस्थित हैं। यह शक्तिपीठ हैदराबाद से २५० किलोमीटर दूर मरकापुर रोड रेलवे स्टेशन की निकट है।
26-काली शक्तिपीठ :- यहां पर सती के दाहिने पैर की चार उँगलियाँ गिरी थीं। यहां की अधिष्ठात्री देवी कालिका हैं। यह पश्चिम बंगाल में कलकत्ता रेलमार्ग पर अवस्थित हैं।
२७- विराट शक्तिपीठ :- इसे अम्बिका देवी के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान की राजधानी जयपुर से ६४ किलोमीटर उत्तर स्थित विराटनगर की प्राचीन गुफा में यह अवस्थित हैं। यहां पर सती के दाहिने पैर की उंगलियां गिरी थीं। यहां अलवर से बस द्वारा भी पहुंचा जा सकता है।
२८- युगाद्या शक्तिपीठ :- यह पश्चिम बंगाल के कटवाक्षीर  नामक  ग्राम में स्थित हैं। यहां पर सती के दाहिने पैर का अंगूठा गिरा था। कहते हैं कि क्षीर ग्राम की भूतधारी महामाया के साथ देवी युगाद्या की भद्रकाली स्वरूप एकाकार होकर यहां पर स्थित हैं।
२९- देवीकूप पीठ :- इन्हें कुरुक्षेत्र पीठ अथवा सावत्री पीठ भी कहते हैं। यहां पर सती का दाहिना चरण गिरा था। यह दिल्ली -अमृतसर रेलमार्ग पर कुरुक्षेत्र स्टेशन के निकट दिल्ली से मात्र ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
३०- विभाष शक्तिपीठ :- यहां पर सती का बायाँ टखना गिरा था। इस शक्तिपीठ में देवी कपालिनी के रूप में अवस्थित हैं। यह पश्चिम बंगाल के आसनसोल रेलवे स्टेशन के निकट तुमलुक नामक स्थान पर देवी विराजमान हैं।
३१- त्रिपुरसुंदरी शक्तिपीठ :- यह त्रिपुरा के उदयपुर नगर से २-३ किलोमीटर की दूरी पर राधाकिशोर ग्राम में अवस्थित हैंऔर यहां पर सती का दाहिना पैर गिरा था।
३२- त्रिस्तोता शक्तिपीठ :- इन्हें भ्रामरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर सती का बायां पैर गिरा था। पश्चिम बंगाल प्रान्त के सिलीगुड़ी के निकट यह शक्तिपीठ स्थित है।
मगध शक्तिपीठ :-इन्हें सर्वानन्दकरी पटनेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर सती की दाहिनी जांघ गिरी थी। यह पटना -हावड़ा -दिल्ली रेलमार्ग पर स्थित मुंगेर में अवस्थित हैं।
३३- जयन्ती शक्तिपीठ :- यह मेघालय राज्य के गारोखासी की पहाड़ियों पर स्थित हैं। यहां पर सती की बायीं जांघ गिरी थी। यह शक्तिपीठ शिलांग से ५३ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है।
३४- कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ :- असम प्रान्त के गुवाहाटी में स्थित नीलाञ्चल पर्वत पर अवस्थित कामाख्या देवी के मंदिर में यह विराजमान हैं। यहां पर सती का योनिमण्डल गिरा था। तंत्र मंत्र की साधना का यह प्रसिद्ध स्थल माना जाता है।
३५- शोणशक्तिपीठ :- इन्हें देवी नर्मदा के नाम से जाना जाता है। नर्मदा के पवित्र कुण्ड से मात्र ४ किलोमीटर दूरी पर सोन नदी के उद्गम स्थल पर स्थित शोणाक्षी देवी के मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित है। यहां पर सती का दाहिना नितम्ब गिरा था। यह छत्तीसगढ़  अमरकंटक के सन्निकट स्थित हैं। पेण्ड्रारोड रेलवे स्टेशन से ३५ किलोमीटर चलकर यहां पहुंचा जा सकता है।
३६- काँची शक्तिपीठ :- यहां पर स्थित देवी को देवगर्भा के नाम से जाना जाता है। इस स्थल पर सती का कंकाल गिरा था। इसे कामकोटि भी कहते हैं। कामाक्षी मंदिर में स्थित इस शक्तिपीठ को त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है। यह चेन्नई से ७५ किलोमीटर की  अवस्थित हैं।
३७- कालमाधव शक्तिपीठ :- यहां पर सती का बायाँ नितम्ब गिरा था। यहां स्थित देवी को काली देवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसका प्रमाणिक स्थल अज्ञात है।
३८- विरजा क्षेत्र शक्तिपीठ :- इन्हें विमला देवी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। यह जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित मंदिर में अवस्थित मानी जाती हैं। यहां पर सती की नाभि गिरी थी। यहां तक पहुँचने के लिए जगन्नाथ जाने वाला मार्ग का चयन किया जाना उपयुक्त होगा ।
३९-प्रयाग शक्तिपीठ :- यहां पर ललित देवी  से यह शक्तिपीठ जानी जाती है। यहां पर सती की हस्तांगुलि गिरी थी। इलाहाबाद किले में अवस्थित अक्षयवट के समीप कल्याणी ललिता  देवीमंदिर में यह अवस्थित मानी जाती हैं।
४०- उज्जयिनी शक्तिपीठ :- इन्हें देवी मंगल चण्डी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। उज्जैन स्थित हरिसिद्ध देवी के मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित बतायी जाती है। यहां पर सती की कोहनी गिरी थी इसीलिए उज्जैन स्थित इस मंदिर में देवी की कोहनी की पूजा की जाती है।
४१- मणिवेदिका शक्तिपीठ :- इसे गायत्री देवी शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है। यहां पर सती की दोनों कलाई गिरी थी। यह राजस्थान के पुष्कर में गायत्री की पहाड़ी पर अवस्थित मानी जाती हैं।
४२-बहुला शक्तिपीठ :- यहां पर सती का बायाँ बाहु गिरा था। यहां पर देवी चण्डिका भीरुक भैरव के साथ अवस्थित हैं। यह पश्चिम बंगाल की वीरभूमि में कटवा नामक स्टेशन के निकट स्थित है। इसे महाक्षेत्र भी कहा जाता है।
४३- कन्यकाश्रम शक्तिपीठ :- कन्याकुमारी स्थित भद्रकाली मंदिर में यह शक्तिपीठ अवस्थित बताई जाती है। यहां पर सती का पृष्ठ भाग गिरा था। कुछ लोग यहां पर उनके ऊपरी दाँत गिरने की भी  पुष्टि करते हैं।
४४- वक्त्रेश्वर शक्तिपीठ :- इन्हें महिष मर्दिनी भी कहा जाता है। यहां पर सती का मष्तिष्क गिरा था। यह पश्चिम बंगाल में सैंथिया स्टेशन से ११ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित बतायी जाती हैं।
४५- जयदुर्गा हृदयेश्वरी शक्तिपीठ :- यहां पर सती का ह्रदय गिरा था। अतः इसे प्रधान शक्तिपीठ की संज्ञा दी जाती है। यह पटना -कलकत्ता मार्ग पर गिरिडीह स्टेशन के निकट वैद्यनाथ धाम स्थित मंदिर में अवस्थित बताई जाती हैं।
४६- जालन्धर शक्तिपीठ :- इन्हें त्रिपुर मालिनी शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है। यहां पर सती का वाम स्तन गिरा था। यहां तक पहुँचने हेतु पठानकोट -बैजनाथ -पथरौल रेलमार्ग से नगरौरा -बंगवा स्टेशन पर उतरना पड़ता है।
४७- रामगिरी शक्तिपीठ :- यह शक्तिपीठ मध्यप्रदेश के मैहर के शारदा मंदिर में अवस्थित मानी जाती हैं। कुछ लोग इन्हें चित्रकूट में अवस्थित मानते हैं। यहां पर सती का दाहिना स्तन गिरा था। चूँकि रामगिरि पर्वत चित्रकूट में है इसीलिए यह मतभेद उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है।
४८- अम्बाजी शक्तिपीठ :- इसे प्रभाष शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यहां पर यह चन्द्रभागा देवी के नाम से जानी जाती हैं। यहां सती का उदर भाग गिरा था। यह गिरनार पर्वत पर स्थित अम्बाजी के मंदिर में अवस्थित बताई जाती हैं।
४९- रत्नावली शक्तिपीठ :- यहां पर सती का दाहिना स्कन्ध गिरा था। रत्नावली पर्वत पर चेन्नई के निकट यह शक्तिपीठ अवस्थित मानी जाती है। कुछ लोग इसे कन्याकुमारी में स्थित मानते हैं।
५०- मिथिला शक्तिपीठ :- इसे महादेवी उमा मिथिलेश्वरी भी कहा जाता है। यह बिहार राज्य के मिथिला में अवस्थित है तथा यहां पर सती का बायाँ स्कन्ध गिरा था। बिहार के उग्रतारा मंदिर एवं समस्तीपुर के जयमंगला देवी मंदिर में यह संयुक्त रूप में विराजमान बताई जाती है।
५१ -नलहरि शक्तिपीठ :- इस पीठ में स्थापित देवी को महाकाली के रूप में प्रतिष्ठित माना जाता है। यहां पर सती की आँत गिरी थी। यहां पर कोई भी मंदिर नहीं बना हुआ है बल्कि एक टीले पर आंत की आकृति में यह अवस्थित हैं। यह हावड़ा -क्यूल मेन लाइन पर नलहाठी रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर की दूरी पर तथा शांतिनिकेतन से २  किलोमीटर दूरी पर स्थित हैं।  
        

Wednesday, June 15, 2016

तीर्थस्थल का माहात्म्य

हिंदू धर्म एवं संस्कृति में तीर्थस्थल एवं उसके माहात्म्य के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। सामान्यतः तीर्थ शब्द संस्कृत भाषा के तृ  धातु में थक् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका अर्थ पापों से मुक्ति देने वाला अथवा सांसारिक बन्धन से मुक्ति देने वाला होता हैऔर संस्कृत की उक्ति "तारयितुम समर्थः इति तीर्थः "इसे पूर्णतयः चरितार्थ करती है। भारतवर्ष में तीर्थ की अवधारणा प्रायः किसी पवित्र नदी के किनारे ,वृहत सरोवर अथवा कुण्ड के निकट स्थित स्थल से की गई है ताकि उसके पवित्र जल में स्नान करके आत्मशुद्धि की प्रारम्भिक क्रिया सम्पन्न की जा सके। वैसे तो पुराणों में गुरुतीर्थ एवं मातापिता तीर्थ का वर्णन भी मिलता है।  अतः स्कन्दपुराण में तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार हैं :-
स्थावर तीर्थ --इसके अन्तर्गत भूलोक में अवस्थित सभी तीर्थ यथा गंगोत्री ,यमुनोत्री ,गंगा ,यमुना सरस्वती आदि नदियां तथा हिमालयएवं कैलाश पर्वत और वृन्दावन,नैमिषारण्य आदि वनक्षेत्र के साथ गुरुकुल आश्रम आदि  सम्मिलित किये जाते हैं।
जंगम तीर्थ --इसके अन्तर्गत ब्राह्मण,साधु,सन्यासी,ऋषि,मुनि,महात्मा आदि गतिशील तीर्थ सम्मिलित माने जाते हैं।
मानस तीर्थ --सत्य,क्षमा, दया, इंद्रिय निग्रह, दान, धर्म तप, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य आदि को मानस तीर्थ कहा जाता है।ऐसी मान्यता है कि इन सभी तीर्थों में मानस तीर्थ श्रेष्ठ हैं।
तीर्थों का विस्तृत महत्व वैदिक वाङ्ग्मय से लेकर पुराणों एवं अन्य धर्मशास्त्रों में विस्तारपूर्वक बताया गया है। उक्त सभी में इसे संकटमोचक ,पापमुक्ति ,पुण्य सँचय ,देवकृपा की प्राप्ति एवं मोक्ष प्रदाता के रूप में वर्णन किया गया है। तीर्थस्थलों से मनुष्य में चारित्रिक विकास एवं आत्मतुष्टि की प्राप्ति होती है। पूर्ण समर्पित भाव से ईश्वर के धाम अथवा मंदिर में उनकी विधिवत पूजा, अर्चना व दर्शन करने का पुण्य प्राप्त कर व्यक्ति में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचरण और नकारात्मक ऊर्जा का विसर्जन होता है। आत्मशुद्धि ही तीर्थयात्रा का प्राथमिक उद्देश्य माना जाता है। इसीलिए कहा गया कि "तरति संसार महार्णवम येन तत् तीर्थमिति "अर्थात तीर्थ ही मनुष्य के पापों को उन्मोचित करके भवसागर पार कराने में समर्थ है।तीर्थ यात्रा से सामाजिक सामञ्जस्य भी स्थापित होता है। तीर्थस्थलों पर आयोजित होने वाले स्नान पर्व ,मेले व अन्य धार्मिक संस्कारों से सामाजिक समरसता सुदृढ़ होती है। शैव ,शाक्त ,बौद्ध ,जैन ,इस्लाम ,ईसाई सिख सभी धर्मों के अनुयायी इन स्थलों पर आकर आपस के मतभेद को दूर कर लेते हैं तथा भाईचारे का सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
भारत में धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न करने हेतु भी कुछ धर्मस्थलों को चिह्नित करके उन्हें विशेष मान्यता प्रदान की गई है जैसे अस्थिविसर्जन ,पिण्डदान व तर्पण ,मुण्डन ,विवाह संस्कार आदि। इसी के दृष्टिगत तीर्थों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। प्रथम नित्य तीर्थ जिसमें काशी,कैलाश ,मानसरोवर ,प्रयाग ,आदि सम्मिलित हैं और जिन्हें प्राचीनकाल से विशेष मान्यता प्राप्त है ऐसी गंगा ,यमुना ,नर्मदा गोदावरी ,कावेरी सरस्वती आदि नदियां भी इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं। दूसरे भगवदीय तीर्थ के अंतर्गत ऐसे स्थान चिह्नित किये गए हैं जहाँ भगवान ने स्वयं अवतार लिया था अथवा किसी भक्त को दर्शन दिए थे जैसे अयोध्या ,मथुरा ,रामेश्वरम आदि। तीसरे श्रेणी में सन्त तीर्थ आते हैं जिनके अंतर्गत सन्त की जन्मभूमि ,साधनास्थली एवं निर्वाणस्थली को सम्मिलित किया गया है। भारत के ऐसे पावन स्थल जहाँ सिद्धपीठ ,पवित्र नदियाँ ,जलसरोवर ,पर्वत ,मन्दिर ,कूप ,वटवृक्ष ,ऋषि मुनि के आश्रम व सन्त महात्मा के निवास स्थल पाए जाते हैं ,को भी तीर्थवत माना जाता है। पद्मपुराण में इसी के समर्थन में कहा गया है :-
         तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यः नरः संसारभीरुचिः।
          पुण्योदकेषु  सततं  साधु  श्रेणी  विराजेषु।।
तीर्थ शब्द के प्रथम अक्षर "ती" का तात्पर्य तीन उद्देश्यों की सम्पूर्ति के सन्दर्भ में भी प्रयुक्त होता है। प्रथम सात्विक व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति हेतु तीर्थयात्रा करते हैं, द्वितीय राजसी व्यक्ति जो सकाम भाव से अपने मनोरथ की पूर्ति हेतु यात्रा करते है और तृतीय तामसी व्यक्ति जो अपने मनोविकार ,शारीरिक कष्ट व धनसंग्रह के उद्देश्य की सिद्धि के लिए तीर्थयात्रा करते हैं।  तीर्थतीर्थ यात्रा का उद्देश्य मुख्यतः अन्तःकरण की शुद्धि एवं  ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करना है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि जो मनुष्य इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रख पाते हैं तथा वे जो काम, क्रोध,अहंकार ,विषयासक्ति, लोभ, आदि की पूर्ति  में ही संलग्न रहते हैं, उन्हें तीर्थस्थल में जाकर स्नान व ईश्वर के दर्शन का फल नहीं मिल पाता है बल्कि वे केवल पर्यटक बनकर ही वहां से वापस लौट आते हैं।
हिन्दू धर्म में तीर्थस्थलों का विभाजन उनकी महत्ता को दृष्टिगत करते हुए निम्नवत किया गया है ;-

चारधाम --धाम का तात्पर्य आवास स्थल होता है। ईश्वर के चार महत्वपूर्ण आवास स्थलों को ही चारधाम के रूप में वर्णित किया जाता है। ये चार धाम वही स्थल हैं जहाँ पर भगवान विष्णु ने अवतार स्वरूप किंचित समय तक निवास किया था। इसके अन्तर्गत भारत के पूर्वी भाग में स्थित जगन्नाथपुरी ,पश्चिम में द्वारिका धाम ,उत्तर में बदरीनाथ धाम एवं दक्षिण में रामेश्वरम धाम आते हैं। उत्तराखण्ड में बदरीनाथ ,केदारनाथ ,गंगोत्री एवं यमुनोत्री को भी हिमालय परिक्षेत्र को भी चारधाम की संज्ञा दी जाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि चारधाम यात्रा से समस्त तीर्थों के सम्मिलित पुण्य की प्राप्ति हो जाती है। चारधाम की स्थापना आदि शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों पर चार पवित्र मठ बनवाकर की थी। 

सप्तपुरियाँ --शास्त्रों में अयोध्या ,मथुरा ,काशी ,हरिद्वार ,अवन्तिका ,काँचीपुरम ,व द्वारिका की गणना सप्तपुरियों में की गई है तथा इन सभी के अधिपति के रूप में प्रयाग को तीर्थराज की संज्ञा दी गई है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग --सम्पूर्ण भारत में भगवान शिव के बारह पवित्र ज्योतिर्लिंग विभिन्न प्रान्तों में अवस्थित हैं। इनमें सोमनाथ ,मल्लिकार्जुन ,महाकालेश्वर ,वैद्यनाथ ,ओंकारेश्वर ,,भीमशंकर ,नागेश्वर ,त्र्यंबकेश्वर ,केदारनाथ ,घुश्मेश्वर एवं काशी विश्वनाथ जी सम्मिलित हैं।
पञ्च  सरोवर --पञ्च सरोवर के अन्तर्गत मानसरोवर ,पुष्कर सरोवर ,बिन्दुसरोवर ,नारायण सरोवर एवं चम्पासरोवर आते हैं जहां स्नान करने से मुक्ति मिल जाती है,ऐसी मान्यता है ।
सप्तसरितायें --वेद, उपनिषद, पुराण एवं धर्मशास्त्रों में अनेकों पवित्र नदियों का उल्लेख मिलता है जिनमें सप्तसरिताओं का विशेष महत्व बताया गया है। इनमें गंगा,यमुना ,सरस्वती ,नर्मदा ,सिन्धु ,गोदावरी और कावेरी नदियां सम्मिलित की गईं हैं। इन सातों नदियों के तटों पर अनेकों तीर्थस्थल स्थापित हुए हैं।
शक्तिपीठ --पुराणों में वर्णित है कि सती के शरीर के विभिन्न टुकड़े जिन जिन स्थानों पर गिरे थे उन उन स्थानों पर शक्तिपीठ की स्थापना की गई थी। भारत में ऐसे इक्यावन स्थान हैं जिन्हें शक्तिपीठ के रूप में चिह्नित किया गया है और वहां पर स्थापित देवी की प्रतिमा की विधिवत पूजा एवं अर्चना की जाती है। इसके अतिरिक्त देवी के जाग्रत १२ प्रधान विग्रह का भी उल्लेख मिलता है। ऐसे विग्रह स्थलों में कामाक्षी देवी ,भ्रमराम्बां ,कन्याकुमारी ,अम्बा ,महालक्ष्मी ,कालिका,ललिता ,विंध्यवासिनी ,विशालाक्षी ,मंगलागौरी ,सुन्दरी एवं गुह्यकेश्वरी {नेपाल }प्रमुख हैं।
तीर्थयात्रा हेतु श्रद्धा ,विश्वास एवं ईश्वर के दर्शन की उत्कट अभिलाषा का होना अनिवार्य है। यात्रा के पूर्व श्री गणेश ,साधु ,ब्राह्मण व गाय की विधिवत पूजा करना आवश्यक माना जाता है। लोभ,द्वेष,माया,मोह,अहंकार, क्रोध,एवं कामभावना का परित्याग करके की गई तीर्थयात्रा  अधिक फलदायी मानी जाती है। कहा जाता है कि सतयुग में ध्यान द्वारा ,त्रेतायुग में यज्ञानुष्ठान द्वारा ,द्वापरयुग में भगवान की पूजा करके जो फल मनुष्य प्राप्त करता है वह फल कलियुग में केवल हरिकीर्तन द्वारा ही  मिल जाता है। कलियुग में भगवान कृष्ण के कीर्तन व दर्शन से पूर्व की सात पीढ़ियां और आगे आने वाली चौदह पीढ़ियों का उद्धार हो जाने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसी भाव को इस प्रकार कहा है:-
                          कलियुग समजुग आन नहिं जो नर कर  विस्वास।
                          गाई  राम गुन गन विमल भव तरु विनहिं  प्रयास।।
कलियुग में मनुष्य अनेकानेक कष्टों एवं समस्यायों से ग्रसित रहता है, अतः वह भारत के समस्त तीर्थों के दर्शन कर अपनी समस्यायों के समाधान हेतु ईश्वरीय कृपा प्राप्त करना चाहता है। तीर्थयात्रा हेतु सभी धर्मों, जातियों एवं वर्गों के लिए यह अवसर उपलब्ध होता है। महाभारत में पुलस्त्य ऋषि का यह कथन स्मरणीय है :-
                                 पुष्करे  तु  कुरुक्षेत्रे   गंगायां  मगधेषु  च। 
                                  स्नात्वा तारयेत जन्तुःसप्तसप्तावरोसतय।।
अर्थात पुष्कर ,कुरुक्षेत्र ,गंगा और मगध देश के तीर्थों फल्गु नदी आदि में स्नान करने वाला मनुष्य अपनी पूर्व और आगे की सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। 
भारतवर्ष में प्रायः लोग जीवन के अन्तिम भाग में तीर्थयात्रा करने का संकल्प करते हैं किन्तु जीवन क्षणभंगुर होने के कारण जीवन के अंतिम भाग का निर्धारण करना उनके वश में नहीं है, अतःयह उपयुक्त होगा कि जीवन में जब कभी भी अवसर प्राप्त हो जाये तो तीर्थयात्रा तुरंत कर लेनी चाहिए। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि वृद्धावस्था में दुर्गम मार्गों पर  तीर्थयात्रा करना कदाचित कठिन हो जाता है।                

Tuesday, June 7, 2016

आत्मनिवेदन

भारत एक धर्म प्रधान देश है। अतः प्राचीनकाल में उत्तरी भारत में स्थित हिमालय के सम्पूर्ण परिक्षेत्र को ऋषियों एवं मुनियों की तपस्थली होने के कारण इसे देवभूमि की संज्ञा भी दी जाती थी। वैसे तो भारतवर्ष में प्रत्येक दो चार किलोमीटर पर कोई न कोई देवालय ,मंदिर ,गुरुद्वारा व चर्च देखने को मिल जाता है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं जिसकी पवित्रता को आत्मसात करते हुए हम उन्हें तीर्थस्थल की संज्ञा देते हैं। धर्म पूर्णतयः आस्था का ही विषय है और आस्था को तर्कों से नियमित नहीं किया जा सकता है। वह स्वतःस्फूर्त होती है।यद्यपि धार्मिक आस्था का सुपरिणाम हमें अपने जीवनकाल में ही देखने को मिल जाता है। धार्मिक व्यक्ति यह मानता है कि ईश्वर की असीम चेतना उसकी चेतना से जुडी हुई है इसीलिए उसमें अतिरिक्त सकारात्मक ऊर्जा और आशावाद का संचरण भी होता है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त एकनाथ जी का मत है कि हमे एक तीर्थयात्री की तरह जीवन बिताना चाहिए जो प्रातःकाल यात्रा के लिए चलता है और शाम को पुनः अपने घर वापस आ जाता है। तीर्थस्थलों का दर्शन करने से मन और मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है तथा एक विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति भी होती है। जिस प्रकार शरीर का प्रत्येक अंग ऊर्जा सम्पन्न होते हुए भी समान अनुभूति नहीं कर पाता, केवल मन व ह्रदय ही आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति कर पाता है ,उसी प्रकार भारत के कण कण में भगवान होते हुए भी कुछ ही स्थल ऐसे हैं जहां ईश्वर की साक्षात् अनुभूति हो पाती है। भारतवर्ष में कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां भगवान ने लीलाएं की थी अथवा निवास किया था ,अतः ऐसे स्थानों  पर जाने से विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इस ब्लॉग/पुस्तक में ऐसे ही तीर्थस्थलों का वर्णन किया गया है जहां जाने से मन को अपूर्व शांति व आनन्द  की प्राप्ति होती है। 
आत्मानुभूति के चरम उद्देश्य मोक्ष जिसे स्थायी शांति भी कहा जाता है, की प्राप्ति के क्रम में ही भारत के चारों कोनो पर चार धामों की स्थापना की गई थी। इनमें से तीन धामों की यात्रा अपेक्षाकृत सरल व सुगम है किन्तु बद्रीनाथ की यात्रा में सीधी चढ़ाई चढ़ने के कारण अपेक्षाकृत किञ्चित कठिनाई अवश्य महशूस की जाती है किन्तु उनके प्रति अटूट विश्वास,आस्था एवं समर्पण के कारण यह यात्रा भी आसान लगने लगती है। 
सम्पूर्ण विश्व में भारत ही ऐसा देश है जो समस्त धर्मों के अनुयायियों का एकल गन्तव्य है। धर्मानुयायी जिस सभ्यता ,विरासत ,अध्यात्म ,दर्शन व प्राकृतिक दृश्यों की मिश्रित अनुभूति को आत्मसात करना चाहते हैं ,वह भारतवर्ष में सहज ही उपलब्ध है। यही कारण है कि भारतवर्ष में पर्यटकों का सबसे बड़ा वर्ग धार्मिक पर्यटकों का है। प्रत्येक धर्म जैसे हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,जैन ,बौद्ध आदि के अपने अपने तीर्थस्थल हैं और उन तीर्थस्थलों का पर्यटन के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। पर्यटन के क्षेत्र में आध्यात्मिक पर्यटन एक नवीन     अवधारणा है। आध्यात्मिक पर्यटन स्थल का तात्पर्य अपनी आन्तरिक चेतना के विकास के उद्देश्य को प्राप्त करना है तथा धार्मिक पर्यटन का तात्पर्य अपने धर्म के उन प्रतीक स्थलों जहां पूर्व में देवी देवता अथवा सिद्ध पुरुष व संतगण कभी निवास किया करते थे, ऐसे ही धर्मस्थलों का दर्शन कर उनकी अलौकिक शक्तियों को आत्मसात करना माना जाता है। चूँकि आध्यात्मिकता प्राकृतिक एवं सार्वभौम तत्व है और इस तत्व को आत्मसात करने हेतु किसी धर्म से जुड़ा होना अनिवार्य भी नहीं है। अतः ऐसे पर्यटन स्थलों को भी आध्यात्मिक स्थलों की मान्यता दी जा सकती है जो पूर्व में आध्यात्मिक महापुरुषों की कर्मस्थली रही हो। पांडिचेरी का अरविन्द आश्रम ,हरिद्वार का शांतिकुंज आश्रम ,अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का दरगाह एवं शिरडी के साईंबाबा आदि ऐसे ही धर्मस्थल हैं जहाँ लोग किसी धर्म से प्रेरित हो करके नहीं जाते हैं बल्कि इन स्थानों की आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित होकर यहां स्थित धर्मस्थलों की यात्रा किया  करते हैं। 
भारतवर्ष को ३३ करोड़ देवी देवताओं का निवास स्थल माना जाता है। अतः स्वाभाविक है कि ऐसे देश में धार्मिक स्थलों की संख्या भी अनगिनत ही होगी। यही कारण है कि ऐसे धर्मस्थल  अपनी महत्ता एवं अलौकिक शक्ति के कारण ही कालान्तर में तीर्थस्थल का रूप ले लेते हैं। ऐसे स्थलों पर श्रद्धालुगण अपने समस्त कष्टों को दूर करने एवं सुख समृद्धि प्राप्त करने की मनोकामना के साथ एकत्र होते हैं और ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा को फलीभूत करके पुण्य की प्राप्ति करते हैं और ऐसे ही कतिपय धर्मस्थलों को  तीर्थस्थल की श्रेणी में रखा गया है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित चारों धामों, द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं इक्यावन शक्तिपीठों के दृष्टिगत अति महत्वपूर्ण धार्मिक तीर्थस्थलों का चयन करके उन्हें इस पुस्तक में समाविष्ट किया गया है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त मुस्लिमधर्म, र्सिखधर्म,जैनधर्म एवं बौद्धधर्म से सम्बन्धित कतिपय महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। ऐसे तिरपन  तीर्थस्थलों के सम्बन्ध में उनका सामान्य परिचय ,भौगोलिक स्थिति ,पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य तथा निकटवर्ती अन्य धार्मिक स्थलों की सम्यक जानकारी सुधी पाठकों के संज्ञान में लायी जा रही है ताकि ऐसे तीर्थस्थलों की यात्रा के पूर्व इन वर्णित तथ्यों को संज्ञान में लेते हुए यदि श्रद्धालुगण वहां पर जाते हैं तो उन्हें उस तीर्थस्थल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी पहले से ही रहेगी और पूर्व जानकारी का लाभ उन्हें उस परिक्षेत्र के अन्य दर्शनीय स्थलों के निरीक्षण में सहायक होगा। 
इस पुस्तक में तीर्थस्थलों के सम्बन्ध में प्रामाणिक तथ्यों हेतु तद्सम्बन्धित पुस्तकों एवं इंटरनेट पर उपलब्ध तथ्यों से पुष्टि करने के पश्चात ही उनके बारे में आवश्यक तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं। यदि कोई तथ्य असंगत प्रतीत होता हो तो इसके लिए सुधी पाठकों के सुझाव आमन्त्रित करते हुए त्रुटि के लिए क्षमा चाहता हूँ। तीर्थस्थलों के सम्बन्ध में आवश्यक तथ्यों के संकलन में श्री बृजेश कुमार मिश्र ,डॉ राजमणि चतुर्वेदी  श्री रामकुमार,श्री रमेश चन्द्र त्रिपाठी,का पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ है जिसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।महांत जन्मेजय शरण जी महराज,महांत देवेन्द्रप्रसादाचार्य जी महराज,स्वामी आत्मानन्द सरस्वती जी महराज जिनकी प्रेरणा से यह पुस्तक तैयार हो पायी ,के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।  तीर्थस्थलों की सम्यक जानकारी हेतु चित्रों एवं मानचित्रों का भी इस पुस्तक में समावेश किया गया है। आशा है कि श्रद्धालु पाठकगण इससे अधिक लाभान्वित होंगे। 

Wednesday, June 1, 2016

भुवनेश्वर

प्राचीनकाल में भुवनेश्वर को कोटिलिंग के नाम से जाना जाता था। कोटिलिंग का तात्पर्य सैकड़ों शिवलिंग से है। चूँकि यहां पर सैकड़ों शिवमंदिर बने हुए थे अतः इसे कोटिलिंग की संज्ञा दी गई थी। काशी की भांति यहां भी कोटिशिवलिंग स्थापित थे, सम्भवतः इसीलिए इसे शिव मंदिरों का नगर अथवा उत्कल  काशी के नाम से सम्बोधित किया गया था। भुवनेश्वर का लिंगराज  मन्दिर विश्व विख्यात है। भुवनेश्वर से थोड़ी दूर पर ही विश्व प्रसिद्ध कोर्णाक का सूर्य मन्दिर भी स्थित  है। भुवनेश्वर प्राचीनकाल में प्रसिद्ध बौद्ध धर्म- स्थल भी रहा है क्योंकि यहां पर लगभग १००० वर्षों तक बौद्ध धर्म फलता फूलता रहा है। जैन धर्म का भी यह प्रधान केंद्र रहा है क्योंकि प्रथम शताब्दी में यहां चेटी वंश के प्रसिद्ध राजा खारवेल हुए थे जो जैन धर्म के अनुयायी थे।  इस प्रकार भुवनेश्वर को एक बहुसांस्कृतिक नगर के रूप में भी जाना जाता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

भारतवर्ष के उड़ीसा प्रान्त में भुवनेश्वर नगर स्थित है जो उड़ीसा की राजधानी भी है। यह नगर बहुत ही खूबसूरत एवं हराभरा दिखायी पड़ता है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अत्यधिक मनमोहक एव आकर्षक है। उदयगिरि एवं खंडगिरी की गुफाएं यहां से ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। यह नगर वायुमार्ग ,रेलमार्ग एवं सड़कमार्ग से देश के प्रसिद्ध नगरों से जुड़ा हुआ है।नगर से ५ किलोमीटर की दूरी पर हवाईअड्डा स्थित है। यह रेल जंक्शन भी है जहां से कोलकता,दिल्ली और जगन्नाथ के लिए सुपरफास्ट गाड़ियां संचालित होती हैं।  यहां पर आश्चर्यजनक मंदिरों एवं गुफाओं के अतिरिक्त कई अन्य सांस्कृतिक स्थल भी स्थित हैं। भारत की राजधानी दिल्ली  से भुवनेश्वर की दूरी १७४१ किलोमीटर है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

पुराणों में इस स्थल को एकाग्रक्षेत्र अथवा उत्कल काशी के नाम से उल्लेख किया गया है। प्राचीनकाल में यहां पर हजारों ऋषि एवं मुनि तपस्या किया करते थे और यही पर भगवान शिव एवं माता पार्वती जी भी निवास किया करते थे। मान्यता है कि आज भी भगवान शिव एवं पार्वती जी यहां विद्यमान हैं। अनुश्रुतियों के अनुसार भुवनेश्वर में किसी समय ७००० मन्दिर थे जिनका निर्माण ७०० वर्षों में हुआ था। सम्प्रति लगभग ६०० मन्दिर ही शेष बच्चे हुए हैं। भुवनेश्वर से १०० किलोमीटर की दूरी पर खुदाई करने पर तीन बौद्ध विहारों का पता चला है जो रत्नागिरि ,उदयगिरि एवं ललितगिरि के नाम से जाने जाते हैं। इससे स्पष्ट कि तेरहवीं शताब्दी तक यहां बौद्ध धर्म अपनी चरमस्थिति पर विकसित हो गया था। यहां पर जैन धर्म की कई कलाकृतियां खुदाई के दौरान प्राप्त हुईं हैं। यहां के प्रमुख हिन्दू मंदिरों में लिंगराज मन्दिर ,राजारानी मन्दिर ,परशुरामेश्वर मन्दिर ,मुक्तेश्वर मन्दिर ,अनन्तवासुदेव मन्दिर तथा धार्मिक स्थलों में उदयगिरि व खंडगिरी दर्शनीय हैं। ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप के कारण यहां स्थित कई धार्मिक स्थल अब नष्ट हो चुके हैं। यहां स्थित हिन्दू मंदिरों का निर्माण सातवीं शताब्दी में किया गया बताया जाता है। तीसरी शताब्दी ई० पू०  यहीं पर प्रसिद्ध कलिंग का युद्ध हुआ था और इसी युद्ध के परिणाम स्वरूप चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने यहीं पर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था।

 अन्य दर्शनीय स्थल :-

भुवनेश्वर का विश्व प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल लिंगराज मन्दिर ही माना जाता है। इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति ने ग्यारहवीं शताब्दी में करवाया था। १८५ फिट ऊंचा यह मंदिर कलिंग स्कूल आव आर्किटेक्चर का प्रतीक माना जाता है। यह मंदिर नागर शैली में निर्मित हुआ था। इसमें प्रवेश करते ही एक चतुर्भुजाकार चबूतरा मिलता है जो १६० फिट लम्बा एवं १४० फिट चौड़ा है। इस मंदिर का निर्माण अन्य मंदिरों से बिल्कुल अलग प्रतीत होता है। इस मंदिर में स्थापित भगवान शिव तथा माता पार्वती तथा अन्य देवी देवताओं की मूर्ति चारकोलिथ पत्थर से बनायी गई है जिनकी चमक आज भी यथावत है। इसमें खजुराहो की भाँति मूर्तियां उकेरी गईं हैं। पार्वती मन्दिर जो इस मंदिर परिसर के उत्तरी दिशा में है,अपनी सुन्दर नक्काशी के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। इसके चारों ओर कई छोटे छोटे मंदिर बने हुए हैं। वैताल मन्दिर इनमें से प्रमुख है जिसमें चामुण्डा देवी की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति देखने में अत्यधिक भयावह लगती है। लिंगराज मन्दिर के परिसर में ६४ अन्य छोटे छोटे मन्दिर निर्मित हैं। इस मन्दिर को भुवनेश्वर महादेव मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर स्थापित शिवलिंग की पूजा के पूर्व गंगाजल से इसे स्नान कराया जाता है। गंगाजल उपलब्ध न होने पर निकट ही स्थित बिन्दु सरोवर के जल से स्नान कराया जाता है।परशुरामेश्वर मंदिर यहां का प्राचीनतम मंदिर है। अनन्त वासुदेव यहां का एकमात्र विष्णु मन्दिर है। यहां के शेष  अन्य सभी मन्दिर भगवान शिव जी को ही समर्पित हैं। यहां के अन्य दर्शनीय स्थलों में ब्रह्मेश्वर मंदिर, भास्केश्वरमंदिर, मुक्तेश्वर मंदिर,केदारेश्वर मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर एवं परशुरामेश्वर मंदिर हैं। उपरोक्त सभी मंदिर अति प्राचीन हैं। यहीं पर बैताल मंदिर भी अवस्थित है जिसमें चामुंडा देवी एवं महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा की प्रतिमा स्थापित हैं। इस मंदिर में तंत्र मंत्र की साधना करके अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की जाती हैं। नगर से १५ किलोमीटर दूर एक प्राचीन गोलाकार मंदिर है जिसमें साठ योगिनियों की मूर्ति स्थापित है। भारत के चार योगिनियों के मंदिरों में से यह एक है।  
भुवनेश्वर स्थित राजारानी मंदिर की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। इसमें शिव एवं पार्वती जी की भव्य मूर्ति स्थापित है। इसके नामकरण के सन्दर्भ में बताया जाता है कि इसका निर्माण एक विशेष प्रकार के पत्थरों से हुआ है जिसे राजारानी पत्थर कहा जाता है। इसीलिए इस मंदिर को राजारानी मंदिर की संज्ञा दी जाती है। इसकी दीवारों पर सुन्दर कलाकृतियां देखने को मिलती हैं जो खजुराहो की कलाकृतियों की याद दिलाती हैं। यहां प्रवेश शुल्क ५ रूपये भारतीयों के लिए और १०० रुपये विदेशियों के लिए निर्धारित है। इस मंदिर के चारों कोनो पर चार छोटे छोटे मंदिर भी  बने हुए हैं। 
मुक्तेश्वर मंदिर समूह के मंदिर यहीं पर राजारानी मंदिर से १०० गज की दूरी पर बने हुए हैं। इस समूह में दो महत्वपूर्ण मंदिर परमेश्वर मंदिर तथा मुक्तेश्वर मंदिर अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों मंदिरों की स्थापना ६५० ई ० के आस पास मानी जाती हैं।  परमेश्वर मंदिर अधिक सुरक्षित है और इन दोनों के गर्भगृह में शिवलिंग की स्थापना हुई है।
मुक्तेश्वर मंदिर अपेक्षाकृत परमेश्वर मंदिर से छोटा है। इसकी स्थापना दसवीं शताब्दी में की गई मानी जाती है और इसके दायीं तरफ एक कुंआ स्थित है जिसे मरीची कुण्ड कहा जाता है। इन मंदिरों की दीवारों पर चित्रकारी बहुत ही कलात्मक ढंग से की गई है। पंचतन्त्र की कथा का सुन्दर चित्रण यहां देखने को मिलता है। 
भुवनेश्वर बाजार के निकट ही स्थित बिंदु सरोवर के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने का विशेष फल बताया जाता है। यहीं पर दर्शनार्थी स्नान करके अपने पितरों को पिंडदान व तर्पण आदि करते हैं।  ततपश्चात लिंगराज मंदिर का दर्शन करते हैं। कहा जाता है कि इस सरोवर में स्नान करने से समस्त तीर्थों के स्नान का फल मिल जाता है क्योंकि पूर्व में यहां पर तपस्यारत ऋषियों मुनियों ने सभी तीर्थों के जल अपने कमंडल में भरकर लाये थे और इसी सरोवर में डाल दिए थे। इसीलिए इसे समस्त तीर्थों के सम्मिलित फल का दाता माना जाता है।