डॉ जटाशंकर त्रिपाठी "जिज्ञासु "का जन्म ६ अप्रैल १९५८ ई० को उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रतापगढ़ जिलान्तर्गत कुंडा तहसील स्थित ग्राम गोपालापुर में हुआ था। अपने पिता स्व० शिवशंकर त्रिपाठी एवं माता स्व० रामदुलारी ने अपनी अनेकों मनौतियों के फलस्वरूप आठवीं सन्तान के रूप में इनको जन्म दिया था। अतः इनका लालन-पालन एवं प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई। जूनियर हाईस्कूल की परीक्षा बहोरिकपुर विद्यालय से तथा हाईस्कूल एवं इंटर की परीक्षा लखपेड़ा कोटा भवानीगंज से उत्तीर्ण की।स्नातक की पढ़ाई हेतु प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और यहीं से स्नातक,स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करके डी०फिल०की उपाधि दर्शनशास्त्र में प्राप्त की।इनका विवाह श्रीमती शांति देवी से हुआ एवम दो पुत्र सञ्जीव एवं राजीव तथा दो पुत्रियां पूर्णिमा एवं ज्योत्स्ना को जन्म दिया किन्तु वर्ष २०१५ में राजीव, जो पूर्वांचल ग्रामीण बैंक में सहायक मैनेजर थे, की आकस्मिक मृत्यु से इन्हें गहरा आघात लगा।विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही अपनी साहित्यिक अभिरुचि को साकार करते हुए कविताएं,कहानी एवम लेख आदि लिखना आरम्भ कर दिया था तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके प्रकाशन के साथ ही आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद से रेडियो कार्यक्रमों के प्रसारण में भी सहभागिता करने लगे।वर्ष १९८९ ई ० में लोकसेवा आयोग से सहायक समीक्षा अधिकारी के पद पर उत्तरप्रदेश सचिवालय में चयनित हुए और सम्प्रति डिप्टी सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत हैं।इनका शोध प्रबन्ध "भारतीय समकालीन दर्शन में प्रो० रानडे के योगदान "को एकेडमी ऑफ कम्परेटिव फिलासफी एन्ड रिलिजन ,बेलगांव ,कर्नाटक द्वारा वर्ष १९८२ ई में प्रकाशित किया गया। इनका काव्य संग्रह"श्रृंखला"वर्ष १९८९ एवं "जीवेम शरदः शतम {योगासन,प्रणायाम एवं ध्यान}"वर्ष २०१४ ई में प्रकाशित हुआ। राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान उत्तरप्रदेश द्वारा इन्हें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं साहित्य गौरव का पुरस्कार एवं सम्मानपत्र प्रदान किया गया। रसिकपीठ जानकीघाट बड़ा स्थान, श्रीअयोध्या के संस्थापक अनंत श्रीविभूषित स्वामी करुणासिन्धु जी महराज,जो इनके पूर्वज थे,के ३४१वीं जन्मतिथि पर उनकी जन्मभूमि गोपालापुर में माह अप्रैल २०१५ को सम्पन्न हुए नवकुंडीय श्रीराम महायज्ञ के अवसर पर उनकी पुण्यस्मृति में एक स्मारिका का प्रकाशन करके अपनी धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभिरुचि को मूर्तरूप देते हुए तदुपरान्त"भारत के प्रमुख तीर्थस्थल" एवं "हमारे पूज्य सन्त " नामक दो पुस्तकों की रचना की।